|
चित्तौड़गढ़
अजमेर से खंडवा जाने
वाली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच
स्थित चित्तौरगढ़ जंक्शन से करीब २
मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग
पहाड़ी पर भारत का गौरव,
राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़
का किला बना हुआ है। समुद्र तल से
१३३८ फीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फीट
ऊँची एक विशाल ह्मवेल आकार में,
पहाड़ी पर निर्मित्त इसका दुर्ग
लगभग ३ मील लंबा और आधे मील
तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब
८ मील का है तथा यह कुल ६०९ एकड़
भूमि पर बसा है।
चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि
है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख
शौर्य, देशभक्ति एवं बलिदान का
अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ
के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने
देश तथा धर्म की रक्षा के लिए
असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया।
वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई
अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के
लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर
की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित
किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी
योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि
पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा
स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का
कण-कण हममें देशप्रेम की लहर
पैदा करता है। यहाँ की हर एक
इमारतें हमें एकता का संकेत देती
हैं।
चित्तौड़गढ़ किले
की ऐतिहासिकता
चित्तौड़ के किले के
निर्माण :-
काल के बारे में निश्चत
तौर पर कुछ कहना थोड़ा मुश्किल
है। एक किंवदन्मत के अनुसार
पाण्डवों के दूसरे भाई भीम ने
इसे करीब ५००० वर्ष पूर्व बनवाया
था। इस संबंध में प्रचलित कहानी
यह है कि एक बार भीम जब संपत्ति
की खोज में निकला तो उसे रास्ते
में एक योगी निर्भयनाथ व एक यति
कुकड़ेश्वर से भेंट होती है। भीम
ने योगी से पारस
पत्थर मांगा, जिसे योगी इस शर्त
पर देने को राजी हुआ कि वह इस
पहाड़ी स्थान पर रातों-रात एक
दुर्ग का निर्माण करवा दे। भीम ने
अपने शौर्य और देवरुप भाइयों
की सहायता से यह कार्य
करीब-करीब समाप्त कर ही दिया
था, सिर्फ दक्षिणी हिस्से का
थोड़ा-सा कार्य शेष था। योगी के
ऋदय में कपट ने स्थान ले लिया
और उसने यति से मुर्गे की आवाज
में बांग देने को कहा, जिससे
भीम सवेरा समझकर निर्माण
कार्य बंद कर दे और उसे पारस
पत्थर नहीं देना पड़े। मुर्गे की बांग
सुनते ही भीम को क्रोध आया और
उसने क्रोध से अपनी एक लात जमीन
पर दे मारी, जिससे वहाँ एक बड़ा
सा गड्ढ़ा बन गया, जिसे लोग
भी-लत तालाब के नाम से जानते
है। वह स्थान जहाँ भीम के घुटने
ने विश्राम किया, भीम-घोड़ी
कहलाता है। जिस तालाब पर यति
ने मुर्गे की बाँग की थी, वह
कुकड़ेश्वर कहलाता है।
इतिहासकारों के अनुसार
इस किले का निर्माण
मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद ने
सातवीं शताब्दी में करवाया था
और इसे अपने नाम पर चित्रकूट के
रुप में बसाया। मेवाड़ के प्राचीन
सिक्कों पर एक तरफ चित्रकूट नाम
अंकित मिलता है। बाद में यह
चित्तौड़ कहा जाने लगा। सन् ७३८ में
गुहिलवंशी राजा बाप्पा रावल
ने राजपूताने पर राज्य करने
वाले मौर्यवंश के अंतिम शासक
मानमोरी को हराकर यह किला
अपने अधिकार में कर लिया। फिर
मालवा के परमार राजा मुंज ने
इसे गुहिलवंशियों से छीनकर
अपने राज्य में मिला लिया। इस
प्रकार ९ वीं -१० वीं शताब्दी में इस
पर परमारों का आधिपत्य रहा।
सन् ११३३ में गुजरात के सोलंकी
राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने
यशोवर्मन को हराकर
परमारों से मालवा छीन लिया,
जिसके कारण चित्तौड़गढ़ का दुर्ग
भी सोलंकियों के अधिकार में आ
गया। तदनंतर जयसिंह के
उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे
अजयपाल को परास्त कर मेवाड़ के
राजा सामंत सिंह ने सन् ११७४ के
आसपास पुनः गुहिलवंशियों का
आधिपत्य स्थापित कर दिया। सन् १२१३
से १२५२ तक नागदा के पतन के बाद
यहाँ जेत्रसिंह ने इसे राजधानी
बनाकर शासन चलाया। सन् १३०३ में
यहाँ के रावल रतनसिंह की
अल्लाउद्दीन खिलजी से लड़ाई हुई।
लड़ाई चितौड़ का प्रथम शाका के
नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लड़ाई में
अलाउद्दीन खिलजी की विजय हुई
और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ को
यह राज्य सौंप दिया। खिज्र खाँ ने
वापसी पर चित्तौड़ का राजकाज
कान्हादेव के भाई मालदेव को
सौंप दिया।
बाप्पा रावल के वंशल
हमीर ने पुनः मालदेव से यह
किला हस्तगत किया। हमीर बड़ा
पराक्रमी और दूरदर्शी था। उसने
यहाँ ५० वर्षों तक बड़ी योग्यता से
शासन करते हुए अपने राज्य का
विस्तार किया। उसी के प्रयत्नों से
चित्तौड़ का गौरव पुनः स्थापित हो
सका।
सन् १५३८ में चित्तौड़ पर
गुजरात के बहादुरशाह ने
आक्रमण कर दिया। इस युद्ध को
मेवाड़ का दूसरा शाका के रुप में
जाना जाता है। सन् १५६७ में मेवाड़
का तीसरा शाका हुआ, जिसमें
अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी
थी। ये सब मुस्लिम आक्रमण
चित्तौड़गढ़ की सांस्कृतिक विनाश
का मुख्य कारणों में से एक है।
तीसरे शाके के बाद ही सन् १५५९ में
महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की
राजधानी चित्तौड़ से हटाकर
अरावली के मध्य पिछोला झील के
पास स्थापित कर
दी, जो आज उदयपुर के नाम से
जाना जाता है।
रणनीति के
दृष्टिकोण से चित्तौड़गढ़ का
राजधानी के रुप में महत्व
चित्तौड़गढ़ का किला
राजपूताने में हमेशा एक विशेष
महत्व रखता है। इसे मेवाड़ के
गुहिलवंशियों की पहली
राजधानी के रुप में सम्मान प्राप्त
है, जिसे उन्होंने मौर्यवंश के
अंतिम शासक मानमोनी को
हराकर अपने अधिकार में कर लिया
था। यह दुर्ग अरावली की पहाड़ी
पर उत्तर से दक्षिण की ओर लंबाई
में बना है, जिसमें बीच में
समतल भूमि आ जाने के कारण एक
कुंड, तालाब, मंदिर, महल आदि
सभी एक निश्चित निर्माण-योजना के
तहत समय-समय पर बनते रहे
हैं। कुछ जलाशय तो ऐसे हैं जो
निरन्तर जलापूर्ति के साधन के रुप
में काम आते रहे हैं। इस गढ़ के
सम्बन्ध में प्रचलित एक कहावत है
जो इस दुर्ग के महत्व को बताता
है।
गढ़ तो
चित्तौड़गढ़ और सब गढ़ैया
वास्तव में इस दुर्ग का
निर्माण अभी भी हमें विस्मय व
रोमांच से भर देता है। लेकिन
रणनीतिक दृष्टिकोण से देखने पर
पता चलता है कि अपने भौगोलिक
कारणों से यह दुर्ग युद्ध के लिए
रणथंभौर और कुभलगढ़ जैसे
दुर्गों की तरह उपयुक्त नहीं था।
नि:संदेह किला सुदृढ़ था। पहाड़ी
के किनारे-किनारे उदग्र खड़े
चट्टानों की पंक्ति थी जिसके ऊपर
एक ऊँचा और सुदृढ़ प्रकार बना
हुआ था। साथ ही साथ दुर्ग में
प्रवेश करने के लिए लगातार सात
दरवाजे कुछ अन्तराल पर बनाए गये
थे। इन सब कारणों से किले में
प्रवेश कर पाना तो शत्रुओं के लिए
बहुत ही मुश्किल था। परन्तु यह
विस्तृत मैदान के बीच एक लम्बी
पहाड़ी पर बना है जो अन्य पर्वत
श्रेणियों से पृथक हो गया है।
अतएव शत्रुओं द्वारा उसका घेरा
डालकर किले में इस्तेमाल होने
वाला रसद पहुँचाना सुगमता से
रोक दिया जाता था। इस दुर्ग का
जब-जब घेरा डाला गया तब-तब गढ़
में भोजन-सामग्री विद्यमान रहने
तक ही गढ़ सुरक्षित रहा।
भोजनादि सामग्री खत्म होते ही
राजपूतों को विवश होकर युद्ध
के लिए किले का द्वार खोल देना
पड़ता था। लेकिन प्रायः शत्रुओं की
बड़ी सेना होने की स्थिति में उन्हें
हार का सामना करना पड़ता था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि
चित्तौड़गढ़ का राजधानी के रुप में
चयन रणनीति की दृष्टि से उचित नहीं
था और यही कारण था कि
महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर
को अपनी राजधानी बनाई, जो
चारों तरफ पर्वतों से घिरे
होने के कारण ज्यादा सुरक्षित था।
वर्तमान में चित्तौड़गढ़
जंक्शन से किले के ऊपर तक पक्की
सड़क बनी हुई है। करीब सवा
मील जाने पर गम्भीरी नदी आती
है, जिसपर अलाउद्दीन खिलजी के
शाहजादे खिज्र खाँ का सन् १३०३ (वि.
सं. १३६०) में बनवाया हुआ पत्थर का
एक सुदृढ़ पुल है। कुछ लोगों का
मानना है कि यह पुल राणा लक्ष्मण
सिंह के पुत्र अरिसिंह ने, जो
अलाउद्दीन के साथ लड़ाई में मारा
गया था, ने बनवाया था, लेकिन
ज्यादातर विद्वान इससे सहमत
नहीं हैं, क्योंकि इस पुल के
निर्माण में कई हिन्दु और जैन
मंदिरों को गिराकर उसके
पत्थरों का इस्तेमाल किया गया
है। साथ ही इसकी निर्माण शैली
भी मुसलमान (सारसेनिक) है।
नदी के जल प्रवाह के लिए दस
मेहरावें बनी हैं, जिसमें नौ के
ऊपर के सिरे नुकीले हैं। नदी के
पश्चिमी तट से छठे का अग्रभाग
अर्धवृत्ताकार है।
पुल से थोड़ी दूर जाने
पर कोट से घिरा हुआ चित्तौड़ का
कस्बा आता है जिसको तलहटी
(तलहट्टिका) कहते हैं। कस्बे में
जिले की कचहरी है, जिस के पास
से किले की चढ़ाई प्रारम्भ हो
जाती है। दुर्ग के अंतिम प्रवेश तक
कुल सात दरवाजे बनाये गये हैं।
इसमें प्रवेश के रास्ते से लेकर
अन्दर के परिसर तक कई एक
इमारतें हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख
इस प्रकार है-
पाडन पोल
यह दुर्ग का प्रथम प्रवेश
द्वार है। कहा जाता है कि एक बार
भीषण युद्ध में खून की नदी बह
निकलने से एक पाड़ा
(भैंसा) बहता-बहता यहाँ तक आ
गया था। इसी कारण इस द्वार को
पाडन पोल कहा जाता है।
रावत बाघसिंह
का स्मारक
दुर्ग के प्रथम द्वार पाडन
पोल के बाहर के चबूतरे पर ही
रावत बाघसिंह का स्मारक बना
हुआ है। महाराणा विक्रमादित्य के
राज्यकाल में, सन् १५३५ (वि. सं. १५९१)
में यहाँ की अव्यवस्था से प्रेरित
हो गुजरात के सुल्तान
बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर
आक्रमण कर दिया। उस समय बालक
होने के कारण हाड़ी रानी
कर्मवती ने विक्रमादित्य व
उदयसिंह को बूंदी भेजकर
मेवाड़ के सरदारों को किले की
रक्षा का कार्यभार सौंप दिया।
प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह ने
मेवाड़ का राज्य चिन्ह धारण कर
महाराणा विक्रमादित्य का
प्रतिनिधित्व किया तथा लड़ता हुआ
इसी दरवाजे के पास वीरगति को
प्राप्त हुआ। उसी वीर की स्मृति में
यह स्मारक बनाया गया है।
भैरव पोल
(भैरों पोल)
पाडन पोल से थोड़ा उत्तर
की तरफ चलने पर दूसरा
दरवाजा आता है, जिसे भैरव
पोल के रुप में जाना जाता है।
इसका नाम देसूरी के सोलंकी
भैरोंदास के नाम पर रखा गया
है, जो सन् १५३४ में गुजरात के
सुल्तान बहादुर शाह से युद्ध में
मारे गये थे। मूल द्वार टूट जाने
के कारण महाराणा फतहसिंह जी
ने इसका पुनर्निर्माण कराया था।
जयमल व कल्ला
की छतरियाँ
भैरव पोल के पास ही
दाहिनी ओर दो छतरियाँ बनी
हुई है। प्रथम चार स्तम्भों वाली
छत्री प्रसिद्ध राठौड़ जैमल (जयमल)
के कुटुंबी कल्ला की है तथा
दूसरी, छः स्तम्भों वाली छत्री स्वयं
जैमल की है, जिसके पास ही
दोनों राठौड़ मारे गये थे। सन्
१५६७ (वि. सं. १६२४) में जब बादशाह
अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई की,
उस समय सीसोदिया पता तथा
मेड़तिया राठौर जैमल, दोनों
महाराणा, उदयसिंह की अनुपस्थिति
में दूर्ग के रक्षक नियुक्त हुए थे।
इसी तीसरे शाके की लड़ाई के
दिनों में एक रात्रि जब जैमल एक
टूटी दीवार की मरम्मत करा रहे
थे, उस समय अकबर की गोली से
उनकी एक टांग बेकार हो गयी।
लंगड़े जैमल को कल्ला ने अपने
कंधों पर बिठाकर दूसरे दिन के
युद्ध में उतारा था। उन दोनों ने
मिलकर शत्रु सेना पर कहर ढा
दिया। अन्त में दोनों भिन्न-भिन्न
स्थानों पर वीरगति को प्राप्त हो
गये। ये छतरियाँ उन्हीं की
गौरवगाथाओं की याद दिलाती हैं।
हनुमान पोल
दुर्ग के तृतीय प्रवेश द्वार
को हनुमान पोल कहा जाता है।
क्योंकि पास ही हनुमान जी का
मंदिर है। हनुमान जी की प्रतिमा
चमत्कारिक एवं दर्शनीय हैं।
गणेश पोल
हनुमान पोल से कुछ आगे
बढ़कर दक्षिण की ओर मुड़ने पर
गणेश पोल आता है, जो दुर्ग का
चौथा द्वार है। इसके पास ही
गणपति जी का मंदिर है।
जोड़ला पोल
यह दुर्ग का पाँचवां द्वार
है और छठे द्वार के बिल्कुल पास
होने के कारण इसे जोड़ला पोल
कहा जाता है।
लक्ष्मण पोल
दुर्ग के इस छठे द्वार के
पास ही एक छोटा सा लक्ष्मण जी का
मंदिर है जिसके कारण इसका
नाम लक्ष्मण पोल है।
राम पोल
लक्ष्मण पोल से आगे बढ़ने
पर एक पश्चिमाभिमुख प्रवेश द्वार
मिलता है, जिससे होकर किले
के अन्दर प्रवेश कर सकते
हैं। यह दरवाजा किला का सातवां
तथा अन्तिम प्रवेश द्वार है। इस
दरवाजे के बाद चढ़ाई समाप्त
हो जाती है। इसके निकट ही
महाराणाओं के पूर्वज माने जाने
वाले सूर्यवंशी भगवान श्री
रामचन्द्र जी का मंदिर है। यह
मंदिर भारतीय स्थापत्य कला एवं
हिन्दू संस्कृति का उत्कृष्ट प्रतीक है।
दरवाजे से प्रवेश करने के बाद
उत्तर वाले मार्ग की ओर बस्ती है
तथा दक्षिण की ओर जाने वाले मार्ग
से किले के कई दर्शनीय स्थल
दिखते हैं।
पत्ता का स्मारक
रामपोल में प्रवेश करते
ही सामने की तरफ लगभग ५० कदम
की दूरी पर स्थित चबूतरे पर
सीसोदिया पत्ता के स्मारक का
पत्थर है। आमेर के रावतों के
पूर्वज पत्ता सन् १५६८ में अकबर की
सेना से लड़ते हुए इसी स्थान पर
वीरगति को प्राप्त हुए थे। कहा जाता
है कि युद्ध भूमि में एक पागल हाथी
ने युद्धरत पत्ता को सूंड में
पकड़कर जमीन पर पटक दिया
जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।
कुकड़ेश्वर का
कुण्ड तथा कुकड़ेश्वर का मंदिर
रामपोल से प्रवेश करने
के बाद सड़क उत्तर की ओर मुड़ती
है। उससे थोड़ी ही दूर पर
दाहिनी ओर कुकड़ेश्वर का कुंड
है, जिसके ऊपर के भाग में
कुकड़ेश्वर का मंदिर है।
किंवदन्तियों के अनुसार ये दोनों
रचनाएं महाभारत कालीन है तथा
पाण्डव पुत्र भीम से जुड़ी हैं।
हिंगलू आहाड़ा
के महल तथा रत्नेश्वर तालाब
कुकड़ेश्वर मंदिर से आगे
बढ़ने पर दाहिनी तरफ सड़क से
कुछ दूर हिंगलू आहाड़ा के महल
हैं। आहाड़ में रहने के कारण
मेवाड़ के राजाओं का उपनाम
आहाड़ा हुआ। डूंगरपुर तथा
बांसवाड़े के राजा भी आहाड़ा
कहलाते रहे। हिंगलू, डूंगरपुर
का आहाड़ा सरदार था और इन
महलों में रहता था, जिससे ये
महल हिंगलू आहाड़ा के महल
कहलाये। बूंदीवालों का हाड़ा के
रुप में नाम प्रसिद्ध हो जाने से
लोग इन महलों को हिंगलू
हाड़ा के महल कहने लगे।
इन महलों में महाराणा
रत्नसिंह रहते थे। इसके पास
बना तालाब महाराणा ने खुद
बनवाया था, जो रत्नेश्वर का कुंड
(रत्नेश्वर तालाब) के नाम से जानी
जाती है। तालाब के पश्चिमी
किनारे पर रत्नेश्वर महादेव का
एक प्राचीन मंदिर है।
लाखोटा की
बारी
रत्नेश्वर कुंड से थोड़ी
दूर पर पहाड़ी के पूर्वी किनारे
के समीप लाखोटा की बारी है।
यह एक छोटा सा दरवाजा है,
जिससे दुर्ग के नीचे जा सकते हैं।
कहा जाता है कि इसी द्वार के पास
अकबर की गोली से जयमल लंगड़ा
हो गया था।
जैन कीर्ति स्तम्भ
लाखोटा की बारी से राज
टीले तक सड़क सीधी दक्षिण में मुड़
जाती है, उसी स्थान पर बायीं ओर ७५
फीट ऊँचा, सात मंजिलों वाला एक
स्तम्भ बना है, जिसका निर्माण
चौदहवीं शताब्दी में दिगम्बर जैन
सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन सा
नांय के पुत्र जीजा ने करवाया था।
यह स्तम्भ नीचे से ३० फुट तथा
ऊपरी हिस्से पर १५ फुट चौड़ा है
तथा ऊपर की
ओर जाने के लिए तंग नाल बनी
हुई हैं।
जैन कीर्ति स्तम्भ वास्तव में
आदिनाथ का स्मारक है, जिसके
चारों पार्श्व पर आदिनाथ की ५ फुट
ऊँची दिगम्बर (नग्न) जैन मूर्ति खड़ी
है तथा बाकी के भाग पर
छोटी-छोटी जैन मूर्तियाँ खुदी
हुई हैं। इस स्तम्भ के ऊपर की
छत्री बिजली गिरने से टूट गई थी
तथा इससे इमारत को बड़ी हानि
पहुँची थी। महाराणा फतह सिंह
जी ने इस स्तम्भ की मरम्मत
करवाई।
महावीर
स्वामी का मंदिर
जैन कीर्ति स्तम्भ के निकट ही
महावीर स्वामी का मन्दिर है।
इस मंदिर का जीर्णोद्धार
महाराणा कुम्भा के राज्यकाल में
ओसवाल महाजन गुणराज ने
करवाया थ। हाल ही में जीर्ण-शीर्ण
अवस्था प्राप्त इस मंदिर का
जीर्णोद्धार पुरातत्व विभाग ने
किया है। इस मंदिर में कोई
प्रतिमा नहीं है।
नीलकंठ महादेव
का मंदिर
महावीर स्वामी के
मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर
नीकण्ठ महादेव का मंदिर आता है।
कहा जाता है कि महादेव की इस
विशाल मूर्ति को पाण्डव भीम अपने
बाजूओं में बांधे रखते थे।
सूरजपोल तथा
चूड़ावत साँई दास का स्मारक
नीलकंठ महादेव के
मंदिर के बाद किले के पूरब की
तरफ एक दरवाजा है, जो सूरज
पोल के नाम से जाना जाता है।
यहाँ से दुर्ग के नीचे मैदान में
जाने के लिए एक रास्ता बना हुआ है।
इस दरवाजे के पास ही एक
चबूतरा बना है, जो संलूबर के
चंडावत सरदार रावत साईदास
जी का स्मारक है। वे सन् १५६८ में
अकबर की सेना के विरुद्ध लड़ते हुए
वीरगति को प्राप्त हुए थे।
अद्बद्जी का
मंदिर
रावत साँईदास के
स्मारक से दक्षिण की तरफ जाने पर
दाहिनी ओर अद्बद् (अद्भुतजी) का
मंदिर है, जिसे महाराणा
रायमल ने सन् १३९४ में बनवाया
था। जीर्ण-शीर्ण अवस्था प्राप्त इस
मंदिर की स्थापत्य कला दर्शनीय
है। मंदिर में शिवलिंग है तथा
उसके पीछे दीवार पर महादेव की
विशाल त्रिमूर्ति है, जो देखने में
समीधेश्वर मंदिर की प्रतिमा से
मिलती है। अद्भुत प्रतिमा के
कारण ही इस मंदिर को अद्बद्
जी का मंदिर कहा जाता है।
राजटीला तथा
चत्रंग तालाब
अद्बद्जी के मंदिर से
थोड़ी ही दूरी पर राजटीला
नामक एक ऊँचा स्थान है। कहा जाता
है कि यहीं पहले मौर्यवंशी
शासक मान के महल थे। कुछ
लोगों का मानना है कि प्राचीन
काल में राजाओं का राज्याभिषेक
इसी स्थान पर हुआ करता था। इस
स्थान के पास से सड़क पश्चिम की
ओर मुड़ जाती है। सड़क के पश्चिमी
सिरे के पास चित्रांगद मौर्य का
निर्माण कराया हुआ तालाब है,
जिसको चत्रंग कहते हैं। यहाँ
से अनुमानतः पौने मील दक्षिण में
चित्तौड़ की पहाड़ी समाप्त हो जाती
है और उसके नीचे कुछ ही दूरी
पर चित्तोड़ी नाम की एक छोटी
पहाड़ी है।
चित्तौड़ी बूर्ज
व मोहर मगरी
दुर्ग का अंतिम दक्षिणी बूर्ज
चित्तौड़ी बूर्ज कहलाता है और
इस बूर्ज के १५० फीट नीचे एक
छोटी-सी पहाड़ी (मिट्टी का टीला)
दिखाई पड़ती है। यह टीला कृत्रिम
है और कहा जाता है कि सन् १५६७
ई. में अकबर ने जब चित्तौड़ पर
आक्रमण किया था, तब अधिक उपयुक्त
मोर्चा इसी स्थान को माना और
उस मगरी पर मिट्टी डलवा कर
उसे ऊँचा उठवाया, ताकि किले पर
आक्रमण कर सके। प्रत्येक मजदूर को
प्रत्येक मिट्टी की टोकरी हेतु
एक-एक मोहर दी गई थी। अतः इसे
मोहर मगरी कहा जाता है।
बीका खोह
चत्रंग तालाब के समीप ही
बीका खोह नामक बूर्ज है। सन् १५३७
ई. में गुजरात के सुल्तान
बहादुरशाह के आक्रमण के समय
लबरी खाँ फिरंगी ने सुरंग
बनाकर किले की ४५ हाथ लम्बी
दीवार विस्फोट से उड़ा दी थी तथा
दुर्ग रक्षा के लिए नियुक्त बूंदी के
अर्जुन हाड़ा अपने ५०० वीर सैनिकों
सहित वीरगति को प्राप्त हुए।
भाक्सी
चत्रंग तालाब से थोड़ी
दूर उत्तर की तरफ आगे बढ़ने पर
दाहिनी ओर चहारदीवारी से
घिरा हुआ एक थोड़ा सा स्थान है,
जिसे बादशाह की भाक्सी कहा जाता
है। कहा जाता है कि इस इमारत
में, जिसे महाराणा कुम्भा ने सन्
१४३३ में बनवाया था, मालवा के
सुल्तान महमूद को गिरफ्तार कर
रखा था।
घोड़े दौड़ाने
के चौगान
भाक्सी से आगे कुछ अंतर
पर पश्चिम की तरफ बूंदी,
रामपुरा तथा सलूंबर की
हवेलियों के खण्डहर दीख पड़ते
हैं। इसी के पूर्व में पुराना
चौगान है, जहाँ पहले सेना की
कवायद हुआ करती थी। इसी को
लोग घोड़े दौड़ाने का चौगान
कहते है।
पद्मिनी का
महल
चौगान के निकट ही एक झील
के किनारे रावल रत्नसिंह की
रानी पद्मिनी के महल बने हुए
हैं। एक छोटा महल पानी के बीच में
बना है, जो जनाना महल कहलाता
है व किनारे के महल मरदाने
महल कहलाते हैं। मरदाना महल
मे एक कमरे में एक विशाल दपंण
इस तरह से लगा है कि यहाँ से
झील के मध्य बने जनाना महल की
सीढियों पर खड़े किसी भी व्यक्ति
का स्पष्ट प्रतिबिंब दपंण में नजर
आता है, परंतु पीछे मुड़कर
देखने पर सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को
नहीं देखा जा सकता। संभवतः
अलाउद्दीन खिलजी ने यहीं खड़े
होकर रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब
देखा था।
खातन रानी का
महल
पद्मिनी महल के तालाब
के दक्षिणी किनारे पर एक पुराने
महल के खण्डहर हैं, जो खातन
रानी के महल कहलाते हैं।
महाराणा क्षेत्र सिंह ने अपनी
रुपवती उपपत्नी खातन रानी के लिए
यह महल बनवाया था। इसी रानी
से चाचा तथा
मेरा नाम के दो पुत्र थे, जिसने
सन् १४३३ में महाराणा मोकल की
हत्या कर दी थी।
गोरा -बादल की
घुमरें
पद्मिनी महल से
दक्षिण-पूर्व में दो गुम्बदाकार
इमारतें हैं, जिसे लोग गोरा
और बादल के महल के रुप में
जानते हैं। गोरा महारानी
पद्मिनी का चाचा था तथा बादल
चचेरा भाई था। रावल रत्नसिंह
को अलाउद्दीन के खेमे से निकालने
के बाद युद्ध में पाडन पोल के पास
गोरा वीरगति को प्राप्त हो गये
और बादल युद्ध में १२ वर्ष की
अल्पायु में ही मारा गया था। देखने
में ये इमारत इतने पुराने नहीं
मालूम पड़ते। इनकी निर्माण शैली
भी कुछ अलग है।
राव रणमल की
हवेली
गोरा बादल की गुम्बजों
से कुछ ही आगे सड़क के पश्चिम की
ओर एक विशाल हवेली के खण्डहर
न आते हैं। इसको राव रणमल
की हवेली कहते हैं। राव रणमल
की बहन हंसाबाई से महाराणा
लाखा का विवाह हुआ। महाराणा
मोकल हँसा बाई से लाखा के
पुत्र थे।
कालिका माता
का मंदिर
पद्मिनी के महलों के
उत्तर में बांई ओर कालिका माता
का सुन्दर, ऊँची कुर्सीवाला
विशाल महल है। इस मंदिर का
निर्माण संभवतः ९ वीं शताब्दी में
मेवाड़ के गुहिलवंशीय राजाओं
ने करवाया था।
मूल रुप से यह मंदिर एक
सूर्य मंदिर था। निजमंदिर के
द्वार तथा गर्भगृह के बाहरी पार्श्व
के ताखों में स्थापित सूर्य की
मूर्तियाँ इसका प्रमाण है। बाद में
मुसलमानों के समय आक्रमण के
दौरान यह मूर्ति तोड़ दी गई
और बरसों तक यह मंदिर सूना
रहा। उसके बाद इसमें कालिका की
मूर्ति स्थापित की गई। मंदिर के
स्तम्भों, छतों तथा अन्तःद्वार पर
खुदाई का काम दर्शनीय है।
महाराणा सज्जनसिंह ने इस
मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था।
चूंकि इस मंदिर
में मूर्ति प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ल
अष्टमी को हुई थी, अतः प्रति वर्ष
यहाँ एक विशाल मेला लगता है।
सूर्यकुण्ड
(सूरज कुण्ड)
कालिका माता के मंदिर के
उत्तर-पूर्व में एक विशाल कुण्ड बना
है, जिसे सूरजकुण्ड कहा जाता है।
इस कुण्ड के बारे में मान्यता यह
है कि महाराणा को सूर्य भगवान
का आशीर्वाद प्राप्त था तथा कुण्ड से
प्रतिदिन प्रातः सफेद घोड़े पर
सवार एक सशस्र योद्धा निकलता था,
जो महाराणा को युद्ध में
सहायता देता था।
पत्ता तथा
जैमल की हवेलियाँ
गौमुख कुण्ड तथा कालिका
माता के मंदिर के मध्य जैमल पत्ता
के महल हैं, जो अभी भगनावशेष
के रुप में अवस्थित हैं। राठौड़
जैमल (जयमल) और सिसोदिया
पत्ता चित्तौड़ की अंतिम शाका में
अकबर की सेना के साथ युद्ध करते
हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे।
महल के पूर्व में एक बड़ा तालाब
है, जिसे जैमल-पत्ता का तालाब
कहा जाता है।
जलाशय के तट पर बौद्धों
के ६ स्तूप हैं। इन स्तूपों से यह
अनुमान लगाया जाता है कि प्राचीन
काल में अवश्य ही यहाँ बौद्धों का
कोई मंदिर रहा होगा।
गौमुख कुण्ड
महासती स्थल के पास ही
गौमुख कुण्ड है। यहाँ एक चट्टान
के बने गौमुख से प्राकृतिक
भूमिगत जल निरन्तर एक झरने के
रुप में शिवलिंग पर गिरती रहती
है। प्रथम दालान के द्वार के सामने
विष्णु की एक विशाल मूर्ति खड़ी है।
कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। लोग
इसे पवित्र तीर्थ के रुप में मानते
हैं।
कुण्ड के निकट ही उत्तरी
किनारे पर महाराणा रायमल के
समय का बना एक छोटा सा पार्श्व
जैन मंदिर है, जिसकी मूर्ति पर
कन्नड़ लिपि में लेख है। यह
संभवतः दक्षिण भारत से लाई
गई होगी। कहा जाता है कि यहाँ
से एक सुरंग कुम्भा के महलों तक
जाती है। गौमुख कुण्ड से कुछ दूर
दो ताल हाथी कुण्ड तथा खातण
बावड़ी है।
समिध्देश्वर
(समाधीश्वर) महादेव का मंदिर
गौमुख कुण्ड के उत्तरी छोर
पर समिध्देश्वर का भव्य प्राचीन
मंदिर है, जिसके भीतरी और
बाहरी भाग पर बहुत ही सुन्दर
खुदाई का काम है। इसका निर्माण
मालवा के प्रसिद्ध राजा भोज ने ११
वीं शताब्दी में करवाया था। इसे
त्रिभुवन नारायण का शिवालय
और भोज का मंदिर भी कहा जाता
था। इसका उल्लेख वहाँ के
शिलालेखों में मिलता है। सन् १४२८
(वि. सं. १४८५) में इसका जीर्णोद्धार
महाराणा मोकल ने करवाया था,
जिससे लोग इसे मोकलजी का
मंदिर भी कहते हैं।
मंदिर के निज मंदिर
(गर्भगृह) नीचे के भाग में
शिवलिंग है तथा पीछे की दीवार
में शिव की विशाल आकार की
त्रिमूर्ति बनी है। त्रिमूर्ति की
भव्यता दर्शनीय है। मंदिर में
दो शिलालेख हैं, पहला सन् ११५०
ई. का है, जिसके अनुसार गुजरात
के सोलंकी राजा कुमारपाल का
अजमेर के चौहान राजा आणाजी को
परास्त कर चित्तौड़ आना ज्ञात होता
है तथा दूसरा शिलालेख जो सन्
१४२८ का है महाराणा मोकल से
सम्बद्ध है।
महासती
(जौहर स्थल)
समिध्देश्वर महादेव के
मंदिर से महाराणा कुम्भा के
कीर्कित्तस्तम्भ के मध्य एक विस्तृत
मैदानी हिस्सा है, जो चारों तरफ
से दीवार से घिरा हुआ है।
इसमें प्रवेश के लिए पूर्व तथा उत्तर
में दो द्वार बने हैं, जिसे महा
सती द्वार कहा जाता है। ये द्वार व
कोट रावल समरसिंह ने
बनवाया था।
चित्तौड़ पर बहादुर शाह
के आक्रमण के समय यही हाड़ी
रानी कर्मवती ने सम्मान व सतीत्व
की रक्षा हेतु तेरह हजार
वीरांगनाओं सहित विश्व प्रसिद्ध
जौहर किया था। इस स्थान की
खुदाई करने पर मिली राख की
कई परतें इस करुण बलिदान की
पुष्टि करती है। यहाँ दो
बड़ी-बड़ी शिलाओं पर प्रशस्ति
खुदवाकर उसके द्वार पर लगाई
गई थी, जिसमें से एक अभी भी
अस्तित्व में है।
कीर्तिस्तम्भ
(विजय स्तम्भ, जय स्तम्भ)
महाराणा कुम्भा ने
मालवा के सुल्तान महमूद शाह
खिलजी को सन् १४४० ई. (वि. सं. १४९७)
में प्रथम बार परास्त कर उसकी
यादगार में इष्टदेव विष्णु के
निमित्त यह कीर्तिस्तम्भ बनवाया था।
इसकी प्रतिष्ठा सन् १४४८ ई. (वि.सं.
१५०५) में हुई।
यह स्तम्भ वास्तुकला की
दृष्टि से अपने आप मंजिल पर
झरोखा होने से इसके भीतरी
भाग में भी प्रकाश रहता है।
इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों
जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके
अवतारों तथा ब्रम्हा, शिव,
भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं,
अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती
तथा आधा शिव का), उमामहेश्वर,
लक्ष्मीनारायण, ब्रम्हासावित्री,
हरिहर (आधा शरीर विष्णु और
आधा शिव का), हरिहर पितामह
(ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक
ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्र),
दिक्पाल तथा रामायण तथा
महाभारत के पात्रों की सैकड़ों
मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक मूर्ति के
ऊपर या नीचे उनका नाम भी खुदा
हुआ है। इस प्रकार प्राचीन
मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का
विश्लेषण के लिए यह भवन एक
अपूर्व साधन है। कुछ चित्रों में देश
की भौगोलिक विचित्रताओं को भी
उत्कीर्ण किया गया है।
कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी
मंजिल से दुर्ग एवं निकटवर्ती
क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है।
बिजली गिरने से एक बार इसके
ऊपर की छत्री टूट गई थी, जिसकी
महाराणा स्वरुप सिंह ने मरम्मन
करायी।
जटाशंकर
महादेव देवालय
कीर्तिस्तम्भ के उत्तर में
जटाशंकर नामक शिवालय है। इस
मंदिर के बाहरी हिस्से तथा
सभामंडप की छत पर उत्कीर्ण
देवताओं तथा अन्य तरह की
आकृतियाँ प्रशंसनीय है। अधिकतर
मूर्तियाँ अखण्डित एवं सुरक्षित हैं।
कुम्भस्वामी
(कुंभश्याम) का मंदिर
महाराणा कुम्भा ने सन् १४४९
ई. (वि. सं. १५०५) में विष्णु के बराह
अवतार का यह भव्य मंदिर
बनवाया। इस मंदिर का गर्भ
प्रकोष्ठ, मण्डप व स्तम्भों की सुन्दर
मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। विष्णु के
विभिन्न रुपों को दर्शाती हुई
मूर्तियाँ, नागर शैली के बने
गगनचुम्बी शिखर तथा समकालीन
मेवाड़ी जीवन शैली को अंकित
करती दृश्यावली, इस मंदिर की
विशिष्टतायें हैं।
मूल रुप से तो यहाँ,
वराहावतार की ही मूर्ति स्थापित
थी, लेकिन मुस्लिम आक्रमणों से
मुर्ति खण्डित होने पर अब
कुम्भास्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठापित
कर दी गयी।
मीराँबाई का
मंदिर
कुंभ श्याम के मंदिर के
प्रांगण में ही एक छोटा मंदिर है,
जिसे कृष्ण दीवानी भांतिमति
मीराँबाई का मंदिर कहते हैं।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार
पहले यह मंदिर ही कुंभ श्याम
का मंदिर था, लेकिन बाद में बड़े
मंदिर में नई कुंभास्वामी की
प्रतिमा स्थापित हो जाने के कारण
उसे कुंभश्याम का मंदिर जानने
लगे और यह मंदिर मीराँबाई
का मंदिर के रुप में प्रसिद्ध हुआ।
इस मंदिर के निज भाग में
भांतिमति मीरा व उसके आराध्य
मुरलीधर श्रीकृष्ण का सुंदर चित्र
है। मंदिर के सामने ही एक
छोटी-सी छतरी बनी है। यहाँ
मीरा के गुरु स्वामी रैदास के
चरणचिंह (पगलिये) अंकित हैं।
सतबीस
देवलां
ग्यारहवीं शताब्दी में बना
यह भव्य जैन मंदिर अपनी उत्कृष्ट
नक्काशी के काम के लिए जाना जाता
है। इसमें २७ देवरियाँ बनी है।
अतः इस मंदिर को सतबीस (७अ२०
देवरा) कहा जाता है।
महाराणा कुंभा
के महल
तेरहवीं शताब्दी में
निर्मित इन महलों का जीर्णोद्धार
महाराजा कुंभा द्वारा कराये
जाने से इन महलों को महाराणा
कुंभा का महल कहा जाता है।
प्रवेश द्वार बड़ी पोल तथा
त्रिपोलिया कहे जाते हैं।
खण्डहरों के रुप में होते हुए भी
ये महल राजपूत शैली की उत्कृष्ट
स्थापत्य कला दर्शाते हैं। सूरज
गोरवड़ा, जनाना महल, कँवलदा
महल, दीवात-ए-आम तथा शिव
मंदिर इस महल के कुछ
उल्लेखनीय हिस्से हैं। मान्यता है
कि इन्हीं महलों में एक तहखाना है,
जिसमें एक सुरंग के माध्यम से
गोमुख तक जाया जा सकता है।
महारानी पद्मिनी ने हजारों
वीरांगनाओं के साथ इसी रास्ते
गौमुख कुंड में स्नान करने के
बाद इन्हीं तहखानों में जौहर
किया था, लेकिन यहाँ इस तरह
के किसी सुरंग का प्रमाण नहीं
मिला है।
इसी ऐतिहासिक महल में
उदयपुर के संस्थापक महाराणा
उदयसिंह का जन्म हुआ था तथा यहीं
स्वामीभक्त पन्नाधाय ने उदयसिंह की
रक्षार्थ अपने लाडले पुत्र को
बनवीर के हाथों कत्ल हो जाने
दिया। मीराँबाई की कृष्ण भक्ति
तथा विषपान की घटनाएँ भी इसी
महल से संबद्ध है।
फतह प्रकाश
महाराणा फतहसिंह द्वारा
निर्मित यह भव्य महल आधुनिक
ढ़ंग का है। फतहसिंह के नाम पर
ही इन्हें फतह प्रकाश कहा जाता है।
महल में गणेश की एक विशाल
प्रतिमा, फव्वारा तथा विविध भित्ति
चित्र दर्शनीय हैं।
मोती बाजार
फतहप्रकाश के पास ही
भग्नावस्था में दूकानों की कतारें
हैं। बताया जाता है कि शताब्दियों
पूर्व यहाँ कीमती पत्थरों की
दुकानें हुआ करती थी।
श्रृंगार चौरी
(सिंगार चौरी)
सन् १४४८ (वि. सं. १५०५) में
महाराणा कुंभा के कोषाध्यक्ष
बेलाक, जो केल्हा साह का पुत्र था,
ने श्रृंगार चौरी का निर्माण
करवाया था। यह शान्तिनाथ का
मंदिर है तथा जैन स्थापत्य कला का
उत्कृष्ट उदाहरण है।
यहाँ से प्राप्त शिलालेखों
से यह ज्ञात होता है कि भगवान
शान्तिनाथ की चौमुखी प्रतिमा की
प्रतिष्ठा खगतरगच्छ के आचार्य
जिनसेन सूरी ने की थी, परंतु
मुगलों के आक्रमण से यह मूर्ति
विध्वंस कर दी गई लगती है। अब
सिर्फ एक वेदी बची है, जिसे लोग
चौरी बतलाते हैं। मंदिरों की
बाह्य दीवारों पर देवी-देवताओं
व नृत्य मुद्राओं की अनेकों मूर्तियाँ
कलाकारों के पत्थर पर उत्कीर्ण
कलाकारी का परिचायक है।
श्रृंगार चौरी के बारे
में एक मान्यता यह भी है कि यहीं
महाराणा कुंभा की राजकुमारी
का विवाह हुआ था, लेकिन
व्यावहारिक दृष्टिकोण से सोचने
पर यह सत्य नहीं लगता।
महाराणा
साँगा का देवरा
श्रृंगार चौरी के दक्षिण में
स्थित इस मंदिर का निर्माण
महाराणा साँगा ने भगवान
देवनारायण की आराधना हेतु करवाया
था। कहा जाता है कि भगवान द्वारा
दिये कवच को महाराणा इसी
देवरे में पहन कर युद्धों में
जाते और विजित होकर लौटते
थे।
तुलजा भवानी
का मंदिर
इस मंदिर का निर्माण
काल सन् १५३६-४० ई. है। इसका
निर्माण दासी पुत्र बनवीर ने
कराया था। बनवीर भवानी का
उपासक था और उसने अपने वजन के
बराबर स्वर्ण इत्यादि तुलवा
(तुलादान) कर इस मंदिर का
निर्माण आरंभ कराया था, इसी
कारण इसे तुलजा भवानी का
मंदिर कहा जाता है।
बनवीर की
दीवार
सन् १५३६ ई. में महाराणा
विक्रमादित्य को छल से मारकर
दासीपुत्र बनवीर चित्तौड़ का
स्वामी बन बैठा। अपनी स्थिति को
अधिक सुदृढ़ व सुरक्षित करने हेतु
उसने दुर्ग को दो भागों में विभक्त
करने के लिए इस दीवार का
निर्माण आरंभ कराया था, परंतु
महाराणा उदयसिंह द्वारा सन् १५४०
ई में चित्तौड़ से खदेड़ दिये जाने
पर इसका निर्माण अधूरा ही रह
गया।
नवलखा
भण्डार
बनवीर की दीवार के
पश्चिमी सिरे पर एक अर्द्ध वृत्ताकार
अपूर्ण बुर्ज बना है, जिसे बनवीर
ने अपनी सुरक्षा व अस्र-शस्र के
भण्डार हेतु बनवाया था। इसकी
पेंचिदी बनावट को कोई लख
(जान) नहीं सकता था। अतः इसे
नवलखा भण्डार कहा जाता था। कुछ
लोग यह बताते हैं कि यहाँ नौ
लाख रुपयों का खजाना रहता था,
जिससे इसका नाम नौ लखा भण्डार
पड़ा।
पातालेश्वर
महादेव का मंदिर
पुरातत्व संग्रहालय के
पास ही स्थित इस मंदिर का
निर्माण सन् १५६५ ई. में हुआ था।
मंदिर की स्थापत्य कला एवं उत्कीर्ण
आकृतियाँ बड़ी आकर्षण एवं
दर्शनीय है।
भामाशाह की
हवेली
अब भग्नावस्था में मौजूद
यह इमारत, एक समय मेवाड़ की
आनबान के रक्षक महाराणा प्रताप
को मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना
सब कुछ दान करने वाले प्रसिद्ध
दानवीर दीवार भामाशाह की
याद दिलाने वाली है। कहा जाता
है कि हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात्
महाराणा प्रताप का राजकोष खाली
हो गया था व मुगलों से युद्ध के
लिए बहुत बड़ी धनराशि की
आवश्यकता थी। ऐसे कठिन समय में
प्रधानमंत्री भामाशाह ने अपना
पीढियों से संचित धन महाराणा
को भेंट कर दिया।
कई इतिहासकारों का मत
है कि भामाशाह द्वारा दी गई
राशि मालवा को लूट कर लाई
गई थी, जिसे भामाशाह ने
सुरक्षा की दृष्टि से कहीं गाड़ रखी
थी।
आल्हा काबरा की
हवेली
भामाशाह की हवेली के
पास ही आल्हा काबरा की हवेली
है। काबरा गौत्र के माहेश्वरी
पहले महाराणा के दीवान थे।
नगरी
चित्तौड़ के किले से ७ मील
उत्तर में नगरी नाम का एक प्राचीन
स्थान है, जो बेदले के चौहान
सरदार की
जागीर में पड़ता था। यह
भारतवर्ष के प्राचीन नगरों में से
एक है, जिसके अवशेष खंडहरों के
रुप में दूर-दूर
तक फैले हुए हैं, जहाँ कोट से
घिरे हुए राजप्रासाद होने का
अनुमान किया जाता है। यहाँ से
कई जगहों पर बावड़ी, महलों के
काट आदि के निर्माणार्थ पत्थर ले
जाये गये। महाराणा रायमल की
रानी श्रृंगारदेवी की बनवाई
हुई घोसड़ी गाँव की बावड़ी भी
नगरी से ही पत्थर लाकर बनाई
गई है।
नगरी का प्राचीन नाम
मध्यमिका था। बली गाँव (अजमेर
जिला में) से मिले हुए सन् ४४३ ई.
पू. (वि. सं. ३८६) के शिलालेख में इस
नाम का प्रमाण मिलता है। पतंजलि
ने अपने महाभाष्य मध्यमिका पर
युनानियों (मिनैंडर) के आक्रमण का
उल्लेख किया है। वहाँ से मिलने
वाले शिलालेखों में से तीन वि.
सं. पूर्व की तीसरी शताब्दी के
आसपास की लिपि में है। इनके
लेखों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट
हो जाती है कि वि. सं. पूर्व की
तीसरी शताब्दी के आसपास विष्णु
की पूजा होती थी तथा उनके मंदिर
भी बनते थे। एक शिलालेख सर्वतात
नामक किसी राजा द्वारा संपादित
अश्वमेघ यज्ञ का उल्लेख करता है। एक
अन्य शिलालेख वाजपेय यज्ञ के
सम्पादन की चर्चा करता है।
नगरी से थोड़ी ही दूरी
पर हाथियों का बाड़ा नाम का एक
विस्तृत स्थान है, जिसकी
चहारदीवारी बहुत लंबी व
चौड़ी है। यह तीन-तीन मोटे
पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर
बनाई गई है। उस समय ऐसे
विशाल पत्थरों को इस प्रकार
व्यवस्थित करना एक कठिन कार्य जान
पड़ता है। यहाँ से कुछ ही दूरी
पर बड़े-बड़े पत्थरों से बनी
हुई एक चतुरस्र मीनार है, जिसे
लोग ऊमदीवट कहते हैं। यह
स्पष्ट जान पड़ता है कि इस मीनार
में इस्तेमाल किये गये पत्थर
हाथियों का बाड़ा से ही तोड़कर
लाये गये थे। इसके संबंध में
यह कहा जाता है कि जब बादशाह
अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई किया
तब इस मीनार में रौशनी की
जाती थी। नगरी के निकट तीन स्तूपों
के चिंह भी मिलते हैं।
वर्तमान में गाँव के
भीतर माताजी के खुले स्थान में
प्रतिमा के सामने एक सिंह की प्राचीन
मूर्ति जमीन में कुछ गड़ी हुई है।
पास में ही चार बैलों की
मूर्तियोंवाला एक चौखूंटा बड़ा
पत्थर रखा हुआ है। ये दोनों
टुकड़े प्राचीन विशाल स्तम्भों का
ऊपरी हिस्सा हो सकता है।
|