राजस्थान

मेवाड़ के दर्शनीय स्थल

मांडलगढ़

अमितेश कुमार


 

मांडलगढ़ की ऐतिहासिकता
किले-परिसर की प्रमुख संरचनाएँ

 

मांडलगढ़ का किला उदयपुर से १०० मील उत्तर-पूर्व में स्थित है। यह एक ऊँची पहाड़ी के अग्र भाग पर बनाया गया है। उसके चारों ओर अनुमानतः आधे मील लंबाई का बुर्जों सहित कोट बना हुआ है। वि. सं.१४८५ में बने एक शिलालेख में ये पंक्तियाँ मिली हैं।

सोपिक्षेत्रमही भुजा निजभुजप्रौढ़ प्रतापादहो
भग्नोविश्रुत मंडलाकृतिगढ़ी जित्वा समस्तानरीन।

 

इस अभिलेख में इस किले को मंडलाकृतिगढ़ से संबोधित किया गया है। संभवतः इसकी आकृति मंडलाकार होने के कारण इसका नाम कालांतर में मण्डलगढ़ (मांडलगढ़) हो गया। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई १८५० फुट है। किले के उत्तर की तरफ, आधी मील से भी कम दूरी पर एक दूसरी पहाड़ी (नकटी का चौड़, बीजासण) है, जो सुरक्षा की दृष्टि से किले के लिए उपयुक्त नहीं थी।

इस किले के निर्माणकर्त्ता तथा निर्माणकाल के संबंध में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। इस संबंध में एक जनश्रुति तो यह है कि एक मांडिया नाम के भील को बकरी चराते समय पारस पत्थर मिला। उसने उस पत्थर पर अपना तीर घिसा, जिससे वह स्वर्ण बन गया। यह देखकर वह उस पत्थर को चांनणा नामक गुर्जर के पास ले गया, जो वहीं पशु चरा रहा था। उसने कहा कि इस पत्थर पर घिसने से उसका तीर खराब हो गया। चांनणा इस पत्थर की करामात समझ गया। उसने मांडिया से वह पत्थर ले लिया और उसकी मदद से धना हो जाने के बाद मांडिया के नाम पर मांडलगढ़ नामक किले का निर्माण करवाया।

मांडलगढ़ की ऐतिहासिकता

प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार यह किला पहले अजमेर के चौहानों के राज्य में था। अतः इस बात की प्रबल संभावना है कि यह किला उन्होंने ही बनवाया हो। जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर का राज्य सम्राट पृथ्वीराज के भाई हरिराज से छीना तब इस किले पर मुसलमानों का अधिकार हो गया, परंतु कुछ ही समय में हाड़ौती के चौहानों ने इसे मुसलमानों से छीन लिया। जब हाड़ों को महाराणा खेता (क्षेत्रसिंह) ने अपने अधीन किया, तभी यह दुर्ग मेवाड़ के अधिकार में आया। बीच में कई बार मुसलमान इसे सीसोदियों से लेकर इसे दूसरों को भी दे दिया। कुछ समय तक बालनोत सोलोकियों की भी जागीर में रहा, लेकिन हर बार मेवाड़ वाले इसे मुक्त कराने की कोशिश में लगे रहे तथा उन्हें सफलता भी मिली।

किले- परिसर की प्रमुख संरचनाएँ

किला के परिसर में सागर और सागरी नाम के दो जलाशय हैं, जिसका जल दुष्काल में सूख जाया करता था। बाद में वहाँ के अध्यक्ष महता अगरचंद ने सागर में दो कुंएं खुदवा दिये, जिससे पानी उपलब्ध रहता है।

ंडेश्वर

जलाशय के अलावा यहाँ ॠषभदेव का एक जैन-मंदिर, और जलेश्वर के शिवालय, अलाउद्दीन नामक किसी मुसलमान अफसर की कब्र तथा किशनगढ़ के राठौड़ रुपसिंह के महल हैं।

 

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