राजस्थान

जयपुर के देवालय : निर्माण कथा

राहुल तोन्गारिया


गोविन्द देवजी का मंदिर : निर्माण कथा
राधादामोदर और राधा विनोद के मंदिर
विश्वेश्वर और राज - राजेश्वर के मंदिर
माधव बिहारी का मंदिर

 

राजस्थान राज्य की राजधानी मनोहारी गुलाबी नगर जयपुर रंगीन दर्शनीय स्थलों से ही परिपूर्ण नहीं है, अपितु यहाँ भारत के सुप्रसिद्ध मंदिर भी हैं। इन मंदिरों की धार्मिक महत्ता और यहाँ प्रदर्शित स्थापत्य कला अपनी श्रेष्ठता और सम्पन्नता को प्रदर्शित करते हैं। प्रात: - संध्या एवं त्योहारों को बजाने वाली घंटियों का नाद धार्मिक उत्साह का वातावरण प्रस्तुत है। जयपुर के मंदिर दर्शकों को अपनी विगत संस्कृति की एक झलक प्रदान करते हैं। मध्युगीन और आधुनिक संस्कृति का एक अनोखा मेल जयपुर में ही देखने को मिलता है, भिन्न - भिन्न आकर्षणों के कारण जयपुर सदा से ही एक पवित्र नगर माना जाता है। जयपुर एक ऐसी तीर्थयात्रा का स्थान है जिसे इन मंदिरों ने पावन बना दिया है। जयपुर सदा से ही भगवान कृष्ण और अवतारों के भक्तों द्वारा उतना ही पावन मानी जाती रही है जितनी की मथुरा और वृन्दावन की पावन भूमियाँ मानी जाती है।

जयपुर में भगवान श्रीकृष्ण के उन अवतारों और स्वरुपों का वास है जिसे चैतन्य महाप्रभु के निकटतम शिष्यों और अनुयायियों द्वारा खोज निकाला गया और उन्हें पावन बृजमण्डल में प्रतिष्ठित कर दिया गया इसी कारण इन स्वरुपों को वैष्णवों से माधव गौड़ सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। उनके यहाँ पधारने और मंदिरों में स्थापित किये जाने की कथा भारत में मध्यकाल के उस युग की गाथा है जबकि औरंगजेब के अधीन मुसलमानों की धर्मान्धता अपने शिखर पर थी; परिणामस्वरुप वृन्दावन के गोस्वामियों को जो इन मूर्तियों के न्यासधारी थे अपनी देवी आस्था सहित इनके साथ पलायन करने को बाध्य होना पड़ा। दो भक्तजन अपने पीछे उन भव्य मंदिरों को छोड़ आये थे जिन्हें सोलहवीं शताब्दी के अन्त अथवा १७वीं शताब्दी के आरम्भ में राजाओं और अधिपतियों द्वारा बनवाया गया। जयपुर के प्रमुख प्रसिद्ध मंदिरों में गोविन्द देवजी का मंदिर, राधा दामोदर और राधा विनोद जी के मंदिर, विश्वेश्वर और राजराजेश्वर जी के मंदिर, और माधव बिहारी जी का मंदिर प्रमुख है।

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गोविन्द देवजी का मंदिर : निर्माण कथा

भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमाओं में से प्रमुख एवं सबसे अधिक पावन समझी जाने वाली गोविन्द देवीजी की मूर्ती है। इसे भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाथ द्वारा प्रतिपादित भगवान के स्वरुपों में से एक माना जाता है। वज्रनाथ जो अपने युग के अद्वितीय शिल्पी थे, पहले मदन मोहन के देवी स्वरुप सा निर्माण किया बताते हैं और उन्हें अपनी मातामही से, जिन्हें भगवान के साक्षात दर्शन होने का सौभाग्य मिला था, पूछा कि क्या यह प्रतिमा उनकी सही अनुकृति है। इस पर मातामही ने उत्तर दिया कि मूर्ति के चरण तो भगवान से अवश्य मिलते थे लेकिन अन्य अंग नहीं। इसके पश्चात वज्रनाथ ने गोपीनाथ नाम की एक और मूर्ति बनायी जिसमें भगवान के छाती और भुजाओं का ही सही चित्रण हो पाया था। उसके द्वारा गढ़ी गयी तीसरी और अन्तिम मूर्ति गोविन्द देवजी की थी जिनकी मुखाकृति श्री कृष्ण से असाधारण रुप से मिलती थी और इसके नयन कमल के भांति थे। इन प्रतिमाओं की खोज का कार्य उन धार्मिक व्यक्तियों को सौंपा गया जिन्हें चैतन्य महाप्रभु द्वारा १६वीं शताब्दी के आरम्भ में निर्मित किया गया था। इसका उद्देश्य वृज के उन भूले - बिसरे स्थानों को प्राप्त करना और पवित्र बनाना था जो भगवान श्रीकृष्ण की जन्मक्रीड़ास्थली रहे थे और उनके अतीत गौरव और पावनता पुन: प्रदान करनी थी। रुप और सनातन धर्म के दो गोस्वामी बन्धुओं ने जिन पर चैतन्य महाप्रभु को चमत्कारी प्रभाव पड़ा था, गोरी के मुसलमानी शासन में अपने उच्च पदों का परित्याग कर दिया और भगवान के श्री चरणों में श्रद्धालु भक्त रुप में आश्रय प्राप्त किया। ये लोग वृन्दावन आये और उन्होंने श्री गोविन्द और श्री मदन मोहन जी की पावन मूर्तियों को प्राप्त किया जिनके साथ धार्मिक आख्यान के अभिलक्षणों वाली सभी रहस्यमय दन्तकथाऐं जुड़ी हुई है। एक आख्यान है कि श्री गोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को दर्शन दिए और कहा कि वह उनकी भूमिगत मूर्ति को बाहर निकाले। इस स्थान का संकेत एक गाय से मिला जो उस पुनीत पावन स्थल पर अड़कर खड़ी थी और उसके थनों से स्वत: दुग्ध - धारा प्रवाहित हो रही थी। मूर्ति को खोदकर निकाल लिया गया और वैष्णव भक्ति की उस उत्कृषोन्मुख बेला में इसने इतनी प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित कर ली कि १५९० ई० में उस प्रतिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए वृन्दावन में एक विशाल मंदिर का निर्माण किया गया। इस देवालय का निर्माण अकबर के विश्वासपात्र सेनापति और अम्बेर के राजा मानसिंह द्वारा कराया गया। राजा मानसिंह बंगाल और बिहार में काफी समय तक सुबेदार रहे और उस अवधि में उन पर चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय का प्रभाव पड़ा। अकबर ने इस मंदिर को १३५ बीघा भूमि प्रदान की और यह कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने एक पंडित के साथ अपने आराध्य देव गूजर गोविन्द को भगवान श्री गोविन्द देवजी की भूमि के साथ - साथ स्थापित करने और पूजे जाने के लिए भेजा था। कृष्ण की यह छोटी सी मूर्ति अब भी गोविन्द देव के पाश्वाव में देखी जा सकती है। बाद में राधा की एक प्रतिमा को भी एक उड़िया अधिपति प्रतापरुद्र के आग्रह पर गोविन्द जी के निकट ही प्रतिष्ठित कर दिया गया।

मदन मोहनजी की मूर्ति के मूल विषय में ऐसी कई रहस्यात्मक घटना का उल्लेख प्राप्त है। कहा जाता है कि सनातन गोस्वामी ने मथुरा में भिक्षाटन करते समय एक चौबे कि ड्यौढ़ी में इस लाव्ण्यमयी मूर्ति के दर्शन किये और इसे प्राप्त करने की प्रार्थना की। इस मूर्ति की स्वामीन एक वृद्धा इस बात के लिए सहमत हो गयी लेकिन उसने गोस्वामी से आग्रह किया कि वह मूर्ति को प्रतिदिन बाटी के भोग लगाएगा। यह शर्त स्वीकार कर ली गई और मदन मोहन के मंदिर में आज भी बाटी का भोग लगाया जाया है। इसका निर्माण वृन्दावन में युगल द्वार के समीप किसी वैभवशाली व्यक्ति ने बड़ी उदारता से करवाया था।

गोपीनाथजी की 'तीसरी मूर्ति' ने मधुपण्डित को उस वर वृक्ष के नीचे अपने दर्शन दिये, जहाँ वृन्दावन में कृष्ण अपनी बांसुरी बजाया करते थे। यह मधु - पण्डित जी एक परम भक्त थे, १६ वीं शताब्दी के मध्य में धार्मिक भावोन्माद में बंगाल को छोड़कर वृन्दावन की कुंज गलियों में आ गए। यह मूर्ति एक ऐसे ही तुल्यमान उत्कृष्ट मंदिर में सुशोभित हैं। इसका निर्माण राय साल दरबारी द्वारा करवाया गया था जो अम्बेर के एक प्रमुख खण्डेला के राजा और अकबर महान के मुख्य दरबारी थे। लगभग इसी समय गोविन्द देवजी के मंदिर का भी निर्माण हुआ।

वैष्णव सम्प्रदाय और धार्मिक पूजा - पाठ के प्रमुख केन्द्रों के रुप में लगभग एक सदी तक ये तीनों ही मंदिर प्रचुर साधन सम्पन्नता और महती गौरव की श्रीवृद्धि करते रहे। अप्रैल १६६९ ई० में औरंगजेब ने हिन्दुओं के धार्मिक स्थानों के ध्वंस और विनाश की क्रमबद्ध योजना का फरमान जारी किया और तब गोस्वामियों के लिए यह बात अनिवार्य हो गई कि वे इन पवित्र मूर्तियों को उनके वैभवशाली मंदिरों से दूर हटाकर उन्हें विनाश से बचाएँ। पहले इनकी राधा कुण्ड और फिर कामा ले जाया गया। ये दोनों ही स्थान बृजमण्डल में हैं और वृन्दावन से अधिक दूर नहीं हैं, और तत्पश्चात् इन्हें अम्बेर लाया गया जहाँ भगवान गोविन्दजी को अम्बेर के दक्षिणी सीमा के मानसागर झील के किनारे पर एक अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया। यह स्थान कदम्ब वृक्षों की प्रचुरता एवं भगवान गोविन्दजी की उपस्थिती के कारण छोटे वृन्दावन के नाम से पुकारा जाने लगा, किन्तु आज इस मंदिर का कोई अता - पता नहीं है, जिसे बरसात अपने संग बहाकर ले गई, यह १९१५ ई० की बात है।

भगवान गोविन्दजी में अम्बेर के राजघराने की घनिष्ठ आस्था रही है; अम्बेर के राज सदस्य वास्तव में भगवान गोविन्दजी को ही राज्य के परिरक्षक देवता मानकर पूजते हैं एवं महाराज स्वयं को भगवान गोविन्द देवजी का दीवान कहकर पुकारते हैं। इस मूर्ति को १९१६ ई० में जयपुर के नगर प्रासाद के जयनिवास बाग में लाया गया जो उस समय राजकीय आमेर क्षेत्र के मध्य में था और जिसका सवाई मानसिंह ने एक उपवन के रुप में विकास किया था। बाद में जब सवाई जयसिंह ने जयपुर के नये नगर की नींव रखी तो गोविन्द देवजी को चन्द्रमहल के सामने विशाल मण्डप में अन्तिम रुप से प्रतिष्ठित किया। इसके पश्चात् गोपीनाथ जी एवं मदनमोहन जी को भी यहाँ प्रतिष्टित किया गया और नगर के पुराने मोहल्ले में उनके मंदिर बनवाये गये। सवाई प्रतापसिंह (१७७० - १८०३) के कार्यकाल में मदन मोहन जी की प्रतिमा जयपुर से ११५ मील दूर, करौली में स्थानन्तरित कर दी गई है। जयपुर में गोविन्ददेवजी एवं गोपीनाथ देवजी की बहुत मान्यता है, यहाँ के ही नहीं बल्कि बंगाल, बिहार, जैसे दुरस्थ प्रदेशों से भी जयपुर में भक्तगण उनके दर्शार्थ को आते हैं। जयपुर आनेवाले तीर्थयात्रियों की हार्दिक इच्छा होती है कि वे इन मूर्तियों के दर्शन सूर्यास्त से पहले कर लें क्योंकी मान्यता यह है कि इन तीनों मूर्तियों के दर्शन एक ही दिन में करने से उन्हें भगवान के सम्पूर्ण दर्शन होंगे।

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राधा दामोदर और राधा विनोद के मंदिर

ये मंदिर राधा दामोदर और राधा विनोद को समर्पित हैं और नगर के मध्य में स्थित है। राधा दामोदर की मूर्तियाँ जीवा गोस्वामी द्वारा पूजी जाती थी, जीवा के दो शिष्यों हरिदास और कृष्णदास को क्रमश: गोविन्द और राधा दामोदर की पूजा प्राप्त हुई। राधा दामोदर के मंदिर में पवित्र गोवर्धन पर्वत का एक विशाल शिलालेख भी बड़े सम्मान से पूजा जाता है। गाय के चरण - चिन्हों से अंकित यह शिलाखण्ड रुप गोस्वामी को उनकी वृद्धावस्था में एक दैवी उपहार के रुप में मिला बताया जाता है। मान्यता यह है कि इस शिलाखण्ड की परिक्रमा लगाने वाले उतने ही पुण्य और लाभ के भागीदार होते हैं जितना कि गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लगाने से मिलता है।

राधा विनोद को मंदिर में राधा विनोद की मूर्ति प्रतिष्ठित है जोकि लोकनाथ गोस्वामी द्वारा पूजी जाती थी जो चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी और व्यक्तिगत मित्र थे, जिन्हें महाप्रभु ने उन्हें अन्य उपदेशकों और स्वयं से पहले वृन्दावन भेजा था। उनके एकमात्र शिष्य मणिपुर के कवि राजकुमार नरोत्तम ठाकुर थे। तीर्थयात्रा पर आनेवाले ठाकुर अनुयायियों को इस मंदिर में आना पड़ता है और वे गुरु की गद्दी को श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

जयपुर के राजघराने द्वारा इन पवित्र मूर्तियों को जो सम्मान और श्रद्धा प्राप्त है, इस बात की पुष्टि इन मंदिरों को मिली सम्पत्ती एवं दान से होती है। गोविन्द देवजी को राज्य के होने के कारण सर्वाधिक जागीर मिली है, इसमें २२गाँव की वार्षिक आय सम्मिलित हैं। गोस्वामियों को भी यहाँ बहुत सम्मान मिलता है।

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विश्वेश्वर और राज - राजेश्वर के मंदिर

जयपुर नगर के मध्य में त्रिपोलिया के निकट भगवान विश्वेश्वर जी का मंदिर नगर में दीवान विद्याधर द्वारा ३००० वर्ष पूर्व बनवाया गया था। यह मंदिर तारकेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान - राजेश्वर मंदिर चन्द्रमहल की मोती परिसीमाओं में स्थित है और इसे केवल जयपुर के राजस्थान - सदस्यों द्वारा ही पूजा जाता है।

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माधव बिहारी का मंदिर

इस मंदिर का निर्माण १९२२ ई० में महाराजा माधोसिंह की तृतीय महारानी द्वारा कराया गया था। महारानी, माधोबिहारी की भक्त थीं; अपने प्रभु की सेवा में यहीं सारा जीवन व्यतीत किया। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण बड़े सुरुचिपूर्ण ढ़ंग से चित्रित वे कृतियाँ हैं जिनमें सूर्यवंश के संस्थापक दशरथ से लेकर दिवंगत महाराजा मानसिंह तृतीय के चित्र और कृष्ण द्वारा कंस संहार, रुक्मणी हरण, शिव विवाह इत्यादि के दृश्य अंकित हैं। यह मंदिर अपने शांतिपूर्ण वातावरण के लिए विदित है।

 

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