राजस्थान |
मौर्यर्काल से उत्तर गुप्तकालीन युग राहुल तोन्गारिया |
मौर्यर्काल से उत्तर गुप्तकालीन युग में भारतीय स्थापत्य की भांति राजस्थान में स्थापत्य का एक विशेष रुप में विकास हुआ। इस काल की कला केवल राजकीय प्रश्रय की ही पात्र न थी वरन् उसे जन प्रिय बनने के सौभाग्य प्राप्त था। वैराट नगर जोकि जयपुर जिले में है, अशोक कालीन सभ्यता का एक अच्छा उदाहरण है, यहाँ के भग्नावशेषों में स्तम्भ लेख आदि बौद्ध विहार के खण्डहर प्रमुख हैं। स्तम्भ लेख राजकीय कला के प्रतीक हैं तो बौद्ध विहार के अवशेष जनता के भाव और विश्वास के। इस युग में तथा बाद के युगों में राजस्थानी स्थापत्य में जैन, बौद्ध और हिन्दु विषयों - विचारों को प्रतिष्ठित स्थान मिला। मध्यामिका में, जिसे आजकल नगरी कहते हैं और जो चित्तौड़ से आठ मील उत्तर में बेड़य नदी पर स्थित है, इन विविध प्रवृत्तियों के अच्छे नमूने उपलब्ध हैं। इस नगरी के भग्नावशेष नदी के किनारे - किनारे दूर - दूर तक फैले हुए हैं। यत्र - तत्र कई ईंटे, मंदिर के अवशेष तथा भग्नों के अवशेषों के आधार पर दिखाई देते हैं। इस नगरी के भग्नावशेषों से स्पष्ट है कि यह नगरी तीसरी सदी ईसा पूर्व से छठीं सदी ईसा पूर्व तक एक समृद्ध नगर था। वर्तमान नगरी से कुछ दूर आज भी विशाल प्रस्तर खण्ड प्राकार के रुप में मिलते हैं जो तीसरी सदी ईसा पूर्व के स्थापत्य की विशालता और विलक्षणता प्रमाणित करते हैं। नगर के दक्षिण की ओर नहर के अवशेष मिले हैं जो नदी की बाढ़ से नगर को सुरक्षित रखनो तथा कृषि के उपयोगार्थ बनायी गई थी। यहाँ से मिलने वाली ईंटें, प्रस्तर खण्ड, प्राकार के लम्बे और ऊँचे पत्थर उस युग के स्थापत्य कौशल के अद्वितीय उदाहरण हैं तथा प्रमाणित करते हैं कि उस समय धार्मिक तथा सार्वजनिक भवनों की मिर्माण कला उच्च स्तर की थी, जो आगे आने वाले युग के लिए अद्वितीय देन थी। इसी तरह उस युग के उत्तरपूर्वी तथा दक्षिण - पश्चिमी राजस्थान, जयपुर तथा कोया के आसपास के क्षेत्र वास्तुकला की दृष्टि से महत्व के हैं। उदाहरणार्थ, नाद्रसा (२२५ ई०) ककोटनगर, रंगमहल आदि अपने धर्म, कृषि वाणिज्य, व्यापार तथा शिल्प की समृद्ध स्थिती के कारण अच्छी बस्ती के स्थान थे। पुरमण्डल, हाडौती, शेखामटी और जाँगल प्रदेश में भी स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। परन्तु जब हम गुप्तकाल और गुप्तोत्तर काल में प्रव्श करते हैं तो राजस्थान के स्थापत्य में एक शक्ति और दक्षता का संचार दिखाई देता है। मेनाल, अमझेरा, डबोक आदि कस्बों के भग्नावशेषों से परावर्ती शताब्दी के नगर निर्माण के अच्छे उदाहरण मिलते बैं। कुण्ड, वापिकाएँ, सड़कें, मंदिर, नालियाँ, आदि का प्रमाणिक संतुलन इन खण्डहरों में देखने को मिलता है। इस समूचे काल के सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक चेतना ने भवन निर्माण तथा नगम विकास योजनाओं को ईंटों तथा पत्थर के आकार और प्रकार से आभारित किया। इसी तरह कल्याणपुर का वीरान नगर हमें स्थापत्य के क्षेत्र में नयी दिशा में सोचने की ओर आकृष्ट करता है। यह नगर निकवर्ती दो धाराओं वाली नदी के बीच में बसा हुआ था जिसके किनारे - किनारे मंदिर और बीच - बीच में बस्ती, खेत आदि के खण्डहर दिखाई देते हैं। कल्याणपुर तथा बसी आदि नगरों से मिलने वाले ईंटों को देखकर यह आश्चर्य होता है कि उस युग की संस्कृति कितनी विकसित रही होगी !
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