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मध्यकाल में राजस्थान में
भी भक्ति आन्दोलन हुआ था, जिसमें
दादू, मीरा तथा रामस्नेही के सन्त
आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।
दादू : दादू एक महान सन्त थे।
आचार्य क्षितिज, मोहन सेन,
मोहसिन, फानी एवं विल्सन आदि
विद्वानों का मानना है कि वे जाति
से धुनिया मुसलमान थे, परन्तु
दादू पंथी उनकी जाति के बारे में
मौन हैं।
दादू का जन्म १५४४ ई० में हुआ
था। उनका पालन पोषण लोदीराम
नामक ब्राह्मण ने किया था। बचपन में
उनकी शादी कर दी गई, परन्तु उनकी
आध्यात्मिकता के क्षेत्र में बहुत रुचि
थी, अत: उन्होंने विभिन्न धर्मों के
आडम्बरों का खण्डण किया एवं
जीवनपर्यन्त अपने विचारों का प्रचार
करते रहे। उनके शिष्यों की संख्या
में निरन्तर वृद्धि होती गई। अन्त में
१६०३ ई० में आमेर के पास नरायणा
नामक स्थान पर उन्होंने देह को
छोड़ दिया।
दादू के
दार्शनिक विचार :
दादू ने अपने विचार काव्य
के माध्यम से व्यक्त किये
हैं।"दादूवाणी"एवं"दादूजी
के दूहा"के माध्यम से हमें
इनके विचारों के बारे में
जानकारी प्राप्त होती है। उन्होंने
अपने विचार सरल भाषा में प्रस्तुत
किए हैं। उनका मानना है कि ईश्वर
परब्रह्म है एवं माया से दूर है।
वह सर्वशक्तिमान है तथा जीव उसी
का रुप है, किन्तु वह माया में
लिप्त रहता है, अत: उससे दूर
हो जाता है। जीव कर्मों से बँधा
हुआ है, पर ब्रह्मा कर्मों से मुक्त है।
कर्मों के बन्धन से मुक्त होकर जीव
ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
इसके बाद आत्मा व परमात्मा के
बारे में कोई अन्तर नहीं रह
जाता।
दादू के अनुसार माया ही
आत्मा को परमात्मा से दूर ले
जाती है। कंचन तथा कामिनी माया
के प्रतीक हैं। उनका मानना था कि
सृष्टि की उत्पत्ति पृथ्वी, जल, वायु,
आकाश तथा ब्रह्म से हुई है। इनके
अनुसार केवल ब्रह्म को छोड़कर
शेष सभी मि है। दादू का
मानना था कि यदि मनुष्य अपनी
आत्मा को शुद्ध कर ले, तो वह इसी
जीवन में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
उन्होंने गुरु के महत्व पर बहुत
बल दिया। उनका मानना था कि गुरु
के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता
तथा गुरु ही व्यक्ति को ब्रह्म भी बना
सकता है। शाश्वत सत्य सद्गुरु की
कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
उनके शब्दों में ----
"दादू सत्गुरु ऐसा कीजिए,
राम रस माता
पार उतारे पलक में, दरसन का
दाता।"
दादू के साधना
के बारे में विचार :
दादू निर्गुण ब्रह्म के उपासक
थे। उनके अनुसार अहं का परित्याग,
संयम, नियम, साधु - संगति, हरि
स्मरण एवं अनतध्र्यान आदि साधना के
सच्चे साधन हैं। उनका मानना था कि
अहंकार का परित्याग किये बिना
ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा
सकता। मन की निर्मलता के लिए
उन्होंने विरह को साधन बताया
है। उनका मानना था कि साधुओं
कीसंगति से व्यक्ति का मन ब्रह्म में
लगा रहता है।
दादू का यह भी कहना था
कि हरि स्मारक विचार के साथ -
साथ आन्तरिक एवं मानसिक भी
होना चाहिए। यदि
हरि नाम जपते - जपते प्राण भी चले
जाए, तो भी तप का तार नहीं टूटना
चाहिए।
दादू ने कहा कि नाम
माहात्म्य सुनना, स्मरण करना
साधना की प्रथम अवस्था है। ऐसे
जपना कि उसे दूसरे भी नहीं सुन
सकें, यह दूसरी अवस्था है। हृदय
में चिन्तन करना तीसरी अवस्था है।
परन्तु जब रोम - रोम में चिन्तन
व जाप होने लगता है, तो चौथी
अवस्था आती है, यह जीव तथा ब्रह्म की
एकता की अवस्था है।
डा० पेमाराम के अनुसार,
"दादू ने बहिर्मुखी साधना के
आडम्बर का खण्डण कर अन्तर्मुखी
साधना पर बल दिया था।"
दादू के
सामाजिक विचार :
दादू ने समाज नें प्रचलित
ढ़ोंग, पाखण्ड,आडम्बर, जात - पांत
तथा वर्गभेद आदि बुराईयों का
जोरदार खण्डण किया है। उन्होंने
तीर्थ यात्रा को ढकोसला बताते
हुए कहा है कि ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति
के मन में निवास करता है, अत:
तीर्थ स्थानों पर जाकर उसे ढूँढ़ना
एक ढ़कोसला मात्र है। उन्होंने कहा
कि सिर मुंडाकर, जटा बढ़ाकर,
विविध प्रकार के वस्र धारण करने
से ईश्वर प्राप्त नहीं होता। उनका
कहना था कि मस्जिदमें जाना, नमाज
पढ़ना एवं रोजे रखना भी व्यर्थ
है। उन्होंने कहा कि हमारे शरीर
में ही मंदिर तथा मस्जिद विद्यमान
हैं, अत: हमें अन्त: करण की उपासना
करनी चाहिए।
दादू विविध पूजा -
पद्धतियों के विरोधी थे। उनके
अनुसार ईश्वर एक है और उसके
दरबार में मनुष्य - मनुष्य के
बीच कोई अन्तर नहीं है। हिन्दू
और मुसलमान का वर्ग भेद
मानव निर्मित है, जिसका कोई
महत्व नहीं है। सभी जीवात्माएँ एक
ही ईश्वर से उत्पन्न होती हैं, अत:
वे एक ही परिवार की इकाईयाँ
हैं। सभी के शरीर में एक ही आत्मा
है। इसीलिए दादू ने हिन्दू और
मुसलमान के बाहरी आडम्बरों
का खण्डण किया एवं दोनों को
अन्त:करण की शुद्धि का उपदेश दिया।
दादू विनमर्ता से अपनी बात कहते
हैं और इनकी शैली सरल तथा
स्पष्ट है। इसके विपरीत कबीर के
कहने में थोड़ी उग्रता दिखाई देती
है।
दादू का प्रभाव
व देन :
"दादू जन्म - लीली
परची"तथा"सन्त गुण
सागर"नामक ग्रन्थों से पता चलता
है कि दादू के शिष्यों में १५२ प्रधान
शिष्य थे, जिनमें से १०० वीतरागी थे
अर्थात् उन्होंने अपना एक भी शिष्य
नहीं बनाया, जबकि शेष ५२ ने अपने -
अपने स्तम्भों की स्थापना की। इस
प्रकार गुरु - शिष्य की परम्परा आगे
भी चलती रही। ये स्तम्भ
ही"दादू पंथी सम्प्रदाय"के
नाम से प्रसिद्ध हैं।
दादू पंथ साधु अविवाहित
होते हैं, और दादू द्वारों में
रहते हैं। वे किसी गृहस्थ के
लड़के को अपना शिष्य बनाते हैं,
जिससे उनके पंथ की परम्परा आगे
बढ़ती रहती है। दादूपंथी तिलक
नहीं लगाते हैं, गले में माला नहीं
पहनते हैं, सिर पर चोटी नहीं
रखते हैं और किसी मंदिर में
जाकर पूजा नहीं करते हैं। वे अपने
दादू द्वारों में दादूजी की वाणी
नामक ग्रन्थ रखते हैं तथा उसका
वाचन अर्चन करते हैं। दादूपंथियों
में मृत्यु के बाद शव को न तो
दफनाया जाता है और न ही
जलाया जाता है, अपितु शव को
चारपाई पर लिटाकर जंगल में
रख दिया जाता है, ताकि पशु - पक्षी
उससे अपना पेट भर सकें।
इस प्रकार दादू तथा उसके
सम्प्रदाय ने १६वीं शताब्दी में
राजस्थान में व्याप्त सामाजिक
कुरीतियों तथा धार्मिक आडम्बरों
का खण्डण किया, जिससे नवजागृति
उत्पन्न हुई। दादू ने अपने उपदेश जन
भाषा में दिये।।
उन्होंने"ढूँढाड़ी"भाषा का
प्रयोग किया, जो भूतपूर्व
जयपुर राज्य के जनसाधारण की
बोलचाल की भाषा थी।
डॉ० दशरथ शर्मा ने अपनी
पुस्तक"राजस्थान का
इतिहास"में लिखा है,"दादू
पंथ में प्रेम एक ऐसा धागा है,
जिसमें गरीब और अमीर एक साथ
बांधे जा सकते हैं और जिसकी
एकसूत्रता विश्व - कल्याण का मार्ग
प्रशस्त कर सकती है।
रामस्नेही
सम्प्रदाय :
सुप्रसिद्ध सन्त सन्तदास की
शिष्य परम्परा में सन्त दरियाबजी
तथा सन्त रामचरण जी हुए। सन्त
रामचरण जी
शाहपुरा की रामस्नेही शाखा के
प्रवर्तक थे, जबकि सन्त दरियाबजी
रैण के रामस्नेही शाखा के थे।
सन्त दरियाबजी
:
इनका जन्म जैतारण में १६७६
ई० में हुआ था। इनके गुरु का नाम
सन्तदास था। इन्होंने कठोर
साधना करने के बाद अपने
विचारों का प्रचार किया। उन्होंने
गुरु को सर्वोपरि देवता मानते
हुए कहा कि गुरु भक्ति के
माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त किया जा
सकता है। भक्ति के समस्त साधनों
एवं कर्मकाण्डों में इन्होंने राम
के नाम को जपना ही सर्वश्रेष्ठ
बतलाया तथा पुनर्जन्म के बन्धनों
से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन
माना।
उन्होंने राम शब्द में हिन्दू
- मुस्लिम की समन्वय की भावना का
प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि
"रा"शब्द तो
स्वयं भगवान राम का प्रतीक है,
जबकि 'म' शब्द मुहम्मद साहब का
प्रतीक है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ
जीवन जीने वाला व्यक्ति भी कपट
रहित साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त
कर सकता है। इसके लिए गृहस्थ
जीवन का त्याग करना आवश्यक नहीं
है। दरियाबजी ने बताया है कि
किस प्रकार व्यक्ति निरन्तर राम
नाम का जप कर
ब्रह्म में लीन हो सकता है।
सन्त दरियाबजी ने समाज
में प्रचलित आडम्बरों, रुढियों एवं
अंधविश्वासों का भी विरोध किया
उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा, स्नान,
जप, तप, व्रत, उपवास तथा हाध में
माला लेने मात्र से ब्रह्म को प्राप्त
नहीं किया जा सकता। वे मूर्ति पूजा
तथा वर्ण पूजा के घोर विरोधी
थे। उन्होंने कहा कि इन्द्रिय सुख
दु:खदायी है, अत: लोगों को
चाहिए कि वे राम नाम का स्मरण
करते रहें। उनका मानना था कि वेद,
पुराण आदि भ्रमित करने वाले हैं।
इस प्रकार दरियाबजी ने राम
भक्ती का अनुपम प्रचार किया।
सन्त रामचरण
:
सन्त रामचरण शाहपुरा
की रामस्नेही की शाखा के प्रवर्तक
थे। उनका जन्म १७१९ ई० में हुआ था।
पहले वे जयपुर नरेश के मन्त्री
बने, परन्तु बाद में इन्होंने
अचानक सन्यास ग्रहण कर लिया तथा
सन्तदास के शिष्य महाराज
कृपाराम को उन्होंने अपना गुरु
बना लिया। इन्होंने कठोर साधना
की और अन्त में शाहपुरा में बस
गये। इन्होंने यहाँ पर मठ
स्थापित किया तथा राज्य के विभिन्न
भागों में रामद्वारे बनवाये। इस
प्रकार वे अपने विचारों तथा राम
नाम का प्रचार करते रहे।
सन्त रामचरण ने भी मोक्ष
प्राप्ति के लिए गुरु के महत्व पर
अधिक बल दिया। उनके नाम को जपने
से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
उन्होंने सत्संग पर विशेष बल
दिया। उनका मानना था कि जिस प्रकार
गंगा के पानी में मिलने के बाद
नालों का गन्दा पानी भी पवित्र हो
जाता है, उसी प्रकार मोहमाया में
लिप्तव्यक्ति भी साधुओं की संगति
से निर्मल हो जाता है।
रामचरण जी ने भी मूर्ति
पूजा, तीर्थ यात्रा,
बहुदेवोपासना कन्या विक्रय,
हिन्दू - मुस्लिम भेदभाव तथा
साधुओं का कपटाचरण आदि बातों
का जोरदार विरोध किया। उनका
मानना था कि मंदिर तथा मस्जिद
दोनों भ्रम हैं तथा पूजा - पाठ,
नमाज एवं तीर्थ यात्रा आदि ढोंग हैं,
अर्थात् धार्मिक आडम्बर हैं। वे
भांग, तम्बाकू एवं शराब के सेवन
तथा मांस - भक्षण के भी विरोधी
थे।
रामस्नेही
सन्तों का प्रभाव :
रामस्नेही सन्तों ने राम -
नाम के पावन मन्त्र का प्रचार करते
हुए लोगों को राम की भक्ति का
सन्देश पहुँचाया। उनकी शिष्य
परम्परा के विकास के साथ - साथ
स्थान - स्थान पर रामद्वारों की
स्थापना होती गई। रामस्नेही
साधु इन्हीं रामद्वारों में निवास
करते हैं तथा राम नाम को जपते
रहते हैं। वे आजीवन ब्रह्मचर्य का
पालन करते हैं। हिन्दू परिवार के
युवकों तथा बच्चों को दीक्षा देकर
शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
ये मिट्टी का बर्तन में भोजन
करते हैं और लकड़ी के कमण्डल से
पानी पीते हैं।
राम - स्नेही मूर्ति पूजा
नहीं करते हैं, अपितु गुरुद्वारे में
अपने गुरु का चित्र अवश्य रखते हैं
और प्रात:काल तथा सायंकाल को
गुरुवाणी का पाठ करते हैं।
रामचरण सम्प्रदाय में धार्मिक
निष्ठा, अनुशासन, सत्य निष्ठा तथा
नैतिक आचरण पर विशेष बल
दिया जाता है। वे मांस - भक्षण
नहीं करते हैं, सिर्फ शाकाहारी
भोजन करते हैं। गुरुवाणी को
बड़े प्रेम से गाया जाता है। इनकी
शाखाएँ अलग - अलग होते हुए भी
इनका मूल स्रोत एक समान है।
अत: सभी शाखाओं, व्यवस्था तथा
आचार - व्यवहार में एकरुपता
दिखाई देती है।
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