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मध्यकाल में राजस्थानमें
अनेक संत हुए, जिन्होंने यहाँ के
धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन को
नवीन गति प्रदान की। डॉ पेमाराम
के अनुसार, "उन्होंने हिन्दू तथा
इस्लाम में प्रचलित आडम्बरों तथा
रुढियों का खण्डण किया और समाज
के वास्तविक रुप को समझने का
निर्देश दिया।"
जाम्भोजी :
जाम्भोजी का जन्म, १४५१ ई० में
नागौर जिले के पीपासर नामक
गाँव में हुआ था। ये जाति से
पंवार राजपूत थे। इनके पिता का
नाम लोहाट और माता का नाम
हंसा देवी थी। ये अपने माता -
पिता की इकलौती संतान थे। अत:
माता - पिता उन्हें बहुत प्यार करते
थे। डॉ० जी० एन० शर्मा के
अनुसार,"जाम्भोजी बाल्यावस्था
से ही मननशील थे तथा वे कम
बोलते थे, इसलिए लोग उन्हें
गूँगा कहते थे। उन्होंने सात वर्ष
की आयु से लेकर १६ वर्ष कीआयु तक
गाय चराने का काम किया।
तत्पश्चात् उनका साक्षात्कार गुरु से
हुआ। माता - पिता की मृत्यु के बाद
जाम्भोजी ने अपना घर छोड़ दिया
और सभा स्थल (बीकानेर) चले
गये तथा वहीं पर सत्संग एवं हरि
चर्चा में अपना समय गुजारते रहे।
१४८२ ई० में उन्होंने कार्तिक अष्टमी को
विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की।
जाम्भोजी चिन्तनशील एवं
मननशील थे। उन्होंने उस युग की
साम्प्रदायिक संकीर्णता, कुप्रथाओं
एवं अंधविश्वासों का विरोध करते
हुए कहा था कि -
"सुण रे काजी, सुण रे
मुल्लां, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरणी छाली रोसी, किणरी
गाडर गाई।।
धवणा धूजै पहाड़ पूजै, वे
फरमान खुदाई।
गुरु चेले के पाए लागे, देखोलो
अन्याई।।"
वे सामाजिक दशा को
सुधारना चाहते थे, ताकि
अन्धविश्वास एवं नैतिक पतन के
वातावरण को रोका जा
सके और आत्मबोध द्वारा कल्याण का
मार्ग अपनाया जा सके। संसार के
मि होने पर भी उन्होंने समन्वय
की प्रवृत्ति पर बल दिया। दान की
अपेक्षा उन्होंने ' शील स्नान ' को उत्तम
बताया। उन्होंने पाखण्ड को अधर्म
बताया और विधवा विवाह पर
बल दिया। उन्होंने पवित्र जीवन
व्यतीत करने पर बल दिया। ईश्वर
के बारे में उन्होंने कहा -
"तिल मां तेल पोहप
मां वास,
पांच पंत मां लियो परगास।"
जाम्भोजी ने गुरु के बारे
में कहा था -
"पाहण प्रीती फिटा करि
प्राणी,
गुरु विणि मुकति न आई।"
भक्ति पर बल देते हुए
उन्होंने कहा था -
"भुला प्राणी विसन जपो
रे,
मरण विसारों के हूं।"
जाम्भोजी ने जाति भेद का
विरोध करते हुए कहा था कि उत्तम
कुल में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति
उत्तम नहीं बन सकता, इसके लिए तो
उत्तम करनी होनी चाहिए। उन्होंने
कहा -
"तांहके मूले छोति न
होई।
दिल-दिल आप खुदायबंद जागै,
सब दिल जाग्यो लोई।"
तीर्थ यात्रा के बारे में
विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा
था :
"अड़सठि तीरथ हिरदै
भीतर, बाहरी लोकाचारु।"
मुसलमानों के बांग देने
की परम्परा के बारे में उन्होंने
कहा था -
"दिल साबिति हज
काबो नेड़ौ, क्या उलवंग
पुकारो।"
डॉ पेमाराम के अनुसार,
उनके विचार कबीर से काफी
मिलते- जुलते थे। जाम्भोजी १५२६ ई०
में तालवा नामक ग्राम में परलोक
सिधार गए। उनकी स्मृति में
विश्नोई भक्त फान्गुन मास की
त्रियोदशी को वहाँ उन्हें
श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जाम्भोजी
की शिक्षाएँ, सबदवाणी एवं उनका
नैतिक जीवन मध्य युगीन धर्म
सुधारक प्रवृत्ति के प्रमुख अंग हैं।
विश्नोई
सम्प्रदाय
जाम्भोजी द्वारा प्रवर्तित
इस सम्प्रदाय के अनुयायियों के
लिए उनतीस नियमों का पालन करना
आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक
कहावत बहुत प्रसिद्ध है, जो इस
प्रकार है -
"उणतीस धर्म की आंकड़ी,
हृदय धरियो जोय।
जम्भेशेवर कृप करें, बहुरि जभ
न होय। "
१) प्रतिदिन प्रात:काल स्नान
करना।
२) ३० दिन जनन - सूतक मानना।
३) ५ दिन रजस्वता स्री को गृह
कार्यों से मुक्त रखना।
४) शील का पालन करना।
५) संतोष का धारण करना।
६) बाहरी एवं आन्तरिक शुद्धता एवं
पवित्रता को बनाये रखना।
७) तीन समय संध्या उपासना करना।
८) संध्या के समय आरती करना एवं
ईश्वर के गुणों के बारे में
चिंतन करना।
९) निष्ठा एवं प्रेमपूर्वक हवन
करना।
१०) पानी, ईंधन व दूध को छान-बीन
कर प्रयोग में लेना।
११) वाणी का संयम करना।
१२) दया एवं क्षमाको धारण करना।
१३) चोरी,
१४) निंदा,
१५) झूठ तथा
१६) वाद - विवाद का त्याग करना।
१७) अमावश्या के दिनव्रत करना।
१८) विष्णु का भजन करना।
१९) जीवों के प्रति दया का भाव
रखना।
२०) हरा वृक्ष नहीं कटवाना।
२१) काम, क्रोध, मोह एवं लोभ का
नाश करना।
२२) रसोई अपने हाध से बनाना।
२३) परोपकारी पशुओं की रक्षा
करना।
२४) अमल,
२५) तम्बाकू,
२६) भांग
२७) मद्य तथा
२८) नील का त्याग करना।
२९) बैल को बधिया नहीं करवाना।
जाम्भोजी की शिक्षाओं पर
अन्य धर्मों का प्रभाव स्पष्ट रुप से
दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने जैन
धर्म से अहिंसा
एवं दया का सिद्धान्त तथा इस्लाम
धर्म से मुर्दों को गाड़ना, विवाह
के समय फेरे न लेना आदि
सिद्धान्त ग्रहण किये हैं। उनकी
शिक्षाओं पर वैष्णव सम्प्रदाय तथा
नानकपंथ का भी बड़ा प्रभाव है।
डॉ पेमाराम के
अनुसार,"इस प्रकार जाम्भोजी ने
वैष्णव, जैन, इस्लाम धर्म के
सिद्धान्तों का समन्वय करके एक
सार्वभौमिक पंथ (विश्णोई) को
जन्म दिया।"
दीक्षा विधि :
जो व्यक्ति इस सम्प्रदाय के २९
नियमों का पालन करने के लिए
तैयार हो जाता है, इसे दीक्षा दी
जाती है। दीक्षा मंत्र तारक मंत्र या
गुरु मंत्र कहलाता था, जो इस
प्रकार था --
"ओं शब्द गुरु सुरत
चेला, पाँच तत्व में रहे अकेला।
सहजे जोगी सुन में वास, पाँच
तत्व में लियो प्रकाश।।
ना मेरे भाई, ना मेरे बाप,
अलग निरंजन आप ही आप।
गंगा जमुना बहे सरस्वती,
कोई- कोई न्हावे विरला जती।।
तारक मंत्र पार गिराय, गुरु
बताओ निश्चय नाम।
जो कोई सुमिरै, उतरे पार,
बहुरि न आवे मैली धार।। "
इस सम्प्रदाय में गुरु
दीक्षा एवं डोली पाहल आदि
संस्कार साधुओं द्वारा सम्पादित
करवाये जाते हैं, जिनमें कुछ
महन्त भी भाग लेते हैं। वे महन्त,
स्थानविशेष की गद्दी के अधिकारी
होते हैं परन्तु थापन नामक वर्ग
के लोग नामकरण, विवाह एवं
अन्तयेष्टि आदि संस्कारों को
सम्पादित करवाते हैं। चेतावनी
लिखने एवं समारोहों के
अवसरों पर गाने बजाने आदि
कार्यों के लिए गायन अलग होते
हैं।
अभिवादन का
तरीका :
इस सम्प्रदाय में परस्पर
मिलने पर अभिवादन के लिए 'नवम
प्रणाम', तथा प्रतिवचन में' विष्णु नै
जांभौजी नै' कहा जाता है।
सम्प्रदाय की
विशिष्ट वेशभूषा :
जाम्भोजी के समय तथा
उनके निकटवर्ती काल में विश्नोई
समाज की कोई विश्नोई
विशिष्ट वेशभूषा नहीं थी,
परन्तु धीरे - धीरे इनकी विशिष्ट
वेशभूषा बन गई थी। रिपोर्ट
मर्दुमशुमार राज. मारवाड़ से
पता चलता है कि विश्नोई
औरतें लाल और काली ऊन के
कपड़े पहनती हैं। वे सिर्फ लाख
का चूड़ा ही पहनती हैं। वे न तो
बदन गुदाती हैं न तो दाँतों पर
सोना चढ़ाती है। विश्नोई लोग
नीले रंगके कपड़े पहनना पसंद
नहीं करते हैं। वे ऊनी वस्र
पहनना अच्छा मानते हैं, क्योंकी उसे
पवित्र मानते हैं। साधु कान तक
आने वाली तीखी जांभोजी टोपी
एवं चपटे मनकों की आबनूस की
काली माला पहनते हैं। महन्त
प्राय: धोती, कमीज और सिर पर
भगवा साफा बाँधते हैं।
मृतक संस्कार
:
मोहसिन फानी ने लिखा
है कि विश्नोईयों में शव को
गाड़ने की प्रथा प्रचलित थी।
विश्नोई सम्प्रदाय मूर्ति
पूजा में विश्वास महीं करता है।
अत: जाम्भोजी के मंदिर और
साथरियों में किसी प्रकार की
मूर्ति नहीं होती है। कुछ स्थानों
पर इस सम्प्रदाय के सदस्य
जाम्भोजी की वस्तुओं की पूजा
करते हैं। जैसे कि पीपसार में
जाम्भोजी की खड़ाऊ जोड़ी,
मुकाम में टोपी, पिछोवड़ों
जांगलू में भिक्षा पात्र तथा चोला
एवं लोहावट में पैर के
निशानों की पूजा की जाती है।
वहाँ प्रतिदिन हवन - भजन होता
है और विष्णु स्तुति एवं उपासना,
संध्यादि कर्म तथा जम्भा जागरण
भी सम्पन्न होता है।
विश्नोई सम्प्रदाय
का समाज पर प्रभाव :
इस सम्प्रदाय के लोग जात
- पात में विश्वास नहीं रखते। अत:
हिन्दू -मुसलमान दोनों ही जाति
के लोग इनको स्वीकार करते
हैं। श्री जंभ सार लक्ष्य से इस
बात की पुष्टि होती है कि सभी
जातियों के लोग इस सम्प्रदाय
में दीक्षीत हुए। उदाहरणस्वरुप,
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तेली,
धोबी, खाती, नाई, डमरु, भाट,
छीपा, मुसलमान, जाट, एवं साईं
आदि जाति के लोगों ने मंत्रित जल
(पाहल) लेकर इस सम्प्रदाय में
दीक्षा ग्रहण की।
राजस्थान में जोधपुर
तथा बीकानेर राज्य में बड़ी
संख्या में इस सम्प्रदाय के मंदिर
और साथरियां बनी हुई हैं।
मुकाम (तालवा) नामक स्थान पर
इस सम्प्रदाय का मुख्य मंदिर
बना हुआ है। यहाँ प्रतिवर्ष
फाल्गुन की अमावश्या को एक बहुत
बड़ा मेला लगता है जिसमें
हजारों लोग भाग लेते हैं। इस
सम्प्रदाय के अन्य तीर्थस्थानों में
जांभोलाव, पीपासार,
संभराथल, जांगलू,लोहावर,
लालासार आदि तीर्थ विशेष रुप
से उल्लेखनीय हैं। इनमें
जांभोलाव विश्नोईयों का
तीर्थराज तथा संभराथल मथुरा
और द्वारिका के सदृश माने जाते
हैं। इसके अतिरिक्त रायसिंह नगर,
पदमपुर, चक, पीलीबंगा,
संगरिया, तन्दूरवाली,
श्रीगंगानगर, रिडमलसर,
लखासर, कोलायत (बीकानेर),
लाम्बा, तिलवासणी, अलाय
(नागौर)एवं पुष्कर आदि स्थानों
पर भी इस सम्प्रदाय के छोटे
-छोटे मंदिर बने हुए हैं। इस
सम्प्रदाय का राजस्थान से बाहर
भी प्रचार हुआ। पंजाब, हरियाणा,
मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश आदि
राज्यों में बने हुए मंदिर इस
बात की पुष्टि करते हैं।
जाम्भोजी की शिक्षाओं का
विश्नोईयों पर बहुत अधिक
प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस सम्प्रदाय
के लोग न तो मांस
खाते हैं और न ही शराब पीते हैं।
इसके अतिरिक्त वे अपनी ग्राम की
सीमा में हिरण या अन्य किसी पशु
का शिकार भी नहीं करने देते हैं।
इस सम्प्रदाय के सदस्य
पशु हत्या किसी भी कीमत पर नहीं
होने देते हैं। बीकानेर राज्य के
एक परवाने से पता चलता है कि
तालवा के महंत ने दीने नामक
व्यक्ति से पशु हत्या की आशंका के
कारण उसका मेढ़ा छीन लिया था।
व्यक्ति को नियम विरुद्ध
कार्य करने से रोकने के लिए
प्रत्येक विश्नोई गाँव में एक
पंचायत होती थी। नियम विरुद्ध
कार्य करने वाले व्यक्ति को यह
पंचायत धर्म या जाति से पदच्युत
करने की घोषणा कर देती थी।
उदाहरणस्वरुप संवत् २००१ में बाबू
नामक व्यक्ति ने रुडकली गाँव में
मुर्गे को मार दिया था, इस पर
वहाँ पंचायत ने उसे जाति से
बाहर कर दिया था।
ग्रामीण पंचायतों के अलावा
बड़े पैमाने पर भी विश्नोईयों
की एक पंचायत होती थी, जो
जांभोलाव एवं मुकाम पर
आयोजित होने वाले सबसे बड़े
मेले के अवसर पर बैठती थी।
इसमें इस सम्प्रदाय के बने हुए
नियमों के पालन करने पर जोर
दिया जाता था। विभिन्न मेलों के
अवसर पर लिये गये निर्णयों से
पता चलता है कि इस पंचायत की
निर्णित बातें और व्यवस्था का पालन
करना सभी के लिए अनिवार्य था और
जो व्यक्ति इसका उल्लंघन करता था,
उसे विश्नोई समाज से बहिष्कृत
कर दिया जाता था।
विश्नोई गाँव में कोई
भी व्यक्ति खेजड़े या शमी वृक्ष की
हरी डाली नहीं काट सकता था। इस
सम्प्रदाय के जिन स्री - पुरुषों ने
खेजड़े और हरे वृक्षों को काटा
था, उन्होंने स्वेच्छा से आत्मोत्सर्ग
किया था। इस बात की पुष्टि
जाम्भोजी सम्बन्धी साहित्य से
होती है।
राजस्थान के शासकों ने भी
इस सम्प्रदाय को मान्यता देते हुए
हमेशा उसके धार्मिक विश्वासों का
ध्यान रखा है। यही कारण है कि
जोधपुर व बिकानेर राज्य की
ओर से समय - समय पर अनेक
आदेश गाँव के पट्टायतों को दिए
गए हैं, जिनमें उन्हें विश्नोई
गाँवों में खेजड़े न काटने और
शिकार न करने का निर्देश दिया
गया है।
बीकानेर ने संवत् १९०७ में
कसाइयों को बकरे लेकर किसी
भी विश्नोई गाँव में से होकर
न गुजरने का आदेश दिया।
बीकानेर राज्य के शासकों ने
समय - समय पर विश्नोई
मंदिरों को भूमिदान दिए गए हैं।
ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि
सुजानसिंह ने मुकाम मंदिर को
३००० बीघा एवं जांगलू मंदिर को १०००
बीघा जमीन दी थी।
बीकानेर ने संवत् १८७७ व
१८८७ में एक आदेश जारी किया था,
जिसके अनुसार थापनों से बिना
गुनाह के कुछ भी न लेने का
निर्देश दिया था। इस प्रकार
जोधपुर राज्य के शासक ने भी
विश्नोईयों को जमीन एवं लगान
के सम्बन्ध में अनेक रियायतें प्रदान
की थीं। उदयपुर के महाराणा
भीमसिंह जी और जवानसिंह जी ने
भी जोधपुर के विश्नोईयों की
पूर्व परम्परा अनुसार ही मान -
मर्यादा रखने और कर लगाने के
परवाने दिये थे।
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