भक्ति आन्दोलन की
प्रबलता
मध्यकालीन भारत की
सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना भक्ति
आन्दोलन का प्रबल होना था। कुछ
विद्वानों का मानना है कि भक्ति
आन्दोलन इस्लाम की देन था, किन्तु
दकिंक्षण भारत में यह आन्दोलन छठी
शताब्दी से नवीं शताब्दी के बीच
प्रारम्भ हो गया था। भक्ति का
प्रारम्भ ही दक्षिण भारत से माना
जाता है, और यहाँ के आलावार
सन्तों ने इस आन्दोलन को प्रारम्भ
किया था। बाद में रामानुज ने इस
आन्दोलन को दार्शनिक रुप प्रदान
किया। अत: यह धारणा मि है
कि भक्ति आन्दोलन इस्लान की देन
है। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में
उत्तर भारत में इस आन्दोलन को
प्रबल बनाने का श्रेय रामानंद को
जाता है। रामानंद के १२ शिष्य थे।
वे अपने शिष्यों के साथ अपने मत
का प्रचार करने के लिए उत्तरी भारत
का भ्रमण करने लगे। उनके इस
प्रचार का राजस्थान पर भी प्रभाव
किया। उनके शिष्यों में कबीर
प्रमुख थे। कबीर ने अपने विचारों
से राजस्थान को भी प्रभावित
किया। इसके फलस्वरुप राजस्थान
में भी कई धर्म प्रचारकों का
आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी भारत
के अन्य सन्तों की भाँति परम्परागत
धर्म में व्याप्त दोषों को दूर
करने का हर संभव प्रयास किया।
परिणामस्वरुप राजस्थान में भी
धर्म सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुआ।
राजस्थान में
इस्लाम का प्रवेश
ग्यारहवीं तथा बारहवीं
शताब्दी में मुसलमानों ने
राजस्थान पर निरन्तर आक्रमण किया।
उन्होंने न केवल भारत का धन
लूटा, बल्कि इस्लाम धर्म का प्रचार
भी किया। उनका
प्रमुख उद्देश्य भारत में अपनी सत्ता
स्थापित करके यहाँ की सम्पत्ति को
लूटना एवं इस्लाम धर्म का प्रचार
करना था। इसलिए मुसलमानों ने
सत्ता में आते ही हिन्दू मंदिरों
को नष्ट करना एवं हिन्दुओं को
बलपूर्वक मुसलमान बनाना
प्रारम्भ कर दिया। मुसलमानों ने
राजस्थान में अजमेर को अपना केन्द्र
बनाया। यहाँ से ही उन्होंने
जालौर, नागौर, चित्तौड़ एवं
मांडल की ओर प्रस्थान किया था।
वहाँ भी उन्होंने मंदिरों को
गिराना एवं मूर्तियों को नष्ट
करना जारी रखा। मुसलमानों के
धार्मिक अत्याचारों ने हिन्दुओं को
अपनी धार्मिक आस्था से डिगा दिया।
जब ईश्वर ने उनकी रक्षा नहीं की,
तो ऐसी स्थिती में वे निराशा के
सागर में निमग्न हो गये। ऐसे
वातावरण में धर्म सुधारकों ने
धर्म में व्याप्त बुराईयों को
दूर किया और निराश हिन्दुओं के
दिल में अपने धर्म के प्रति आस्था का
पुन: संचार किया।
हिन्दुओं तथा
मुसलमानों में समन्वयात्मक
भावना का उदय
मुसलमानों ने प्रारम्भ में
आक्रमणकारी के रुप में धर्म के नाम
पर अत्यधिक अत्याचार किए। अत:
हिन्दुओं में उनके प्रति रोष एवं
आक्रोश की भावना उत्पन्न होना
स्वाभाविक था, परन्तु जब
मुसलमानों को यहाँ रहते हुए
काफी समय व्यतीत हुआ, तो उनका
धार्मिक जोश भी ठंडा पड़ गया था।
दोनों सम्प्रदायों में विचारों का
आदान- प्रदान होने लगा और
दोनों ने एक दूसरे को समझने का
प्रयत्न किया।
राजस्थान के शासकों ने भी
मुस्लिम धर्माधिकारियों को
सम्मानित करना प्रारम्भ कर दिया।
महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने
अजमेर की दरगाह को चार गाँव
जागीर के रुप में प्रदान किये थे।
मारवाड़ नरेश अजीतसिंह ने भी
दरगाह के खर्चे के लिए कुछ अनुदान
की राशि निश्चित कर दी थी। इस्लाम
के सरल एवं सादगीपूर्ण विचारों
ने हिन्दू धर्म को भी प्रभावित
किया। इसके परिणामस्वरुप हिन्दू
धर्म के कई समाज सुधारकों ने
जाति - पांति, ऊँच - नीच एवं
छुआछूत के भेदभावों का विरोध
किया। इस प्रकार की विचारधारा
से राजस्थान में धार्मिक आन्दोलन
की पृष्टभूमि तैयार हुई।
सूफी मत के
संतों का प्रभाव
सूफी मत सुन्नी मत से
अधिक उदार तथा सरल है। सूफी
सन्तों ने प्यार एवं मधुर वाणी के
माध्यम से अपने विचार हिन्दुओं
तक पहुँचाए। वे धार्मिक आडम्बरों
में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने
अल्लाह तक अपनी आवाज पहुँचाने के
लिए संगीत (कव्वाली) का सहारा
लिया। हिन्दू सन्त सूफी सन्तों के
विचार से काफी प्रभावित हुए और
उन्होंने भी धर्म के बाहरी
आडम्बरों की आलोचना करके
कीर्तन पर अधिक जोर देना प्रारम्भ
कर दिया। सूफी सन्तों तथा
मुस्लिम दरवेशों ने हिन्दुओं
और मुसलमानों के बीच
सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयत्न
किया।
नवीन साहित्यिक
ग्रन्थों का सृजन
सत्रहवीं शताब्दी में सृजित
नवीन साहित्यिक ग्रन्थों ने धार्मिक
आन्दोलन को बल प्रदान किया। हरि
बोल चिन्तामणि व विप्रबोध मानक
साहित्यकारों ने अपने साहित्यिक
ग्रन्थों के माध्यम से हृदय की शुद्धि
पर विशेष बल दिया। विप्रबोध
का मानना था कि हरि सर्वोपरि है
और उसे प्रार्थना के माध्यम से प्राप्त
किया जा सकता है। वह पंडितों
एवं शेखों का विरोधी था। उसका
मानना था कि ये लोग धर्म को
मि आडम्बरों से ही ग्रसित
करते हैं।"पश्चिमाद्रिस्तोत्र ''
नामक ग्रन्थ में राम, रहीम, गोरख,
पीर व अल्लाह को एक ही शक्ति के
विभिन्न नाम बताये गये हैं। इन
साहित्यिक ग्रन्थों की रचना का
परिणाम यह हुआ कि राजस्थान के
लोगों के धार्मिक विचार उदार हो
गये। अब हिन्दुओं ने परम्परागत
धार्मिक विचारों के दायरे से
अपने को मुक्त कर दिया और नवीन
उदार धार्मिक मान्यताओं को महत्व
देना प्रारम्भ कर दिया।
राजस्थान के
सिद्ध पुरुषों का धर्म आन्दोलन में
सहयोग
राजस्थान के इस धार्मिक
आन्दोलन की प्रवृत्ति हमें यहाँ के
सिद्ध पुरुषों के चिंतन में भी स्पष्ट
रुप से दृष्टिगोचर होती है। ऐसे
व्यक्ति जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन
त्याग तथा बलिदान के साथ समाज
सेवा एवं धर्म प्रचार में व्यतीत
कर दिया था, उन्हें सिद्ध पुरुष कहा
जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुषों को
अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं, अत:
जनता ने उन्हें देवत्व की भाँति
पूजना शुरु कर दिया। ऐसे सिद्ध
पुरुषों में गोगाजी, पाबूजी,
तेजाजी एवं मल्लिनाथ आदि के नाम
विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
गोगाजी ने यवनों के शिकंजे से
गायों को छुड़वाने के लिए अपने
प्राणों का बलिदान दे दिया था। उनकी
स्मृति में भाद्रपद की कृष्णा नवमी
को गोगा नवमी का मेला भरता
है।
इसी प्रकार तेजाजी ने
जाटों की गायों को मुक्त करवाने
में अपने प्राण दांव पर लगा दिये
थे। वे खड़नवाल गाँव के निवासी
थे। भादो शुक्ला दशमी को तेजाजी
का पूजन होता है। तेजाजी का
राजस्थान के जाटों में महत्वपूर्ण
स्थान है। अन्य लोक देवों में
पाबूजी, मल्लिनाथ एवं देवजी के
नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं,
जिन्होंने अपने आत्म - बलिदान तथा
सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त
किया था। उन्होंने अपने धार्मिक
विचारों से जनसाधारण को
सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित
किया और जनसेवा के कारण निष्ठा
अर्जित की। उन्होंने जनसाधारण के
हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त
विश्वास को पुन: जागृत किया।
इस प्रकार लोकदेवों ने अपने
सद्कार्यों एवं प्रवचनों से जन -
साधारण में नवचेतना जागृत की,
लोगों की जात - पांत में आस्था कम
हो गई। अत: उनका इस्लाम के प्रति
आकर्षण दिन - प्रतिदिन कम होता
गया। इस प्रकार इन लोक देवताओं
ने धर्म सुधार की पृष्ठभूमि
तैयार कर दी।
धर्म तथा समाज
में व्याप्त आडम्बर एवं कुप्रथायें
हिन्दू समाज तथा धर्म में
कुरीतियों, आडम्बरों एवं पाखण्डों
का बोलबाला था, जिसके कारण
जनसाधारण अन्धविश्वास का शिकार
बना हुआ था। इस समय हिन्दू
समाज अनेक जातियों एवं
उपजातियों में विभक्त हो चुका था
एवं कई नयी जातियाँ भी बन चुकी
थीं। इस समय निम्न जातियों की
दशा बहुत शोचनीय थी। इनकी
बस्तियाँ गाँव के बाहर होती
थीं। स्वर्ण जाति के लोग इनके हाथ
का छुआ पानी नहीं पीते थे।
परिणामस्वरुप निम्न जातियों के
लोग इस्लाम की ओर आकर्षित हुए।
इस स्थिति से बचने के लिए एकमात्र
उपाय यही था कि समाज में व्याप्त
दोषों को दूर किया जाए।
डॉ० पेमाराम ने लिखा है,
"इन सन्तों के द्वारा इस
नवजागरण में आत्मसम्मान तथा
सर्वसाधारण सन्त साधना जैसे
रहस्यमय एवं गूढ़ सिद्धांतों की
व्याख्या बोलचाल की भाषा में
सर्वसाधारण के लिए की जाने लगी।
जो अभी तक ब्राह्मण एवं उच्च वर्ग तक ही
सीमित थी। अब उन गूढ़ एवं रहस्यमय
सिद्धांतों को अनपढ़ व साधारँ ज्ञान
वाले व्यक्ति समझने लगे, जिससे
ये पंथ लोकप्रिय हुए।"
डॉ० गोपीनाथ शर्मा के
अनुसार, "यह युग न केवल
राजस्थान की संस्कृति का, बल्कि
भारत की संस्कृति का एक उज्जवल युग
है। हमारी स्मृति में धार्मिक जीवन
का कोई ऐसा उज्जवल पक्ष इसके
पूर्व इतना नैसर्गिक और फलद नहीं
हो सका।"
|