राजस्थान |
जयपुर
राज्य के शासकों का इतिहास राहुल तोन्गारिया |
दूसरा
जाट युद्ध
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जयसिंह जी द्वितीय का जन्म मिगसर वदी ६ वि० सं० १७४५ ई० को राजा विष्णुसिंह जी की राठौड़ रानी केशरीसिंह खरवा की पुत्री इन्द्र कँवर जी के गर्भ से हुआ था। राजा विष्णुसिंह जी की मृत्यु होने पर मिगसर सुदी ७ वि० सं० १७५६, जनवरी २५ ई० को ये आमेर की गद्दी पर बैठे। इनके पिता के समय में बादशाह इनको दक्षिण में बुलाना चाहते थे। इनके दादा की कम उम्र में दक्षिण में मृत्यु हुई थी, इस कारण विष्णुसिंह जी अपने पुत्र को दक्षिण में नहीं भेजना चाहते थे। लेकिन बादशाह के ज्यादा दबाव देने पर ई० १६९८ में ये दक्षिण गये। वहां पर बादशाह ने इनकी तीव्र बुद्धि देखकर इनको 'सवाई' कहा था। तभी से इनके नाम के पहले उपाधि लग गई जो अभी तक जयपुर के राजाओं के नाम के साथ जुड़ी हुई है। आठ महीने वहां रहकर ये वापिस आमेर लौट आये।गद्दी पर बैठने के बाद इन्हें दक्षिण में बुलाया गया। बादशाह ने इनको राजा का खिताब व १५०० जात, १००० सवार का मामूली मनसब बना दिया। दक्षिण में पहुँचने पर इन्हें शा० बीदारबस्त के पास नियुक्त किया। बादशाही सेना ने खेलनां के किले पर भारी हमला किया। उसकी दीवारों को तोड़कर सबसे पहले जयसिंह जी का कछवाहा सेना दुर्ग में प्रवेश हुई तथा उसकी बुर्ज पर आमेर का पंचरंगा झंडा फहराया गया। इस समय जयसिंह जी की उम्र केवल १४ वर्ष थी। यह हमला ११ मई ई० १७०२ को हुआ था। युद्ध में इनका दीवान बुद्धसिंह मारा गया। इस विजय पर इनका मनसब २००० हजार कर दिया गया। इसके बाद जब शाहजादा मालवे का सूबेदार हुआ तब उसने जयसिंह जी को वहाँ का नायब सूबेदार बना दिया जिसे औरंगजेब ने नामंजूर कर दिया तथा उसने लिखा कि आइन्दा किसी हिन्दू को फौजदार भी नहीं बनाया जावे। इसी बीच ई० १७०४ में बादशाही फौजदार ने ठाकुर कुशल सिंह राजावत से झिलाय छीनकर जयसिंह जी को सौंप दी। दूसरी साल ई० १७०५ में शा० बीदारबख्त ने कोशिश करके जयसिंह जी को मालवा का नायब सूबेदार बनवा दिया। ई० १७०७ में औरंगजेब के मरने पर शा० आजम ने आगरा व दिल्ली पर चढ़ाई की। उस समय उसने इनका मनसब ५००० जात ५०० सवा का कर दिया। जून १८, १७०७ई० को मौजम और आजम की सेनाओं के बीच जाजू का युद्ध हुआ। जयसिंह जी मौजम के साथ थे तथा इनके भाई विजयसिंह जी आजम के तरफ थे। इस युद्ध में मौजम और उनके पुत्र मारे गये तथा आजम की विजय हुई। इसी युद्ध में जयसिंह जी घायल हुए और इनके कई सरदार बिहारीदास जी दांतरी, केशरीसिंह जी हरसोली, सूरसिंह जी हरमाड़ा मारे गये तथा अखेसिंह जी टोरड़ी घायल हुए। युद्ध के आखरी समय में जयसिंह जी बुद्धसिंह जी हाडा के मारफत आजम से जा मिले परन्तु उसने इनका स्वागत नहीं किया। नये बादशाह बहादुरशाह ने जयसिंह जी से आमेर जब्त करके उनके छोटे भाई विजयसिंह जी को दी तथा एक सेना आमेर पर भेजी जिसे कछवाहों ने कुकस के पास हरा दिया। विजयसिंह जी बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन का विवाह बादशाह से करवाना चाहते थे। इसकी खबर भेज दी तथा बुद्धसिंह जी हाडा को छुट्टी जाते समय रास्ते में रोककर उनसे सामोद में यह विवाह करवा दिया। अब बादशाह ने राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी १७०८ ई० को वह आमेर पहुँचा और उसे खालसा कर लिया। बादशाह अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई कामबक्स से मुकाबला करने को बढ़ा। आमेर और जोधपुर के दोनों राजा मंडलेश्वर के इलाके तक उसके साथ गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके वापस लौटाएगा तो उन्होंने दुर्गादास जी राठौड़ की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ तब २० अप्रैल वैशाख सुदी १३ को बादशाही शिविर छोड़ा और वे राजपूताना की ओर वापस रवाना होकर उदयपुर पहुँचे। महाराणा अमरसिंह जी ने इनका स्वागत किया तथा अपनी पोती जयसिंह जी को ब्याही। यहाँ से तीन राजाओं की ३० हजार सेना ने जाकर जोधपुर पर हमला करके ८ जुलाई १७०८ ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अजीतसिंह जी जोधपुर के जयसिंह जी ने टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध पत्र लिखे। जोघपुर से आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी। एक दुर्गादास जी राठौड़ के नेतृत्व में जिसका सैयदों से कालाडेरा के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह जी का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह जी के अधीन २० हजार घुड़सवार थे। इनका रतनपुरा के पास आमेर के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अधिकार कर लिया गया।इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध वजीर ने मेवात के फौजदार सेयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को साम्भर भेजा।दोनों राजाओं के इन फौजदारों से साम्भर में ३ अक्टूबर ई० १७०८ को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंह जी उनियारा के नेतृत्व में नरुके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े जिसके नीचे सैयद महफिल कर रहे थे। नरुकों ने बन्दूकों और तीरों से हमला किया। उसमें सब फौजदार मोरे गये तथा मुगलों की जीती हुई बाजी हाथ से निकल गई। फिर जयसिंह जी ने एक पत्र बहादुर शाह के विरुद्ध दुर्गादास जी को लिखा था कि महाराणा से बात की जावे तथा मराठों को मिलाकर राजपूतों को वही करना चाहिए जो ' हिन्दुस्तान ' के लिए गौरव की बात हो। बादशाह बहादुरशाह दक्षिण से वापिस लौटा तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह दोनों राजाओं से समझौता किया जावे। इन्हें लाने के लिए उसने बुद्धसिंह जी हाड़ा बून्दी को भेजा जिनके मारफत २१ जून ई० १७१० को ये अजमेर के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके राज्य वापस लौटा दिए गये और इन दोनों को ४००० जात ४००० सवार के मनसब दिये गये। उस समय राजपूतों को मुगलों का बिल्कुल विश्वास नहीं था, इसलिए जब ये अजमेर में बादशाह के शिविर में गये तब अजमेर के तमाम पहाड़ तथा घाटियाँ राजपूतों से भरी हुई थीं। उन्हें बहादुरशाह का कभी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ। जयसिंह जी के भाई विजयसिंह जी (जन्म चैत सुदी ६ वि. १७४७) निराश होकर अन्त में मुगल दरबार छोड़कर हिन्डौन आ गए। जयसिंह जी को विजयसिंह जी के तरफ से खतरा बना हुआ ही था। इन्होंने १७१३ ई० में विजयसिंह जी को हिन्डौन से समझौता करने के नाम से सांगानेर बुलाया और धोखे से उनको कैद करके जयगढ़ किले में भेज दिया। वहीं वे अन्त में मारे गये। विजयसिंह जी के इस काण्ड में श्यामसिंह जी खंगारोत, जयसिंह जी का विशेष सहायक रहा। बहादुर शाह की मृत्यु के बाद जहाँदरशाह ने दोनों राजाओं को पक्ष में करना चाहा। उसने दोनों को ७००० जात व ७०००सवार का मनसब दिया परन्तु इस बार इन्होंने उत्तराधिकारी के युद्ध से दूर रहने का ही फैसला किया। फर्रूखशियर के बादशाह बनने के बाद हुसैन अली सैयद ने श्यामसिंह जी खंगारोत के बुलवाया तथा उनसे बात करके जयसिंह जी को बादशाह से ५००० जात ४५०० सवार का मनसब दिलवाया। जब अजीतसिंह जी का बादशाह के साथ झगड़ा हो गया, तब बादशाह ने सैयद हुसैन अली को सेना लेकर अजमेर भेजा जहाँ अजीतसिंह जी ने कब्जा कर लिया था। उस समय जयसिंह जी भी हुसैन अली सैयद के साथ थे। अन्त में अजीतसिंह जी से सन्धि हुई।अक्टूबर १७१३ ई० में इन्हें बादशाह फर्रूखशियर ने मालवा की सूबेदारी की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी दबाये। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने पलसूद के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी भागकर पलसूद में ठहरे। जयसिंह जी ने रात में ही उन पर हमला कर दिया। इनकी सेना को देखते ही वे भाग निकले व नर्बदा नदी पार कर गये। उनकी लूट का सब माल वहीं रह गया। मालवा में छत्रसाल जी बुन्देला भी इनके साथ थे। १७१५ ई० में इनको दिल्ली बुला लिया। तब इनकी अनुपस्थिती में इनके धाभाई रुपाराम को इन्होंने वहां नायब बनाकर छोड़ा। १७१७ तक ये मालवा के सूबेदार रहे। बादशाह फर्रूखशियर ने भीमसिंह हाडा कोटा को बून्दी दे दी थी। उसने बून्दी पर कब्जा कर लिया था। जयसिंह जी ने कोशीश करके बादशाह से बून्दी वापस बुद्धसिंह जी हाडा को दिलवायी। दिल्ली से बादशाह ने इनको चूड़ामन जाट पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी जिसने आगरा के इलाके में बड़ा उपद्रव मचा रखा था। इनके साथ बून्दी के बुद्धसिंह जी, कोटा के भीमसिंह जी, नरवर के गजसिंह जी, दुर्गादास जी रोठौड़ व कई अन्य मनसबदार नियुक्त किये गये। १५ सितम्बर १७१६ को ये मथुरा के लिए रवाना हुए। नवम्बर में चूड़ामन के प्रसिद्ध किले थूण का घेरा शुरु किया। वजीर अब्दुल्ला खां सैयद, जयसिंह जी के विरुद्ध था तथा चूड़ामन के मदद दे रहा था। इससे सफलता नहीं हो पाई। वजीर ने अन्त में बीच में पड़कर घेरा उठवा लिया। मई १७१८ में जयसिंह जी की वापसी दिल्ली हुई। बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया। सैयदों और बादशाहों के बीच बहुत खिंच चुकी थी। जयसिंह जी ने बादशाह फर्रूखशियर को बहुत समझाया कि सैयदों को युद्ध करके साफ कर देना चाहिए। उस समय उनके पास २० हजार राजपूत सवार दिल्ली में मौजूद थे तथा बून्दी के बुद्धसिंह जी हाडा भी उन्हीं के साथ थे। परन्तु बादशाह की हिम्मत नहीं हुई तथा वह सैयदों को किसी तरह खुश करने में लगा हुआ रहा। अन्त में सैयदों ने बादशाह से जयसिंह जी को दिल्ली से जाने को कहलवा दिया। उन्होंने फिर भी उसे सचेत किया कि मेरे जाने से आपको खतरा हो जाएगा लेकिन उस मूर्ख बादशाह की समझ में नहीं आया। १३ फरवरी १७१९ ई० को जयसिंह जी दिल्ली से रवाना हुए। उसके कुछ ही घंटों बाद भींमसिंह जी कोटा ने बुद्धसिंह जी पर आक्रमण कर दिया उनके स्वामीभक्त सरदार जैतसिंह जी ने बड़ी वीरता से कोटा की सेना को रोका तथा उन्हें वहाँ से निकाल दिया। वे जयसिंह जी के पास पहुँचे। जैतसिंह जी वहाँ स्वामी के लिए वीरता से लड़ते हुए मारे गये। १७- १८ अप्रैल को सैयदें, अजीतसिंह जी जोधपुर और भीमसिंह जी कोटा ने बादशाह फर्रूखशियर को मार डाला। जयसिंह जी ने इलाहाबाद के सूबेदार छबीलेराम और निजाम से सैयदों के विरुद्ध पत्र - व्यवहार किया। वे चाहते थे कि सब मिलकर सैयदों को अपदस्थ कर दें। इन्होंने छत्रसाल जी बुन्देला को भी बुलाया। सैयदों ने कई सेनाएँ इनके विरुद्ध कई तरफ से घेरने के लिए भेजा। वजीर अब्दुल्ला खां ने ५ जुलाई को नाममात्र के बादशाह रफीउदुल्ला को साथ लेकर जयसिंह जी पर चढ़ाई की और मथुरा होता हुआ वह आगरा पहुँचा जहाँ सैयदों के विरुद्ध बगावत हो रही थी। जयसिंह जी ने भी सैयदों से पूरे तौर से मुकाबला करने की तैयारी कर रवाना होने के पहले ब्राह्मणों को बुलाकर आमेर राज्य दान दिया और फिर केसरिया बाना धारण करके वे रवाना हुए। ये आगे बढ़कर टोड़ा तक पहुँच गये थे। निजाम और छबीलाराम दोनों ही वायदा के अनुसार कायम नहीं रहे। अन्त में अजीतसिंह जी जयसिंह जी को अपने साथ जोधपुर ले गये जहाँ उन्होंने अपनी पुत्री का जयसिंह से विवाह किया। सैयदों ने जयसिंह जी को २० लाख रुपये दिये जिससे वे आमेर वापिस ब्राह्मणों से खरीदें। उस समय भी जयसिंह जी को अजीतसिंह जी पर विश्वास नहीं था इसलिए वे विवाह में भी जिरहबख्तर पहन कर गये थे। सैयदों की दो सेनाएँ जब दक्षिण में निजाम से परास्त हो गई, तब हुसैन अली खां सैयद बादशाह मोहम्मद शाह को साथ ले, एक बड़ी सेना के साथ निजाम को दबाने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर ८ १७२० ई० को टोडाभीम में उसने हुसैन अली को धोखे से मार डाला। अब बादशाह ने तैयारी करके सैयद अब्दुल्ला खां पर चढ़ाई की जो दिल्ली में था। इस युद्ध के लिए महाराणा ने जयसिंह जी से पूछा कि क्या करना चाहिए? उन्होंने महाराणा को बादशाह की मदद करने के लिए लिखा तथा साथ में ही महाराणा के अलावा बीकानेर, कोटा और राव इन्द्रसिंह नागौर को भी बादशाह की मदद के लिए लिखा। सवाई जयसिंह जी ने बादशाह की मदद के लिए राव जगराम के साथ एक अच्छी सेना भेजी। इस सेना में सवाई राम जी नरुका, गढ़ी गजसिंह जी, नरुका जावली, जसवन्तसिंह जी, सवाईराम जी के पुत्र, प्रतापसिंह जी कल्यणोत, बुद्धसिंह जी कल्यणोत, गुलाब सिंह जी कल्यणोत,छीतरसिंह जी कल्यणोत, अमरसिंह जी राजावत, बहादुर सिंह जी खंगोरात और सरदारसिंह जी नरुका आदि सरदार थे। ३ और ४ नवम्बर को युद्ध हुआ जिसमें अबदुल्ला खां पकड़ा गया। विजय के बाद बादशाह ने जयपुर के सरदारों को अपने हाथ से खिलतें दी। मोहम्मद शाह ने दिल्ली पहुंचते ही जयसिंह जी को दिल्ली आने का फरमान भेजा जिसमें लिखा कि आपसे अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर सलाह लेनी है। उसने दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ने अपने नये वजीर मुहम्मद अमीन खां को उनके डेरे लेने भेजा। दरबार में आने पर बादशाह ने उनका बड़ा सत्कार किया और अनेक भेंटे दी। उनके मनसब में ४००० सवार और बढ़ा दिए गए। दो करोड़ दाम इन्हें इनाम में दिये जिनको इन्होंने नम्रतापूर्वक लेने से मना कर दिया। बादशाह ने जयसिंह जी और राजा गिरधर बहादुर के कहने पर जजिया कर माफ कर दिया। महाराणा मेवाड़ ने इस पर जयसिंह जी को बड़ी बधाई भेजी। सैयदों के पतन के बाद जयसिंह जी का राजनैतिक महत्व तेजी से बढ़ने लगा। राजस्थान, मालवा और बुन्देलखण्ड के राजा हर मुसीबत में उनसे सहायता चाहते थे तथा इन इलाकों में इनकी राय के बगैर कुछ भी नहीं होता था। १७३५ ई० के बाद तो मरहठे भी इनकी सलाह लेने तथा इनको आदर देने लग गए। दूसरा जाट युद्ध
मालवे की दूसरी बार सूबेदारी
कुशत्तल पंचोलास का युद्ध
तीसरी बार मालवे की सूबेदारी
साहित्य और यज्ञ में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय सबसे प्रसिद्ध विद्वान रत्नाकर भ पौण्डरीक थे। उन्होंने व्रात्यस्तोम यज्ञ चैत वदी ३ वि. १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर करवाया। इन्होंने और भी श्रौत यज्ञ सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनकी मृत्यु वि. १७७६ में हुई। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह जी द्वारा पुरुषमेघ यज्ञ करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध विद्वानों में थे। १७३४ ई० में अश्वमेघ यज्ञ किया जो २९ मई को सम्पूर्ण हुआ। अश्वमेघ यज्ञ के समय जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे कुम्मणियों ने पकड़ लिया और अन्त में वे युद्ध करके मारे गये। उसमें ब्रजनाथ भ भी प्रमुख यज्ञ कराने वालों में थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। कवि कलानिधि श्रीकृष्ण भ ने इनके समय में अनेक ग्रन्थ बनाये जिनमें मुख्य 'ईश्वर विलास - महाकाव्य' है। श्री हरि कृष्ण ने भी कई पुस्तकें लिखीं। जयपुर नगर उस समय विद्याओं का आगार बन गया था। टॉड ने माना है कि महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दूविद्या का शरणास्थल बना दिया था। भारत में सदियों से जो यज्ञादि बन्द हो चुके थे उन्हें महाराजा सवाई जयसिंह जी ने फिर से प्रारम्भ किया। इन्होंने सम्राट यज्ञ कराया, जिस को कराने वाले इनके गुरु जगन्नाथ महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे। दूसरा अश्वमेघ यज्ञ बड़े पैमाने पर १७४२ ई० में करवाया। इन यज्ञों के अलावा पुरुष मेघ यज्ञ,सर्व मेघ, सोम यज्ञ आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण हिन्दू जगत् में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा हिन्दू जनता ने बड़ी खुशियाँ मनाई और इनकी प्रशंसा की। खगोल विद्या
स्थापत्य कला
सामाजिक सुधार
शासन - व्यवस्था
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