राजस्थान |
दुर्लभ नागौर चित्रकला प्रेम कुमार |
राज्य सीमा के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण नागौर न केवल जोधपुर और बीकानेर वरन् मुगलों और राजपूतों के मध्य विवादास्पद क्षेत्र रहा था। चौहान राजपूत इसके संस्थापक थे। गजनवी मुहम्मद बाहलीम ने इसे स्वतंत्र मुस्लिम प्रदेश घोषित किया और जब से यह अधिकांशतः मुसलमानों के आधीन १५६८ तक रहा, जब मुगल शहंशाह अकबर ने इसे अपने अधिकार में ले लिया। साठ वर्षों तक बीकानेर की जागीर रहने के बाद जोधपुर के निर्वासित राजकुमार का शाहजहां द्वारा यह प्रदत्त हुआ। जोधपुर शासक अजीतसिंह (१७०७-२४) ने नागौर को अपने अधिकार में रखा और अपने छोटे पुत्र बख्त सिंह को इसका नेतृत्व सौंपा और नागौर एक नए राज्य की राजधानी बनी। १७२४ में अजीत सिंह की हत्या होने पर नागौर, बीकानेर की रियासत रहा और अंतोगत्वा जोधपुर में इसका विलय हो गया। जोधपुर शैली की चित्रकला का पाली के अलावा दूसरा केन्द्र नागौर रहा है। नागौर कलम विशेष रुप से भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है। व्यक्ति चित्रों के अतिरिक्त यहाँ भित्तिचित्रों की भी सुदीर्घ परंपरा रही है। नागौर में प्राप्त चित्र प्रायः १७००-१७५० ई. के मध्य में मिलना आरंभ होती है, जिस पर बीकानेर शैली का आभास होता है। प्रायः १७५० ई. के बाद नागौर, जोधपुर का एक रियासत रहा। अतः इस काल में बनने वाले चित्र मारवाड़ शैली से ओत-प्रोत हैं। नागौर शैली के लेखयुक्त चित्र बहुत कम मिलते हैं, किंतु नागौर किले के महलों में बने भित्ति चित्रों पर पाएँ गए, विभिन्न चित्र नागौरी शैली की परंपरा को सार्थक करते हैं। १८वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बीकानेर समीपता के कारण नागौर चित्र तत्कालीन जोधपुर शैली से थोड़ा हटकर है। इन चित्रों पर बीकनेरी शैली की भाँति मुगल प्रभाव अधिक है। बीकानेर दरबार के माध्यम से इस पर दक्कनी प्रभाव भी पड़ता है। भारी भरकम आकृतियाँ, मांसल चेहरे, बड़ी आंखे, गलमुच्छे आदि मारवाड़ के प्रचलित तत्वों के स्थान पर नागौर में समानुपातिक आकृतियों, छोटी आंखे चित्रित हुईं, तो कुछ रुप में ठेठ बीकानेरी शैली से भी भिन्नता दर्शाती हैं। मुख्य आकृतियों के मुख पर बोझिल थका सा भाव, लम्बी नीचे की ओर गिरती मूंछे तथा मुगल प्रभावित हर स्थान पर शेडिंग चित्रों में बहुलता है। चित्रों के आकृतियों में तेजी व हलचल न होकर वे स्थिर हैं। मारवाड़ (जोधपुर) के चटकीले तेज रंगों से भिन्न मुगल-बीकानेरी प्रभावित सूफियाने रंग प्रयुक्त हुए हैं। इन चित्रों में अधिकांशतः शबीहें हैं, जो विविधता रहित हैं। ये व्यक्ति अंकन साही पृष्ठभूमि पर घोड़ों पर सवार के रुप में हैं। दरबार के दृश्य भी प्राप्य हैं।भित्ति चित्रण चित्रकला की आदिम प्रवृत्ति है। प्रागैतिहासिक गुहा चित्र इस कथ्य के साक्षी हैं। अजन्ता, एलोरा, वाघ आदि गुफाओं के भित्ति-चित्रों ने संसार के अनेक कला-मर्मज्ञों को अपनी ओर आकर्षित किया है। समय-समय पर मंदिरों, राजमहलों, छतरियों किला आदि में भी भित्ति चित्रण होता रहा है। इसी परम्परा में नागैर दुर्ग के भीतर बने राजप्रसादों में दीवारों पर विविध रंगों वाले सुन्दर चित्र बने हैं। नागोर किले का रनिवास कलाकृत्तियों का अमूल्य खजाना है। यहाँ की भित्ति चित्र चित्रकला की अनुपम निधि है। चित्रण की बारीकी और कला की वैयक्तिकता और सुन्दरता के कारण नागौर की विशिष्ट चित्रकला शैली मानी जाती है। मारवाड़ के विभिन्न किलों, छतरियों, ठिकानों, गढ़ों, हवेलियों, मठों व मंदिरों में भित्ति चित्र पाये जाते हैं। भित्ति चित्रों के उदाहरण नागौर व जोधपुर के किले में मुख्य रुप से देखने को मिलते हैं। नागौर का दुर्ग जोधपुर से भी अधिक पुराना है और किले के इन भित्ति चित्रों के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। नागौर किले के इन भित्तिचित्रों की सजावट का श्रेय महाराजा बखत सिंह (सन् १७२४-१७५० ई.) को जाता है। नागौर किले के भीतर बादल-महल और हवामहल इन दो महलों में भित्तिचित्र अंकित हैं। बादल-महल, जिसे अमर सिंह राठौड़ का महल भी कहते हैं, इसमें पैदल, घुड़सवारों व हाथियों पर सवार लोगों का सैनिक साज-सज्जा के परिवेश में चित्रण किया गया है। छत पर सुन्दर चित्रकारी में फूल, बेल व पत्तियों का अंकन किया गया है। पंखों से युक्त परियों को चमकीले रंगों से चित्रित किया गया है। इन सभी आकृतियों को हाथ में वीणा, ढोलक, मंजीरे, शहनाई के साथ नृत्य की भावभंगिमा में चित्रित किया गया है। गोल घेरे में आबद्ध इन परियों के अतिरिक्त मध्य की खाली जगह व बॉर्डर पर भी बेल-बूटों का अलंकरण किया गया है। मारवाड़ म्यूरल्स पुस्तक के लेखक अग्रवाल का यह मानना है कि प्रारंभिक भित्तिचित्र, जो साफ और अच्छी दशा में बादल महल के खुले बरामदे में तथा दूसरी मंजिल के एक कमरे में सुरक्षित हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के दृश्य और आकृतियां चित्रित हैं, परन्तु वे एक- दूसरे से समानान्तर व मिलती- जुलती नहीं है। जनानी डयोढ़ी के सारे चित्र डिस्टेम्पर द्वारा पुताई हो जाने से खराब हो गये हैं, केवल एक दो चित्र बचे हैं। शीश महल के चित्र भी चुने की सफेदी करने से साफ हो गये हैं। इसमें बादलमहल में चित्रित नारी आकृतियों की भांति भित्ति चित्र अंकित किये गये हैं। हवा महल के भित्ति चित्रों में नारी चित्रों की प्रधानता है। नायिका की विभिन्न मनोदशाओं व अवस्थाओं का प्रभावकारी चित्रण किया गया है। कई चित्र ऐसे भी हैं, जो सामाजिक उत्सवों व दैनिक क्रिया-कलापों से सम्बन्ध रखते हैं। इस महल में चित्रित जल-विहार का चित्र बड़ा आकर्षक है, जिसमें जलकुण्ड में स्रियों को स्वच्छन्द रुप से जलकीड़ा करते हुए दर्शाया गया है। जलकुण्ड के पास एक कमरा बना हुआ है, जिसमें एक औरत मद्यपान करते हुए दिखाई गयी है, जिसके सामने एक स्री वाद्ययंत्र लिए संगीत गाने की मुद्रा में खड़ी है। कुण्ड में नहाती हुई १२ स्रियों को विभिन्न प्रकार की तैरती हुई व स्नान करती हुई मुद्रा में चित्रित किया गया है जिनके केवल अधोवस्र ही पहने हुए है, ऊपरी अंग वस्र विहीन दर्शाया गया है। कुण्ड के दोनों किनारों पर अलग-अलग सिरों पर कुण्ड की तरफ पीठ किये हुए तथा हुक्का पीते पुरुष बैठे हुए दर्शाये गये हैं।इसके अतिरिक्त नायक के साथ मदिरापान करते हुए, हुक्का पीती हुई नायिका होली खेलते, ढफ बजाते, बाग में झूला झूलती स्रियाँ, घूमर-नृत्य के आकार में छत पर पंखयुक्त नारी आकृतियाँ संगीत सुनते हुए, दो युगल सहेलियाँ इत्यादि विभिन्न प्रकार के भित्तिचित्र नागौर के किले में स्थित इन महलों में चित्रित है। बादल महल की पंखों वाली नारी आकृतियों की वेशभूषा को फारसी प्रभाव युक्त मानते हुए आर. ए. अग्रवाल ने पर्सियन गाऊन की संज्ञ दी है। हवामहल के भित्तिचित्रों में गुलदस्तों, पहलवानों (कुश्ती का दृश्य) व नृत्य के दृश्य उत्कृष्ट है तथा नागौर का दुर्ग मारवाड़ के भित्तिचित्रों के सम्बन्ध में रोचक और महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाला एक संग्रह-स्थल है। इसके अधिकांश भित्तिचित्र मिट गए हैं, किन्तु मध्यकालीन भित्तिचित्रों के अध्ययन के लिए आज भी उनका महत्व है। मारवाड़ की चित्रकला में व्यक्तिचित्रों तथा भित्तिचित्रों के अलावा पटचित्र व पोथी चित्र भी मिलते हैं। भारत में पटचित्रों की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। पटचित्रों के सम्बन्ध में बौद्ध धर्म के तान्त्रिक ग्रन्थ आर्य मंजुश्री कल्प में कहा गया है कि स्वच्छ श्वेत कपड़े पर चित्र अंकित करना चाहिये। उसके दोनों ओर किनारियाँ हों। रेशमी कपड़ा उसके लिए सर्वथा त्याज्य है। पटचित्रों की परम्परा यहाँ पिछवई और पड़ दोनों में देखने को मिलती है। पिछवई शैली में कृष्णलीला के चित्रों की अधिकता है। पिछवई से भी ज्यादा यहाँ पड़ चित्रण की परम्परा लोक समाज में ज्यादा लोकप्रिय रही है। पड़ों में यहाँ लोकदेवता पाबूजी की पड़ व देवजी की पड़ का प्रचलन अधिक देखने को मिलता है। कपड़े पर चित्रित पाबूजी व देवजी के प्रमुख जीवन प्रसंगों को अभिव्यक्त करने वाले वित्र बने होते हैं। जंतर नामक वाद्ययंत्र के साथ भी जाति के भोपा द्वारा पाबूजी की पड़ (यशगान) सारी रात गाने की परम्परा आज भी यहाँ के ग्रामीण समाज में प्रचलित हैं। पटचित्रों के अलावा यहाँ पोथीचित्र भी उपलब्ध हैं। भोजपत्र और ताड़पत्र पर पोथी चित्र बनाने की यहाँ प्राचीन परम्परा का अनुकरण हुआ है। भोजपत्रीय और ताड़पत्रीय अनेक ग्रन्थ यहाँ के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। ताड़पत्रीय ग्रंथों में सर्वाधिक जैन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। १५ वीं शताब्दी तक ताड़पत्रीय ग्रंथ का प्रचलन यहाँ विशेष रुप से रहा। इसके पश्चात् कागज पर ग्रंथों के अंकन की परम्परा अधिक प्रचलित हुई। वैसे कागज का आविष्कार १२ वीं शताब्दी में हो गया था। इस आविष्कार ने ग्रंथों के चित्रण में एक क्रांति सी ला दी। कागज एक ऐसा माध्यम है, जिसमें काव्य एवं चित्र दोनों का अंकन सहजता और विस्तार के साथ हो सकता है। कागज की चित्रोपयोगिता ने पोथी चित्रण की परम्परा को अधिक प्रचलित कर दिया। इस परम्परा को विस्तार देने का श्रेय सगुण भक्ति के आन्दोलन एवं मुगल शासन के संस्थापक को है। जोधपुर शैली में भी रामकाव्य, कृष्णकाव्य, प्रेमकाव्य, बारहमासा, ॠतुवर्णन और राग-रागिनी आदि पर आधारित पोथीचित्र व लघुचित्र मिलते हैं तथा ऐसे चित्रों से युक्त कई हस्तलिखित सचित्र ग्रंथ यहाँ के संग्रहालयों में उपलब्ध हैं।इस प्रकार जोधपुर शैली की चित्रकला विवेच्यकाल की दो शताब्दियों तक विभिन्न उतार चढ़ावों को झेलते हुए निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होती रही। जोधपुर शैली राजपूत शैली का ही विकसित स्वरुप है, जिस पर मुगल प्रभाव होने के बावजूद स्थानीय रंगत का अभाव नहीं है। अन्य शैलियों से प्रभावित होने के बावजूद भी मारवाड़ शैली की अपनी निजी विशेषताएं हैं। इस शैली के पुरुष गठीले बदन के होते हैं। उनके गलमुच्छ, ऊँची पगड़ी, राजसी वैभव के वस्राभूषण आदि का अंकन विशेष रुप से हुआ है। स्रियों के अंग-प्रत्यंगों का अंकन भी गठीला है। उनकी वेशभूषा में लहंगा, ओढ़नी और लाल फुंदने का प्रयोग प्रमुख रुप से हुआ है। लाल और पीले रंगों का विशेष प्रयोग, सामन्ती जीवन के अतिरिक्त सामान्य जन-जीवन का चित्रण आदि मारवाड़ शैली की कुछ विशेषताएं हैं। राजा, रानी, सामन्त, राजसी वैभव, सवारी महल, शिकार, जनाना (रनिवास) आदि के अतिरिक्त मजदूर, किसान, माली, भिश्ती, गवाला आदि का अंकन भी मारवाड़ शैली में हुआ है। राष्ट्रीय संग्रहालय संग्रहीत भाटी उदयराम की शबीह की मारवाड़ की १७०९ ई. की अजीत सिंह के घोड़े पर सवार शबीह, बड़ौदा म्यूजियम संग्रह से निकट है, पर आंखें और मूंछे नागौरी वैशिष्ट्य लिए हैं। भाटी उदय राम के कंधे के नीचे की शेडिंग, चित्र के ऊपर हल्के रंग की पट्टी में उमड़ते बादल, इस काल की विशेषता हैं। हिरन का स्वाभाविक चित्रण जहांगीर कालीन चित्रों पर आधारित है। १८वीं सदी में बने नागौरी शैली चित्रों में अज्ञात राजा का दरबार में आकृतियाँ तात्कालिक मारवाड़ी चित्रों की आकृतियों की भाँति भारी-भरकम है तथा पगड़ियाँ अपेक्षाकृत भारी चित्रित हैं। मुख्य आकृति नागौरी परंपरा में लम्बी, पतली, चपटा ठलुवां माथा, नोंकीली नाक, ठुड्डी से नीचे लटकती सफेद मूंछे आदि लिए है। घोड़े की सवारी नागोरी चित्रकारों का लोकप्रिय विषय रहा है। घोड़े का निरीक्षण करते राजा प्रताप सिंह में प्रताप सिंह काफी भारी भरकम दिखाए गए हैं। वृद्धावस्था के व्यक्ति के चित्रों का नागौर के चित्रकारों ने अत्यन्त कुशलता पूर्वक चित्रित किया है। वृद्धावस्था में झुकी कमर शिथिलता एवं चेहरे की झुर्रियों का अत्यन्त मार्मिक अंकन है। जोधपुर शैली में चित्रित चित्रों में विषयवैविध्य, वर्ण-वैविध्य के साथ देश, काल की अनुरुपता के अनुसार भाव प्रवणता का प्राचुर्य भी देखने को मिलता है। मुगलशैली से प्रभावित यहाँ के दरबारी चित्रों, युद्ध व शिकार विषयक दृश्यों व विविध अवसरों व उत्सवों के अंकन में हमें विशेष साज-सज्जा युक्त चित्रण तो देखने को मिलता है, साथ ही श्रृंगार व प्रेम की भावनाओं का बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रांकन किया गया है, जिससे यहाँ की कला शौर्य-प्रदर्शन के साथ ही साथ रसप्रधान बन पड़ी है। नारी सौन्दर्य बड़े ही मनोहारी व प्रभावकारी रुप में यहाँ के प्रवीण कलाकारों द्वारा अंकित किया गया है। उनकी आकृति, स्पलावण्य, अंग-प्रत्यंगों का दिग्दर्शन वेशभूषा व आभूषणयुक्त श्रृंगारिक व प्रेमाख्यानों के दृश्यों की अधिकता पायी जाती है। चटकीले व चमकदार रंगों से इन चित्रों की सुन्दरता में चार चाँद लग गये हैं। राजसी वैभव व प्रश्रय में पले यहाँ के कलाकार (चित्रकार) की कल्पना व यथार्थ चित्रण की दोनों ही प्रवृत्ति प्रखर रुप से अभिव्यक्त हुई। यहाँ के राजदरबार के अलावा भक्ति व श्रृंगारिक चित्रों के सौन्दर्य को भी कलाकार ने बखूबी अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है, जो युग-सापेक्ष मनोवृत्ति के अनुरुप है। दरबारी संस्कृति में परिपोषित होने के कारण जोधपुर शैली के चित्रों में विशेषकर राजसी व सामन्ती सभ्यता व संस्कृति का चित्रण अधिक हैं, फिर भी मारवाड़ की चित्रशैली से लोकतत्व पूर्णतया विलग नहीं हुआ। यहाँ की चित्रकला का लोकजीवन से सम्बन्ध जुड़ा रहा। यही नहीं, कई बार तो राजसी वैभव के बीच भी लोकजीवन का दृश्यांकन करने से यहाँ का कलाकार नहीं चूका। प्रेमकथाओं के चित्रण में लोकतत्व की प्रबलता (प्रमुखता) दृष्टिगोचर होती है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इन प्रेमगाथाओं को लोकजीवन की शैली में प्रस्तुत किया, जिससे उन्हें यहाँ के जनसमाज में अधिक लोकप्रिय होने का अवसर मिला। पूरी प्रेमगाथा में लोकजीवन की भावनाओं का प्राबल्य यह सिद्ध करता है कि यहाँ की कला लोकजीवन से जुड़ी रही, जिससे उसकी निजी विशेषताएं बहुत हद तक कायम रही और लोकजीवन पर आधारित चित्रों मेंजो रंग रेखाओं के माध्यम से भावों की अल्हड़ता का जिस प्राकृतिक, सरल व सादगीपूर्ण रुप से संयोजन हुआ है, वह देखते ही बनता है। इसके साथ ही लोक भावनाओं और धारणाओं से सान्निध्य स्थापित होने के कारण मारवाड़ की चित्रशैली में सौन्दर्यबोध के साथ ही सांस्कृतिक दिग्दर्शन देखने को मिलता है। मध्यकालीन मारवाड़ की चित्रकला में राजपूत संस्कृति का तथा तत्कालीन सामाजिक जीवन का जीता जागता चित्रण विशेष द्रष्टव्य है। दुर्ग, राजप्रासाद, मन्दिर, भव्य हवेलियाँ, दरबार के विभिन्न लक्ष्यों, रनिवास, बाग-बगीचे, बारह-मासा, राग-रागनियों आदि के माध्यम से राजपूती वैभव की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उत्सव त्यौहार, भक्ति, श्रृंगार और प्रेम कथाओं तथा वीराख्यानों के विशिष्ट दृश्यों का पड़रुप में अंकन आदि के माध्यम से लोक संस्कृति की बड़ी ही सूक्ष्म और सजीव झांकी देखने को मिलती है। राजसी चित्रकला में वैभव, कल्पना, सजावट, कृत्रिमता, तथा मुगल प्रभाव झलकता है, जबकि लोकजीवन के चित्रण में सादगी, सरलता और उनके वास्तविक जीवन की अनुभूति का आभास होता है। इस शैली की चित्रांकन परम्परा से तत्कालीन सामाजिक जीवन व सांस्कृतिक पहलू का यथार्थ स्वरुप ज्ञात होता है।
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