जैसलमेर के सांस्कृतिक
इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला
का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान
विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य
से वहां रहने वालों के चिंतन,
विचार, विश्वास एवं बौद्धिक
कल्पनाशीलता का आभास होता है।
जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम
राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग
निर्माण से आरंभ हुआ, जो
निरंतर चलता रहा। यहां के
स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत
दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा।
इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति
यहां के किलों, गढियों,
राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों,
जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण
के प्रयोग में लाये जाने वाले
मकानों आदि से होती है।
जैसलमेर राज्य मे हर २०-३०
किलोमीटर के फासले पर
छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर
होते हैं, ये दुर्ग विगत १००० वर्षो
के इतिहास के मूक गवाह हैं।
मध्ययुगीन इतिहास में इनका
परम महत्व था। ये राजनैतिक
आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते
थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के
स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को
ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां
के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ
सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर
बनाया गया था। दुर्गो में एक ही
मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही
है। दुर्ग मुख्यतः पत्थरों द्वारा
निर्मित हैं, परंतु किशनगढ़, शाहगढ़
आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग
पक्की ईंटों के बने हैं। प्रत्येक दुर्ग
में चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए
जाते थे। ये दुर्ग को मजबूती,
सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान
करते थे।
जैसलमेर दुर्ग
ंचे जैसलमेर दुर्ग स्थापत्य
कला की दृष्टि से उच्चकोटि की
विशुद्ध स्थानीय दुर्ग रचना है। ये
दुर्ग २५० फीट तिकोनाकार
पहाङ्ी पर स्थित है। इस पहाङ्ी की
लंबाई १५० फीट व चौङाई ७५० फीट
है।
रावल जैसल ने अपनी
स्वतंत्र राजधानी स्थापित की थी।
स्थानीय स्रोतों के अनुसार इस
दुर्ग का निर्माण ११५६ ई. में प्रारंभ
हुआ था। परंतु समकालीन साक्ष्यों
के अध्ययन से पता चलता है कि
इसका निर्माण कार्य ११७८ ई. के
लगभग प्रारंभ हुआ था। ५ वर्ष के
अल्प निर्माण कार्य के उपरांत रावल
जैसल की मृत्यु हो गयी, इसके
द्वारा प्रारंभ कराए गए
निमार्ण कार्य को उसके
उत्तराधिकारी शालीवाहन द्वारा
जारी रखकर दुर्ग को मूर्त रुप
दिया गया। रावल जैसल व
शालीवाहन द्वारा कराए गए कार्यो
का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं
मिलता है। मात्र ख्यातों व
तवारीखों से वर्णन मिलता है।
जैसलमेर दुर्ग मुस्लिम
शैली विशेषतः मुगल स्थापत्य से
पृथक है। यहाँ मुगलकालीन
किलों की तङ्क-भङ्क, बाग-बगीचे,
नहरें-फव्वारें आदि का पूर्ण अभाव
है, चित्तौ के दुर्ग की भांति
यहां महल, मंदिर, प्रशासकों व
जन-साधारण हेतु मकान बने हुए
हैं, जो आज भी जन-साधारण के
निवास स्थल है।
जैसलमेर दुर्ग पीले
पत्थरों के विशाल खण्डों से निर्मित
है। पूरे दुर्ग में कहीं भी चूना या
गारे का इस्तेमाल नहीं किया गया
है। मात्र पत्थर पर पत्थर जमाकर
फंसाकर या खांचा देकर रखा हुआ
है। दुर्ग की पहाङ्ी की तलहटी में
चारों ओर १५ से २० फीट ऊँचा
घाघरानुमा परकोट खिचा हुआ है,
इसके बाद २०० फीट की ऊँचाई पर
एक परकोट है, जो १० से १५६ फीट
ऊँचा है। इस परकोट में गोल
बुर्ज व तोप व बंदूक चलाने
हेतु कंगूरों के मध्य बेलनाकार
विशाल पत्थर रखा है। गोल व
बेलनाकार पत्थरों का प्रयोग
निचली दीवार से चढ़कर ऊपर
आने वाले शत्रुओं के ऊपर लुढ़का
कर उन्हें हताहत करने में बडें ही
कारीगर होते थे, युद्ध उपरांत
उन्हें पुनः अपने स्थान पर लाकर रख
दिया जाता था। इस कोट के ५ से १०
फीट ऊँची पूर्व दीवार के अनुरुप
ही अन्य दीवार है। इस दीवार में ९९
बुर्ज बने है। इन बुर्जो को काफी
बाद में महारावल भीम और
मोहनदास ने बनवाया था। बुर्ज
के खुले ऊपरी भाग में तोप तथा
बंदुक चलाने हेतु विशाल
कंगूरे बने हैं। बुर्ज के नीचे
कमरे बने हैं, जो युद्ध के समय
में सैनिकों का अस्थाई आवास तथा
अस्र-शस्रों के भंडारण के काम आते
थे।
इन कमरों के बाहर की
ओर झूलते हुए छज्जे बने हैं,
इनका उपयोग युद्ध-काल में शत्रु की
गतिविधियों को छिपकर देखने
तथा निगरानी रखने के काम आते
थे। इन ९९ बुर्जो का निर्माण कार्य
रावल जैसल के समय में आरंभ
किया गया था, इसके
उत्तराधिकारियों द्वारा सतत् रुपेण
जारी रखते हुए शालीवाहन (११९० से
१२०० ई.) जैत सिंह (१५०० से १५२७ ई.) भीम
(१५७७ से १६१३ ई.) मनोहर दास (१६२७ से
१६५० ई.) के समय पूरा किया गया।
इस प्रकार हमें दुर्ग के निर्माण
में कई शताब्दियों के निर्माण
कार्य की शैली दृष्टिगोचर होती
है।
दुर्ग के मुख्य द्वारा का नाम
अखैपोला है, जो महारवल
अखैसिंह (१७२२ से १७६२ ई.) द्वारा निर्मित
कराया गया था। यह दुर्ग के पूर्व
में स्थित मुख्य द्वार के बाहर
बहुत बङा दालान छोङ्कर बनाया
गया है। इसके कारण दुर्ग के
मुख्य द्वार पर यकायक हमला नहीं
किया जा सकता था। दुर्ग के दूसरे
मुख्य द्वार का पुनः निर्माण कार्य
रावल भीम द्वारा कराया गया था।
इसके अतिरिक्त इस दरवाजे के आगे
स्थित बैरीशाल बुर्ज है, इसे
इस प्रकार बनाया गया है कि दुर्ग
का मुख्य द्वारा इसकी ओट में आ
गया व दरवाजे के सामने का स्थान
इतना संकरा हो गया कि यकायक
बहुत बङ्ी संख्या में शत्रुदल
इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था व
न ही हाथियो की सहायता से
दुर्ग के द्वार को तोङा जा सकता
था। इसके अलावा भीम ने सात अन्य
बुर्ज भी दुर्ग में निर्मित कराए थे।
इन समस्त निर्माण कार्यो में
रावल भीम ने उस समय ५० लाख
रुपया खर्च किया था। अपने द्वारा
सामरिक दृष्टि से दुर्ग की व्यवस्था
के संबंध में रावल भीम का कथन
था कि दूसरा आवे तो मैदान में
बैठा जबाव दे सकता है और
दिल्ली का धनी आवे तो कैसा ही गढ़
हो रह नही सकता।
दुर्ग के तीसरे दरवाजे
के गणेश पोल व चौथे दरवाजे
को रंगपोल के नाम से जाना
जाता है। सभी दरवाजे रावल
भीम द्वारा पुनः निर्मित है। सूरज
पोल की तरु बढ़ने पर हमें
रणछो मंदिर मिलता है, जिसका
निर्माण १७६१ ई. में महारावल
अखैसिंह की माता द्वारा करावाया
गया था। सूरज-पोल द्वारा का
निर्माण महारावल भीम के द्वारा
करवाया गया है। इस दरवाजे के
मेहराबनुमा तोरण के ऊपर
में सूर्य की आकृति बनी हुई है।
दुर्ग में विभिन्न राजाओं
द्वारा निर्मित कई महल, मंदिर व
अन्य विभिन्न उपयोग में आने वाले
भवन हुए हैं। जैसलमेर दुर्ग में
७०० के करीब पक्के पत्थरों के मकान
बने हैं, जो तीन मंजिलें तक हैं।
इन मकानों के सामने के भाग में
सुंदर नक्काशी युक्त झरोखें व
खिड़कियां हैं।
दुर्ग के स्थित महलों में
हरराज का मालिया सर्वोत्तम
विलास, रंगमहल, मोतीमहल
तथा गजविलास आदि प्रमुख है।
सर्वोत्तम विलास एक अत्यंत सुंदर
व भव्य इमारत है, जिसमें मध्य
एशिया की नीली चीनी मिट्टी की
टाइलों व यूरोपीय आयातित
कांचों का बहुत सुंदर जड़ाऊ
काम किया गया है। इस भवन का
निर्माण महारावल अखैसिंह (१७२२-६२)
द्वारा करवाया गया था। इसे
वर्तमान में शीशमहल के नाम से
जाना जाता है। इस महल को
"अखैविलास" के नाम से भी
जाना जाता है। महारावल
मूलराज द्वितीय (१७६२-१८२० ई.) द्वारा
हवापोल के ऊपरी भाग में एक
महल का निमार्ण कराया गया था।
इसमें एक विशाल हॉल व दालान
है। इनकी दीवारों पर बहुत ही
सुंदर नक्काशी व काँच के जड़ाऊ
काम का उत्तम प्रतीक है। यह तीन
मंजिला है, जिसमें प्रथम तल पर
राज सभा का विशाल कक्ष है।
द्वितीय मंजिल पर खुली छत, कुछ
कमरे व सुंदर झरोखों से युक्त
कटावदार बारादरियाँ हैं।
जैसलमेर दुर्ग की रचना व
स्थापत्य तथा वहाँ निर्मित भव्य
महल, भवन, मंदिर आदि इसे और
भी अधिक भव्यता प्रदान करते हैं।
पीले पत्थरों से निर्मित यह दुर्ग
दूर से स्वर्ण दुर्ग का आभास
कराता है।
जैसलमेर
नगर का स्थापत्य
जैसलमेर नगर का विकास
१५ वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है।
जब जैसलमेर दुर्ग में आवासीय
कठिनाईयाँ प्रतीत हुई, तो कुछ
लोगों ने किले की तलहटी में
स्थायी आवास बनाकर रहना
प्रारंभ कर दिया। बहुत कम ही
ऐसे नगर होते हैं, जिनका अपना
स्थापत्य होता है। जैसलमेर भी
उनमें से एक है।
इस काल में जैसलमेर
शासकों का मुगलों से संपर्क
हुआ व उनके संबंध सदैव
सौहार्दपूर्ण बने रहने से राज्य
में शांति बनी रही। इसी कारण
यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य की
गतिविधियाँ धीरे-धीरे बढ़ने
लगी। महेश्वरी, ओसवाल,
पालीवाल व अन्य लोग आसपास की
रियासतों से यहां आकर बसने
लगे व कालांतर में यहीं बस गए।
इन लोगों के बसने के लिए
अपनी-अपनी गोत्र के हिसाब से
मौहल्ले बना लिए। आमने-सामने
के मकानों से निर्मित २० से १००
मकानों के मुहल्ले, सीधी सड़क या
गलियों का निमार्ण हुआ और ये
गलियाँ एक दूसरे से जुड़ती चली
गयीं। इस प्रकार वर्तमान नगर का
निर्माण हुआ।
ये सगोत्रीय, सधर्म या
व्यवसायी मौहल्ले पाड़ा या
मौहल्ले कहलाते थे व इन्हें
व्यावसाय के नाम से पुकारते
हैं। जैसे बीसाना पाड़ा, पतुरियों
का मुहल्ला तथा चूड़ीगर अलग-अलग
व्यावसायियों के अलग-अलग
मौहल्लों में रहने से यहाँ
प्रत्येक मोहल्ले में पृथक-पृथक
बाजारों का प्रादुर्भाव हुआ।
नगर के पूर्णरुपेण
विकसित होने पर उसकी सुरक्षा
हेतु आय भी आवश्यक प्रतीत होने
लगे। फलस्वरुप महारावल
अखैसिंह ने १७४० ई. के लगभग नगर
के परकोटे का निर्माण करवाया,
जो महारावल मूलराज द्वितीय
के काल में संपन्न हुआ। इस शहर
दीवार में प्रवेश हेतु चार
दरवाजे हैं, जो पोल कहलाती
है। इन्हें गड़ीसर पोल, अमरसागर
पोल, मल्कापोल व भैरोपोल के
नाम से पुकारा जाता है। ये
दरवाजे मुगल स्थापत्य कला से
काफी प्रभावित है। इनमें बड़ी-बड़ी
नुकीली कीलों से युक्त लकड़ी के
दरवाजे लगे हैं, जिनमें
आपातकालीन खिड़कियाँ बनी हैं।
अठारहवीं सदी के आते-आते नगर में
बढ़ती हुई व्यापारिक समृद्धि के
कारण व्यापारी, सामंत व
प्रशासनिक वर्ग बहुत धन संपन्न
हो गया। फलस्वरुप १९ वीं सदी के
आरंभ तक यहां इन लोगों ने
आवास हेतु बड़ी-बड़ी हवेलियों,
बाड़ी मंदिर आदि का निर्माण
करवाना शुरु कर दिया।
हवेलियों में मुख्यतः तीन
हवेलियां प्रमुख हैं। पटुओं की
हवेली, दीवान सालिमसिंह की
हवेली व दीवान नाथमल की
हवेली। कला की दृष्टि से पटुओं की
हवेली व नाथमल की हवेली। कला
की दृष्टि से पटुओं की हवेली व
नाथमल हवेली स्थापत्य कला का
सर्वोत्तम उदाहरण है। वहीं दीवान
सालिम सिंह की हवेली अपनी
विशालता व भव्यता के लिए प्रसिद्ध
है। ये सभी हवेलियाँ स्थानीय
पीले रेतीले पत्थर से बनी है।
यह पत्थर खुदाई के काम के लिए
सर्वोत्तम माना जाता है। इसे
घिसने पर यह अत्यधिक चिकना व
चमकीला हो जाता है। किसी भी
हवेली के भीतर-बाहर से
गुजरते हुए और विगत की परतें
बिखेरते हुए लगता है, जैसे आत्म
साक्ष्य हो रहा हो, किसी ने
सुहाकगया पीले ओढ़ने की
वेहराई आँखों की खिड़की से कहीं
झांक-झांक लिया हो या स्वर्धिम
धूप की आँगने की परिक्रमा लगाते
हुए दपंण ने पलका-सा मार दिया
हो अथवा आंखों में अमलतास उग आए
हों और सूखी-पपड़ाई सी सोनल
रेत में पीले पहाड़ बन गए हों।
यहाँ के लगभग सभी भवन
पीले, कलात्मक झरोखों से युक्त,
पीली चादर में लिपटे मनोहारी
और दृष्टि बांधने वाले। भवनों
की बेजोड़ शिल्पकला को देखकर
दर्शक की दृष्टियाँ चकित रह जाती
हैं।
नंदकिशोर शर्मा के
अनुसार मुगल सत्ता के पराभव के
उपरांत सिंध, गुजरात व मालवा की
ओर से कई हिंदु व मुस्लिम
कलाकार यहाँ आकर बसने लगे
तथा उन्होंने इन हवेलियों का
निर्माण किया। किंतु यदि ये
कारीगर गुजरात व मालवा की
ओर से आए होते तो अपनी कला के
कुछ मौलिक उदाहरण अवश्य
मिलते, जो कि नहीं मिलते हैं।
परंतु जैसलमेर राज्य से लगे
सिंध प्रांत में स्थानीय कला के
ढेरों उदाहरण प्राप्त होते हैं, जो
कि सिंध नदी को पार करते हुए
बलूचिस्तान की सीमा तक प्राप्त
होते हैं। अतः संभव है कि यहाँ
पर की गई नक्काशी के लिए कारीगर
सिंध प्रांत से जैसलमेर की ओर आए
होंगे। संभवतः लकड़ी के काम के
लिए कलाकार मालवा व गुजरात
से आए होंगे, क्योंकि ये दोनों ही
प्रांत इस कार्य हेतु प्रसिद्ध हैं।
पटुओं की हवेली
छियासठ झरोखों से युक्त
ये हवेलियाँ निसंदेह कला का
सर्वेतम उदाहरण है। ये कुल
मिलाकर पाँच हैं, जो कि
एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये
हवेलियाँ भूमि से ८-१० फीट
ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है
व जमीन से ऊपर छः मंजिल है व
भूमि के अंदर एक मंजिल होने से
कुल ७ मंजिली हैं। पाँचों
हवेलियों के अग्रभाग बारीक
नक्काशी व विविध प्रकार की
कलाकृतियाँ युक्त खिङ्कियों, छज्जों
व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके
कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व
कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व
सुरम्य लगती है। हवेलियों में
प्रवेश करने हुतु सीढियाँ चढ़कर
चबूतरे तक पहुँचकर दीवान
खाने (मेहराबदार बरामदा) में
प्रवेश करना पडता है। दीवान खाने
से लकङ्ी की चौखट युक्त दरवाजे
से अंदर प्रवेश करने पर प्रथम
करमे को मौ प्रथम कहा जाता
है। इसके बाद चौकोर चौक है,
जिसके चारों ओर बरामदा व
छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये
कमरे ६' x ६' से ८' के आकार के हैं, ये
कमरे प्रथम तल की भांति ही ६
मंजिल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की
सुंदर खानों वाली अलमारियों व
आलों ये युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट
प्रकार के चूल युक्त लकङ्ी के
दरवाजे व ताला लगाने हेतु
लोहे के कुंदे लगे हैं। प्रथम तल
के कमरे रसोइ, भण्डारण, पानी
भरने आदि के कार्य में लाए जाते
थे, जबकि अन्य मंजिलें आवासीय
होती थ। दीवान खानें के ऊपर
मुख्य मार्ग की ओर का कमरा
अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर
सोने की कलम की नक्काशी युक्त
लकङ्ी की सुंदर छतों से सुसज्जित
है। यह कमरा मोल कहलाता है,
जो विशिष्ट बैठक के रुप में प्रयुक्त
होता है।
प्रवेश द्वारो, कमरों और
मेडियों के दरवाजे पर सुंदर
खुदाई का काम किया गया है। इन
हवेलियों में सोने की कलम की
वित्रकारी, हाथी दांत की सजावट
आदि देखने को मिलती है। शयन
कक्ष रंग बिरंगे विविध वित्रों,
बेल-बूटों, पशु-पक्षियों की
आकृतियों से युक्त है। हवेलियों
में चूने का प्रयोग बहुत कम किया
गया है। अधिकांशतः खाँचा बनाकर
एक दूसरे को पिघले हुए शीशे से
लोहे की पत्तियों द्वारा जोङा गया
है। भवन की बाहरी व भीतरी
दीवारें भी प्रस्तर खंडों की न
होकर पत्थर के बङ्े-बङ्े
आयताकार लगभग ३-४ इंच मोटे
पाटों (स्लैब) को एक दूसरे पर
खांचा देकर बनाई गई है, जो
उस काल की उच्च कोटि के स्थापत्य कला
का प्रदर्शन करती हैं।
पटवों की हवेलियाँ
अट्ठारवीं शताब्दी से सेठ पटवों
द्वारा बनवाई गई थीं। वे पटवे
नहीं, पटवा की उपाधि से अलंकृत
रहे। उनका सिंध-बलोचिस्तान,
कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों
में व्यापार था और धन कमाकर वे
जैसलमेर आए थे। कलाविद् एवं
कलाप्रिय होने के कारण उन्होने
अपनी मनोभावना को भवनों और
मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त
किया। पटुवों की हवेलियाँ भवन
निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं
अग्रगामी प्रयास है।
सालिम सिंह की
हवेली
सालिम सिंह की हवेली
छह मंजिली इमारत है, जो नीचे
से संकरी और ऊपर से
निकलती-सी स्थात्य कला का प्रतीक
है। जहाजनुमा इस विशाल भवन
आकर्षक खिङ्कियाँ, झरोखे तथा
द्वार हैं। नक्काशी यहाँ के
शिल्पियों की कलाप्रियता का खुला
प्रदर्शन है। इस हवेली का निर्माण
दीवान सालिम सिंह द्वारा
करवाया गया, जो एक प्रभावशाली
व्यक्ति था और उसका राज्य की
अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण था।
दीवान मेहता सालिम
सिंह की हवेली उनके पुस्तैनी
निवास के ऊपर निर्मित कराई
गई थ। हवेली की सर्वोच्च मंजिल
जो भूमि से लगभग ८० फीट की
उँचाई पर है, मोती महल
कहलाता है। कहा जाता है कि
मोतीमहिल के ऊपर लकङ्ी की
दो मंजिल और भी थी, जिनमें
कांच व चित्रकला का काम किया गया
था। जिस कारण वे कांचमहल व
रंगमहल कहलाते थे, उन्हें
सालिम सिंह की मृत्यु के बाद
राजकोप के कारण उतरवा दिया
गया। इस हवेली की कुल क्षेत्रफल
२५० x ८० फीट है। इसके चारों ओर
अङ्तालीस झरोखे व खिङ्कियाँ है।
इन झरोखों तथा खिङ्कियों पर
अलग-अलग कलाकृति उत्कीर्ण हैं।
इनपर बनी हुई जालियाँ
पारदर्शी हैं। इन जालियों में
फूल-पत्तियाँ, बेलबूटे तथा
नाचते हुए मोर की आकृति उत्कीर्ण
है। हवेली की भीतरी भाग में
मोती-महल में जो ४-५ वीं मंजिल
पर है, स्थित फव्वारा आश्चर्यजनक
प्रतीत होता है। सोने की कलम से
किए गए छतों व दीवारों पर
चित्रकला के अवशेष आज भी उत्कृष्ट
कला को प्रदर्शित करते हैं। इन प शिला पर कई जैन
धर्म से संबंधित कथाएँ चिहृन, तंत्र
व तीर्थकर व मंदिर आदि उत्कीर्ण
है। प शिला पर उत्कीर्ण लेख
के अनुसार इसका निर्माण काल १५१८
विक्रम संवत् है। मंदिर की
बाहरी दीवारों पर भी विभित्र
प्रकार की मूर्तियों का रुपांकन हुआ
है। इस मंदिर के जाम क्षेत्र में
काम मुद्राओं से युक्त मिथुन
प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है।
ये मूर्ति कला की दृष्टि से अत्यधिक
महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के
ऊँचे शिखर के साथ-साथ अनेक
लघु शिखर जिन्हें अंग शिखर कहा
जाता है, भी चारों ओर क्रम से
फैले हुए हैं। ये लघु शिखर
देखने में मनोहारी प्रतीत होते
हैं।
संभवनाथ
मंदिर
पार्श्वनाथ मंदिर के नजदीक
में स्थित इस मंदिर का स्थापत्य
पार्श्वनाथ मंदिर के अनुरुप ही है।
यह मंदिर अपने उत्कृष्ट नक्काशी तथा
स्थापत्य की अन्य कलाओं के कारण
प्रसिद्ध है।
संभवनाथ मंदिर में
मंदिर का रंग मंडप की
गुंबदनुमा छत स्थापत्य में
दिलवाङा के जैन मंदिर के अनुरुप
है। इसके मध्य भाम में झूलता
हुआ कमल है, जिसके चारों ओर
गोलाकार आकार में बाहर
अप्सराओं की कलाकृतियाँ हैं।
अप्सराओं के नीचे के हिस्से में
गंद्धर्व की मूर्तियँ उत्कीर्ण है।
अप्सराओं के मध्य में पदमासन्
मुद्राओं में जो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित
हैं, जिनके नीचे हंस बने हैं,
गुंबद का अन्य भाग पच्चीकारी से
युक्त है। इस मंदिर में कुल
मिलाकर ६०४ प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से
एक जौ के आकार का मंदिर है,
जिसमें तिल के बराबर जैन
प्रतिमा है, जो कि उस समय की उत्रत
स्थापत्य कला को दर्शाता है। इस
मंदिर का निर्माण सन् १३२० ई. में
शिवराज महिराज एवं लखन नाम
का ओसवाल जाति के व्यक्तियों ने
कराया था तथा मंदिर के
वास्तुकार का नाम शिवदेव था।
इस मंदिर के भू-गर्भ में
दुर्लभ पुस्तकों का भंडार है, जो
ता पत्र भोज पत्र, रेशम तथा हाथ
के बने हुए कागज पर लिखा गया
है। इस भंडार में प्रमुख रुपेण
जैन धर्म साहित्य है, परंतु अन्य
विषय कला, संगीत, ज्योतिष,
औषधि, काम,
अर्थ आदि विषयों पर भी प्रचुर
मात्रा में है। इस भंडार में
प्राचीनतम ग्रंथ १०६० ई. का है।
चन्द्रप्रभू मंदिर
चंद्रप्रभू मंदिर तीन
मंजिला है तथा रणकपुर जैन
मंदिर की तरह है। स्थापत्य की
दृष्टि से यह मंदिर १३ वीं १४ वीं
शताब्दी का बना हुआ है। ऐसा प्रतीत
होता है कि यह पहले हिंदु
मंदिर था जिसे बाद में १५ वीं
शताब्दी में जैन मंदिर में तब्दील
कर दिया गया। यह तथ्य मंदिर के
निचले भाग की उत्कृष्ट कला को
प्रदर्शित करते हैं।
दीवान नाथमल
की हवेली
जैसलमेर में दीवन
मेहता नाथमल की हवेली का
कोई जबाव नहीं है। यह हवेली
दीवान नाथमल द्वारा बनवाई
गई है तथा यह कुल पाँच
मंजिली पीले पत्थर से निर्मित है।
इस हवेली का निर्माण काल १८८४-८५
ई. है। हवेली में सुक्ष्म खुदाई
मेहराबों से युक्त खिङ्कियों,
घुमावदार खिङ्कियाँ तथा हवेली
के अग्रभाग में की गई पत्थर की
नक्काशी पत्थर के काम की दृष्टि से
अनुपम है। इस अनुपम काया कृति
के निर्माणकर्त्ता हाथी व लालू
उपनाम के दो मुस्लिम कारीगर थे।
ये दोनों उस समय के प्रसिद्व
शिल्पकार थे। हवेली का निर्माण
आधा-आधा भाग दोनों शिल्पकारों
को इस शर्त के साथ बराबर
सौंपा गया था कि दोनों आपस में
किसी की कलाकृति की नकल नहीं
करेंगे, साथ ही किसी कलाकृति की
पुनरावृत्ति नहीं करेंगे। इस बात
का दोनों ने पालन करते हुए
इसका निर्माण पूर्ण किया। आज जब
इस हवेली को दूर से देखते हैं,
तो यह पूरी कलाकृति एक सी नजर
आती है, परंतु यदि ध्यान से देखा
जाए तो हवेली के अग्रभाग के मध्य
केंद्र से दोनों ओर की
कलाकृतियाँ सूक्ष्म भित्रता लिए हुए
हैं, जो दो शिल्पकारों की अमर
कृति दर्शाती हैं। हवेली का कार्य
ऐसा संतुलित व सुक्ष्मता लिए हुए
है कि लगता ही नहीं दो शिल्पकार
रहें हों।
हवेली ७-८ फुट उँचे
चबूतरे पर बनी है। एक चट्टान
को काट कर इस भवन का निचला
भाग बनाया गया है। इस चबूतरे
तक पहुँचने हेतु चौडी सीढियाँ
हैं व दोनों ओर दीवान खाने बने
हैं। चबूतरे के छो पर एक पत्थर
से निर्मित दो अलंकृत हाथियों की
प्रतिमाएँ है। हवेली के विशाल
द्वार से अंदर प्रवेश करने पर
चौङा दालान आता है। दालान के
चारों ओर विशाल बरामदे बने
हैं। जिनके पीछे आवासीय कमरे
बने हैं। द्वितीय तल पर सङ्क की
ओर मुख्य द्वार के ऊपर विशाल
मोल बना हुआ है, जो कई प्रकार
के चित्रों व त्रिकला से सुसज्जित
है। इसकी छत लकङ्ी के परंपरागत
छत के स्थान पर पत्थर के
छोटे-छोटे समतल टुकङों को
सुंदर काआर देकर केन्द्र में
सुंदर फूल बनाकर चारों ओर
पंखुङ्यों का आभास देते हैं, को
जमाकर बनाया गया है। इस
विशाल कक्ष में किसी प्रकार की
कमानी या बीम आदि का संबंध
नहीं किया गया है। यह तत्कालीन
स्थापत्य कला का उत्रत उदाहरण है।
हवेली में पत्थर की खुदाई के
छज्जे, छावणे, स्तंभों, मौकियों,
चापों, झरोखों, कंवलों,
तिबरियों पर फूल, पत्तियां,
पशु-पक्षियों का बङा ही मनमोहक
आकृतियां बनी हैं। कुछ नई
आकृतियां जैसे स्टीम इंजन,
सैनिक, साईकल, उत्कृष्ट नक्काशी
युक्त घोङ्े, हाथी आदि उत्कीर्ण है।
यहाँ तक की पानी की निकासी हेतु
नालियों भी शिल्पकारों की
छेनियों से अछूती नहीं रही है।
भवन निर्माण में स्थापत्य
की विशिष्टता जैसलमेर में
हवेली तक ही सीमित नहीं है,
पूरा जैसलमेर ही जालियों व
झरोखों का नगर है। यहाँ ऐसा
कोई मोहल्ला या गली नहीं है,
जिसमें ऐसा घर हो कि किसी ने
किसी प्रकार की शिल्पकला का
प्रदर्शन न किया हो। मकानों के
बाहरी भाग व भीतरी भाग
थोङ्ी-थोङ्ी भित्रता लिए हुए है,
किन्तु उन्हें बनाने की कला में
एकरुपता है। मरुस्थल में कला के
चरण कहाँ तक पहुँच गए हैं, इसका
पता तब लगता है, जब कोई
जैसलमेर के छोटे बाजार को
पार करके पत्थर के खडंजे की
गलियों में पहुँचते हैं। जहाँ
दोनो ओर सुंदर विशाल
हवेलियाँ झरोखों से झांक कर
या खिङ्कियों की कनखियों से
देखकर आगंतुकों का अभिवाद करती
हैं।
स्थापत्य का प्रदर्शन राज्य की
राजधानी तक ही सीमित नहीं रहा।
राज्य के अन्य भागों में भी स्थापत्य
कला का सुनियोजित रुप से
विकास हुआ था। पालीवाल नामक
वाणिज्य करने वाली जाति ने खाभा,
काठोङ्ी, कुलधर, बासनीपीर,
जैसू राणा, हडडा आदि ग्राम बसाए
थे, इनकी रचना बङ्े कलात्मक ढंग
से की गई थी। यहाँ की इमारतें
जिनमें मकान, कुँए, छतरियाँ,
मंदिर, तालाब, बांध आदि स्थापत्य
व कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यद्यपि
लगभग २०० वर्ष
हुए, यहाँ के निवासी पालीवाल
यहाँ से पलायन कर देश के अन्य
भागों में बस गए व ये गाँव उज गए,
किन्तु खंडहरों में बिखरा स्थापत्य
कला के सौंदर्य को आज भी जीवंत
रखे हुए है।
मंदिर स्थापत्य
जैसलमेर दुर्ग, नगर व
आस-पास के क्षेत्र मं स्थित ऊँचे
शिखरों, भव्य गुंबदों वाले जैन
मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि
से बङा महत्व है। जैसलमेर
स्थिर जैन मंदिर में जगती,
गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप,
रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में
गुजरात के सोलंकी व बधेल
कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव
दृष्टिगोचर होता है।
पार्श्वनाथ
मंदिर
दुर्ग में स्थित पार्श्वनाथ
तीर्थकर का मंदिर अपने स्थापत्य
मूर्तिकला व विशालता हेतु प्रसिद्व
है। वृद्धिरत्नमाला के अनुसार इस
मंदिर में मूर्तियों की कुल संख्या
१२५३ है। इसके शिल्पकार का नाम ध्त्रा
है। पार्श्वनाथ मंदिर के प्रथम मुख्य
द्वारा के रुप में पीले पत्थर से
निर्मित शिल्पकला से अलंकृत
तोरण बना हुआ है। इस तोरण के
दोनों खंभों में देवी, देवताओं,
वादक-वादिकाओं को नृत्य करते
हुए, हाथी, सिंह, घोङ्े, पक्षी आदि
उकेरे हुए हैं, जो सुंदर
बेल-बूटों से युक्त हैं। तोरण के
उच्चशिखर पर मध्य में ध्यानस्थ
पार्श्वनाथ की मूर्ति उत्कीर्ण हुई है।
द्वितीय प्रवेश द्वार पर मुखमंडप
के तीन तोरण व इनमें बनी
कलामय छत विभित्र प्रकार की
सुंदर आकृतियों से अलंकृत है।
तोरण में तीर्थकरों की मूतियाँ
वस्तुतः सजीव व दर्शनीय है।
गुजरात शैली के प्रतिरुप
इस मंदिर में सभा मंडप,
गर्भगृह, गूढ मंडप, छः चौकी,
भभतिकी ५१ देव कुलिकाओं की
व्यवस्था है। इन कुलिकाओं में बनी
हुई मूर्तियाँ अत्यंत ही
मनोहारी है। सभामंडल की
गुंबदनुमा छत को
वाद-वादनियों की मनोहारी
मुद्राओं से सजाया गया है।
सभामंडप के अग्रभाग के खंभे व
उसके बीच के कलात्मक तोरणों पर
विभित्र प्रकार की आकृतियों में
तक्षण कला के अनुपम प्रकार के
उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं।
इस मंडप में ९ तोरण है। इसी
सभामंडप में पीले पाषाण की ५ x ४-१/२
फीट ऊँचाई वाली चार शिलाएँ
हैं। में स्थित
देवी-देवताओं के उपस्थित होने के
आधार पर है।
मंदिर के सभा मंडप के
आठ सुंदर कलापूर्ण तोरण बने
हैं। खंभों के निचले भागों में
हिंदू देवी-देवताओं की सुंदर
खङ्ी आकृतियाँ बनी हैं। गुंबद की
बनाबट आकर्षक है। दूसरी ओर
तीसरी मंजिल पर भगवान
चंद्रप्रभू विराजमान हैं, जो
चौमुख रुप में हैं। नीचे के सभा
मंडप में चारों तरफ जाली का
काम हुआ है। मंदिर में गणेश को
विभिण मुद्राओं में प्रदर्शित किया
गया है। यहाँ तीसरे मंजिल पर
एक कोठरी मे रखी धातु की बनी
चौबासी व पंच तीर्थी मूर्तियों का
संग्रह है।
शांतिनाथ एवं
कुन्थूनाथ जी के मंदिर
यह जुडवा मंदिर अपने
खूबसूरत कलाकारी के लिए प्रसिद्ध
है। खूबसूरत गढ़ी हुई मूर्तियाँ
तथा पत्थर पर की गई नक्काशी, इस
मंदिर को जैसलमेर की
बहुमूल्य धरोहर बनाती है।
निचलामंदिर कुंथुनाथ को
समर्पित है, जो अष्टपद आधार पर
बना है। शांतिनाथ की प्रतिमा
मंदिर के ऊपरी भाग में स्थित
है। इन मंदिरों का निर्माण
जैसलमेर की चोपड़ा तथा
शंखवाल परिवारों द्वारा
काराया गया। मंदिर में लगे
शिलालेख के अनुसार इन दोनों
मंदिरों का निर्माण १४८० ई.में हुआ
था। १५१६ ई. में मंदिरों के कुछ
हिस्से में बदलाव व अन्य निर्माण
कार्य किए गए।
यह मंदिर शिखर से युक्त
है, इस शिखर के भीतरी गुंबदों
में वाद्य यंत्रों को बजाती हुई व
नृत्य करती हुई अप्सराओं को
उत्कीर्ण किया गया है। इनके नीचे
गंधर्वो की प्रतिमाएँ। मंदिर के
सभा मंडप के चारों ओर स्तंभों
के मध्य सुंदर तोरण बने हैं।
गूढ़ मण्डप में एक सफेद आकार की
दूसरी काले संगमरमर की
कार्योत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियाँ
प्रतिष्ठित बनी है, इसके दोनों
पार्श्वो में ११-११ अन्य तीर्थकरों की
प्रतिमाएँ बनी हैं। इस कारण
चौबीसी की संज्ञा दी गई है।
हिन्दुओं की दो प्रतिमाएँ दशावतार
और लक्ष्मीनारायण भी मंदिर में
स्थापित हैं।
मंदिर के अन्य भाग में
शायद ही ऐसा कोई पत्थर मिले
जिसपर शिल्पकार ने कुछ-न-कुछ न
उकेरा हो। हाथी, घोङा, सिंह,
बंदर, फूल, पत्तियों से पूरा
मंदिर आच्छादित है। नालियाँ भी
मगरमच्छ के मुख के आकार की
बनाई गई हैं। जैसलमेर
पंचतीर्थी इतिहास के लेखक ने
यहाँ उत्कीर्ण की गई कामनी स्रियों
के अंग प्रत्यंग के सजीव सौंदर्य का
वर्णन निम्न प्रकार किया है। चांदी
सी गोल गुखाकृति, बङ्ी विशाल
भुजाएँ, चौङा ललाट, नागिन सी
गूंथी बालों की लटें, तिरछे नयन,
तोते की चोंच सी नाक, पतले व
सुंदर होंठ, भरे हुए स्तन, पतली
सपाट पिंडली व आभूषण से सजा
पूरा शरीर आदि की सुक्ष्मता और
भाव-भंगिमा युक्त प्रतिमाएँ वस्तु
प्रभावोत्पादक है। कला की दृष्टि से
इनको खजुराहो, कोणार्क व
दिलवाङा में प्राप्त प्रतिमाओं के
समकक्ष रखा जा सकता है।
शीतलनाथ
मंदिर
संभवनाथजी मंदिर से
सटा हुआ शीतलनाथ जी मंदिर है।
इस मंदिर का रंगमंडप तथा
गर्भगृह बहुत ही सटे हुए बने
होने के कारण एक ही रचना प्रतीत
होता है। मंदिर में सुंदर पत्थर
की पच्चीकारी की गई है। इस
मंदिर में नौ खण्डा पार्श्वनाथ जी व
एक ही प्रस्तर में २४ तीर्थकार की
प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं।
ॠषभदेव
मंदिर
ॠषभदेव मंदिर चंद्रप्रभु
मंदिर के समीप स्थित है। यह
मंदिर १५ वीं शताब्दी में निर्मित है।
ॠषभदेव का मंदिर तथा इसका
शिखर अत्यंत कलात्मक एवं दर्शनीय
है। इस मंदिर की एक विशेषता
यह है कि यहाँ मुख्य सभी मण्डप
के स्तंभों पर हिन्दु
देवी-देवताओं का रुपांकन है।
कहीं राधाकृष्ण और कहीं अकेले
कृष्ण को वंशी वादन करते हुए
दिखाया गया है। एक स्थान पर गणेश,
शिव-पार्वती व सरस्वती की
मूर्तियाँ अंकित है। कहीं इन्द्र व
कहीं विष्णु की प्रतिमा भी उत्कीर्ण है।
रंग मंडल में १२ खंभे हैं, जिनके
निचले भाग मे गणेश की आकृतियाँ
बनी है। ऐसा प्रतीत होता है कि
जैसलमेर में जैन समुदाय द्वारा
हिन्दु देवी-देवताओं को भी पूजा
जाता रहा होगा। मंदिर में
पद्यावती, तीर्थकर, गणेश, अंबिका,
यक्ष, शालमंजिका और अन्य मूर्तियाँ
उत्कीर्ण है।
महावीर
जैनालय
यह मंदिर किले के
चौगान में स्थित है। महावीर
स्वामी का यह मंदिर १४९३ ई. के
बाद का बना हुआ है। अन्य मंदिरों
की तुलना में इसका स्थापत्य
साधारण है।
लक्ष्मीनाथ मंदिर
जैसलमेर दुर्ग में स्थित
यह महत्वपूर्ण हिन्दु मंदिर है,
जिसका आधार मूल रुप में पंचयतन
के रुप में था। इस मंदिर का
निर्माण दुर्ग के समय ही राव
जैसल द्वारा कराया गया। मंदिर का
सभामंडप किले के अन्य इमारतों
का समकालीन है। इसका निर्माण १२
वीं शताब्दी में हुआ था। अलाउद्धीन के
आक्रमण के काल में इस मंदिर का
बङा भाग ध्वस्त कर दिया गया। १५वीं
शताब्दी में महारावल लक्ष्मण द्वारा
इसका जीर्णोधार किया गया। मंदिर
के सभा मंडप के खंभों पर
घटपल्लव आकृतियाँ बनी है। इसका
गर्भ गृह, गूढ़ मंडप तथा अन्य भागों
का कई बार जीर्णोधार करवाया
गया। मंदिर के दो किनारे
दरवाजों पर जैन तीर्थकरों की
प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण है। गणेश मंदिर
की छत में सुंदर विष्णु की सर्पो
पर विराजमान मूर्ति है।
अन्य मंदिर
टीकम जी का मंदिर जिसे
त्रिविकर्मा मंदिर के नाम से भी
जाना जाता है, का निमार्ण १७०१ ई. में
महारावल अरमसिंह के शासनकाल
में महारानी जसरुपदे द्वारा किया
गया। यह मंदिर स्थापत्य की दृष्टि
से साधारण है। मंदिर के
सभामंडप में खूबसूरत आकृति
बनी है, जो महारावल मूलराज
के काल की हैं।
टीकम जी मंदिर के बगल
में ही गौरी मंदिर स्थित है।
इसमें देवी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई
है। ये प्रतिमाएँ १५ से १७ वीं शताब्दी
की हैं। एक शिलालेख के अनुसार ये
मूर्तियां कोटङा से महारावल
जसवंत सिंह द्वारा १७०३ ई. लाई
गई थी।
लौद्रवा जैन मंदिर
ऐसा माना जाता है कि
लौद्रवा की स्थापना परमार
राजपूतों द्वारा की गई थी। बाद में
यह भाटियों के कब्जें में आ गया था।
लौद्रवा का जैन मंदिर कला
की दृष्टि से बङ्ें महत्व का है। दूर
से ऊँचा भव्य शिखर तथा इसमें
स्थित कल्पवृक्ष दिखाई पङ्ने लगते हैं। इस
मंदिर में गर्भगृह, सभा मंडप
मुख मंडप आदि है। यह मंदिर
काफी प्राचीन है तथा समय-समय
पर इसका जीर्णोधार होता रहा
है। मंदिर में प्रवेश करते ही
चौक में एक भव्य पच्चीस फीट ऊँचा
कलात्मक तोरण स्थित है। इस पर
सुंदर आकृतियों का रुपांतन पर
खुदाई का काम किया गया है।
मंदिर के गर्भगृह में सहसफण
पार्श्वनाथ की श्याम मूर्ति प्रतिष्ठित
है। यह मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी
हुई है। गर्भगृह के मुख्य द्वार के
निचले हिस्से में गणेश तथा कुबेर
की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके
खंभे विशाल हैं, जिसपर घट पल्लव
की आकृतियां बनी हुई हैं। इस
मूर्ति के ऊपर जङा हुआ हीरा
मूर्ति के अनेक रुपों का दर्शन
करवाता है।
इस मंदिर के चारों
कोनों में एक-एक मंदिर बना हुआ
है। मंदिर के दक्षिण-पूर्वी कोने पर
आदिनाथ, दक्षिण-पश्चिमी कोने पर
अजीतनाथ, उत्तर-पश्चिमी कोने पर
संभवनाथ तथा उत्तर-पूर्व में
चिंतामणी पार्श्वनाथ का मंदिर है।
मूल मंदिर के पास कल्पवृक्ष
सुशोभित है। मूल प्रासाद पर
बना हुआ शिखर बङा आकर्षक है।
तोरण द्वार, रंगमंडप, मूलमंदिर
व अन्य चार मंदिर तथा उन पर निर्मित
शिखर और कल्पवृक्ष सभी की एक
इकाई के रुप में देखने पर इन
सब की संरचना बङ्ी भव्य प्रतीत
होती है। इस मंदिर में एक प्राचीन
कलात्मक रथ रखा हुआ है, जिसमें
चिंतामणि पाश्वनाथ स्वामी की मूर्ति
गुजरात से यहां लाई गई थी।
लौद्रवा जो आज ध्वस्त स्थिति
में है। प्राचीन काल में बङा समृद्ध
था। यहाँ काल नदी के किनारे
प्राचीन शिव मंदिर था। आज लगभग
इसका तीन चौथाई भाग भूमिगत
हो चुका है। यहाँ पंचमुखी
शिवलिंग है। जिसकी तुलना
ऐलिफेंटा गुहा व मध्य प्रदेश में
मंदसौर से प्राप्त शिवलिंग से की
जा सकती है। इसके अतिरिक्त विष्णु,
लक्ष्मी, गणपति, शक्ति व कई
पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी रेत
मे डूबी पङ्ी है। प्राचीन कला की
दृष्टि से लौद्रवा का आज भी अत्यधिक
महत्व है।
अमर सागर
जैसलमेर और लौद्रवा के
बीच अमरसागर एक रमणिक स्थान है।
अमरसागर मंदिर, तालाब तथा उद्यान
का निर्माण महारावल अमरसिंह
द्वारा विक्रम संवत् १७२१ से १७५१ के बीच
किया गया था। यहाँ आदिश्वर
भगवान के तीन जैन मंदिर है। ये
सभी १९ वीं शताब्दी की कृतियां हैं।
इनसे यह तो स्पष्ट है कि
जैसलमेर क्षेत्रा में जैन स्थापत्य
परंपरा का अनुसरण १९ वीं शताब्दी
के उत्तरार्द्ध तक होता रहा। अमर
सागर के किनारे भगवान आदिश्वर
का दो मंजिला जैन मंदिर है। इस
मंदिर का निर्माण सेठ हिम्मत
राम बाफना द्वारा १८७१ ई. में हुआ
था। यहाँ इस मंदिर के स्थापत्य पर
कुछ अंशों में हिन्दु-मुगल शैली का
सामंजस्य है। मंदिर में बने
गवाक्ष, झरोखें, तिबारियाँ तथा
बरामदों पर उत्कीर्ण अलंकरण बङ्े
मनमोह है, यहाँ मुख चतुस्कि के
स्थान पर जालीदार बरामदा स्थित
है और रंगमंडप की जगह
अलंकरणों से युक्त बरामदा का
निर्माण हुआ है। दूसरी मंजिल पर
चक्ररेखी शिखर के दोनो पाश्वों में
मुख-चतुस्कि जोड् दी गई है।
वैसाखी
जैसलमेर से १५ किलामीटर
दूरी पर स्थित वैसाखी में प्रसिद्द्ध
हिंदु मंदिर है। यहाँ पर तालाब
होने के कारण यह मंदिर लंबे
समय तक पूजा स्थल था। यहाँ १० वीं
शताब्दी के दो स्मारक मिलते हैं।
मंदिर का शिखर काफी
प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि
इसका निर्माण ८-१० वीं शताब्दी के
मध्य हुआ होगा। महारावल
हरराज के शासन काल में यह
मंदिर १५७८ से १५९७ ई. के मध्य में धाय
पार्वती द्वारा मरम्मत करवाया
गया था।
रामकुंड
रामकुंड में महारावल
अमरसिंह द्वारा १६९९ ई. में निर्मित
वैष्णव मंदिर है। यहाँ के
शिलालेख के अनुसार अमरसिंह की
रानी सोधी मानसुखदे ने यह
मंदिर का निर्माण सीताराम के लिए
करवाया था। इस शिलालेख को
महारावल जसवंतसिंह द्वारा १७०३
ई. में स्थापित किया गया था। मुख्य
मंदिर के बाहरी भाग में कुछ
भित्ति-चित्र तथा पुरुष की रेखीय रचना है।
जैसलमेर के भाटी
शासकों की जनहिताय की भावना,
कला प्रियता एवं सौंदर्य प्रेम की
अभिव्यक्ति स्वरुप जैसलमेर व उसके
आसपास के क्षेत्र में अनेक सरोवर,
बाग-बगीचे, महल व छत्रियों का
निर्माण हुआ। वे स्थापत्य कला के
अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
जैसलमेर नगर के पूर्व में
घङ्सीसर सरोवर का निर्माण
महारावल, झङ्सी ने आरंभ
करवाया था। यहाँ बङ्े सुंदर
घाट, मंदिर व बगीचियाँ बनी
हुई हैं। जब घ्ड.सीसर पूरा भर
जाता है तो यह एक सुंदर झील का
रुप ले लेती है। इस तालाब के
मध्य में बनी इमारतें व छत्रियाँ
पानी में तैरती हुई दिखाई देती
हैं। घ्ङ्सीसर तालाब का प्रवेश-द्वार,
जो टीलों की पोल के नाम से
विख्यात है, तालाब की शोभा को
बढ़ाने के साथ-साथ जैसलमेर के
स्थापत्य का एक अनुपम नमूना
भी प्रस्तुत करता है। घङ्सीसर के
आलावा यहाँ अमर सागर, मूल
सागर, गजरुप सागर आदि अन्य
सरोवर का निर्माण भी करवाया
गया था। अमरसागर के तालाब का
बांध व उस पर बने महल,
हिम्मतराम पटुआ के बाग एवं
बगीचे की बनावट तथा अनुबाब का
दृश्य काफी सुंदर है तथा स्थापत्य व
कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
मूलसागर व उसके मध्य में निर्मित
महल और झालरा वास्तव में
दर्शनीय हैं।
जैसलमेर से पॉचमील
दूर बङ्े बाग का सुदृढ़तम जैतबंध
अपने स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध है। यह
विशाल अनगड़ित बङ्े-बङ्े पत्थरों
को जुङ्वा कर निर्मित करवाया
गया है। इस बांध के आगे बने
सरोवर को जैतसर कहते हैं।
इस बांध के ऊपर बने भारी
राजाओं की समाधि स्थल भी
उल्लेखनीय है। रावल बैरीशाल के
मंडप की जाली एवं पीले पत्थर की
पालिशदार चौकी कला के उत्कृष्ट
नमूने हैं। बांध की दूसरी तरु एक
मनोहर बाग है, जो आम, अमरुद,
अनार आदि के पेङ्, फूल-पौधों व
लताओं से अच्छादित है। इसके अलावा
गजरुप सागर का बांध व पहाड़ के
बीच में से बनाई गई पानी की
बांध व पहा के बीच में से
बनाई गई पानी की नहर और
ऊँचे पर्वत पर बना देवी का
मंदिर व आश्रम देदानसर आदि
शहरी तालाब पर निर्मित व बांध
एवं बगिचियाँ आदि मजबूत,
कलात्मक एवं सुंदर हैं।
विषय
सूची
|