राजस्थान |
मेवाड़ में हिन्दू धर्म का विकास अमितेश कुमार |
श्यामलदास के अनुसार, मेवाड़ में वेदानुयायियों को पाँच हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है - शैव, वैष्णव, शाक्त, गणपत्य और सौर (सूर्य) इन पाँचों में से शैव, वैष्णव व शाक्त अधिक प्रचलित थे। सन्यासी, नाथ तथा बहुत से ब्राम्हण शैवों के आचार्य थे, लेकिन इनमें मतभेद था। वैष्णवोंरामावत, नीमावत, माधवाचार्य तथा विष्णुस्वामी, इन चारों नामों से चार सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं। पुनः इनमें कई प्रशाखाएँ बन गई, जैसे रामस्नेही, दादूपंथी, कबीरपंथी, नारायणपंथी आदि। इनके आचार-विचार में भी कुछ-कुछ भिन्नताएं हैं। कुछ अद्वेैत सिद्धांत तो कुछ उपासना पक्ष का आश्रय लेते हैं। मेवाड़ के अधिकांश राजा शैव रहे हैं। शाक्तों की यहाँ दो शाखाएँ थी, एक दक्षिण व दूसरी वाम। दक्षिण शाखा के अनुयायी वेदानुकूल पूजा, प्रतिष्ठा, जप, होमादि करते हैं तथा वाम शाखा तंत्रशास्र के अनुसार पशुहिंसा और मद्य-मांसाचरण करते हैं। ये लोग चर्मकारी रजकी और चाण्डाली को काशीसेवी, प्रागसेवी, मांस को शुद्धि, मद्य को तीर्थ, कांदा (ब्याज) को वयाज और लहसुन को शुकदेव कहते थे। रजस्वला व चाण्डाली की यानि पूजा करते थे। इनका मुख्य सिद्धांत इस श्लोक के अनुसार होता था।
मेवाड़ में शैव मतावलम्बियों के लिए प्रमुख स्थान कैलासपुरी है, जो एकलिंगेश्वर की पुरी के रुप में भी जाना जाता है। एकलिंगेश्वर इस देश के राजा माने जाते थे तथा महाराणा इसके दीवान (मंत्री)। शिवमत के अधिकांश मठधारी, महन्त व गोंसाई निरक्षर थे। वैष्णव मतावलम्बियों क लिए चार प्रमुख स्थान हैं - नाथद्वारा, कांकड़ौली, चारभुजा और रुपनारायण। नाथद्वारा और कांकड़ौली के गुसाईयों का वैष्णव सम्प्रदाय में विशेष महत्व है। इस मत को १५ वीं सदी में वल्लभाचार्य ने प्रचलित किया था। उनके सात पुत्र थे। सातों की गद्दियाँ व पूजन की मूर्तियाँ अलग-अलग थी। सबसे बड़ी मूर्ति आठवीं नाथद्वारा के श्री गोवर्द्धननाथ की थी। सातों भाइयों में टीकेत गोस्वामी भी, नाथद्वारा के गोस्वामी ही कहलाते थे तथा कांकड़ौली वाले उनके छोटे भाइयों में से थे।
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