राजस्थान |
मेवाड़ चित्रकला की चित्रण सामग्री का तकनीकी स्वरुप अमितेश कुमार |
मेवाड़ में चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढियों से अपनाते रहे हैं। चितारे (चित्रकार वर्ग) अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि वहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं। तकनीकों का प्रादुर्भाव पश्चिमी भारतीय चित्रण पद्धति के अनुरुप ही ताड़ पत्रों के चित्रण कार्यों में ही उपलब्ध होता है। यशोधरा द्वारा उल्लेखित षडांग के संदर्भ एवं समराइच्चकहा एवं कुवलयमाला कहा जैसे ग्रंथों में ""दट्ठुम'' शब्द का प्रयोग चित्र की समीक्षा हेतु हुआ है, जिससे इस क्षेत्र की उत्कृष्ट परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। ये चित्र मूल्यांकन की कसौटी के रुप में प्रमुख मानक तथा समीक्षा के आधार थे। विकास के इस सतत् प्रवाह में विष्णु धर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार एवं चित्र लक्षण, जैसे अन्य ग्रंथों में वर्णित चित्र कर्म के सिद्धांत का भी पालन किया गया है। परंपरागत कला सिद्धांतों के अनुरुप ही शास्रीय विवेचन में आये आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का निर्वाह हुआ है। प्रारंभिक स्वरुपों का उल्लेख आठवीं सदी में हरिभद्रसूरि रचित समराइच्चि कहा एवं कुवलयमाला कहा जैसे प्राकृत ग्रंथों से प्राप्त कला संदर्भों में मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के रंग- तुलिका एवं चित्रफलकों का तत्कालीन साहित्यिक संदर्भों के अनुकूल उल्लेख, मेवाड़ में प्रामाणित रुप से चित्रण के तकनीकी पक्ष का क्रमिक विकास यहीं से मानते हैं तथा चित्रावशेष १२२९ ई. के उत्कीर्ण भित्तिचित्रों एवं १२६० ई के ताल पत्रों पर मिलते हैं।
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