राजस्थान |
रंग- निर्माण के तकनीकी आधार व स्थानीय विधियाँ अमितेश कुमार |
मिश्रित
रंगों की प्रक्रिया सुनहरी, रुपहरी एवं रांगे की हल तूलिका निर्माण की स्थानीय पद्धति ताड़पत्रों का प्रयोग कागज निर्माण एवं उन पर प्रारंभिक चित्रण कार्य भित्ति चित्रण का तकनीकी पक्ष लघु चित्रों की चित्रण प्रक्रिया
|
|
यहाँ के प्राचीन चित्रों में यहाँ की विभिन्न प्रकार की मिट्टियों तथा प्राकृतिक खनिन रंगों का सर्वाधिक प्रयोग मिलता है, जिसमें लाल, काली, पीली, रामरज, सफेद, मटमैला तथा विभिन्न रंगों के पत्थर हरा भाटा, हिंगलू आदि को बारीक पीसकर उसे आवश्यकतानुसार गोंद और पानी के साथ घोंट कर काम में लाने की अपनी निजि पद्धति रही है। इसके अतिरिक्त वे विभिन्न प्रकार की खनिज, बहुमुल्य धातुएँ जैसे सोना, चाँदी, रांगा, जस्ता तथा भूमि से प्राप्त अन्य रंगों का भी विधिवत निर्माण करते रहे हैं। इन तत्वों से बनने वाले रंग कीमती तथा टिकाऊ होते थे। रंगों में हरा भाटा, पीला पत्थर एवं ""हिंगलू'' पत्थर अधिक कार्य आता था। स्वर्ण एवं चांदी के पत्रों तथा सफेद- हकीक को बारीक कणों में गोट- गोट कर रंग तैयार किया जाता था। विभिन्न रंगों के पारंपरिक स्रोत तथा निर्माण विधि इस प्रकार है- काला काले रंग के लिए काजल या कोयले का प्रयोग होता था। तिल्ली के तेल के काजल से रंग बनाने की विधि अधिक प्रचलित रही है। इस्तेमाल के समय कालिख में गोंद मिला दिया जाता था। कभी- कभी काला रंग रासायनिक विधि से भी बनता था। इसमें पीसी हुई हड़ में कसीस डालकर तेज काला रंग तैयार करने की पद्धति रही है। सफेद ११३१ ई. में लिखित मानसोंल्लास एवं अभिलषित चिंतामणी जैसे ग्रंथों में क्रोंच शेल या सीप को जलाकर इसके भ से सफेद रंग बनाने का उल्लेख मिलता है। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार सफेदे का प्रयोग १६ वीं सदी के चित्रों से प्रारंभ होता है, जो बाद में इरानी प्रभाव के कारण अधिक प्रयोग में आने लगा। मेवाड़ में प्रायः मगरोप (भीलवाड़ा) की खाड़ियों का सफेदा प्रयोग में आता रहा है। लेकिन चमकीला सफेद रंग बनाने के लिए अधजले शंख एवं सीपों का चुर्ण करके उसे सिलबट्टे पर बारीक घोटा जाता था। ज्यादा घोटने से उसकी सफेदी बढ़ती जाती थी। अंत में उसमें खेरी या धोली मुसली का गोंद मिलाकर चित्रण कार्य में प्रयोग किया जाता था। प्राचीन काल में तो जावर आदि स्थानों से प्राप्त जस्ते या शीशे की खाक (जिंक आक्साइड) से भी सफेद रंग बनता था। लाल प्रकृति से प्राप्त लाल पत्थर, गेरु व हिंगलू से लाल रंग तैयार किया जाता था। लाल रंग में हिंगलू रंग को सभी रंगों में श्रेष्ठ माना गया है। यही कारण है कि खनिज पत्थर से प्राप्त, हिंगलू रंग का प्रयोग पूरे पश्चिम भारतीय शैली में प्रमुखता से होता रहा है। रासायनिक क्रिया से बेर, बरगद एवं पीपल की लाख द्वारा लाल रंग तैयार करने की एक परंपरागत विधि रही है। यह यहाँ स्थायी रंग के रुप में प्रयुक्त होता रहा। इस विधि में भिन्न- भिन्न पात्रों के परिवर्त्तन से ही उनमें किरमी, महावर या अल्ता, मेहंदीहरा व बैगनी रंग चित्रकार स्वयं बनाते रहे हैं। हिंगलू रंग में ही पीले रंग की एक मात्रा मिलाने से कसूमल रंग बन जाता है, जो मेवाड़ एवं दक्षिण- पश्चिम राजस्थान में बहुत प्रचलित रहा है। इन रंगों को सिलवट्टेपर गोठने की विशेष परंपरा रही है। हिंगलू, जंगाल एवं हरताल परंपरागत लघु चित्रों के उत्कृष्ट तथा चमकीले रंगों में काम आते रहे हैं। लाख से लाल रंग बनाने के लिए सर्वप्रथम इसके चूर्ण को मिट्टी के बरतन में सादा पानी डालकर किंभगों दिया जाता है, चौबीस घंटे बीतने पर बिना हिलाये ही ऊपर से रंगीन पानी अलग ले लिया जाता है। फिर किसी खुले मुँह वाले मिट्टी के बरतन में रख कर आग पर उबालने की क्रिया की जाती है। उबालते समय उसमें पठानी लोद तथा सुहागा २:३ की मात्रा में (यानि १ चम्मच पठानी लोद के साथ १.५ चम्मच सुहागा) मिला दी जाती है। गाढ़ा होने तक उसे गरम किया जाता है। फिर उसमें कई के गुच्छे डालकर सूखने देते हैं।सूखने पर गुच्छे को ""चूखा'' नाम से संबोधित किया जाता है। स्थानीय रुप से इसके रंग को शुद्ध महावर, किरमजी व आल्ता रंग की संज्ञा दी गई है। इसे बिना कुछ मिलाये उपयोग के लिए सुरक्षित रख दिया जाता है।इसी प्रकार यदि लाख से हरा रंग बनाना हो, तो सारी उक्त क्रियाएँ तांबे के बरतन में की जाती है। इससे सूखी मेंहदी जैसा हरा रंग प्राप्त होता है। लाख से ही काला, लाल व बैगनी रंग बनाने के लिए यह क्रिया लोहे के बरतन में की जाती है। इस प्रकार केवल पात्र बदलने पर ही अलग- अलग रंग बनाने की पद्धति प्राचीन काल से ही मेवाड़ में प्रचलित रही है।नीला नीले रंग का निर्माण वनस्पति तथा खनिज दोनों से की जाती थी। देशी नील नामक वनस्पति नीला रंग बनाने में काम आती रही है। डलीदार नील (बतासी) तो प्राचीन काल से ही कपड़ों की रंगाई तथा चित्रण हेतु काम आता रहा है। मेवाड़ में इसे कांटी रंग नाम से संबोधित किया जाता है। मयूर की गर्दन जैसा गहरा रंग, उसी रंग के एक खनिज को पीस पर तैयार किया जाता है। इसके अलावा लोहे की वस्तुओं को बरतन में डालकर उसके मुँह को गाय के गोबर से बंद करके जमीन में कई दिनों के लिए गाढ़ कर भी यह रंग तैयार किया जाता रहा है। यह रंग कपड़ों को गाढ़े रंग में रंगने में काम आता था। पीला मेवाड़ में पलाश या केसूली छावरा, ढ़ाक, खाकरा आदि स्थानीय पौधों के फूलों से तेज पीला वनस्पती रंग तैयार करने की प्रथा रही है तथा प्राचीन चित्रों में यही रंग अधिक प्रयोग में आया है। एक अन्य प्रकार का पीला रंग हरताल कहलाता है, जो अपने दो उपभेदों तनकिया हरताल तथा दूसरा गौदंती हरताल के रुप में जाना जाता है। गाय को नीम की पत्तियाँ खिलाकर पीली मिट्टी पर गोमुत्र कराने की विधि से तैयार रंग को गौगुली (एक अन्य प्रकार का पीला रंग) कहा जाता था। प्यावड़ी गेरुआ पीला रंग होता था, जो पीले पत्थरों को पीसकर उसमें गोंद मिलाकर तैयार किया जाता था। सिंदूरी इस रंग को प्राप्त करने के लिए मरकरी पत्थर को जलाकर उसके भष्मी में खेरी बंबूल, धोली मूसली व सरेस का आवश्यतानुसार प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा साधारण थाल शीश को भी बारीकी से कुटककर यह रंग बनाया जाता रहा है। परीक्षण के लिए उसमें थोड़ा गुड़ मिला देने पर यह नारंगी रंग का हो जाता है। मिश्रित रंगों की प्रक्रिया
इसी प्रकार यहाँ कई अन्य रंगों के मिश्रण से अलग- अलग रंग बनाये जाते रहे हैं और इस तरह से रंग"- निर्माण में स्वर्ण, तांबा, रजत (चाँदी), अबरक, राजवर्द, सिंदुर, हरताल, चूना, लाख, हिंगलू, नील आदि अनेकों द्रव्य विभिन्न रुपों में काम आते रहे हैं। सुनहरी , रुपहरी एवं रांगे की हल ंगलीहल बनाने के लिए सर्वप्रथम स्वच्छ पारदर्शी सरेस या आकेशिया गोंद के पानी में चीनी मिट्टी या सफेद पत्थर के प्याले से सरेस के पानी की कुछ बूंदे डाल दी जाती है। तत्पश्चात् बर्क को दो या तीन में चिपाकाकर प्याले में घोटने की क्रिया की जाती है। इस दौरान पानी या सरेस की बूंद उसमें डालते रहते हैं। बारीक चमकीली चाँदी, सोने या रांगे के लिए उसे लंबे समय तक घोटना पड़ता है। हल घुट जाने पर उसमें पानी मिलाकर बारीक मलमल के कपड़े से छान लिया जाता है तथा इसे हल्का कोयले की आँच में गर्म किया जाता है। पानी गुनगुना होने पर उसमें चुटकी भर नमक डाल दिया जाता है, जिससे मैल व सरेस का अंश अलग हो जाता है। अब उसे ठंडा किया जाता है। फिर ऊपर का पानी हटाकर ठंडी आँच पर उसे सुखने दिया जाता है। चित्रण करते समय इसमें आवश्यकतानुसार गोंद का पानी मिला दिया जाता है। हल लगाते समय पहले से लगे रंगों को ओपनी से घोट कर एक जीव कर लिया जाता है। रंगों को रखने के लिए मिट्टी के बरतन या नारियल के खोपरे से सख्त प्याले का इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय शब्दावली में कांचली कहा जाता है। हलों को हकीक या कांच के प्याले में रखा जाता है। तूलिका निर्माण की स्थानीय पद्धति तूलिका का उल्लेख मेवाड़ के प्राचीन संदर्भों में मिलता हे। परंपरागत चित्रकारों के लिए के यह रंगाकन की एक महत्वपूर्ण सामग्री रही है। समरांगण सूत्रधार में लेखनी कुर्चक के सूक्ष्म, मध्यम एवं स्थूल किस्मों के बताये गये हैं। चितारे बकरी, गिलहरी एवं ऊँट के बालों को काटकर पक्षी के पंखों, लोहे या तांबे के शंकु की नलियों में डालकर तैयार करते थे। कुछ जगह तूलिका हेतु पर्शियन बिल्ली एवं भैंस के बालों का भी उल्लेख मिलता है।गिलहरी के बालों का तूलिका निर्माण की परंपरा बहुत ही पुरानी है। होली के बाद एवं वर्षा के पूर्व, खासकर अप्रैल व मई महीने में विशेष विधियों द्वारा गिलहरियाँ पकड़कर जीवित अवस्था में उनके बाल काटकर धागे में बांध पर तूलिका तैयार किया जाता रहा है। बारीक तूलिका हेतु मोर के पंखों की डंडी शंकु में डालकर उच्च क्षेणी की तुलिका बनाई जाती थी। उन्हीं तूलिकाओं को पूरे वर्ष चित्रण कार्य में मोटे पतले एवं बारीक अंकन हेतु प्रयोग में लिया जाता रहा है। ताड़पत्रों का प्रयोग मेवाड़ में कागज के प्रचलन से पूर्व ताड़पत्रों पर लेखन एवं चित्रण कार्य करने की प्रथा रही है। १२६० ई. एवं इससे पूर्व मेवाड़ में ताड़पत्रों पर अनेक सचित्र ग्रंथ लिखे गये, जिसमें आहड़ (आहादग्राम) में चित्रित श्रावक प्रतिक्रमण सूत्त चूर्णि महत्वपूर्ण है। अन्य पश्चिम भारतीय चित्रकला पद्धति की तरह यहाँ भी खेरताड़ का प्रयोग मिलता है। कागज निर्माण एवं उन पर प्रारंभिक चित्रण कार्य भारत में लेखन एवं चित्रण कार्यों में कागज का सार्वजनिक प्रयोग १३ वीं सदी के पश्चात् ही देखा जाता है। मेवाड़ में भी इसी काल से ताड़पत्रों और उसके पश्चात् कागज पर चित्रण कार्य होने लगा था। कागज का निर्माण स्थानीय विधियों से मेवाड़ के गोसुंडा गाँव में बाँस एवं सण (सन) की लुग्दियों से किया जाता था। उसे धीसुण्डी कागज के नाम से बहीखातों के प्रयोग में लिया जाता था। चित्र- निर्माण हेतु इन्हीं कागजों को तह कर दूसरी तह मैदे की लेही (लेई) से चिपकाकर मोटा करने की पद्धति प्रचलित थी, जिसे कागज साठना कहते हैं। कालांतर में दोलताबादी एवं स्पेंनी कागजों का भी प्रचलन हुआ। इन कागजों पर सफेद रंग की जमीन बांधकर चित्र बनाये जाते थे। ये कागज बड़े- बड़े आकार के चित्रों हेतु निर्मित किये जाते थे। मेवाड़ में सुपासना चरियम (१४२२ ई.) का चित्र संपुट कागज के चित्रों का प्राचीनतम उदाहरण है। भित्ति चित्रण का तकनीकी पक्ष भित्ति चित्रों हेतु जो पृष्टभूमि तैयार की जाती थी, उसमें दीवार की पपड़ियों (लेवड़ों) को पहले उखाड़ दिया जाता था तथा चूना लगाकर फिर पलस्तर किया जाता था। पलस्तर की सामग्री में एक भाग झींकी तथा ढ़ाई भाग आराईस मिलायी जाती थी। फिर इसे दो सूत मोटी तीन तहों में लगाया जाता था। पहली तह हेतु दही एवं गुड़ को मिलाकर लगाया जाता था। दूसरी तह में केवल पलस्तर तथा तीसरी तह में पलस्तर में दही घोल कर लगाते थे तथा उसको मस्तर (दीवार बनाने की औजार) से घुटाई करते थे। यह दीवार प्रायः बरसात में तैयार की जाती थी। चार- पाँच माह के भीतर सर्दी के मौसम में चित्रण कार्य किया जाता था। चित्रण के पूर्व गीले कपड़ों से दीवार में नमीं दी जाती थी। पानी छिड़कने पर जब बूँद दीवार पर ठहरने लगे तब दीवार को चित्रण के अनुकूल माना जाता था। फिर दीवार पर कागज के कसरे द्वारा जल्द- से- जल्द अक्सी कर ली जाती थी।मेवाड़ में दो प्रकार के भित्ति चित्र मिलते हैं-
घुटाई के भित्ति चित्र प्रायः मोटी जींकी में पलस्तर करके परत पर स्फूर्त रेखांकन से बना होता है। भित्ति चित्रों के निर्माण में कुछ रंगों का प्रयोग प्रमुखता से होता रहा है। प्यावड़ी, पीली मिट्टी, हरा पत्थर, हींगलू, काला, कांटी , देशी नील आदि को घोट- घोट का एक जीव करके चित्र का चित्रण किया जाता था। लघु चित्रों की चित्रण प्रक्रिया परंपरागत मेवाड़ चित्र शैली के लघु चित्रों में फलक संयोजन को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला किनारे का आकार तथा दूसरा मध्य का आकार। किनारे प्रायः नारंगी व लाल- हिंगलू रंग से लगभग एक व डेढ़ इंच की चौड़ाई में चित्रित की जाती थी। प्राचीन चित्रों में इस बाह्य लाल व नारंगी सीमा रेखा का अंकन स्थान- स्थान पर सफेद पृष्ठभूमि में भी अच्छा समंवय स्थापित करता दिखाई देता है। दृष्टि केन्द्रित करके दर्शक की दृष्टि चित्र में भली- भांति बांधने में इसकी विशेष भूमिका होती है। चित्रकार कागज को सर्वप्रथम वसली पर जमाकर चित्रण कार्य करता था। वसली बनाने हेतु एक पाटिये पर देशी कागज की एक परत पर दूसरी परत, आटे की लेही से चिपकाकर बनाया जाता था। जितनें अधिक कागज जोड़े जाते थे, वसली उतनी ही मोटी बनती थी। यह पटलियाँ जैसी मोटी तक बनाई जाती थी। अब चित्रकार सर्वप्रथम कसरा करके अपने विचारों व विषयवस्तु को साकार रुप में अंकित करना शुरु कर देता था। उसकी साधना, चित्रण, विचार व कल्पनाएँ चित्र- संयोजन में विशेष प्रभाव रखती थी। उसका अंकन करके अक्षी-कागज पर जो हिरण की पतलीखाल से बनाया जाता था, रेखांकन कर लेता था। इसी का पुनःअंकन से साढ़े हुए कागज पर टिवाई करके हल्के रंग का रेखांकन कर दिया जाता था। तत्पश्चात् तीन बार सफेद रंग से पूरे चित्र- फलक पर अस्तर दिया जाता था। अस्तर देने के बाद सच्ची टिपाई में मुख्य रेखाएँ एवं रंगों के संयोजन का कार्य पूरा कर लिया जाता था। अब घोंटी (पेपर वेट जैसे किसी पारदर्शी पत्थर) से घुटाई करके पूरी सतह पर चमक लाई जाती थी। अब अंग- प्रत्यंग की बारीक रेखाओं के अंकन से खुलाई की जाती थी। मोती मुहावरा के रुप में आकृतियों में मेंहदी, आभूषण की चमक व आँख की ललाई आदि का सूक्ष्म अंकन होता था। तत्पश्चात् जीणा- ओढ़ना नाम से पारदर्शी कपड़ों पर बेल बूंटों, बिंदियों एवं कपड़ों के आंतरिक एवं ऊपरी प्रभाव को दर्शाया जाता था। अंत में पटिये पर जमाकर वसली की जाती थी तथा नक्काशी तथा खतकसी हांसिया हिंगलू के लाल रंग से तथा उसमें एक सूत मोटी रेखा के पास दो बारीक रेखाएँ खींचकर पूर्णता दी जाती तथा नक्काशी तथा खतकसी होसिया हिंगलू के लाल रंग से तथा उसमें एक सूत मोटी रेखा के पास दो बारीक रेखाएँ खींचकर पूर्णता दी जाती थी, जो मेवाड़ चित्रशैली के सभी चित्रों में प्रयुक्त है। सुनहरे व रुपहले रंगों का प्रयोग चित्र में चमक लाने हेतु की जाती थी। तभी उसे पूर्ण चित्र की संज्ञा दी जाती थी। चित्र के ऊपरी भाग पर दोहा, श्लोक आदि लिखने का प्रचलन रहा है।
|
|
Copyright IGNCA© 2003