चित्रभूमि का विभाजन इस
चित्रशैली के सैद्धान्तिक आधार लिये
हुए है जिनमें कहीं समविभक्ति (formal
division ) से अन्तराल
को विभाजित कर आलंकारिक
संयोजन दिखाया है तो कहीं
असमविभक्त (informal
division ) है। सही
मायने में चित्रकार की
कार्यकुशलता इनसे ही स्पष्ट
होती हैं।
अन्तराल (स्पेस)
अन्तराल के दो स्परुप है
सक्रिय अन्तराल तथा सहायक अन्तराल।
मेवाड़ के चित्रों में चित्रकार ने
फलक संयोजन के कुछ ऐसे सूत्रों
को रचा है कि उनसे मानवाभिव्यक्ति
को उचित मूल मिला है। भावों की
सफल अभिव्यक्ति में जमावट का
सिद्धान्त रंगों के माध्यम से
महत्वपूर्ण रहा है। दु:खद स्थिति के
चित्रण में भूरे रंगों का बाहुल्य
तथा अन्य, अशुभ रंगों का प्रयोग
होता है। तेज रंगों की भी ऐसी
जमावट है कि चित्रकार चित्र फलक के
रंगीय रेखांकन मात्र से ही अपनी
अभिव्यक्ति कर सकता है। यहीं
संतुलन व अनुपात का सिद्धांत चित्र
फलक मे उतर आता है जिसके बढ़ाने
व घटाने पर वस्तु के प्रमुख एवं
गौण तत्वों को व्यक्त करने में
सहायता मिलती है। रंगों व रुपों
में यह अनुपात मेवाड़ के प्रायः सभी
चित्रों में देखा जा सकता है।
पुनरावृत्ति
रेखा, रंग व रुपों की
पुनर्रावृत्ति बड़ी-छोटी व हल्की
गहरी झाईयों में की गई है।
मानवाकृतियों एवं विषय वस्तु
में पुनर्रावृत्ति करने पर
चित्रफलक को स्पष्ट रुप से समझाया
जाता था। उदाहरण के लिए कृष्ण को एक
ही चित्र में कई बार अंकित करने
एवं फलक के अलग-अलग टुकड़ों का
विभाजन करने में इस सिद्धान्त का
भली-भाँति निर्वाह होता रहा
है। यही नहीं चित्रों में बहुआयामी
(ग्द्वेथ्द्यत् ड्डीत्थ्रeदःद्यत्दृदःठ्ठेथ्) संयोजन विभिन्न कालों
एवं घटनाक्रमों को एक फलक में
सफलता से व्यक्त कर पाया है।
चित्रों में प्रदर्शित
सामन्जस्य
वैचारिक दृष्टि से एकात्मकता
एवं समन्वय स्थापित करने हेतु
इस शैली के चित्रों में बुद्धिवाद
पर आधारित चित्रण से चिन्तन एवं
मनन की प्रमुखता दिखाई देती है
तो इसमें प्रतीकात्मक आकार एवं
आकृति अंकित कर वैचारिक दृष्टि से
अनुकूल दिखाने की कोशिश की जाती
है। आर्ष रामायण के चित्रों में
रावण के सिर पर गधे का मुंह
अंकित होना गुणात्मक तादात्म्य का
स्पष्ट उदाहरण है।
मूल आकार में सरलता
मेवाड़ के चित्र फलकों में
मूल आकार, आकाश, पहाड़, जमीन,
प्रासाद आदि की पृष्टभूमि का भावों
के अनुरुप विरुपण कर चित्रण को
ज्यादा प्रभावपूर्ण बनाने की
कोशिश की जाती है।
मानवाकृतियों में नाक, मछली
जैसी आँखें, तीखे-गोल चेहरे,
स्रियों का छोटा कद किन्तु आकर्षण
वक्ष-स्थल एवं परम्परागत वस्र चित्रों
के सौंदर्य को बढ़ाते हैं। चेहरे
को चित्रित करने में प्रायः
पार्श्व-बिम्ब पर विचार किया जाता
है। प्रारंभिक लघु-चित्रों में प्रायः
एकतरफा मुखाकृति का चित्रण पाया
जाता है। इसे समसामयिक
सांस्कृतिक परम्परा के अनुरुप,
सुरक्षा हेतु अपनाया गया था।
इस प्रकार इन चित्रों में दो
चश्मी से डेढ़ चश्मी, सवा चश्मी एवं
एक चश्मी स्वरुप अंकित होने लगा।
यही एक चश्मी चेहरा जैन चित्रशैली
की निकलती हुई आँखों के हटते
ही मेवाड़ चित्रशैली का स्वरुप
निर्धारित करते हैं। किन्तु कालान्तर
में विभिन्न रुपों को अपने शैलीगत
ढंग से आवश्यकतानुसार
सरलीकृत किया गया जिससे
मौलिकता बनी रहे। एक चश्मी
चेहरे पुनः डेढ़ चश्मी, सवा चश्मी
तथा दो चश्मी चित्रित होने लगे।
इससे पाते हैं कि मेवाड़ के प्राचीन
चित्रावशेष कलात्मक और तौड़युक्त
है लेकिन धीरे-धीरे विरुपित रुप
हटते गये। मौलिकता का निर्वाह
किया गया। उदाहरणस्वरुप राजा को
जो समाज में प्रतिष्ठित स्थान देने
के लिए उसे साथ बने अन्य आकृतियों
से आकार में बड़ा बनाया जाता है।
स्री-पुरुषों के चित्रण में
साज-सज्जा का ध्यान रखा जाता है।
साज-सज्जा का एक निश्चित रुप कवि
बिहारी की इन पंक्तियों से स्पष्ट
है।
सीस मुकट, कटि काछनी, कर
मुरली, हर मान ।
इहिं बानक मो मन बसौ,
सदा बिहारीलाल ।।
अर्थात कृष्ण के चित्र निरुपण
में सिर पर रत्नजड़ित मुकुट,
भालवेद, हाथों में मुरली तथा
गले में माला चित्रित किया जाता था।
इसके अलावा आभूषणों में
रत्नजड़ित पट्टी, कुलेदार
पगड़ियाँ, कानों में बालिया, हाथों
में कंगन, भुजबंद आदि का क्रमबद्ध
बदलता हुआ रुप मिलता है। चित्रित
पहनावों को देखने पर आभाष
होता है कि यहाँ के चित्रण में
दर्शाया गया पहनावा मुगल शैली
से प्रभावित न होकर अजन्ता की
परम्परागत शैली से प्रभावित न
होकर अजन्ता की परम्परागत शैली
से ज्यादा प्रभावित है लेकिन फिर
भी समयान्तर में आये मुगल प्रभाव
को भी देखा जा सकता है। इन
पहनावों के चित्रण में समाज में
व्यक्ति-विशेष के स्थान को विशेष
रुप से ध्यान में रखा गया है।
राजाओं की पोशाक प्रायः महंगी
तथा बारीक दिखाया गया है।
रंगों का मनोवैज्ञानिक
प्रभाव
मेवाड़ के प्रारंभिक चित्रों
में प्राथमिक रंगों से ही चित्र सृजन
किया जाता रहा है जिससे वे अपनी
सूक्ष्म भावाभिव्यंजना को इसके
माध्यम से व्यक्त कर पायें।
कम-से-कम रंगों की आवृत्ति की
दूसरी वजह उस युग विशेष की
मानसिक स्थिति है। तत्कालीन युग
में आधुनिक जीवन की संप्रेषणीयता
की जटिलता उत्पन्न नहीं हुई थी। कम
से कम रंगों का इस्तेमाल कर कुछ
निश्चित मनोविकारों को अभिव्यक्त
कर दिया जाता था।
मेवाड़ चित्रशैली में
चित्रकारों की कुशल परम्परागत
रंगांकन पद्धति का प्रयोगात्मक
स्वरुप दिखाई पड़ता है। मुख्यतः
देशी रंगों का प्रयोग किया गया
है जिसमें अभ्रकी (पीला-भूरा),
आसमानी (आसमानी नीला), बादामी
(बादाम जैसा भूरा), चांदिया रुप
(रजत वर्ण), चेरा-चेहरा, ध्रुम (धुएँ
का रंग), गौरी या गोर हल्का पीला
(सुनहला), गुलाबी(गुलाग जैसा
लाल), कारी(काजल का रंग), खाकी
(भूरा-हरा), लाल, सिन्दूरी,
नारंगी, सिन्दूरी सुरखी (रक्त वर्ण),
सबज, सज या सोजा (हरा), सोना
(स्वर्ण वर्ण), सुफेदा, धोली या
धुवली (श्वेत वर्ण), बसन्ती पीली
(केसरिया), रोशनी (बैंगनी) आदि
प्रमुख है। इन्हें चित्रकार अपने हाथों
से बनाकर प्रयोग में लाते थे।
प्रत्येक जगह सफेद रंग का तथा
सफेद पर सफेद झाई का एवं
गहरे पर फीकी झाइयों के चित्र
फलक में विशेष गति उत्पन्न करने का
अक्ष्छा उदाहरण मिलता है। चित्र आकर्षण
में लाल, जोगिया, पीला, पृष्ठभूमि
के विपरित रंगों का प्रयोग
चित्रकार ने बड़ी कुशलता के साथ
किया है। इन्हीं रंगों की
गहरे-फीके ढंग से प्रयोग कर कई
प्रकार के रंगों की अभिव्यक्ति की गई
है।
चित्रकारों ने रंगों को
ज्योतिषीय दृष्टि के आधार पर भी
विभाजित किया है जिसमें शनि को
नीला, सूर्य को लाल, वृहस्पति को
पीला, चन्द्र तथा राहू को काला, शुक्र
को हल्का नीला तथा बुध को हरित
वर्ण में दर्शाया गया है।
रंगीन अनुभूति एवं
क्रियात्मक संचालन को तीन प्रमुख
भागों में विभाजित किया जा सकता
है। पहला ह्यू जिसे मेवाड़ी शब्द में
झाई कहा गया है वह हल्के रंग
की गहरे के साथ पास-पास हल्के
गहरे रखते हुए इस्तेमाल की जाती
है। दूसरा टोन-रंग श्रेणियां,
गहरी व फीकी झांई जो हल्के से
गहरे कि की परख को स्पष्ट
सफेदे पर सलेटी रेखाओं द्वारा
व्यक्त की जाती है। जीसस क्रोम
(सेच्यूरेशन) जो संज्ञप्ति का एक
प्रकार है जिसमें तथाकथित रंग की
अधिकतम सीमा उससे आगे न बढ़ सके।
चित्रण में प्रतीकात्मक रंगों
का खास महत्व रहा है। अत्यधिक वाह्य
आक्रमण के कारण प्राथमिक रंगों में
लाल रंग का चित्र में तथा उसके
बाहरी किनारों पर अधिकाधिक
प्रयोग किया गया है। मिश्रित रंगों
में केसरिया रंग राज दरबार के
चित्रों में प्रयोग में अधिक लाया गया
जो शौर्य और खुशहाली का प्रतीक
है। पीला रंग शिशुता का द्योतक है
तो लाल युवा और नीला,
वृद्धावस्था का। इसी प्रकार प्रातः
कालीन पीला, मध्याह्य लाल तथा
सन्धया नीले रंग से अभिव्यक्त किया
जाता है। रज,तम और सत्व में रज
लाल, तम नीला तथा सत्व को पीले
रंग से दर्शाया गया है। शान्त और
भयानक रंगों को भी पाँच तत्वों
में विभाजित किया गया है। प्रत्येक
तत्व का एक प्रतीक है। अग्नि को लाल,
पृथ्वी को पीला, वायु को काला,
आकाश को नीला तथा जल को सफेद
रंग से दर्शाया गया है।
युद्ध, शिकार, राज दरबार,
श्रृंगार-कक्ष आदि के अलग-अलग रंग
निश्चित किये गये हैं। साथ ही
रंगों की कुछ निश्चित जातियां एवं
वर्ग बनाये गये हैं। लाल,
केसरिया, गुलागी, बादामी आदि
को श्रेष्ठ रंगों के वर्ग में रखा
गया है तथा एक जाति मान लिया गया
है। नीला, बैंगनी व हरा रंग
दुसरी जाति का है। इसी प्रकार
सफेद, निम्बुआ, पीला, पीत पीला
और सुगापंखी को अन्य जाति का
माना गया है।
चित्रों में रेखाओं का
स्वरुप
परम्परागत चित्रों ने
रेखाओं को अधिक प्राथमिकता दी है।
इन रेखाओं ने ही रुप की अनेक
आकृतियाँ रची है तथा अनैकानेक
सौंदर्य के भावों की नींव डाली है।
ये रेखाएं कहीं गहरा, कहीं पतली,
कहीं हल्की व कहीं मोटी छाया
प्रकाश व्यक्त करती हुई सभी तरह
की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की
कोशिश करती है। आदेश का संकेत,
दृढ़ता तथा प्रतीक्षा का बोध तो केवल
सीधी रेखा के प्रयोग से कर दिया
गया है। वहीं माधुर्य एवं लालित्य
की मुद्रा दर्शाने के लिए चित्र में
लावण्ययुक्त गोलाकार रेखाएँ
बनाई गई है। कम्पनयुक्त रेखाएँ
अनेक मनोभावों जैसे श्रृंगार,
आत्मसमपंण, आह्मवान, प्रसन्नता,
औत्सुक्य, प्रणय तथा भय अनेक भावों
को दर्शाने में सक्षम है।
मानवीय अभिव्यक्ति
मेवाड़ की चित्रांकन कला में
विभिन्न मानवीय आभिव्यक्तियाँ बड़ी
स्वाभाविकता से हुई है। इसमें
जीवन के सभी रसों का चित्रण किया
गया है। उदाहरण के लिए राधा व
कृष्ण के प्रेम में श्रृंगार एवं शान्त
रस की प्रधानता है। १७५० ई. में बने
रघुवंश में समकालीन
रीति-रिवाजों एवं नैतिक भावनाओं
का प्रदर्शन है। गजेन्द्र मोक्ष में
हाथियों की विभिन्न मुद्राओं एवं
करुण रस की अभिव्यक्ति होता है।
इसी प्रकार सूर सागर (१७२० ई.) तथा
कृष्ण चरित (१८०० ई.) के चित्रों में
शान्त, श्रृंगारिक एवं वात्सल्य
भावों की यथार्थ उपलब्धि है।
मालती-माधव में शान्त एवं श्रृंगार
रस, कादम्बरी में शान्त रस एवं
पृथ्वीराज रासो एवं भागवत् गीता
के चित्रों में वीर एवं विभत्स
भावों का स्पष्ट चित्रण है। एकलिंग
महात्म्य एवं एकादशी महात्म्य में
शान्त सात्विक भावनाओं का चित्रण
किया गया है वहीं कालियादमन में
रौद्र रस की व्यंजना होती है।