मध्यकालीन
राजस्थान में स्रियों की स्थिति के
अध्ययनों को दो भागों में विभक्त
किया जा सकता है - स्रियों
की दशा का उज्जवल पक्ष - टॉड
के अनुसार ""राजस्थान में
स्रियों को राजपूतों ने जो
सम्मान दिया, वह किसी दूसरे
देश में नहीं मिलता। संसार में
किसी भी जाति ने स्रियों को उतना
आदर नहीं दिया, जितना राजपूतों
ने।'' राजपूतों
ने स्रियों को लक्ष्मी, दुर्गा तथा
सरस्वती के रुप में देखा। उस दृष्टि
से उनकी पूजा की। यहाँ लोग यह
मानते थे कि स्री के बिना मनुष्य
को सुख शांति प्राप्त नहीं हो सकती।
मनुष्य के जीवन व उसके घर में
उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे
गृहणी माना जाता था, अर्थात् वह
अपने घर की अधिकारिणी होती थी।
राजपूतों के धार्मिक ग्रन्थों में लिखा
है कि जिस घर में स्री नहीं होती
है, वह घर, घर नहीं होता। शास्रों
में भी लिखा है कि जिस पुरुष के
स्री न हो, उसे जंगल में निवास
करना चाहिए। स्री का अपमान करके
कोई भी मनुष्य कल्याणकारी
जीवन का आनन्द नहीं उठा सकता। कर्नल
टॉड ने स्रियों के इस स्थान का
वर्णन करने के बाद उनकी तुलना
प्राचीन जर्मनी की स्रियों से की है।
स्रियाँ पूजा-पाठ करके पुरुषों की
सफलता के लिए कामना करती थी तथा
शकुन आदि मनाया करती थी। यहूदी
स्रियों की भांति राजस्थान की नारी
घर की चार दीवारी में बन्द नहीं
रखी जाती थी, अपितु वे खेतों पर
काम करती थी, कुएँ से पानी भरकर
लाती थी, तथा मेलों व उत्सवों में
खुलकर भाग लेती थी और उसका
आनन्द उठाती थी। स्रियों
को घर-घर में सावित्री-सत्यवान,
नल-दमयंती आदि महाभारत की
कथाएँ सुनाई जाती थी। माता-पिता
का यही सपना होता थि कि उनकी
लड़की शादी के बाद ससुराल
वालों के प्रति सुशिल साबित हो।
इसके विपरीत घटित होने वाली
घटनाओं को अच्छी दृष्टि से नहीं देका
जाता था। यद्यपि राजपूतों में स्रियों
का बहुत सम्मान किया जाता था,
तथापि वे पति की आज्ञाकारिणी होती
थी। आदर्श महिलाएँ अपने पति के साथ
सती हो जाया करती थी। मनुस्मृति
की टीकाओं में लिखा गया है
""अपने अटूट परिणाम स्वरुप
वीर राजपूत अपनी पत्नी की छोटी से
छोटी इच्छा की भी अवहेलना नहीं
करता था।'' कर्नल
टॉड के अनुसार ""पति के प्रति
राजपूत रमणी का जो अनुराग
होता है वह संसार के इतिहास
में कहीं नहीं मिलेगा। मनुष्य के
जीवन की यह सबसे बड़ी सभ्यता
है, जिसको सजीव मैंने राजपूतों
में देखा है।'' स्रियों
के नामों का अर्थ कोमलता, नम्रता,
मृदुलता, प्यार, स्नेह, सुन्दरता
आदि से जुड़ा होता था। स्रियों के
कारण ही राजपूतों के घरों में
जैसा सौन्दर्य व समृद्धि देखने को
मिलती है, वैसा अन्य जातियों के
घरों में दृष्टिगोचर नही होता।
राजस्थान की स्रियों एवं उनके
अधिकारों की प्रशंसा विदेशी
इतिहासकारों ने भी की है। स्रियों
की दशा का दुर्बल पक्ष - उस
समय समाज में प्रचलित निम्न
कुरीतियों के कारण स्रियों की
दसा बहुत खराब हो गयी।
(१)
बहु-विवाह की प्रथा - राजपूतों
में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी।
प्रत्येक राजा के कई रानियाँ
होती थी। वैश्यों में भी यह प्रथा
प्रचलित थी।
डॉ. जी.एन. शर्मा के अनुसार
""यदि इस समय के कई
नरेशों की पत्नियों का अनुमान
लगाये, तो उनका औसत ९ से किसी
कदर कम नहीं रहता।''
राजस्थान में प्रचलित इस कुरुति के
कारण पारिवारिक जीवन
कलेशमय हो जाता था। इसमें
विधवाओं का भी बाहुल्य होता
था। (२)
कन्या वध - राजस्थान में कनाया वद्य
की कुरुति भी प्रचलित थी। इस प्रथा
के प्रचलन का प्रमुख कारण लड़की के
विवाह की समस्याएँ एवं परिवार
के सम्मान के नष्ट हो जाने की
आशंका थी। विवाह के लिए योग्य
दहेज की व्यवस्था न कर पाने के
कारण कुछ राजपूत परिवारों ने
कन्या वद्य की कुप्रथा को अपना लिया
था। ब्रिटिश सरकार के सुझाव पर
राजपूत राज्यों ने इस प्रथा को
गैर कानूनी घोषित कर इसे
समाप्त करवाने में विशेष
योगदान दिया। (३)
डाकन प्रथा - राजस्थान की भील व
मीणा जातियों में डाकन प्रथा
प्रचलित थी, जिसके अनुसार स्रियों
पर डाकन होने का आरोप लगाकर
उन्हें मार दिया जाता था। १९वीं सदी
के उतरार्द्ध में राजपूत राज्यों में
कानून द्वारा इसे समाप्त करने का
प्रयत्न किया। (४)
औरतों एवं लड़कियों की क्रम
विक्रय की प्रथा - मध्यकाल में
राजस्थान में स्रियों एवं लड़कियों
के क्रय-विक्रय की कुप्रथा प्रचलित थी।
कुछ राज्यों द्वारा इस
खरीद-फरोख्त पर विधिवत् रुप
से कर वसूल कर लिया जाता था।
खरीद-फरोख्त के कई कारण थे।
राजपूत लोग अपनी पुत्री के
विवाह में दहेज के साथ
गोला-गोली (दास-दासी) देते थे,
जिसके लिए वे औरतों एवं
लड़कियों को खरीदते थे। इसके
अतिरिक्त कुछ सामन्त व आर्थिक दृष्टि
से समृद्ध लोग रखैलों के रुप में
उन्हें खरीदतें थे। कई वेश्याएं
लड़कियाँ खरीदती थी, ताकि वे
उनसे अनैतिक पेशा करवा सके। १८४७
ईं में सभी राजपूत राज्यों में
इस प्रकार के क्रय-विक्रय पर
प्रतिबन्ध लगा दिया था। (५)
वेश्यावृत्ति - १३वीं शताब्दी से
१९वीं शताब्दी तक राजस्थान में
परम्परागत रुप से वेश्यावृत्ति की
कुप्रथा प्रचलिथ रही, जो वेश्याएँ
संगीत एवं नृत्य में निपुण होती
थी, उन्हें राजकीय संरक्षण प्रदान
किया जाता था और सरकारी कोष
से उन्हें नियमित रुप से वृत्ति
प्रदान की जाती थी। कई वेश्याएँ
मंदिर में संगीत नृत्य करती थी,
जिसके बदले में उन्हें पुरस्कार
प्रदान किया जाता था। कई वेश्याएँ
छोटी उम्र या किशोरवय की
लड़कियों को खरीद लेती थी और
उनसे अनैतिक धंधा करवाती थी। इस
प्रथा को समाप्त करने अथवा
नियंत्रित करने के लिए कीसी भी
राज्य ने कोई भी कदम नहीं
उठाया। (६)
बाल विवाह - मध्यकाल में
राजस्थान में बाल-विवाह की
कुप्रथा प्रचलित थी। हिन्दुओं को
हमेशा मुसलमानो से इस बात
का भय रहता था कि कहीं वे उनकी
कन्याओं का उपहरण न कर लें। इस
कारण वे लड़कियों को तरुणाई
तक पहुंचने से पूर्व ही उनका
विवाह कर देते थे। लगभग ६ या ७
वर्ष की आयु में ही कन्याओं का
विवाह कर दिया जाता था। इससे
जहाँ एक ओर स्रियाँ शिक्षा से
वंचित रह जाती थी, वहीं उनकी
स्थिति भी खराब होने लगी। (७)
पुत्री के जन्म को अशुभ मानना -
मध्यकाल में पुत्री के जन्म को अशुभ
माना जाता था। पुत्र के जन्म पर
खुसी और पुत्री के जन्म पर दु:ख
मनाया जाता था। कर्नल
टॉड ने लिका है ""वह पतन का
दिन होता है, जब एक कन्या का जन्म
होता है।'' (८)
पर्दा प्रथा - मध्यकाल में राजस्थान
में पर्द प्रथा प्रचलित थी। यह प्रथा उच्च
वर्ग में थी, निम्न वर्ग में नहीं।
मुख्य रुप से कृषक वर्ग की स्रियों
में पर्दे का तनिक भी प्रचलन नहीं था।
वे खेतों में काम करती थीं, कुँओं
से पानी भरती थी तथा
स्वतंत्रतापूर्वक मंदिरों में पूजा
करने के लिए आ-जा सकती थी। (९)
विधवाओं की दशा - मध्यकालीन
राजस्थान में विधवाओं की दशा
बहुत दयनीय थी। उनका जीवन बड़ा
यंत्रणामय होता था। विधवाएँ
दूसरा विवाह नहीं कर सकती थी।
वे या तो अपने मृत पति के साथ
सती हो जाती थी या फिर
सांसरिक सुख से मोह हटाकर
अपना जीवन व्यतीत करती थी। (१०)
सती प्रथा - राजस्थान की कुप्रथाओं
में सती प्रथा का विशेष महत्त्वपूर्ण
स्थान है। पुराणों एवं धर्म
निबन्धों में इस प्रथा का उल्लेख
मिलता है। इस प्रथा के अनुसार
मृत पति से साथ उसकी पत्नी जीवित
जल जाती है। इस प्रथा को "सहगमन'
भी कहते है। शिलालेखों एवं
काव्य ग्रन्थों में अपने पति के प्रति
पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति रखने वाली
पत्नी के लिए भी सती शब्द का प्रयोग
किया जाता है। इसी प्रकार सती
होने वाली महिला के कार्य को
सत्यव्रत कहा गया है। उत्तर
प्राचीनकालीन तथा मध्यकालीन
अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों में
सती प्रथा के कुछ उदाहरण प्राप्त
होते हैं। सेनापति गोपराज ने
हूणों के विरुद्ध लड़ते हुए
वीरगति प्राप्त की थी। इस प्रकार
उनकी पत्नी ५१० ई. में सती हो गई
थी। राजपूत सामन्त राणुक की पत्नी
संपल देवी उनके साथा ही सती
हो गई थी। इस बात की पुष्टि
घटियाला अभिलेख (१८१० ई.) से
होती है। राजस्थान के प्रसिद्ध
शासकों जैसे प्रताप, मालदेव,
बीका, राजा जसवन्त सिंह, मुकुन्द
सिंह, भीमसिंह एवं जयसिंह आदि
के मरने पर उनके साथ उनकी कई
रानियाँ, उप-पत्नियाँ, श्वासनें एवं
दासियाँ सती हो गई थी। १६८० ई.
में मेड़ता के युद्ध के बाद चित्तोड़
के तीन शासकों के अवसर पर
साधारण परिवार की हजारों
स्रियां सती हो गई थी। स्थानीय
सती स्मारक स्तम्भों से इस बात
की पुष्टि होती है। प्रारम्भ
में जब तक "सुहागन' का महत्तव
था, विकल्प के रुप में यह प्रथा
प्रचलित रही, परन्तु जब युद्ध की
सम्भावनाएँ बढ़ने लगी, त्योंही
पतियों की मृत्यु होने पर
युद्धोतर यातनाओं से महिलाओं
को बचाने के लिए सती प्रथा ही एक
मात्र विकल्प बचा था। आक्रमणों के
अवसरों पर बन्दी बनाने, जलील
करने या धर्म परिवर्तन की
सम्भावना से भयभीत होकर भी
अनेक स्रियाँ सती प्रथा का अनुसरण
करती थी। धीरे-धीरे स्वार्थी तथा
प्रतिष्ठा संबंधी तत्वों ने भी इस
प्रथा को बढ़ावा दिया। राजघराने
की महिलाएँ सिर पर पगड़ी
पहनकर, हाथ में खं लेकर
घोड़े या पालकी में बैठकर अपने
पतियों की सवारी के साथ महलों
के मुख्य द्वारों एवं प्रमुख मार्गों
से गुजरती थी। वे मार्ग में
आभूषणों को उतारकर बाँटती
हुई जाती थी। अजीतोदेय में
वर्णित है कि जब जसवन्त सिंह की
मृत्यु की सूचना जोधपुर पहुँची
तो उनकी पत्नियों ने स्नान करने के
बाद अपने को फूलों तथा आभूषणों
से सजाया तथा पालकी में बैठकर
गाजे-बाजे व भजन मण्डियों के
साथ मण्डोर के राजकीय शमशान
की ओर प्रस्थान किया। वहाँ
पहुँचने के बाद उन्होंने अपने पति
की पगड़ियों को अपनी गोद में रखा
व चिता में प्रवेश कर सती हो
गई। एक
ओर रुढिवादी तत्वों ने सती प्रथा
का समर्थन किया है, तो दूसरी
ओर कुछ शास्रों, भाष्यों एवं जैन
विद्वानों ने इस प्रथा को पाप तथा
आत्महत्या की संज्ञा देते हुए इसका
विरोध किया है। भाग्यवश
राजाराम मोहनराय के प्रयासों
से बैन्टिक ने एक कठोर कानून
बनाकर सती प्रथा को गैर कानूनी
घोषित कर दिया। जिसके कारण
देश में तथा राजस्थान में इस
कुप्रथा का अन्त हो गया। अब
भावावेश में ही यदा-कदा सती
होने के समाचार पढ़ने को
मिलते है। (११)
जौहर प्रथा - सती प्रथा के समान
ही एक और कुप्रथा राजस्थान में
प्रचलित थी, जिसका नाम जौहर प्रथा
था। जब शत्रु का आक्रमण होता था
और स्रियों को अपने पति के
लौटने की पुन: आशा नहीं रहती
थी, और दुर्ग पर शत्रु के अधिकार
की शत-प्रतिशत सम्भावना बन जाती
थी, तब स्रियाँ सामूहिक रुप से
अपने को अग्न में जलाकर भ कर
देती थी। इसे जौहर प्रथा कहते
थे। ऐसे अवसरों पर स्रियाँ, बच्चे
व बूढ़े अपने आपको तथा दुर्ग की
सम्पूर्ण सम्पत्ति को अग्नि में डालकर
भ हो जाते थे। धर्म तथा आत्म
सम्मान की रक्षा के लिए इस प्रकार
का कदम उठाया जाता था, ताकि शत्रु
द्वारा बन्दी बनाए जाने पर उन्हें
अनैतिक तथा अधार्मिक करने के लिए
विवश न होना पड़े। ऐसे कार्य से
वे देश एवं स्वजनों के प्रति भक्ति
अनुप्राणित करते थे और युद्ध में
लड़ने वाले योद्धा अपनी
मातृभूमि की रक्षा के लिए शौर्य
एवं बलिदान की भावना से प्रेरित
होकर शत्रुओं पर टूट पड़ते थे। समसामयिक
रचनाओं में जौहर प्रथा का बहुत
अच्छा वर्णन मिलता है। अमीर
खुसरों ने अपने ग्रन्थ "तारीख-ए-अलाई'
में लिखा है कि जब अलाउद्दीन ने १३०१
ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण
किया व दुर्ग को बचाने का विकल्प
न रहा तो दुर्ग का राजा अपने वीर
योद्धाओं के साथ किले का द्वार
खोलकर शत्रुदल पर टूप पड़ा। और
इसके पूर्व ही वहाँ की
वीराँगनाएं सामूहिक रुप से अग्नि
में कूदकर स्वाह हो गयी। पधनाभ
ने जालौर के आक्रमण के समय
वहाँ के जौहर का रोमांचित
वर्मन करते हुए लिखा है कि
रमणियों की अग्नि में दी गयी
आहुतियों ने योद्धाओं को निश्चित
कर दिया और वे शत्रु दल पर टूट
पड़े। १३०३, १५३५ एवं १५६८ ई. के चित्तौड़ के
तीनों शासकों के अवसर पर
पद्मिनी, कर्मवती एवं पत्ता तथा
कल्ला की पत्नयों की जौहर कथा
इतिहास जगत में प्रसिद्ध है। अकबर
के समय तो जौहर ने इतना
भीषण रुप धारण कर लिया था कि
चित्तौड़ का प्रत्येक घर तथा हवेली
जौहर स्थल बन गयी थी।
परिस्थितियोंवश ये प्रथाएँ प्रारम्भ
हो गयी थी, किन्तु सती प्रथा या
जौहर प्रथा को मानवीय कसौटी
पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता। (१२)
शिक्षा - मध्यकाल में स्रियों की
शिक्षा की उचित व्यवस्था नहीं थी, मात्र
उच्च वर्ग की पुत्रियों के लिए ही
शिक्षा की व्यवस्था थी। निम्न वर्ग की
लड़कियों की शिक्षा की तरफ कोई
ध्यान नहीं दिया जाता था।
निष्कर्ष -
इस प्रकार हमें मध्यकालीन
राजस्थान में स्रियों की स्थिति का
दोहरा स्वरुप दिखाई देता है।
व्यक्तिगत रुप से परिवार में
नारियों को आदर की दृष्टि से देखा
जाता था, परन्तु सामाजिक दृष्टि से
विभिन्न कुप्रथाओं के कारण स्रियों
की दशा बहुत खराब थी, किन्तु यदि
हम तत्कालीन समय के अन्य राज्य की
स्रियों से राजस्थान की स्रियों की
तुलना करें, तो पता चलता है कि
मध्यकाल में राजस्थान में स्रियों की
स्थिति निश्चित रुप से बहुत अच्छी थी।
वे वीरांगनाएँ थी जो अपने पति के
लिए आदर्श थीं। नि:संदेह उनके त्याग
एवं बलिदान राजस्थान इतिहास की
कभी न मिटने वाली गौरव गाथाओं
में रहेगें।
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