(१)
सामाजिक कुरुतियों का अन्त - उस
समय समाज में काफी कुरुतियाँ
प्रचलित थी, जैसे कन्य वद्य, औरतों
एवं लड़कियों की क्रय-विक्रय की प्रथा,
वेश्यावृत्ति, बाल-विवाह, पुत्री के
जन्म को अशुभ मानना, पर्दा प्रथा,
सती प्रथा, जौहर प्रथा इत्याति। तब
कुछ शास्रों, भाष्यों एवं जैन
विद्वानों ने इस प्रथा को पाप तथा
आत्महत्या की संज्ञा देते हुए इसका
विरोध किया। दूसरी तरफ राजा
राममोहन राय के प्रयासों से
बैन्टिक ने एक कठोर कानून बनाकर
सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित
कर दिया, जिसके कारण राजस्थान
में अन्य कई कुरुतियों का भी अन्त
हुआ।
(२)
अंग्रेजी शिक्षा का विकास - राजस्थान
के कई क्षेत्रों में अंग्रेजी शिक्षा का
विकास हुआ। कई मिशन स्कूलों,
मेडिकल कॉलजों की स्थापना
हुई। अंग्रेजों ने महाराजाओं को
यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज
उनके हितैषी हैं। इस प्रकार अंग्रेजी
शिक्षा का विकास किया। इसका मुख्य
उद्देश्य राजपूत राज्यों के भावी
शासकों में ब्रिटिश शासकों के
प्रति स्वामी भक्ति तथा आज्ञाकारिता
की भावना को दृढ़ करना था। इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए कॉलेज में
पढ़ने वाले छात्रों को विद्या बुद्धि,
तर्क-शैली, रहन-सहन, खानपान,
तथा आचार-विचार आदि दृष्टि से
अंग्रेज बनाने का प्रयत्न किया गया।
१९वीं सदी के अन्त में राजस्थान में
अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के लिए
शासकों, उच्च जातियों, प्रतिष्ठित
नागरिकों, अंग्रेज अधिकारियों एवं
ईसाई धर्म प्रचारकों आदि सभी
ने सराहनीय सहयोग दिया।
व्यवसायी तथा नौकरी पेसा वर्ग
ने अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से आगे
बढ़ने एवं अंग्रेजों का कृपापात्र
बनने के प्रलोभन से उसका स्वागत
किया। इसलिए २०वीं सदी में अंग्रेजी
शिक्षा का अधिक प्रसार हो पाया।
(३)
संयुक्त परिवार प्रथा की समाप्ति -
संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय
हिन्दू समाज की आधारशिला थी।
अत: भारत के प्रदेश राजस्थान में
भी अंग्रेजों के आगमन तक यह प्रथा
दृढ़तापूर्वक चली आ रही थी।
परिवार पितृसत्तात्मक होते थे।
भूमि जीवन यापन का प्रमुख साधन
थी, जिस पर परिवार का सामूहिक
अधिकार होता था। अंग्रेजों ने भूमि
का बंदोंबस्त इस प्रकार लागू
किया जिसके कारण उनका भाईयों
में विभाजन करना जरुरी हो गया।
जन-साधारण अपने परम्परागत
व्यवसायों को छोड़कर राजकीय
सेवाओं की ओर आकर्षित हुआ।
इससे परिवार के सभी सदस्यों
का एक साथ रहना असम्भव हो गया।
इसके अतिरिक्त व्यक्ति की व्यक्तिवादी
भावना ने भी संयुक्त परिवार को
विखंड़ित कर दिया।
(४)
स्रियों की दशा में सुधार - जे.एन.
सरकार के अनुसार ""इस
समय राज्य ने ऐसे कानून बनाये,
जिनके कारण जनमत बदल गया और
स्रियों को हीन समझने वाले
राज्य उनका आदर करने लगे। रखैल
स्रियों के हाथ में जो घातक प्रभाव
बच्चों पर पड़ता था, उसे खत्म कर
दिया गया। इसी समय स्री शिक्षा की
भी स्वतंत्रता मिल गयी। जिससे
राष्ट्र की शक्ति दुगनी हो गयी।''
(५)
प्रगतिशील तथा आलोचनात्मक
दृष्टिकोण का विकसित होना - मध्यकाल
में राजस्थान के लोगों का
दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण तथा
अवैज्ञानिक था। जन-साधारण तथा
भाग्यवादिता एवं कुसंस्कारों के
प्रभाव से ग्रसित था और उनमें
तार्किक क्षमता भी नहीं थी, परन्तु
पाश्चात्य संस्कृति के सम्पर्क से
लोगों के दृष्टिकोण का विकास
हुआ और वे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान
के नवीन प्रकाश की ओर तीव्र गति
से बढ़ने लगे।
बी.एन.
लूनिया के अनुसार ""अंग्रेजी
राज्य के प्रत्यक्ष कार्यों तथा अंग्रेजों
के अप्रत्यक्ष उदाहरणों तथा पाश्चात्य
शिक्षा व सभ्यता ने लोगों में उन्नति
की प्रबल भावना भर दी। इसके
साथ-साथ आलोचना की एक नवीन
प्रवृत्ति भी जागृत हो गयी। देश के
विचारक तत्कालीन दशा से तीव्र
असंतोष प्रकट करने लगे और इस
आंदोलन के परिणामस्वरुप
उन्होंने हमारे राज्य, धर्म, शिक्षा,
उद्योग, व्यवसाय जीवन और
विचारधारा को अधिकाधिक उत्तम
बनाने का सतत् प्रयास किया।
हमारे सर्वोत्कृष्ट विचारक और
सबसे अधिक प्रभावशाली नेतागण
पूर्वी अकर्मण्यता और भाग्यवाद का
घोर विरोध करने लगे।''
पाश्चात्य
संस्कृति के सम्पर्क से युवावर्ग
अत्यधिक प्रभावित हुआ और वह
सामाजिक कुरुतियों के विरुद्ध उठ
खड़ा हुआ।
ताराचन्द
के अनुसार ""इस प्रकार मुक्त
अनुसंधान और मुक्त चिंतन की जो
भावना पैदी हुआ और जिसे १८वीं
सदी के यूरोपीय विचार के
बुद्धिवाद से पोषण प्राप्त हुआ,
उसने जब कुसंस्कारों और
बुद्धिविरोधी क्रूर रुढियों का
सामना किया और साथ ही
भारतीय समाज में फैले आम
दुराचार को देखा, तो उनके मन की
नाराजगी प्राय: बड़े उग्र तरीके से
प्रकट होती थी। उनमें से कई
नौजवान कट्टरता का प्रतिवाद
खान-पान सम्बन्धी निषेधों को
तोड़कर कर सकते थे। पर इनमें
से कुछ जात-पात, मूर्तिपूजा,
सती-दाह, स्रियों की उपेक्षा दूसरी
सामाजिक बुराईयों की निन्दा
करने से ही संतुष्ट नहीं होते।
वे नौजवानी के जोश में यहाँ
तक बढ़ जाते थे कि स्वयं हिन्दू
धर्म एवं समाज का विरोध करते
थे। ..... इन दिनों लोगों ने हिन्दू
समाज पर जो हमले किये, उससे
सनातनी लोगों को बहुत क्रोध
आया, पर इससे एक उपयोगी उद्देश्य
सिद्ध हुआ कि इससे कट्टर
सनातनियों में अपने विश्वासों
और उनके आधारभूत सिद्धान्तों पर
विचार करने की सम्भावना उत्पन्न
हुई। नतीजा यह हुआ कि विचारों
में क्रान्ति हुई।''
श्री
गौरीशंकर भ के शब्दों में ""यूरोपीय
सभ्यता और अंग्रेजी राज में संघात
से जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई,
उनका परिवर्तनकारी प्रभाव
विवाह, परिवार और जाति पर
पड़ा और उसके फलस्वरुप उनमें
परिवर्तन आए। आर्थिक रुपान्तर ने उन
नई परिस्थितियों को जन्म दिया,
जिनमें पहली जाति, विवाह और
परिवार के परम्परागत आर्थिक
आधार बदले। फिर उन आधारों के
बदलने से विवाह, परिवार और
जाति में परिवर्तन हुआ।
शहरीकरण और ओधौगीकरण ने
नए व्यक्तिगत सामाजिक आदर्शों को
जन्म दिया। अंग्रेजी शिक्षा व
ईसाईयों के प्रचार द्वारा नवीन
यूरोपीय मान्यताओं का प्रभाव
हुआ। जिनके प्रभाव से विवाह,
परिवार और जाति से सम्बन्धित
आधारभूत मान्यताओं और आदर्शों
की समालोचना और पुनर्निरीक्षण
किया गया। रुमानी प्रेम, विवाह
में व्यैक्तिक स्वच्छता, नारी अधिकारी,
पारिवारिक सम्बन्धों में
प्रजातंत्रवादी विचारों की माँग के
विचार इसी काल में फैले।''
(१)
छुआछूत की भावना मे कमी -
ईसाई मिशनरियों के प्रभाव
से छुआछूत की भावना कम हो
गई। लोग यह समझ गये कि जाति
व्यवस्था ईश्वर की देन नहीं है।
अपितु कुछ स्वार्थों का पोषण करने
वाली एक सामाजिक व्यवस्था है। अब
मनुष्य की महत्ता का आधार जन्म के
स्थान पर कर्म बन गा इस प्रकार
ईसाई मिशनरियों ने निम्न
जातियों को अपनी सामाजिक
स्थितियों को ऊँचा उठाने के लिए
प्रेरित किया और जीवन के प्रति
नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया।
(२)
धार्मिक एवं सामाजिक कुरुतियों का
विरोध - ईसाई धर्म प्रचारकों
ने सती प्रथा, कन्या वद्य, अस्पृश्यता,
बहुपत्नी प्रथा, देवदासी प्रथा एवं
मृत्यु भोज आदि सामाजिक एवं
धार्मिक कुरीतियों की ओर
हिन्दुओं का ध्यान आकर्षित किया।
परिणामस्वरुप देश के विभिन्न
भागों में अनेक धार्मिक एवं समाज
सुधार आंदोलनों का प्रादुर्भाव
हुआ।
(३)
स्रियों की दशा सुधारने में
महत्वपूर्ण योगदान - ईसाई
धर्म प्रचारकों ने राजस्थान की
स्रियों की दशा सुधारने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ईसाइयत ने स्रियों को शिक्षा
प्राप्त करने तथा अपने अधिकारों के
प्रति जागरुक होने की प्रेरणा दी।
ईसाई धर्म ने या ईसाई
प्रचारकों ने स्री-पुरुष समानता
पर बल दिया और स्रियों को घर
की चार दीवारी से बाहर निकल
कर कार्य करने की स्वतंत्रता का
समर्थन किया। यही नहीं, आर्थिक क्षेत्र
में स्रियों के प्रवेश का भारतीय
समाज को प्रोत्साहन दिया। इसी
से प्रभावित होकर भारतीय
समाज में आर्य समाज, ब्रह्मसमाज
एवं रामकृष्ण मिशन आदि
आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ।
(४)
हिन्दुओं के धार्मिक जीवन पर
प्रभाव - ईसाइयत ने हिन्दुओं
का अपने धर्म में व्याप्त कुरुतियों
की तरफ ध्यान आकर्षित किया, जिसके
परिणाम स्वरुप भारत में
एकेश्ववादी विचारधारा का प्रचार
हुआ और तार्किक दृष्टिकोण पर बल
दिया जाने लगा। ईसाइयों के
मानवतावादी दृष्टिकोण ने भी
भारतीय समाज को झकझोरा तथा
दलितों और अछूतों के कल्याण के
लिए अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ हुए।
फलस्वरुप भारतीय समाज में धर्म
निरपेक्ष दृष्टिकोण का विकास हुआ।
(५)
विघटनकारी प्रवृतियाँ तथा
अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों का
प्रोत्साहन - ईसाई धर्म के
प्रभाव में जहाँ एक ओर समाज में
व्याप्त कुरुतियों के विरुद्ध
आन्दोलन प्रारम्भ हुए, वहीं दूसरी
ओर ईसाई धर्म प्रचारकों ने
हिन्दू धर्म के प्रति घृणा की भावना
का प्रसार किया, ताकि पाश्चात्य
प्रभाव में वृद्धि हो सके एवं
ईसाई धर्म प्रचार हो सके।
इससे भारतीय समाज में
विघटनकारी प्रवृतियों एवं
अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों को
प्रोत्साहन मिला। पृथक नागालैण्ड
की मांग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण था।
(६)
व्यक्तिवादी एवं भौतिकवादी
दृष्टिकोण को प्रोत्साहन -
ईसाई धर्म के प्रभाव के कारण
समाज में व्यक्तिवादी एवं
भौतिकवादी दृष्टिकोण विकसित
हुआ, जिसके कारण व्यक्ति समाज में
व्यक्तिवादी एवं अधिकाधिक स्वार्थी
बनता गाया एवं अपने परिवार तथा
उसने समाज की सुविधा के स्थान
पर अपनी भौतिक सुख सम्पत्ति को
प्रोत्साहन देना प्रारम्भ कर दिया।
वह नैतिक मूल्यों से दूर होता
गया और सत्य या अंहिसा के स्थान
पर छलकपट अपनाने लगा।
(७)
वैवाहिक मान्यातओं व प्रतिमानों
में अन्तर - ईसाई धर्म के प्रभाव
से समाज की वैवाहिक मान्यताओं
व प्रतिमानों में भी अन्तर आया।
फलस्वरुप हिन्दुओं ने
बाल-विवाह एवं बहु-विवाह पर
प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया तथा
विधवा विवाह एवं अन्तर्जातीय
विवाह को प्रोत्साहन दिया।
वर्तमान में राजस्थानी समाज में
पत्नी को मित्र सहयोगी की महत्ता
पुन: प्राप्त हुई।
(८)
अन्य प्रभाव - ईसाइयत ने
राजस्थानी लोगों के खान-पान,
रहन-सहन, वेशभूषा एवं
व्यवहार के अन्य प्रतिमानों को भी
प्रभावित किया। पश्चिमी संस्कृति
का अनुकरण बढ़ा है। दिखावे की
प्रवृति को बढ़ावा मिला तथा
जीवन में कृत्तिमता आने लगी।
(९)
समाज का विभाजन - समाज में
अछूतों की दसा बहुत दयनीय थी।
समाज में रहने वाले लोग उनके
साथ छुआछूत का व्यवहार करते
थे। ईसाई मिशनरियों ने उन्हें
ईसाई धर्म ग्रहण करवाकर
समाज में समानता का स्थान
दिलवाया। इस बिन्दु का विस्तृत
विवेचन अगले अध्याय में है।