राजस्थान

 

राजस्थानी गाथाओं में वेश-भूषा वर्णन व लोक विश्वास

राहुल तोन्गारिया


 

राजस्थानी भाषाएँ समाज का राजस्थानी प्रतिनिधित्व करती है। राजस्थानी रीति, व्यवहार, वेशभूषा एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ इनमें सुरक्षित है। प्रस्तुत लेख में राजस्थानी गाथाओं में वर्णित वेशभूषा एवं लेख विश्वासों पर विचार किया गया है।

गाथाएँ राजस्थानी संस्कृति की प्रतिनिधि है। राजस्थानी रीति-व्यवहार, वेश-भूषा एवं परम्पराओं का वर्णन मिलता है। प्रस्तुत लेख में राजस्थानी वेशभूषा वर्णन एवं लोक निश्वासों पर विचार किया गया है। गाथाओं में राजस्थानी वेशभूषा का सुन्दर वर्णन मिलता है। स्री व पुरुष दोनों ही सुन्दर वेश धारण करते हैं। लगभग सभी गाथाओं में यह वर्णन मिलता है। स्रियाँ कटि से नीचे घाघरा धारण करती है, शरीर पर दक्षिणी चीर ओढ़ती है, वक्ष पर आँगी, जिसे राजस्थान में कांचली कहते हैं, यह आगे कुचों पर आ जाती है और पीछे पीठ पर डोरी से कसी जाती है। 

घाघरे के घेर का एक रुप देखिए -

घम्म घम्मंतइ - घाघरे, उल्ट्यों जाण गमंद,
मारु चाली मन्दिरे, झीणे बादल चंद।

माना गूजरी की वेशभूषा का वर्णन राजस्थानी नारी की वेशभूषा का प्रतिनिधित्व करता है -

नीचे पहरयो घूम घाघरों, ऊपर दिखणी चीर।
हरे पाट की आंगी पहरी, भई दिल्ली ने भीर।।

राजस्थानी वेशभूषा में लहरिये का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रावण के मास में विशेष रुप से लहरिये का रंग निखरात है, स्रियाँ इसे बहुत चाव से धारण करती हैं -

गोरे कंचन गात पर अंगिया रंग अनार।
लैंगो सोहे लचकतो, लहरियो लफादार।।

अंग्रेजी में जिसे "स्यूट' (suit) कहते है, राजस्थानी में उसे "बेस' कहा जाता है। उसमें "लहंगा' और "लूगड़ी' का रंग एक-सा होता है। इस पर जरी और मोतियों का काम होता है, यह जरी का बेस कहलाता है।

कोई आंगी तो पहरोजी बाई जी रेशम पाट की
परहोजी पहरोजी बेस थे जरी को भोला बाइजी
ओढो जी ओढ़ो दिखढ़ी चीर म्हारा बाइजीओ

निहालदे सुल्तान गाथा में भी स्री वेशभूषा का वर्णन अनेक स्थानों पर आता है। उदाहरण -

""सिर पर लाल रंग का स्यालू धारण किया, तथा गुजराती लहंगा पहना। इस प्रकार सज-धज कर मारु डोले में बैठी और साथ में उसने दासियों को ले लिया''#़

पुरुष वेशभूषा भी राजस्थान में बहुत रंगीली है। शीश पर "साफा' इसका रंग कसूमली गुलाबी, केसरिया अथवा लहरिया रंग का होता है। कटि में धोती और शरीर पर कसा हुआ वस्र। तेजाजी गाथा में इस वेशभूषा का वर्णन है -

कड़िया जी कड़ियां कसियो कम्मर बंध कवंर तेजै जी,
कोई कांधे तो डारयों है रे वो लाल किनारी धोतियों।

कमरयां लाल लपेटो बांधो दुपटो बूँटीदार

आभूषण वर्णन - राजस्थान में स्री और पुरुष ही आभूषण पहनते हैं। स्रियों के ३२ आभूषणों का उल्लेख गाथाओं में आया है। ये आभूषण इस प्रकार हैं -

मांग में स्रियां मोती जड़ी "राखड़ी' पहनती है। केशो पर मांग के दोनों ओर "दामणी' पहनती है।

गज मोत्यां री दामणी, मुखड़े सोभा देत।
जाणे तारा पांत मिल, राख्यौ चन्द लपेट।।

नाक में नथ धारण की जाती है, जो रत्नों जड़ी रहती है -

"कोई नथली तो पहरो बाइजी रतन जड़ाव की'

गले में स्रियाँ "नौसर' हार धारण करती है, भुजाओं पर बाजूबन्द। निहालदे सुल्तान गाथा में इसका उल्लेख है -

""गले में नौसर हार पहना, बाजूबन्द धारण किया,
माँग मोतियों से भरी, माथे पर बिंदी लगाई।''

आँखों में पतला-पतला काजल लगाया जाता है -

""झीणूं-झीणूं काजलियों थे घालो भोला बाईजी''

राजस्थान में सौभाग्यवती स्रियाँ बिछिए पहनती हैं -

""कोई पगत्यां तो पहरोजी थे,
बिछिया रिमझिम बाजणाँ।''

कानों में राजस्थानी नारी लौंग धारण करती है। इस प्रकार गाथाओं में नारी के आभूषणों का वर्णन मिलता है।

लोक विश्वास - गाथाओं में शकुन-अपशकुन पर विचार किया गया है, जैसा कि पहले भी संकेत किया जा चुका है। ज्योतिषियों का समाज में बहुत सम्मान था। यात्रा में जाने से पूर्व, किसी शुभ कार्य के समारम्भ के पूर्व ज्योतिषियों द्वारा नक्षत्र देखकर योगायोग का विचार कराया जाता था। गाथा के आधार पर कुछ शकुन तथा अपशकुन यहाँ दिए जा रहे हैं। यद्यपि उस प्रकार के विचार मानव-मस्तिष्क की उस अवस्था को दिखलाते हैं, जब तर्क बुद्धि का विकास नही होता, मनुष्य प्रत्येक भय उत्पन्न करने वाली बात पर श्रृद्धा करने लगता है। वह अन्धविश्वासों से आक्रान्त हो जाता है। पर इन अन्धविश्वासों के पीछे एक परम्परा होती है। नितान्त मूर्खतापूर्ण तो ये नहीं होते, कभी-कभी संयोगवश ये सत्य भी सिद्ध होते हैं और तब मनुष्य का विश्वास इनमें और भी दृढ़ हो जाता है।

यात्रा के समय किसी का अश्रुपात करना अशुभ माना गया है। पाबूजी गाथा में पाबूजी के विदा होते समय देवल चारणी अश्रुपात करती है -

कोई आसूंडा रलकावै छै वा ऊबी देवल चारणी
कोई चढ़ती जाना नैये थे सूणं कसूंणा क्यों करो।

और इस अपशकुन का परिणाम हुआ पाबूजी की मृत्यु। यात्रा के समय मार्ग में सपं का बायें आना अशुभ माना जाता था। पाबूजी की बारात के आगे सपं आ गया था -

""मारग में देख्यौं छै आड़ो कालो वासिक नाग''

इसी प्रकार सिंहनी का मार्ग रोकना भी अशुभ कारण है -

""कोई किसड़ै तो सूणां पर रै, यो सिघनी मारग रोकियो''

सिहनी को मार्ग में देखकर ज्योतिषी ने कहा कि अब, पाबूजी को आगे न बढ़ना चाहिए। लौट आना ही जीवन उचित होगा, परन्तु इसमें पाबूजी ने अपना अपमान समझा, वे गए और आधे विवाह में उठना पड़ा।

यात्रा के समय यदि अ पीछे पैर रक्खे तो उसे अशुभ माना जाता था और यह मानते थे कि यात्रा में प्राणों पर संकट आ जाता है। यात्रा के सामने से विधवा ब्राह्मणी का आना अनिष्टकारक मानते थे -

""कोई गुवाड़ में भी जाती रै मिली विदवा बामणी''

तेजाती को ससुराल जाते समय निम्नलिखित अपशकुन हुए और परिणामत: उन्हें मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा, जिस पत्नी से मिलने वे इतने उत्साहपूर्वक गए थे, उससे भी मिलन न हो सका।

तीजै जी तीजै सूंण मिली
पणिहार रीति बावड़ती रै
कोई बाड़ा में मिल्यौ छै रे गाड़ो सूकै काठ को
अगणै जी अगणै रोया सामा स्याल रै
कोई कांकण में रोई छै रे
बा कालै मुं की फोकरी
कोई बाई वी भुवानी
बा बैठी मिली बबूल पर

यात्रा के समय सम्मुख जलहीन घठक लिए आती पनिहारी का मिलना अशुभ समझा जाता है। शुष्क काष्ठ का दर्शन, रोता हुआ गीदड़, रोती हुई लोमड़ी, तथा बबूल पर बैठी सोन-चिड़ी नाश के सूचक माने गए हैं। इन अपशकुनों की भी उपेक्षा करके जो बढ़ जाता था वह तेजा जी की भाँति नष्ट हो जाता था, ऐसी मान्यता थी।

स्रियों के दाहिने अंग के फकड़ने को अशुभ माना जाता था। पाबूजी गाथा में सोढीजी की दाहिनी आँख फड़कती है, वे अशुभ की आशंका से खिन्न हो जाती है -

घांणी तो फड़की छै राम सोढ़ी जी री आँख
कोई सीमा तो फूकी छै वा कालै मुख को कोयली

"बगड़ावत' गाथा में स्वर्णकार का सम्मुख आना (यात्रा के समय: भी अशुभ समझा गया है।

शकुन - यात्रा के समय गर्दभ का बांयी ओर बोलना शुभ समझा जाता है। इसी प्रकार कोचरी का दांयी ओर बोलना शुभ है -

भात न्योतने के लिए जब मारु की सवारी चली तो उसे बहुत अच्छे शकुन हुए, कोचरी दांयी तरफ बोलने लगी, खर बांयी ओर परन्तु "निहालदे सुल्तान' में एक स्थान पर तीतर का दांयी ओर और बांयी ओर कोचरी का बोलना शुभ माना जाता था, जबकि उपर्युक्त उद्दरण में कोचरी को दांयी ओर बोलना शुभ बतलाया गया है।

दांयी ओर तीतर तथा बांयी ओर कोचरी बोल रही थी। निहालदे ने इन अच्छे शकुनों को देखकर कहा।

मार्ग में सपं का दाहिनी ओर मिलना शुभ कारक माना गया है। स्री के बायें अंगों का फड़कना शुभ एवं मंगलकारक माना गया है। "ढोला मारु' गाथा में मारु के पूछने पर चावणी कहती है -

जांघ फरुखै कर फुरै, कर फर अहर फुरंत,
नाभिमंडल जब फुरै, तो पिव बेग मिलतं।

यात्रा के समय जम्बुक श्रृंगाल का बायें बोलना भी शुभ माना गया है -

""हे पण्डित की लड़की तुम जो कह रही, वह झूठ है। कोचरी दाहिनी बोली है और जम्बुक श्रृंगाल बायें बोले हैं। मैंने शकुनों पर भली भांति विचार किया है।''

किसी कार्य के लिए जाते हुए राजपूत यदि सामने आते हुए सुअर को मार ले तो अपना कार्य सिद्ध हुआ समझते हैं। "बगड़ावत काव्य' में इस प्रकार का वर्णन मिलता है। उपर्युक्त पक्तियों में राजस्थानी लोक-विश्वास पर विचार किया गयाहै। ये विश्वास परम्परा से राजस्थानी समाज में प्रचलित है और आज भी ग्रामीणजनों में पाए जाते हैं। इन विश्वासों की पृष्ठभूमि में युगों का अनुभव है और जनता इनसे आगे आने वाली घटनाओं का संकेत पाने में विश्वास करती है।

 

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