राजस्थान |
अलवर राज्य की स्थापना राहुल तोन्गारिया |
माण्डवा युद्ध के चार दिन पश्चात् जयपुर नरेश महाराजा माधोसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र पृथ्वीसिंह सन् १७६८ ई. में जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। जयपुर की राजनीति में प्रतापसिंह का बढ़ता हुआ प्रभाव महाराज पृथ्वीसिंह की बाल्यावस्था के कारण राज्य प्रबन्ध का भार उनकी माता चुन्डावत रानी, जो मेवाड़ के देवगढ़ ठिकाने के ठाकुर जसवन्त सिंह की पुत्री को सौंपा गया। चुण्डावत रानी बहुत दिनों तक इस शासन प्रबन्ध का कार्य सुचारु रुप से नहीं चला सकी। प्रतापसिंह ने इस समय राज्य प्रबन्ध में पूर्ण सहयोग देकर राज्य की व्यवस्था में बहुत कुछ सुधार किया तथा मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ एवं मराणे से अच्छे सम्बन्ध बनाकर राज्य की निरन्तर रक्षा करता रहा। मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ का भरतपुर पर प्रथम आक्रमण १७७० ई. सन् १७७० ई. में मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ ने मराणें को अपनी ओर मिला लिया और उनकी सहायता से जब भरतपुर पर १७७० ई. में प्रथम आक्रमण किया उस समय भरतपुर महाराजा नवलसिंह शासन कर रहा था। प्रताप सिंह ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और उक्त आक्रमण में उन्होंने नजफ खाँ की सहायता कर मित्रता स्थापित की। प्रतापसिंह ने स्वतंत्र शासक बनने की इच्छा से अपने सभी सरदारों को एकत्र करके सम्मति ली व ऐसा संकल्प सुनकर उसके सम्बन्धियों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। इस समय देश राजनीतिक एकता की दृष्टि से बहुत कमजोर था। मुगल साम्राज्य की शक्ति क्रमश: क्षीण होती जो रहा थी। जयपुर राज्य में भी अव्यवस्था फैली हुई थी। नजफ खाँ के अत्याचार अन्याय व स्वेच्छातारिता से जाट लोग तंग आ चुके थे। ऐसी परिस्थितियों में प्रताप सिंह ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया और जयपुर तथा भरतपुर राज्य के अनेक दुर्गों पर चढ़ाई कर उनको हस्तगत कर लिया व उनके बहुत से ठिकानों पर अधिकार कर लिया। सन् १७७० में उसने टेहला व राजपुर आदि में अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया। सन् १७७१ में राजगढ़ का किला सम्पूर्ण करके राजगढ़ बसाया तथा देवती झील में जल महल बनवाकर उसके पास आनन्द बाग लगवाया। सन् १७७२ में मालाखेड़ा में एक दुर्ग का निर्माण करवाया। उक्त सब स्थानों के अतिरिक्त सेन्थल, बैराट, आम्बेला, मामरा, ताला, धोला, प्रयागपुरा, दुब्बी, हरदेवगढ़, सिकराय और बावड़ी खेड़ा स्थानों पर भी अपना अधिकार कर लिया। प्रताप सिंह की बढ़ती हुई ख्याति दुसरे सरदारों के लिए असहाय थी। बहुत-सी अभिमाना और स्वार्थी प्रकृति के सामन्तों को उसकी उन्नति और उत्कर्ष असहाय हो गया था। प्रताप सिंह अपनी वीरता और कर्त्तव्यपरायणता आदि गुणों के कारण जयपुर की जनता में बहुत शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया और उसके गुणों से प्रभावित होकर महाराज पृथ्वीसिंह भी उसकी आदर करने लगे। सरदारों का उनके मनमुटाव रखने का मुख्य कारण यही था कि उन्होंने जनता एवं जयपुर नरेश दोनों से विशेष सम्मान प्राप्त कर लिया था। जयपुर में प्रताप सिंह के विरुद्ध षड़यन्त्र प्रताप सिंह की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण कुछ सरदारों ने उसके विरुद्ध जयपुर नरेश के कान भरने शुरु कर दिए। दुर्जन सिंह नामक एक सरदार तो उसकी हत्या करने के लिए तैयार हो गया व प्रताप सिंह को मारने के लिए षड़यन्त्र भी रचा, लेकिन उसे कोई सफलता न मिली। दुर्जन सिंह की दुष्ट्ता के बारे में सुनकर प्रताप सिंह के समर्थक सरदारों के हृदय में बदने की भावना पैदा हो गई और वे बहुत क्रोधित व उत्तेजित हुए। यहाँ तक कि वे उसको दण्ड देने के लिए तैयार हो गए, लेकिन प्रताप सिंह ने उन्हें काफी समझाया। इस प्रकार के षड़यन्त्र के कारण उनियारे के सरदार सिंह को विशेष दु:ख हुआ। उस पर प्रताप सिंह के समझाने-बुझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। प्रताप सिंह के दुश्मनों से बदला लेने के लिए वह उत्तेजित हो उठा। अन्त में उसके बहुत समझाने पर उन्होंने अपना क्रोध रोककर कहा कि मैं दुर्जन सिंह के इस कुचक्र के सम्बन्ध में महाराजा पृथ्वी सिंह से अवश्य निवेदन कर्रूँगा। इतना कहकर सरदार सिंह ने उसी क्षण जयपुर नरेश से मिलकर उन्हें दुर्जन सिंह के षड़यन्त्र के विषय में अवगत करा दिया। जिस पर जयपुर महाराजा ने उक्त सरदार को जयपुर राज्य से बाहर निकाल दिया। दुर्जन सिंह के षड़यन्त्र की घटना के बाद प्रताप सिंह ने जयपुर महाराजा से राजगढ़ जाने की अनुमति माँगी। जयपुर नरेश को प्रताप सिंह का यह प्रस्ताव सुनकर बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने प्रताप सिंह को राजगढ़ जाने से रोकना चाहा, पर जब उसने हठ किया और यह प्रतिज्ञा की, कि जब कभी भी आप मुझे याद करेगें, तब मैं आपकी सेवा में फिर उपस्थित हो जाऊँगा। तब जयपुर के नरेश ने उसे राजगढ़ जाने की आज्ञा दी। प्रताप सिंह की अनुपस्थिति में उनसे मनमुटाव रखने वाले सरदारों को महाराजा पृथ्वी सिंह और प्रताप सिंह के बीच वैमनस्य पैदा करने का अच्छा अवसर मिल गया। राजसिंह नामक एक सरदार ने जयपुर महाराजा के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि प्रताप सिंह आपसे अप्रसन्न होकर राजगढ़ चला गया है। इसलिए आपको उससे चैतन्य रहना चाहिए और उसका दमन करने में देरी नहीं करनी चाहिए। महाराजा पृथ्वी सिंह सरदार राजसिंह के कथन से प्रभावित हो गया और उसने उस समय १७७२ में राजगढ़ पर आक्रमण करने की आज्ञा प्रदान कर दी। इस पर राजसिंह व फिरोज खाँ ने जयपुर के ४०,००० सैनिकों के साथ दो दलों में विभक्त होकर राजगढ़ की ओर प्रस्थान किया और वसुवा नामक स्थान पर घेरा डाला। जब प्रताप सिंह को यह समाचार मिला तो उन्होंने अपने मंत्री छाजराम हल्दिया, उसके तीनों पुत्र दोलतराम, नन्दराम, रामसेवक, मौजीराम, जीवन खाँ तथा होशदार खाँ आदि सचिवों से परामर्श कर अपने सबी सरदारों को परामर्श के लिए बुलाया। जब उसके सभी सरदार एकत्रित हुए तो उसने सभी से जयपु की सेना से युद्ध व स्वतंत्र सम्पत्ति की माँग की व यह प्राप्त करने में सहायता माँगी। प्रताप सिंह की उपस्थिति में सभी सरदारों ने विपत्ति में साथ देने का वायदा किया। जब सरदारों को युद्ध के लिए उत्साहित देखकर प्रताप सिंह ने अपनी सेना का एक भाग राजगढ़ की रक्षा के लिए छोड़कर शेष सेना के साथ जयपुर की सेना का सामना करने के लिए प्रस्ताव किया। राजसिंह को इसकी सूचना प्राप्त होते ही वह फिरोज खाँ के साथ राजगढ़ की ओर बढ़ा, जहाँ प्रताप सिंह की सेना पहले ही से युद्ध के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। राजगढ़ के मुट्ठीभर सैनिकों ने निरन्तर दो महीनों तक जयपुर की विशाल सेना का सामना किया, लेकिन इसका परिणाम नहीं निकलने पर प्रताप सिंह के नेतृत्व में राजगढ़ के सैनिकों ने इस युद्ध में अद्भुत सैनिक प्रतिभा दिखाई। इस तरह प्रताप सिंह के युद्ध कौशल को देखकर राजसिंह तथा फिरोज खाँ जैसे अनुभवी और पराक्रमी सेनापति भी चकित रह गए। इस लड़ाई में पराजय के लक्षण देखकर राजसिंह शेखावत बहुत घबराया व अन्होंने जयपुर महाराजा को इस आशय का पत्र लिखा कि निरन्तर दो माह से युद्ध चल रहा है, लेकिन अभी तक हमें प्रताप सिंह को परास्त करने में सफलता नहीं मिली है। सारी सेना हतोत्साहित हो रही है। जिससे अब विजय प्राप्ति की आज्ञा रखना दुराशा मात्रा है। सेना नायक का पत्र पाकर महाराजा पृथ्वी सिंह बड़ा भयभीत हुआ और उसे अपने मान रक्षा की बड़ी चिन्ता हुआ व अन्त में उसने प्रताप सिंह से क्षमा याचना की। प्रताप सिंह ने उसकी क्षमा याचना को स्वीकार कर लिया और अपने हृदय से सारा मन-मुटाव दूर कर जयपुर महाराजा पृथ्वी सिंह से मिलने के लिए जयपुर को प्रस्थान किया। जयपुर नरेश ने उसका यथोचित स्वागत किया। तत्पश्चात् प्रताप सिंह राजगढ़ लौट आया व अपनी शक्ति तथा राज्य विस्तार में लग गया। सन् १७७३ में उसने काँकवाड़ी, अजबगढ़, बलदेवगढ़ आदि स्थानों में गड़िया बनवाई तथा अपनी शक्ति और राज्य विस्तार में लगा रहा। नजफ खाँ का भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण और प्रताप सिंह की नजफ खाँ को सहायता (१७७४)। मिर्जा नजफ खाँ ने भरतपुर पर द्वितीय आक्रमण १७७४ में किया। उस समय प्रताप सिंह ने मिर्जा नजफ खाँ की सहायता की। जिसके फलस्वरुप भरतपुर की सेना को आगरा का दुर्ग छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। इस सहायता के उपलक्ष्य में मिर्जा नजफ खाँ ने मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) से अनुरोध कर सन् १७७४ में उसको ""राव राजा बहादुर'' की उपाधि, पंच हजारी मनसब (पाँच हजार जात और पाँच हजार सवार और माचेड़ी की जागीर) दिलवाई। इस प्रकार प्रताप सिंह को मुगल बादशाह शाह आलम ने एक स्वतंत्र राजा के रुप में स्वीकार कर लिया और उसकी माचेड़ी की जागीर हमेशा के लिए जयपुर से स्वतंत्र कर दी।इसके पश्चात् १७७५ में प्रताप सिंह ने प्रतापगढ़, मुगड़ा व सेन्थस आदि स्थानों में गढ़ बनवाये। अलवर राज्य की स्थापना २५ दिसम्बर १७७५ इस प्रकार प्रताप सिंह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अब आसपास के प्रदेश पर अधिकार करना शुरु किया जिससे उसके राज्य का विस्तार हो सके। इस नीति पर चलते हुए उसने सबसे पहले अलवर के प्रसिद्ध किले पर अधिकार किया। इस समय अलवर का दुर्ग भरतपुर के अधिन था, लेकिन भरतुप नरेश की इस गढ़ की ओर कुछ उपेक्ष दृष्टि थी। दुर्गाध्यक्ष और सैनिकों को बहुत समय से वेतन नहीं मिला था, इससे उनमें असंतोष, अशान्ति फैल गई थी। उन्होंने वेतन के लिए अनेक बार भरतपुर नरेश से प्रार्थना की, लेकिन उसने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया। अन्त में दुर्ग के रक्षकों ने निराश होकर भरतपुर नरेश को एक मर्मस्पर्शी भाषा में अपना अन्तिम प्रार्थना पत्र लिख भेजा। जिसमें उन्होंने उससे अपने आर्थिक कष्ट जनित असंतोष को खुले शब्दों में प्रकट किया। अपने स्वामी से अपना हार्दिक भाव प्रकट कर स्वामी भक्त रक्षकों ने वास्तव में अपने कर्त्तव्यों का यथोचित पालन किया था, परन्तु हृदयहीन भरतपुर नरेश पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भरतपुर नरेश की उदासीनता से झुंझलाकर अपने निर्वाह एवं प्राण रक्षा हेतु उन्होंने प्रताप सिंह को इस आश्य का प्रार्थना पत्र भेजा कि यदि वह उन लोगों का वेतन चुकाना स्वीकार करें, तो वे अलवर के दुर्ग उन्हें समर्पित करने के लिए प्रस्तुत हैं। प्रताप सिंह ने उनकी प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार किया और खुशालीराम की सहायता से रुपयों की व्यवस्था कर उनका और उनके सैनिकों का वेतन चुका दिया। खुशालीराम तथा अपनी सेना के साथ प्रताप सिंह ने मार्ग शीर्ष शुक्ला ३ संवत् १८३२ (२५ दिसम्बर, १७७५) सोमवार को अलवर के दुर्ग में प्रवेश किया और माचेड़ी के स्थान पर अलवर को ही अपनी राजधानी बनाकर अलवर राज्य की स्थापना की और अपनी राज्याभिषेक कराया। प्रताप सिंह अलवर के दुर्ग पर शासन करने के साथ-साथ बानसूर, रामपुर, हमीरपुर, नारायणपुर, मामूर, थानेगाजी आदि स्थानों पर भी प्रताप सिंह ने अधिकार कर लिया। इनमें से प्रत्येक स्थान पर दुर्ग का निर्माण करवाया। इसी प्रकार जामरोली, रेनी, खेडजी, लालपुरा आदि अन्य स्थानों पर भी उसने अधिकार कर दुर्ग बनवायें। प्रताप सिंह के सभी सम्बन्धियों, मित्रों तथा जाति वालों ने उसे अपना मुखिया और राजा स्वीकार कर लिया और सभी ने उसको उपहार स्वरुप भेंट दी। प्रताप सिंह की प्रारम्भिक समस्याएँ प्रताप सिंह के सामने कई आन्तरिक समस्याएँ आयी, जिनका समाधान उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता और साहस के साथ किया। उनकी प्रारम्भिक समस्याएँ निम्न लिखित थीं- प्रथम अलवर के किले एवं अन्य स्थानों पर अधिकार हो जाने के बाद भी लक्ष्मणगढ़ के दासावत नरुका सरदार स्वरुप सिंह ने न तो उसकी राजसत्ता स्वीकार की और न ही उसे भेंट दी। इसलिए प्रताप सिंह ने उस पर चढ़ाई कर दी। जिसका समाचार पाकर वह अपना गढ़ छोड़कर भाग गया। प्रताप सिंह के सैनिकों ने उसका पीछा किया। अन्त में वह पकड़कर अलवर लाया गया। वह ऐसा हठी व दुराग्रही था कि लोगों के समझाने पर भी अपनी बात पर अड़िग रहा और उसने प्रताप सिंह की अधिनता स्वीकार नहीं की। इसका फल उसे बहुत शीघ्र भोगना पड़ा। वस्तुत: वह बड़ा ही दुर्विनीत और दृष्ट था। उसके अशिष्टपूर्ण व्यवहार से चिढ़कर और आवेश में आकर प्रताप सिंह ने उसे प्राण दण्ड की सजा दे दी। बात ही बात में उसके किसी पार्श्ववर्ती सहचर ने अपनी तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। इस घटना के कुछ समय बाद प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण करने का निस्चय किया क्योंकि अभी तक उसकी महत्त्वकांक्षा पूर्ण नहीं हुई थी। प्रताप सिंह के समक्ष दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या यह थी कि सन् १७७५ में पीपलखेड़े के बुद्धसिंह नामक एक बादशाही जागीरदार के मरने पर अहीरों और मेवों के बीच परस्पर वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ। घटना इस प्रकार हुई कि उक्त जागीरदार के मरने पर उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी कोई नहीं था। अहीर चाहते थे कि जागीर पर प्रताप सिंह का अधिकार हो, मेव उस जागीर को गोविन्दगढ़ तथा धोसावली ने नवाब जुल्फीकार खाँ के हाथ में दे देना चाहते थे। प्रताप सिंह ने अपने दीवान भगवानदास टोगड़ा को भेजा। जिसने पीपल खेड़े पहुँचते ही उसपर अलवर राज्य की ओर से अपना अधिकार कर लिया। जुल्फिकार खाँ भी सामना करने के लिए आया, लेकिन जब उसे यह ज्ञात हुआ कि पीपल खेड़ा पर प्रताप सिंह का अधिकार हो चुका था, तो वह वापस धोसावली लौट गया। प्रताप सिंह ने जुल्फीकार खाँ के हस्तक्षेप से परेशान होकर उसका दमन करने के लिए धोसावली पर आक्रामण किया जो उस समय नवाब जुल्फीकार खाँ के अधीन था। प्रताप सिंह को इस अप्रत्याशित आक्रमण में मराठों ने भी सहायता दी और दोनों सेनाओं ने मिलकर धोसावली पर घोरा डाल दिया। जुल्फीकार खाँ बड़ा ही निडर स्वेच्छाकारी व साहसी था। जनरल लेक ने जब मराठों को दिल्ली से निकाल दिया तब वे वहाँ से भागकर धोसावली आये, परन्तु जुल्फीकार खाँ प्रताप सिंह से भी अधिकर द्वेष भाव रखता था और हर प्रकार की छेड़छाड़ किया करते था। अतएव मराठे और प्रताप सिंह दोंनो उसके शत्रु थे, लेकिन न तो मराठे और न राव प्रताप सिंह अकेले इसे परास्त कर सकते थे। इसलिए उसको परास्त करने के लिए मराठा व प्रताप सिंह ने आपस में समझौता कर लिया। दोनों ने मिलकर उसे युद्ध में पराजित किया। पराजित होने पर वह आश्रय व सहायता के लिए इधर-उधर भटकता फिरा, लेकिन लखनऊ तक किसी ने उसकी सहायता नहीं की। अन्त में बुन्देलखण्ड जाकर वह लड़ाई में काम आया। उसके राज्य पर भी प्रताप सिंह का अधिकार हो गया। प्रताप सिंह ने धोसावली को उजाड़कर गोविन्दगढ़ बसाया। जुल्फीकार खाँ के युद्ध में परास्त होकर भाग जाने तथा प्रताप सिंह के धोसावली को हस्तगत कर लेने पर जुल्फीकार खाँ के समर्थक वहाँ के मेवों ने उसके विरुद्ध विद्रोह किया। प्रताप सिंह ने उनके मुख्य नेताओं को अपनी ओर मिला लिया, जिससे उनकी शक्ति कम हो जाने पर उन्हें विवश होकर उसकी अधिनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार प्रताप सिंह ने अपने साहस और योग्यता से बहुत शीघ्र अपने विद्रोहियों का दमन करने में सफलता प्राप्त की। नजफ खाँ का भरतपुर पर तृतीय आक्रमण तथा प्रताप सिंह की नीति सन् १७७५ में मिर्जा नवाब नजफ खाँ ने भरतपुर पर तीसरी बार आक्रमण किया और आक्रमण में उसकी सहायता करने के लिए उसने प्रताप सिंह को लिखा। जिसके उत्तर में उसने अपनी कुछ सेना सहित अपने मन्त्री खुशालीराम को नजफ खाँ की सहायता करने के लिए भेजा। भरतपुर नरेश नवल सिंह अपने मंत्री जोधराज, चतुर सिंह चौहान, सीताराम तथा गुरु अचलदास आदि पराक्रमी सामन्तों के साथ शत्रु से लोगा लेने के लिए अपने दुर्ग में आ डटे। दोनों के बीच युद्ध में नजफ खाँ की विजय हुई। इस पर भरतपुर की सेना ने युद्ध भूमि से भागकर डीग के दुर्ग पर शरण ली और नजफ खाँ ने डीग के दुर्ग का घेरा डाल दिया। भरतपुर नरेश ने दुर्ग (डीग) का अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। जाटों ने शत्रु की गति रोगने तथा दुर्ग की रक्षा करने में वीरता प्रकट की और शत्रु की विपुल सेना की बड़ी वीरता से सामना किया। परन्तु अंत में उनकी सारी वीरता और सारा यत्न विफल हुआ। जबकि प्रताप सिंह ने नजफ खाँ को सैनको सहायता दी और प्रताप सिंह की सहायता से नजफ खाँ का डीग पर अधिकार हो गया। प्रताप सिंह ने साम्राज्य विस्तार करने के लिए १७७५-७६ में बहादुर पर अधिकार कर वहाँ एक दुर्ग पर निर्माण करवाया। इसी वर्ष प्रताप सिंह ने डेहरा और जिन्दैली में भी दुर्ग बनवाये। जयपुर की आन्तरिक समस्याओं में प्रताप सिंह का हस्तक्षेप प्रताप सिंह ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए जयपुर के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया। सर्वप्रथम उसने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण कर १७७५ में उस पर अधिकार कर लिया। इससे पूर्व इस प्रदेश पर फतेहअली खाँ नामक एक मुसलमान का अधिकार था। प्रताप सिंह ने बैराठ प्रदेश पर आक्रमण किया तब फतेहअली खाँ ने उसका बड़ी बहादुरी से सामना किया। फिर भी वह प्रताप सिंह को पीछो नहीं हटा सका और अंत में परास्त होकर युद्ध भूमि से भाग निकला। अत: बैराठ प्रदेश पर सिंह का अधिकार हो गया। कुछ समय प्रताप सिंह ने प्रयागपुरा, ताला, धोला, आतेला व मामरु आदि परगनों पर भी अपना अधिकार कर लिया। इस समय प्रताप सिंह के राज्य की सीमाएँ अलवर से लेकर सीकर तक फैल गई थी। प्रताप सिंह ने जयपुर की राजनीति में दुबारा हस्तक्षेप उस समय किया जबकि शेखावटी पर नजफकुली खाँ ने आक्रमण किया उस समय शेखावटी के सरदारों ने प्रताप सिंह से सहायता की प्रार्थना की। उसने उनकी सहायता की ओर नजफकुली खाँ को लड़ाई में पराजित कर उक्त स्थान से मार भगाया। इस समय प्रताप सिंह की राज्य की सीमाएँ सीकर तक पहुँच गयी थीं, लेकिन सीकर के देवीसिंह और कांसली के सरदार पूरणमल दोनों के बीच कटु सम्बन्ध थे। इसका परिणाय यह हुआ कि कांसली के सरदार पूरणमल ने सीकर राज्य में लूटमार मचाकर बड़ा उपद्रव खड़ा कर दिया और उसके अत्याचार से सीकर का देवीसिंह परेशान हो गया। इस समय पूरणमल ने कांसली के पांचों गांवों पर अधिकार कर लिया। देवीसिंह ने अकेले सामना करने में अपनी सामर्थ्यहीनता को समझ कर प्रताप सिंह से सहायता माँगी। जिस पर प्रताप सिंह ने ससैन्य रवाना हो दोनों के बीच में समझौता कराने की चेष्टा की लेकिन जब पूरणमल किसी प्रकार की संधि के लिए सहमत नहीं हुआ, तब प्रताप सिंह देवीसिंह के साथ सीकर चला गया। वहाँ जाकर उसने सीकर के देवीसिंह की बहुत सहायता की। प्रताप सिंह सीकर में कुछ दिनों ठहर कर अलवर लौटा और देवीसिंह ने कांसली पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सीकर के देवीसिंह की सहायता की जिससे दोनों के बीच मित्रता बढ़ी। इसी समय मुहम्मद बेग हमदानी ने प्रताप सिंह पर आक्रमण किया, जिसमें प्रताप सिंह को विजय प्राप्त न होने के साथ क्षति भी नहीं हुई। इस प्रकार प्रताप सिंह ने सभी समस्याओं का साहस के साथ समाधान किया मुगल सेनापति मिर्जा नजफ खाँ ने जब भी भरतपुर पर आक्रमण किया तब-तब प्रताप सिंह ने मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किए। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे एस स्थायी मित्र मिल गया जो आगे चलकर कभी-भी जयपुर व भरतपुर के शासकों से उसकी रक्षा कर सकता था। बन्ने सिंह और अलवर राज्य की प्रगति (१८१५-१८५७ ई.) बन्ने सिंह बख्तावर सिंह के भाई थाना के ठाकुर सलेह सिंह का पुत्र था। उसका जन्म १६ सितम्बर १८०८ को हुआ था। बख्तावर सिंह के कोई पुत्र नहीं था। बख्तावर सिंह ने अपने भाई थाना के ठाकुर सलेह सिंह के लड़के विनय सिंह को सात वर्ष की उम्र से ही अपने पास रख रखा था, लेकिन गोद लेने के रस्मों रिवाज से पहले ही मृत्यु हो गई थी। इसके परिणामस्वरुप उसकी मृत्यु के बाद बन्ने सिंह के बीच उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हो गया। उत्तराधिकार का संघर्ष और बन्नेसिंह का राज्याभिषेक हरनारायण हल्दिया व दीवान नोनिद्धराम सहित अनेक सरदारों ने बन्नेसिंह को ही शासक बनाने के लिए जोरदार समर्थन किया। बलबन्त सिंह की आयु उस समय लगभग ६ वर्ष की थी। कुछ मुसलमान सरदार बलवन्त सिंह को गद्दी पर बैठाने के पक्ष में थे। १२ फरवरी, १८१५ को बन्नेसिंह को गद्दी पर बैठा दिया। दोनों के बीच वैमनस्य दूर करने के लिए बन्नेसिंह को गद्दी पर बांयी तरफ बलवन्त सिंह को भी बैठाया गया और यह निश्चय किया गया कि दोनों ही बराबरी से राजगद्दी के हिस्सेदार माने जाए, लेकिन इस समझौते पर रेजीडेन्ड ने उन्हें समझाया कि एक राज्य में दो शासक कैसे राज्य कर सकते हैं, यह नियमों के प्रतिकूल है। अत: यह समझौता हुआ कि महाराव राजा का करार दिया जा कर बन्नेसिंह के नाम से होगा लेकिन सारा कामकाज बलवन्त सिंह करेगा तथा एक-दूसरे की राय लेकर शासन करेंगे, आपस में कभी वाद-विवाद नहीं होगा। ३० जनवरी १८१७ को नवाब अहमद बख्श खाँ ने परगना तिजारा तथा टपूकड़ा का ठेका लिया। सन् १८२४ तक पदाधिकारी विकट परिस्थितियों में राज्य का काम चलाते रहे। दोनों के सम्बन्ध बिगड़ने की शुरुआत होने का मुख्य कारण यह था कि अंग्रेंज रेजीडेन्ट जनरल अक्टरलोनी ने एक जोड़ी पिस्तौल और एक पेशकब्ज ईनाम के रुप में बन्नेसिंह के पास भेजा था। जिसमें से पेशकब्ज व पिस्तौल तो बन्नेसिंह ने अपने पास रख ली और बलवन्त सिंह को सिर्फ पिस्तौल ही दिया, पेशकब्ज नहीं दिया। जब बलवन्त सिंह को इसका पता लगा तो दोंने के सम्बन्ध कटु हो गए। अन्त में अलवर राज्य में दो दल बन गए, एक दल बलवन्त सिंह का समर्थन करता तो दूसरा बन्नेसिंह का। अहमद वख्श खाँ के विरुद्ध षड्यन्त्र सन् १८२४ में बन्नेसिंह के समर्थकों ने बलवन्त सिंह के प्रबल समर्थक नवाब अहमद वख्श खाँ को मारने के लिए षड्यन्त्र रचा। इस प्रकार उक्त मेव दिल्ली पहुँचा और दिल्ली में अवसर पाकर रात के समय जब अहमद खाँ खेम्मे के अन्दर सो लहा था तब उसने उस पर तलवार से वार किया, जिससे वह जख्मी हो गया। उस समय वह दिल्ली में रेजीडेन्ट का मेहमान था कुछ समय बाद नवाब स्वस्थ्य हो गया। बलवन्त सिंह ने मेव को गिरफ्तार कर लिया। मल्ला व नंदराम दीवान जि कि बन्नेसिंह के समर्थक थे उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया व तुरन्त ही तीनों का वद्य करवा दिया। इसी समय अहमद बख्श खाँ ने दिल्ली जाकर अंग्रेंजी रेजिडेन्ट अक्टरलोनी से अपनी मांगें मनवाई व अपने पक्ष में समर्थन करवाया। अत: बलवन्त सिंह के समर्थकों को अलवर राज्य से बाहर निकाल दिया जाए। कुछ समय पश्चात् अंग्रेंज रेजिडेन्ट ने बन्नेसिंह के द्वारा बलवन्त सिंह के हिमायतियों को १५ हजार रुपयों की वार्षिक आय की व बन्नेसिंह को अंग्रेज रेजिडेन्ट ने लिखा कि बलवन्त सिंह को कैद से मुक्त कर दिया जाए, परन्तु बन्नेसिंह ने इससे इन्कार कर दिया। अंग्रेजों की सैनिक कार्यवाही के कारण बन्नेसिंह को मजबूर होकर अंग्रेजों की सलाह को मानना पड़ा और बलवन्त सिंह को कैद से रिहा कर दिया। बन्नेसिंह ने अंग्रेजों को यह स्पष्ट किया कि हमारे यहाँ कि रियासतों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि पासवान के लड़के को दत्तक पुत्र के बराबर राज्य का आधा भाग दिया जाए। #ुसे अधिक से अधिक अपने जीवन निर्वाह के लिए कुछ रुपया प्रतिमाह दिया जा सकता है। परन्तु अंग्रेजों के दबाव के कारण बन्नेसिंह को कुछ परगने देने पड़े। बन्नेसिंह के द्वारा बलवन्त सिंह को जागीर प्रदान करना (२१ फरवरी १८२६) अन्त में बन्नेसिंह ने २१ फरवरी, १८२६ को बलवन्त सिंह के नाम एक इकरार नामा लिखा। बलवन्त सिंह इलाका और रुपये का मालिक रहेगा, लेकिन यदि बलवन्त सिंह की नि:सन्तार मृत्यु हो जाएगी तो यह दिया हुआ सारा क्षेत्र फिर से अलवर राज्य में स्थापित कर दिया जाएगा। बन्नेसिंह ने २१ फरवरी १८२६ को इकरारनामा ल्खिा और अंग्रेज जनरल ने १४ अप्रैल को इस समझौते की गारन्टी के साथ पुष्टि की। इकरारनाम लिख देने पर बन्ने सिंह को बलवन्त सिंह के झगड़ों से मुक्ति मिली। उसे शासन करने के पूरे अधिकार मिल गए, लेकिन अंग्रेजों से बन्ने सिंह के सम्बन्ध खराब ही रहे थे। बन्ने सिंह ने अंग्रेजों के साथ बिगड़ते हुए सम्बन्धों के कारण जयपुर महाराजा की अधिनता स्वीकार करना ही ठीक समझा। सन् १८३१ में उसने जयपुर महाराजा को काफी धन दिया और उससे खिलअल लेने का प्रयास किया। सन् १८३१ में जब अंग्रेज रेजीडेन्ट को यह पता चला तो वह बन्ने सिंह पर बहुत नाराज हुआ और उसने कहला भेजा कि उसके द्वारा जयपुर महाराजा से जो सम्बन्ध बनाए गए हैं वो अंग्रेजों से की गई संधियों के खिलाफ है। बन्ने सिंह की आन्तरिक समस्याएँ उसके शासन काल में राज्य में आन्तरिक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी थी, जिनको हल करने का उसने शपलतापूर्वक प्रयास किया। बन्ने सिंह के शासन काल में मेंवो ने बहुत उत्पात मचाया था। १८२६ में बन्ने सिंह ने मेंवो को विद्रोह में बुरी तरह कुचला। १४ अप्रैल, १८२६ को बन्ने सिंह व बलवन्त सिंह के बीच अंग्रेजी सरकार के समक्ष एक समझौता हुआ था, जिसमें बन्ने सिंह ने किशनगढ़ और कठुम्बर के परगने के बजाय तिजारा के राजा बलवन्त सिंह को १६,००० रुपया प्रतिमाह किस्त के रुप में देने का वायदा किया था, लेकिन वह उसे किश्तों का समय पर भुगतान नहीं करता था। इसलिए १६ मई, १८३३ को ब्रिटिश रेजीडेन्ट ने उस पर बकाया किश्तों का भुगतान करने के लिए दबाव डाला। लेकिन बन्ने सिंह ने उसके आदेशों पर ध्यान नहीं दिया। १५ दिसम्बर, १८३८ को गर्वनर जनरल से किस्तों के बजाय कठुम्बर और किशनगढ़ का परगना बन्ने सिंह से दिलाने की माँग की। इस पर गवर्नर जनरल बन्ने सिंह को समय पर किश्ते भुगतान करने के लिए आदेश दिया तथा परगने दिलाने से इनकार कर दिया। उसके पश्चात् उसे नियमित रुप से प्रतिमाह किश्तों का भुगतान करना पड़ा। अलवर व भरतपुर के बीच सीमा विवाद (१९ मई, १८३३) इस समय भरतपु और अलवर के बीच जीलालपुर और छुमरवाला गाँवों के प्रश्न को लेकर सीमा विवाद हुआ। १३ सितम्बर १८३३ को एक पत्र के द्वारा अंग्रेज गवर्नर जनरल के निर्णय के विरुद्ध अपना असंतोष प्रकट किया। अन्त में बन्ने सिंह को बाध्य होकर अंग्रेज गवर्नर जनरल के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा। उसने २३ सितम्बर, १८३३ को ब्रिटिश रेजीडेन्ट अजमेर के वहाँ ८ हजार रुपया जुर्माने के जमा करवा दिये। तोरावटी की समस्या - तोरावटी के भीने अंग्रेज सरकार को आदेशों का पालन नहीं करते थे और वहाँ की फसल चुराकर ले जाते थे, इसलिए अंग्रेज सरकार ने उनकी डकैतियों को समाप्त करने के लिए तथा फसल पकने तक कुछ अंग्रेज सेना को वहाँ रखने का निश्चय किया। बन्ने सिंह की लोहारु और फिरोजपुर परगने के प्रति नीति - लासवाड़ी के युद्ध (१ नवम्बर, १८०३) में बख्तावर सिंह ने अंग्रेज गवर्नर जनलर लेक को सहायता पहुँचायी थी, तो लेक ने २८ नवम्बर, १८०३ को उसको १३ परगने उपहार स्वरुप दिए थे, जिनमें से लोहारु भी एक था। उसके वकील अहमद बख्श खाँ को उत्तम सेवा के बदले फिरोजपुर का नवाब व लोहारु का नवाब बख्तावर सिंह को बनाया। अलवर राज्य की तिजारा प्रान्त के वेश्या से अहमद बख्श खाँ को दो पुत्र शम्मुद्दीन व इब्राहिम अली दो लड़के व विवाहिता पत्नी से अमीनुद्दीन व जियाउद्दीन अहमद थे। बन्ने सिंह ने उसके फिरोजपुर व लोहारु वार सनद दे दी। किन्तु १८३५ में शम्मुद्दीन के सम्मिलित होने के कारण अंग्रेजों ने उसे मृत्यु दण्ड दिया, व साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने वह अलवर के राव राजा के द्वारा दिया हुआ था तो लौटा दिया। उसके बाद शम्मुद्दीन के भाई अमीनुद्दीन ने लोहारु पर अधिकार किया। बन्ने सिंह ने लोहारु के बजाय फिरोजपुर का परगना दिलाने की माँग की। बन्ने सिंह ने दोनों सनद की प्रतियाँ भेजी। अंग्रेज गवर्नर ने दोनों प्रतियों का अवलोकन करने के बाद लोहारु के परगने का अधिकार अमीनुद्दीन को दे दिया। उच्च सरकारी पदों का वितरण - बन्ने सिंह के उत्तराधिकारी संघर्ष के कारण राज्य प्रबन्ध की ओर पूरा ध्यान नहीं दे सका था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसने कई पद पर नियुक्त लोगों को हटाया व नई नियुक्तियाँ की। नए दिवान के कार्य उसने नियुक्त किए, जैसे राज्य में फारसी भाषा का प्रचार करना व हिजरी का प्रयोग करना। अत: न्याय व्यवस्था करना ताकि जनता को पूरा न्याय मिल स तथा राज व्यवस्था में सुधार भी किया। १८३८ में किसानों को भूमि काश्त करने के लिए निश्चित समय के लिए दी जाती थी व लगान की दर भी निर्धारित की गई। १८४२ में बन्ने सिंह के समय में अलवर राज्य में पहला आधुनिक स्कूल खोला गया। १८५७ का विप्लव और बन्ने सिंह की नीति जिस समय सन् १८५७ में भारत वर्ष में अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए उनके विरुद्ध विद्रोह किया, उस समय उत्तरी भारत में अंग्रेजों की स्थिति निरन्तर बिगड़ती जा रही थी। यद्यपि उस समय बन्ने सिंह सख्त बीमार था फिर भी उसने इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेज सरकार को मदद पहुँचायी। सन् १८५७ के विद्रोह के समय बन्ने सिंह ने चिमन सिंह के नेतृत्व में ८०० पैदल सैनिक, ४०० घुड़सवार सैनिक तथा ४ तोपों को आगरा में घिरी हुई अंग्रेज सेना की सहायता के लिए अलवर से रवाना किया। ११ जुलाई, १८५७ को उछनेरा गाँव में इस अलवर राज्य की सेना पर नीमच तथा नसीराबाद के विद्रोही सैनिको ने अचानक आक्रमण कर दिया। चिमन सिंह की अंग्रेजों के प्रति स्वामी भक्ति नहीं थी और विद्रोही सेना में बहुत से ऐसे सैनिक थे जो चिम्मन लाल के सम्बन्धी थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अलवर राज्य की सेना ने इस युद्ध में अपनी पूरी बहादुरी का परिचय दिया ही नहीं। इस युद्ध में अलवर के ५५ सैनिक मारे गए, जिसमें से १० बड़े पदाधिकारी थे। बन्ने सिंह की सेना मैदान छोड़कर बाग गई। बन्ने सिंह को यह सूचना प्राप्त हुई उस समय वह मृत्यु शैय्या पर अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था, तब भी बन्ने सिंह ने यह आदेश जारी किया कि अंग्रेजों को एक लाख रुपये की सहायता अविलम्ब भेज दी जाए। जब वह बीमारी की हालत में चल रहा था तब मैदा चेला ने इस्फिन्दयार बेग के बहकावे पर मम्मान चाबुक सवार, गणेश चेला तथा बलदेव आदि तीन बेकसूर व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया और उन पर झूँठा आरोप लगा दिया गया कि महाराव राजा बन्ने सिंह को मारना चाहते थे और बन्ने सिंह के ऊपर कुछ जादू करवा दिया था। इतना ही नहीं मैदा ने मुसलमानों को कष्ट पहुँचाया, जिसकी सजा उसे अछनेरा गाँव के युद्ध में मिली और उसको बड़ी बेरहमी से मारा। मिर्जा इस्फिन्दयार बेग को भी अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ा और कुछ समय बाद उसे अलवर राज्य से बाहर निकाल दिया। बन्ने सिंह की मृत्यु - (११ जुलाई, १८५७) बन्ने सिंह को लकवे की बीमारी के कारम ११ जुलाई, १८५७ को मृत्यु हो गई। ब्रिटिश रेजीडेन्ट ने अंग्रेज गवर्नर जनरल को ३१ जुलाई, १८५७ को एक पत्र के द्वारा बन्ने सिंह की मृत्यु के बारे में सूचित किया। सम्भवत: अंग्रेजों के एक लाख रुपये की सहायता देने का उसने यह अंतिम आदेश दिया था, यद्यपि बन्ने सिंह ने अंग्रेजों की बहुत सहायता की थी फिर भी उसके अधिन गूजर बाहुल्य गाँवों में विद्रोह निरन्तर आगे बढ़ता ही गया और जिसके कारण राज्य सरकार को काफी अठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
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