राजस्थान |
अलवर क्षेत्र का प्रारम्भिक इतिहास राहुल तोन्गारिया |
पुरातत्वेत्ता कर्निगम के मतानुसार इस प्रदेश का प्राचीन नाम मत्स्य देश था। महाभारत युद्ध से कुछ समय पूर्व यहाँ राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। कालान्तर में इसी को साचेड़ी कहने लगे और बाद में वही राजगढ़ परगने में माचेड़ी के नाम से जाना जाने लगा। उस समय यौधेय, अर्जुनायन, वच्छल आदि अनेक जातियाँ इसी भू-भाग में निवास करती थीं। राजा विराट ने अपनी पिता की मृत्यु हो जाने के बाद मत्स्यपुरी से ३५ मील पश्चिम में बैराठ नामक नगर बसाकर इस प्रदेश को राजधानी बनाया। इसी विराट नगरी से लगभग ३० मील पूर्व की ओर स्थित पर्वतमालाओं के मध्य में पाण्डवों ने अज्ञातवास के समय निवास किया था। बाद में यह स्थान अलवर प्रान्त में पाण्डव पोल के नाम से जाना जाने लगा। उन्हीं दिनों राजा विराट के समीपवर्ती राजाओं में प्रसिद्ध राजा सुशर्माजीत था, जिसकी राजधानी श्रोद्धविष्ट नगर थी जो अब तिजारा परगने में सरहटा नामक एक छोटा गाँव हैं। सुशर्मण के वंशजों का यहाँ बहुत समय तक अधिकार है। यादव वंशीय तेजपाल ने सुशर्मा के वंशधरों के यहाँ आकर शरण ली और कुछ समय बाद उसने तिजारा बसाया। राजा विराट के समय कीचक को प्रदेश पर शासन था, जिनकी राजधानी मायकपुर नगर थी जो अब बान्सूर प्रान्त में मामोड़ नामक एक उजड़ा हुआ खेड़ा पड़ा है। तीसरी शताब्दी के आसपास इधर गुर्जर प्रतिहार वंशीय क्षत्रियों का अधिकार हो गया और इसी क्षेत्र में राजा बाधराज ने मत्स्यपुरी से ३ मील पश्चिम में एक नगर बसाया तथा एक गढ़ भी बनवाया। इसी वंश के राजदेव ने उक्त गढ़ का जीर्णोद्धार करवाया व उसका नाम राजगढ़ रखा। वर्तमान राजगढ़ दुर्ग के पूर्व की ओर इस पुराने राजगढ़ की बस्ती के चिन्ह अब भी दृष्टिगत होते हैं। पाँचवी शताब्दी के आसपास इस प्रदेश के पश्चिमोत्तरीय भाग पर राज ईशर चौहान के पुत्र राजा उमादत्त के छोटे भाई मोरध्वज का राज्य था जो सम्राट पृथ्वीराज से ३४ पीढ़ी पूर्व हुआ था। इसी की राजधानी मोरनगरी थी जो उस समय साबी नदी के किनारे बहुत दूर कर बसी हुई थी। इस बस्ती के प्राचीन चिन्ह नदी के कटाव पर अब भी पाए जाते हैं और अब मोरधा और मोराड़ी दो छोटे-छोटे गाँव रह गए हैं। छठी शताब्दी में इस देश के उत्तरीय भाग पर भाटी क्षत्रियों का अधिकार था। इनमें प्रसिद्ध राजा शालिवाहन ने "कोट' नामक एक नगर बसाया था और उसे अपनी राजधानी बनाया था। मुंडावर प्रान्त के सिंहाली ग्राम में उपरोक्त नगर के प्राचीन खण्डरों के चिन्ह अब भी पाए जाते हैं। इसी शालिवाहन ने इस नगर से लगभग २५ मील पश्चिम की ओर शालिवाहपुर नाम का दूसरा नगर बसाया जहाँ आजकर बहरोड़ बसा हुआ है। इन चौहानों और भाटी क्षत्रियों के अधिकारों का ऐसा दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता। जैसाकि उपरोक्त गुर्जर प्रतिहार (बड़ गुर्जर) के शासनाधिकार के समय का प्राप्त होता है। राजौरगढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि सन् ९५९ में इस प्रदेश पर गुर्जर प्रतिहार वंशीय सावर के पुत्र मथनदेव का अधिकार था जो कन्नौज के भट्टारक राजा परमेश्वर क्षितिपाल देव के द्वितीय पुत्र श्री विजयपाल देव का सामन्त था। इसकी राजधानी राजपुर (वर्तमान राजोरगढ़) भी यहाँ उस समय का एक प्राचीन नीलकंठ शिव मंदिर अब भी विद्यमान है। इसी समय जयपुर तथा अलवर राज्य के पूर्वज राजा सोढ़देव ने बड़ गुर्जरों से दौसा लिया और इनके पुत्र दुल्हेराय ने खोह आदि के मीणों को दबाकर एक छोटे से राज्य की स्थापना की तथा इनके पुत्र काकिलदेव ने अजमेर को अपनी राजधानी बनाया। उन दिनों इस प्रदेश के कुछ स्थानों पर बड़गुर्जरों, कहीं पर यादवों और कहीं निकुम्भ क्षत्रियों का अधिकार था। राजा काकिलदेव ने मेड बैराठ और इस प्रदेश के कुछ भाग को यादवों से लेकर निकुम्भ क्षत्रियों के शासन में दिया पर इनके पुत्र अलधराय ने मेड, बैराठ यादवों से लेकर इस क्षेत्र के कुछ भाग पर अधिकार करके एक दुर्ग और अलपुर नामक नगर बसाया। अलधराय के बाद उसके पुत्र सगर से निकुम्भ क्षत्रियों ने यह प्रदेश छील लिया और राजगढ़, बान्सूर, थानागाजी आदि कुछ प्रान्तों को छोड़कर इस राज्य के अधिकांश भाग में निकुम्भों का शासन रहा। अलवर के गढ़ को इन्होंने सुदृढ़ किया तथा इण्डोर (तिजारा) में एक दूसरा दुर्ग बनवाया। उन दिनों राजगढ़ प्रान्त में बड़ गुर्जर थानागाजी में मेवात के मीणों एवं बान्सूर और मण्डवरा में चौहान क्षत्रियों का आधिपत्य था। राजगढ़ प्रदेश में राजा देव कुण्ड बड़गुर्जर ने वेदती नामक बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी के वंशजों में से देवत ने देवती, राजदेव ने राजोरगढ़ और माननें माचेड़ी में अपनी-अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया । इसी वंश के राजा हरयाल ने अजमेर नरेश राजा देव को अपनी नलदेवी विवाही थी। राजा कर्णमल की पुत्री आमेर नरेश कुन्तल को विवाही गयी। कर्णमल की तीसरी पीढ़ी में बड़गुर्जर वंशीय राजा असलदेव के पुत्र महाराजा गागादेव का सुल्तान फिरोजशाह के समय में माचेड़ी में राज्य था, इनके समय के दो शिलालेख सन् १३६९ ई. में और सन् १३८२ में माचेड़ी से मिले हैं। सन् १४५८ में इस वंश के राजा रामसिंह का पुत्र राज्यपाल था, उसके पुत्र कुम्भ ने आमेर नरेश पृथ्वीसिंह से अपनी पुत्री भगवती का विवाह किया। राजा कुम्भ का द्वितीय पुत्र अशोकमल था जिसका दूसरा नाम ईश्वरमल था। सम्राट अकबर को डोला न देने तथा आमेर नरेश मानसिंह से बिगाड़ हो जाने के कारण दिल्ली और जयपुर की सेना ने इनसे देवती का राज्य छीन लिया और केवल राजोरगढ़ पर उनके पुत्र बीका का अधिकार रहा अन्त में यह भी छीन लिया गया और राजगढ़ प्रान्त से बड़ गुर्जर का शासन सदैव के लिए समाप्त हो गया। इसके बाद राजगढ़ प्रान्त जयपुर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। थानागाजी प्रान्त में अकबर सम्राट के शासन के प्रारम्भ में मेवात मीणों की राजधानी क्यारा नगर थी। यहाँ के मौकलसी नामक राजा को शाही सेना ने परास्त करके क्यारा को उजाड़ दिया और शाही सेनापति ने मौहम्मदाबाद नामक एक नगर बसाया। उन्हीं दिनों इधर नरहट का बाँदा मीणा प्रसिद्ध लुटेरा था, जिसकी धर्मपुत्री शशिबदनी मेवात के विख्यात टोडरमल मेव के पुत्र दारियाँ खाँ को विवाही गयी। आमेर नरेश मानसिंह के अनुरोध से सम्राट ने इस प्रान्त में शान्ति बनाए रखने के कारण बाँदा को ""राव'' का पद प्रदान किया। सन् १५९९ के आसपास आमेर नरेश महाराजा भगवन्तदास के द्वितीय पुत्र माधवसिंह ने भानुगढ़ नगर को अपनी राजधानी बनाया और आमेर से पृथक भानुगढ़ राज्य की स्थापना की। इसके बाद उसका पुत्र शत्रुशाल भानुगढ़ की गद्दी पर बैठा। तदुपरान्त अजबसिंह, हरिसिंह, काबुलसिंह, जसवन्तसिंह आदि क्रमानुसार यहाँ के शासक बने। सन् १७२० में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने भानुगढ़ पर चढ़ाई करके जसवन्तसिंह को पराजित कर यह प्रदेश छीन लिया। मंडावर में चौहान क्षत्रियों का अधिकार था। इनमें राव शंकर के वंशज मादे (मदनसिंह) ने सन् १७२६ में मदनपुर ग्राम बसाया, जो अब मंडावर कहलाता है। इन्हीं के वंशज हासा मंडावर की गद्दी पर बैठे और इनके छोटे भाई कान्हड़देव को बड़ौद मिला। उनके वंशज बड़ौत के राजा थे। राव हासा के पुत्र जामा ने फिरोजशाह तुगलक के समय में अपने प्राण दे दिए, पर अपना धर्म नहीं छोड़ा (विधर्मी बनना स्वीकार न किया)। इसी जामा के पुत्र चाँद को सन् १४४२ में उक्त बादशाह ने जबरन मुसलमान बनाया। चाँद के मुसलमान बन जाने पर इसके चाचा राजदेव ने मंडावर छोड़ दिया और सन् १४६४ में नीमराना को अपनी राजधानी बनाया। इन्हीं के वंशज नीमराना के राजा और ततारपुर पटेल आदि के ठाकुर थे। चाँद के वंशज अजीतसिंह कुम्भ आदि ने बान्सूर प्रान्त पर अपना अधिकार जमाया। मंडावर व नीमराने के चौहानों ने बान्सूर के प्रदेश मामोड़ और रामपुर आदि में अपनी स्थिति को मजबूत किया लेकिन शेखावत क्षत्रियों ने उन्हें जमने नहीं दिया। राव शैखा के पुत्र राव सूजा और जगमल ने सन् १५०३ के लगभग बान्सूर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। सूजा ने बसाई को अपनी राजधानी बनाया और जगमाल हाजीपुर में रहे। सन् १५३७ में सूजा का देहावसान हो गया और इसके पुत्र लूणकर्ण रायसल चाँदा और भैर्रूं बड़े प्रतापी और वीर हुए थे। शेखाटी के खेतड़ी, खण्डेला, सीकर, शाहपुरा आदि नगरों में लूणकर्ण और रायसल बसई में अब तक खण्डहर पड़ा हुआ है। खैखा के तीसरे पुत्र तेजसिंह के पुत्र मानसिंह और सकतनसिंह ने कुल के चौहान राजा को मार अपना अधिकार कर लिया। मानसिंह के पुत्र नारायणदास ने नारायणपुर बसाया। नारायणदास के पुत्र बालभद्र सिंह बड़े वीर व साहसी थे। १३वीं शताब्दी से पूर्व अजमेर के राजा बीसलदेव चौहान ने अलवर मेवात के निकुम्भों पर अपना अधिकार कर लिया और राजा महेश के वंशज मंगल को हराकर यह प्रदेश निकुम्भों से छीन कर अपने वंशज के अधिकार में दे दिया। पृथ्वीराज चौहान और मंगल ने ब्यावर के राजपूतों की लड़कियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। सन् १२०५ में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चौहानों से यह देश छीन कर पुन: निकुम्बों को दे दिया। मेवात का मुस्लिम इतिहासकारों ने सबसे पहली बार इल्तुतमिश के समय तारीख-ए-फिरोजशाही में उल्लेख किया है। उसने मेवात पर अपना अधिकार स्थापित किया था। उल्तुतमिश की मृत्यु के बाद बलवन ने मेवातियों का दमन किया, क्योंकि मेवातियों की लूटमार से वह परेशान हो गया था, उसने उनका सिर कटवा दिया और वहाँ पर सैनिक चौकियां स्थापित की ताकि मेवाती फिर कभी उपद्रव नहीं कर सकें। बलवन की दमनकारी नीति के परिणामस्वरुप १०० सालों तक मेवात में कोई विद्रोह नहीं हुआ। इसके बाद बहादुर नाहर के बारे में जानकारी मिलती है जो मुस्लिम धर्म को मानने वाला था। वह यादव वंशीय था तथा दिल्ली बादशाह के प्रमुख सामन्तों में उसकी गिनती थी। बहादुर नाहर के वंशज रायजादा के नाम से पुकारे जाते थे। फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के पश्चात् जब उसके पोते अबुबकर और उसके भाई नसीरुद्दीन के बीच राजसिंहासन के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ, तब बहादुर नाहर ने अबुबकर को सहायता दी। जिसके कारण वह नसीरुद्दीन को सिंहासन से हटाकर स्वयं गद्दी पर बैठ सके। जब नसीरुद्दीन ने राजगद्दी पर फिर अपना अधिकार कर लिया, तब अबुबकर ने बहादुर नाहर के पास जाकर कोटला में शरण ली। नसीरुद्दीन ने कोटला पर भी आक्रमण किया और अबुबकर को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन नाहर को क्षमा कर दिया। कुछ समय बाद नाहर ने दिल्ली पर आक्रमण किया, लेकिन पराजित होने के कारण कोटला छोड़कर झिरका में शरण लेनी पड़ी। नसीरुद्दीन की मृत्यु १३९४ में हुई। उसके बाद नाहर दिल्ली दरबार में फिर से शक्तिशाली सामन्त बन गया और राजसिंहासन के लिए इच्छुक दो उम्मीदवारों को तीन वर्षों तक आपस में लड़ कर स्वार्थ पूरा करता रहा। तैमूरलंग की आत्मकथा से भी नाहर व उसके बीच सम्बंधों का पता चलता है। सन् १३९८ में जब तैमूर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया तब उसने बहादुर नाहर के पास अधिनता स्वीकार करने के लिए अपना दूत भेजा। इस पर तैमूर की अधिनता स्वीकार कर ली थी। तैमूर के भारत से जाने के बाद उसके प्रतिनिधि खिज्रखाँ ने बहादुर नाहर के चारों ओर से कोटला में घेर लिया, इसलिए नाहर ने पहाड़ो में जाकर शरण ली। खिज्रखाँ ने कोटला नष्ट कर दिया। बहादुर नाहर ने पहाड़ों में रहते हुए तिजारा में दुर्ग का निर्माण करवाया। खिज्रखाँ की मृत्यु के पश्चात् सैय्यद मुबारक शाह ने मेवातियों के विद्रोह को पुन: बुरी तरह दबाया। मेवातियों ने पहाड़ों में शरण लेकर भी मुबारक शाह का तिजारा पर अधिकार करने के प्रयास को विफल कर दिया। जब बहादुरशाह के पोते जल्लु तथा कद्दुू ने दिल्ली के बादशाह को बहुत परेशान किया, तब शाही सेनाएं तिजारा पर आक्रमण करने के लिए भेजी गईं। मेवातियों ने कोटला से १० मील इन्दोर जाकर आश्रय लिया, लेकिन बादशाही सेना ने मेवातियों को पराजित किया। इन्दोर नष्ट कर दिया तथा मेवाती भाग कर अलवर की पहाड़ियों पर चढ़ गए, लेकिन शाही सेना ने उन्हें वहां से भी भगा दिया। मेवात की जनता व गाँवों को नष्ट कर दिया। सन् १४२७ में बहादुर का पोता कद्दुू युद्ध में मारा गया। जल्लू ने अलवर के दुर्ग पर आश्रिय लिया। जल्लू के द्वारा बादशाह की सेना को युद्ध का खर्जा दिया जाने पर बादशाही सेना दिल्ली वापस लौट गई। इसके बाद बहलोल लोदी ने मेवात पर आक्रमण किया। उस समय अहमद खाँ मेवात पर शासन कर रहा था। बहलोल लोदी ने उससे ७ परगने छीन लिए और अहमद खाँ को विवश होकर बादशाह की अधिनता स्वीकार करनी पड़ी। सिकन्दर लोदी ने तिजारा में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया और अलाबलखाँ खानजादे को निकुम्भों से अलवर का दुर्ग छीन लिया। अलाबलखाँ का पुत्र हसनखाँ मेवाती बहुत बड़ा देश प्रेमी व बहादुर योद्धा था। सन् २१ अप्रैल, १५२६ को पानीपत के प्रथम युद्ध में हसनखाँ मेवाती बहुत बड़ा देश प्रेमी व बहादुर यौद्धा था, लेकिन युद्ध में बाबर की विजय हो जाने के कारण उसे अपने साम्राज्य से हाथ धोना पड़ा। हसनखाँ मेवाती ने बाबर के विरुद्ध मेवाड़ के महाराणा साँगा से सन्धि की थी। बाबर ने अपने दूत मुल्ला तुर्कअली और नजफरखाँ बेग के द्वारा यह कहलाया कि मैं भी मुसलमान हूँ और तुम भी मुसलमान ही हो, इसलिए एक ही धर्म के होने से आपको मेरा साथ देना चाहिए। लेकिन इस देश भक्त ने अपने स्वदेश प्रेम के कारण बाबर के निमन्त्रण को स्वीकार नहीं किया। अन्त में १७ मार्च, १५२७ को खानवा के युद्ध में वह अपनी १०,००० सेना के साथ हुए मारा गया। हसनखाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्र नाहरखाँ को बाबर की अधिनता स्वीकार करनी पड़। तब बाबर ने उसके जीवन-यापन के लिए एक परगना देकर उसे संतुष्ट कर दिया। इसके बाद बाबर ने तिजारा व अलवर का दुर्ग अपने अधिकार में कर लिया व वहाँ पर अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए। बाबर ने स्वयं एक रात अलवर के दुर्ग में विश्राम किया और वहाँ का खजाना अपने पुत्र हुमायूँ को सौंप दिया। मेवातियों पर अपना नियंत्रण रखने के लिए हुमायूँ ने हसनखाँ की बड़ी से तथा छोटी पुत्री से उसके सेनापति बैराग खाँ ने विवाह किया। हुमायूँ ने अपने भाई हिन्दलाल को अलवर का प्रान्त जागीर में दिया। इसके पश्चात् मेवात तथा तिजारा पर निरन्तर मुगल गर्वनर शासन करते रहे और मेवातियों को परेशान करते रहे। माचेड़ी का हेमू जो बहादुर योद्धा तथा कुशल प्रशासक था, उसने पठान आदिलशाह को दिल्ली के सिंहासन पर बिठा दिया था। लेकिन दुर्भाग्यवश वह पानीपत के द्वितीय युद्ध (१५५६ ई.) में पराजित हुआ तथा एक साधारण बनिया परिवार से होते हुए भी अपनी योग्यता के कारण कुशल प्रशासक हो गया था। अकबर ने हेमू के राजकोष पर अपनी अधिकार कर लिया तथा उसके पिता को मुस्लिम धर्म ग्रहण करने के लिए आदेश दिया। उसके अस्वीकार करने पर उसे मौत के घाट उतार दिया गया और हेमू बन्दी अवस्था में अकबर के सेनापति बैरम खाँ के द्वारा मार दिया गया। अकबर ने मेवात का विभाजन दो जिलों अलवर व तिजारा के नाम से कर दिया था, जो आगरा प्रान्त के आधीन थे। अलवर जिले के नीचे ४३ महाल थे, जिनके आधीन १६१२ गाँव थे और जिससे १,४८,१०५ रुपये की वार्षिक आय प्राप्त होती थी। तिजारा में १८ महाल के आधीन २५३ गाँव थे, उसकी वार्षिक आय ८,०७,३३२ रुपये प्राप्त होती थी। सन् १५७९ में जब अकबर फतेहपुर सीकरी जा रहा था तब उस समय उसने अलवर में विश्राम किया था। औरंगजेब ने अलवर का दुर्ग आमेर नरेश सवाई जयसिंह को दे दिया था, लेकिन उफ्तेखाँ के कहने से औरंगजेब ने अलवर के दुर्ग का मानचित्र मँगवाया और दुर्ग के सामरिक महत्व को देखकर पुन: वापस ले लिया। औरंगजेब ने मिजों अब्दुल करीक को अलवर का दुर्गाध्यक्ष बना कर वहां पर शाह सेना रख दी। सन् १७५६ में दिल्ली शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर भरतपुर के महाराजा सूरजमल जाट ने अलवर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया जो लगभग १९ वर्षों तक उसके अधिकार में रहा। सूरजमल ने राजगढ़, लक्ष्मणगढ़, थानागाजी आदि कुछ प्रदेशों को छोड़कर इस राज्य के समस्त प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था। अलवर राज्य का संस्थापक प्रतापसिंह था जो आमेर नरेश महाराज उदयकर्ण के बड़े पुत्र बरसिंह की १५वीं पीढ़ी में था। अलवर के राजा कछवाहा के राजवंश की लालावत नरुका की शाखा से सम्बन्धित थे। बरसिंह के पौत्र नरु से नरुका शाखा चली और नरु के पुत्र राब लाला से लालावत नरुके कहलाए और अलवर के राजा इसी लालावत नरुका के शाखा से थे। आमेर नरेश उदयकर्ण जेणसी का ज्येष्ठ पुत्र था। अपने पिता की मृत्यु हो जाने पर वह १३६६ ई. में आमेर के राजसिंह शासन पर बैठा तथा १३८८ ई. तक शासन किया। बरसिंह आमेर के नरेश उदयकर्ण का बड़ा पुत्र होने के नाते आमेर राजगद्दी का उत्तराधिकारी था। इस समय एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण बरसिंह ने राजगद्दी का अधिकार अपने छोटे भाई नृसिंह को दे दिया और स्वंय मौजाबाद की जागीर के ८४ गाँवों को लेकर सन्तोष कर लिया। खण्डेखाँ का चौहार राजा बीसलदेव था। उसने अपनी पुत्री के विवाह करने का टीका उदयकर्ण के पुत्र बरसिंह से करने के लिए आमेर भेजा था। उस समय महाराजा उदयकर्ण ने दाड़ी और मूछों पर हाथ फेरते हुआ कहा कि हमारे तो यह बाल सफेद हो गये हैं, इसलिए तुमने बरसिंह के लिए टीका भेजा है। इस प्रकार हँसी-मजाक में बरसिंह के पिता उदयकर्ण ने स्वयं विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। पिता की यह हँसी पुत्र को अच्छी नहीं लगी और हास्य भाव सत्य मानकर बरसिंह ने खण्डेले वालों से अपने पिता की मुराद पूरी करने के लिए कहा। बरसिंह ने खण्डेले वालों से यह वायदा किया कि यदि आप इस कन्या का विवाह मेरे पिता उदयकर्ण से कर देगें तो उससे जो पुत्र उत्पन्न होगा वही आमेर राज्य का उत्तराधिकारी होगा और उसके कल्याण के लिए राज्य का अपना जन्मसिद्ध अधिकार छोड़ दूँगा। बरसिंह की प्रतिज्ञा को देखकर बीसलदेव ने अपनी पुत्री का विवाह उसके पिता उदयकर्ण से कर दिया। आगे चलकर नवविवाहिता निर्वाण रानी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम नृसिंह रखा गया। अपने किए हुए वायदे के अनुसार बरसिंह ने अपने पिता उदयकर्ण की मृत्यु के पश्चात् सन् १४८८ में नृसिंह को आमेर का उत्तराधिकारी घोषित किया। चूँकि जब उदयकर्ण की मृत्यु हुई, तब नृसिंह बड़ा हुआ। बरसिंह ने राज्य का सारा कार्यभार अपने छोटे भाई नृसिंह को सौंप दिया और मौजाबाद की जागीर में चला गया। जयपुर महाराजा नृसिंह के और अलवर नरेश बरसिंह के वंश से सम्बंधित था। बरसिंह के क्रमानुसार सात वंशज जयपुर की सेवा सहायता और बुद्धि में योग देते रहे। सारे राज्य का प्रबन्ध उनके साथ में रहा। उनकी विलक्षण दूरदर्शिता, राजनीतिज्ञता, बुद्धिमता, कर्त्तव्यपरायणता व राजनिष्ठा के द्वारा राज्य को कई प्रकार के लाभ पहुँचाता रहा। बरसिंह के पुत्र मेराज ने आमेर पर अधिकार कर लिया था, लेकिन इसका अधिकार अधिक समय तक नहीं रह सका। मेराज ने माहाण तालाब का निर्माण करवाया। मेराज के पुत्र नरु ने भी कुछ समय तक आमेर को अपने अधिकर में रखा, लेकिन आमेर के राजा चन्द्र सेन ने नरु को आमेर से मार भगाया। अत: वह निराश होकर अपनी जागीर मौजाबाद में चला गया। नरु बड़ा प्रतापी राजा था, जिससे नरुवंश का प्रार्दुभाव हुआ। नरु के वंश नरुका नाम से पुकारे जाने लगे। नरु के पाँच पुत्र थे। (१) लाला - लालावत के वंशज जो लालावत नरुका कहलाते थे, अलवर राज्य के शासक थे। (२) दासा - दासा के वंशज दासावत नरुका कहलाते थे और ये दासावत नरुका जयपुर के उनियारा, वाला व अलवर में जावली गढ़ो में निवास करते थे। (३) तेजसिंह - जिसके वंशज तेजावत नरुका कहलाये, जो जयपुर व अलवर में हादीहेड़ा में निवास करते थे। (४) जेतसिंह - इसके वंश जेतावत नरुका कहलाते थे। ये गोविन्दगढ़ तथा पीपलखेड़ा में निवास करते थे। लाला जो कि नरु का बड़ा पुत्र था। उसने अपने पिता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए आमेर पर फिर से अधिकार करने से मना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके पिता ने उसे कमजोर समझा और इसलिए उसने अपने दूसरे नम्बर के पुत्र दाखा को जो कि बहादुर एवं वीर था, मौजाबाद का स्वामी बनाया तथा लालसिंह को १२ गाँवों सहित झाक का जागीरदार बना दिया। चूँकि लालसिंह कछवाहा वंश के आमेर के राजा भारमल से कोई झगड़ा नहीं करना चाहता था, तब इसका पता भारमल को लगा तो लालसिंह से बहुत खुश हुआ और प्रसन्न होकर लालसिंह को राव का खिताब और निशान दिया। लालसिंह का बेटा उदयसिंह राजा भारमल की हरावल फौज का अफसर गिना जाता था। उदयसिंह के पुत्र लाड़सिंह जिसकी गिनती आमेर के मिर्जा राजा मानसिंह के बड़े-बड़े सरदारों में की जाती थी बादशाह अकबर ने लाड़सिंह को खान की उपाधि से विभूषित किया था। इसलिए लाड़ खाँ के नाम से पुकारा जाता था। लाड़ खाँ का पुत्र फतेहसिंह था। फतेहसिंह के चार पुत्र थे। (१) कल्याण सिंह (२) कर्ण सिंह (३) अक्षय सिंह (४) रणछोड़दासऽ कल्याण सिंह पहला व्यक्ति था, जिसने प्रथम बार अलवर के इलाके को विजित किया। कल्याण सिंह ने मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र कीर्ति सिंह के साथ कामा के विद्रोह का दमन किया। इस पर आमेर के नरेश रामसिंह ने कल्याण सिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर माचेड़ी गाँव जागीर में दे दिया। जिससे राजगढ़ माचेड़ी व आधा राजपुर यानि कुल मिलाकर ढ़ाई गाँव की जागीर रामसिंह ने कल्याण सिंह को २५ दिसम्बर १६७१ को प्रदान की। कल्याण सिंह के ६ पुत्र थे। जिनमें से पाँच जीवित रहे।
उग्रसिंह के बाद तेजसिंह गद्दी पर बैठा। तेजसिंह के दो लड़के थे। बड़ा जोखारसिंह जो माचेड़ी का पाटवी सरदार बना और दूसरा जालिमसिंह जिसको बीजावाड़ की जागीर मिली। जोरावर सिंह की मृत्यु के बाद हाथी सिंह व मुकुन्द सिंह माचेड़ी के जागीरदार बने। इसके बाद जोरावर सिंह का पुत्र मोहब्बत सिंह जो सन् १७३५ में माचेड़ी की गद्दी पर बैठा। इनके तीन रानियाँ थी। १ जून, १७४० रविवार को मौहब्बत सिंह की लानी बख्त कुँवारे ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रताप सिंह रखा गया। इसके पश्चात् सन् १७५६ में मौहब्बत सिंह बखाड़े के युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। राजगढ़ में उसकी विशाल छतरी बनी हुई है। मौहब्बत सिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र प्रतापसिंह ने २५ दिसम्बर, १७७५ ई. को अलवर राज्य की स्थापना की।
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