राजस्थान |
अलवर राज्य का व्यवसाय राहुल तोन्गारिया |
यहाँ के व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। राज्य के के २ प्रतिशत व्यक्ति व्यापार और १० प्रतिशत व्यक्ति कारीगरी का कार्य करते थे। कृषि के अलावा यहां के व्यक्ति व्यापार व वाणिज्य का कार्य भी करते थे। सामाजिक व्यवसाय इस समय यहां हिन्दू, मुसलमान एवं मेव लोगों की संख्या अधिक थी। इनमें खानजादा, मीणा, जाट, माली, अहीर, गू एवं चमार आदि उपजातियां भी थीं। मेव - मेव जाति के लोग अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। अलवर के उत्तरी पूर्वी भाग में ये अधिकांश संख्या में रहते थे। मेव शुरु से ही बहुत उद्दण्डी थे, इसलिये अलवर के महाराव राजा बख्तावरसिंह और बन्नेसिंह आदि ने मेवों का दमन किया। मेव अपने को राजपूत कहते थे, लेकिन यह कथन पूर्णतया सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि मेंवों में कई जातियां ऐसी थीं जो कि मीणों से मेल खाती थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि मेंवो में मीणों तथा राजपूतों का मिश्रण था। यद्यपि मेव मुसलमान जाति के जाने जाते थे, लेकिन त्यौहार हिन्दू रीति से ही मनाते थे. इनका पहनावा, रहन-सहन एवं विवाह भी हिन्दू पद्धति से ही होते थे। मुसलमान होते हुए भी नमाज पढ़ने में इनका बहुत कम विश्वास था। मेव लोग पहले हिन्दू थे लेकिन महमूद गजनबी ने जब भारतवर्ष पर आक्रमण किया तब उसके साथ एक मुसलमान संत हजरत सैयद सालार भारतवर्ष में आए व उन्होंने इन मेंवो को मुस्लिम धर्म ग्रहण करवा दिया। सन् १२६७ में बलवन ने एक लाख मेंवातियों को कत्ल करवा दिया था। १८०३ में मेंवो ने अंग्रेजी सेना को बहुत तंग किया था, इस पर अंग्रेज गवर्नर लार्ड लेक ने उनका दमन किया। बख्तावर सिंह, बन्नेसिंह आदि ने भी समय-समय पर उन्हें दण्ड दिया। १८५७ के विद्रोह के समय मेंवो द्वारा अंग्रेजों की खाद्य सामग्री लूटने पर उन्होंने कई मेंवो को फाँसी के तख्ते पर लटका दिया। लेकिन बाद में मेंवो ने अपना शान्तिमय जीवन व्यतीत करना शुरु किया और कृषि का कार्य अपना लिया। जाट - जाट लोग युद्धवंशी कहलाते थे। अलवर में जो जाट बने हुए थे उनके पूर्वज पंजाब की ओर से आए थे। राजपूत - अलवर के राजपूतों में मुख्यत: चौहान, नरुका, राजावत और शेखावत थे। (अ) चौहान - राजपूत अलवर के उत्तर पश्चिम में राठ प्रदेश में रहते थे और ये राजपूत अपना सम्बन्ध पृथ्वीराज चौहान से मानते थे। (ब) नरुका - नरुका राजपूत अलवर राज्य के दक्षिण में नरु खण्ड में निवास करते थे और इन राजपूतों का कहना था कि आमेर के राजा उदयकरण के पडपौत्र नरु के वंशज थे। (स) राजावाटी - ये राजपूत अलवर के दक्षिण पश्चिम में राजावटी में रहते थे। इनका मानना था कि आमेर के राजा भारमल के पुत्र भगवन्तदास के वंश से सम्बन्धित थे। (द) शेखावत - राजपूत अलवर राज्य के पश्चिमी भाग में बान्सूर तहसील में एक गाँव में रहने वाले थे। इन शेखावत राजपूतों का यह मानना था कि उनके पूर्वज आमेर के महाराजा उदयकरण के वंश से सम्बन्धित थे। खानजादा - खानजादों का कहना है कि उनके वंश का सम्बन्ध मेवात के राजपूत यादव राजा युद्ध से थे। यह खानजादा लोग मुस्लिम धर्म का पालन करते थे। अहीर - अहीर संस्कृत का शब्द अमीर से बना है, जिसका अर्थ दूध वाला होता है। अहीरों का यह कहना है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के पालन करने वाले और उनके पिता नन्द के वंशज एवं ब्रज भूमि से सम्बन्धित थे। मुगल शासक औरंगजेब के शासनकाल में रेवाड़ी के अहीर नन्दराम का ३८० गाँवों पर अधिकार था, लेकिन धीरे-धीरे १८५७ तक अंग्रेजों ने अहीरों से सारे गाँव छीन लिए। इसके बात अहीरों ने कृषि का कार्य करना आरम्भ कर दिया। गुर्जर - गुर्जर की उत्पत्ति राजपूत जाति से हुई थी। ये पहले गुर्ज से लड़ने की कला में बहुत दक्ष थे, इसलिए ये लोग गुर्जर कहलाए। गुर्जरों ने ११वीं शताब्दी में अलवर पर अपना अधिकार कर लिया। उस समय उन्होंने अपनी राजधानी राजोरगढ़ बनाई थी। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती करना तथा पशु पालन करना था। माली - बाग-बगीचों के अन्दर कार्य करने वालों को माली कहा जाता था। माली जाति के लोग पहले राजपूत थे, लेकिन जब मोहम्मदगौरी ने भारत पर अधिकार कर मुस्लिम साम्राज्य स्थापित कर लिया तब से इन लोगों ने बागवान का कार्य करना शुरु कर दिया था, इसलिए माली कहलाए। बाकी इस जाति की जो उपजातियाँ थी, वो राजपूतों की उपजातियों से मेल खाती थीं। उदाहरण के लिए राठौड़, तंवर, देवड़ा परमार, गहलोत, भाटी चौहान आदि थे। चमार - इस जाति के लोग चमड़े का काम करते थे, इसलिए ये चमार कहलाए। ये लोग गाय, बैल, भैंस आदि के मर जाने पर उनकी खाल उतारकर उसको रंगते थे और फिर उस खाल के जूते तथा चड़स आदि बनाते थे। चूंकि इस जाति के लोग अनुसूचित जाति के थे अत: इनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। इस जाति के लोगं के साथ उच्च जाति के लोग खान-पान का सम्बन्ध नहीं रखते थे। सभी जातियों को अपना-अपना धर्म मानने की छूट थी। इसी कारण यहाँ सभी धर्मों के मंदिर एवं मुसलमानों की मस्जिदें काफी मात्रा में पाई जाती हैं। किन्तु इन जातियों में ऊँच-नीच का ध्यान बराबर रखा जाता था। हरिजन एवं चमार से ब्राह्मण आदि उच्च वर्ग के लोग दूर रहते थे और उनके साथ खानपान एवं बेटी व्यवहार नहीं रखते थें। खानपान में गेहूँ, मक्का, दाल आदि का प्रयोग करते थे। कुछ जातियाँ माँस-मदिरा का भी प्रयोग करते थे। यहाँ के पुरुषों का पहनावा बहुत ही साधारण था। सभी जातियों के लोग बहुधा धोती, अंगरखा, एवं दुपट्टा पहनते थे। स्रियाँ प्राय: लहंगा, कुर्ती, कांचली, ओढ़नी पहनती थी। हाथ में लाख एवं काँच की चूड़ियों का प्रयोग करती थीं। सम्पन्न घराने की स्रियाँ चाँदी की चूड़ियाँ पहनती थीं। नाक में नथ एवं लोंग का प्रयोग भी अनेक स्रियाँ करती थीं। समाज का प्रत्येक वर्ग अपने-अपने त्यौहारों को हर्षोल्लास के साथ मनाता था। अनेक त्यौहारों में राजकीय स्तर पर महत्त्व दिया जाता था। उनमें होली, दीवाली, गणगौर, एवं ईद प्रमुख थे। इन अवसरों पर मल्लयुद्धों एवं अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन भी होते थे। मेले - समस्त राज्य में २२५ के लगभग मेले लगते थे। अलवर में गणगौर और श्रावणी तीज के प्रसिद्ध उत्सव मार्च व अगस्त में होते थे। अषाढ़ में जगन्नाथ का उत्सव साहिबजी देवता का मेला लगता था। डेहरा के आठ मील पश्चिमोत्तर में फरवरी के महीने के चूहर सिन्ध का मेला शिवरात्रि के दिन लगता था। यहाँ पर प्रतिवर्ष लगने वाले मेलों में बिलाली माता का, राजगढ़ राज्य में रथ यात्रा, शीतला देवी का, भरतहरि का, साहिबजी का मेला, अश्विनी देवी का मेला, तैत्रदेवी का मेला, नरायणी का मेला व लालदास का मेला इत्यादि प्रमुख थे। इनमें बिलाली एवं चूहड़ सिन्ध के मेले बड़ी धूमधाम से आयोजित किए जाते थे, जिनमें दूर-दूर से सभी जाति एवं धर्मों के लोग सम्मिलित होते थे।
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