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विष्णु व्यूहों का चित्रण
विष्णु के चार प्रमुख व्यूह माने जाते है--
संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा साम्ब। इनका प्रादुर्भाव गुप्तकाल में होने के प्रमाण मिलते है। उत्तर गुप्तकाल तक इनकी संख्या ४ से बढ़कर २४ हो गई।
राजस्थान में भी २४ व्यूहों का मूर्तिकला में अंकन १० वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा ११ वीं शताब्दी में प्राप्त होता है। इनके अत्यंत छोटे आकार तथा स्थान से प्रतीत होता है कि इन मूर्तियों को मंदिर की प्रतिमाओं में कभी भी प्राथमिक महत्व का स्थान नहीं मिला। नागदा के वैष्णव मंदिर (सास मंदिर) की द्वार चौखट, बघेरा (१० वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) तथा ईसवाल से प्राप्त विष्णु मूर्ति की प्रभावली पर अंकित मूर्तियाँ विष्णु के विविध- व्यूहों को प्रस्तुत करती है।
राजस्थान में विष्णु के अवतारों का चित्रण
विष्णु के मूर्त रुप को विचार में रखते हुए विष्णु के अवतारों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है---
पशु रुप का चित्रण
वैष्णव धर्म में विष्णु के पशु अवतारों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिमा विज्ञान में इनकी कथाओं की अंतिम परिणति के आधार पर लक्षणों का वर्णन किया
गया है।
मत्स्य अवतार का अंकन
राजस्थान में विष्णु का मत्स्य अवतार दर्शाने के लिए मत्स्य का पशु रुप में अंकन की एक विशिष्ट परंपरा प्राप्त होती है। यहाँ मत्स्य अपने स्वाभाविक रुप में कल्पलता पर आसीन है। इसमें विष्णु के चारों आयुध- गदा, अक्षमाला, चक्र तथा शंख का अंकन किया गया है। विष्णु की खड़ी, आयुध धारण की हुई विष्णु प्रतिमा की कल्पना की गई है। प्रतिमा के चारों ओर प्रभावली अंकित है। प्रभावली के शीर्ष- स्थान पर एक कीर्तिमुख तथा नीचे दोनों ओर आयुध पुरुष- गदादेवी तथा चक्रपुरुष वामनाकृति में अंकित है। दोनों ओर गजमुख एवं व्यास भी अंकित हैं। इस तरह की प्रतिमा आहड़ के एक वैष्णव मंदिर के ध्वंसावशेषों में प्राप्त हुई है, जो संभवतः गुहिल शासक अल्लट द्वारा बनवाये गये। आदिवराह मंदिर का भी अवशेष हो सकता है।
कूर्म अवतार का अंकन : इस अवतार का अंकन
सामान्य दो मूर्त रुपों में प्राप्त होता है--
अ. स्वाभाविक पशुरुप
ब. पशु- मानवीय रुप
उत्तर भारत की मूर्तिकला के कूर्मावतार का स्वाभाविक पशु रुप ज्यादा प्रचलित है। इसका रुपांकन समुद्र मंथन की पौराणिक कथाओं के आधार पर करने का प्रचलन है, जो रुचिकर है। राजस्थान में इसका सर्वाधिक प्राचीन अंकन चितौड़गढ़ के कालिका माता मंदिर (४ थी शताब्दी) से प्राप्त होता है। इस मूर्ति में समुद्र की कल्पना घट के रुप में की गई है, जो कच्छप (कूर्म) के पृष्ठ (पीठ) पर रखा है। घट से निकलते हुए दण्ड के शीर्ष पर लक्ष्मी विराजमान है। इस दण्ड के दोनों ओर सुर और असुरों की मूर्तियाँ शेषरुपी रज्जु से मंथन करते हुए उत्कीर्ण किये हैं। अर्धचित्रों में विष्णु की कथा की आवश्यकता के अनुसार कभी कच्छप रुप में, तो कभी मध्य में घट से निकले हुए दण्ड पकड़े हुए। इस प्रकार का कथात्मक अंकन १० वीं तथा ११ वीं शताब्दी की मूर्तिकला में पाया जाता है।
वराह अवतार का अंकन
वराह पूजा का प्रादुर्भाव पूर्व- वैदिक युग से खोजा जा सकता है। इसके मिथक ने ८ वीं तथा १० वीं शताब्दी में नवीन प्रेरणा प्राप्त की। इस अवतार का भी मूर्तिकरण दो रुपों में प्राप्त होता है--
१. पशु रुप
२. पशु- मानवीय रुप।
वराह का पशु रुप में चित्रण उत्तर भारत में बहुलता से मिलता है। पशु- रुप में वराह वैदिक यज्ञ का भी प्रतीक है। वराह की दंष्ट्रायें यज्ञ के भूपस्तम्भ, चार पैर, चारों वेद, जिह्मवा, यज्ञाग्नि तथा शरीर के राम कुशघास हैं। वराह के पार्श्व में खड़ी हुई भूदेवी का चित्रण वराह के उद्धारक रुप को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है।
राजस्थान में पशु रुप में बराह का उत्कीर्णन १० वीं शताब्दी में अधिक लोकप्रिय थी। इसका उत्कीर्णन चंद्रभागा के मंदिरों के ध्वसावशेषों से प्राप्त होता है। इस प्रतिमा में चार भुजाओं वाली शेष नाग की मूर्ति का वराह के सम्मुख लेटे हुए रुप में अंकन किया गया है। दंष्ट्रा से लटकी हुई भू- देवी तथा नीलवर्ण शरीर वाले वराह की प्रतिमा का अंकन विष्णु पुराण के वर्णन के अनुसार किया गया है।
नागदा से प्राप्त वराह- प्रतिमा के चरणों के नीचे शंख तथा चक्र एवं पैरों के बीच में गदा का अंकन किया गया है। भू देवी को बांये पार्श्व में अंकित किया गया है। कुछ मूर्तियों में शेष नाग की मूर्ति का अंकन चरणों के बीच लेटे हुए किया गया है। १२ वीं शताब्दी की अर्थूणा की वराह प्रतिमा इस रुप के अंकन की परंपरा की निरंतरता का प्रमाण देती है। इस प्रतिमा में अंकन शैली की दृष्टि से ह्रास के लक्षण स्पष्ट रुप से दृष्टिगत होते हैं।
पशु-मानवीय अवतार
रुप
वराह के पशु-
मानवीय अवतारों के चित्रण में पशुता का अंकन शीर्ष में तथा शेष शरीर का अंकन
मानवीय रुप में रहता है।
वराह का पशु- मानवीय अंकन
इन प्रतिमाओं में मूर्तियों का सिर वराह का तथा
शरीर का शेष भाग आयुध धारण किये गये
मानवीय रुप में बनाया जाता है। एक चरण शेषनाग के कुण्डली कृत
शरीर पर रखे हुए चित्रित किया जाता है। शेष नाग का अंकन यहाँ पाताल आदि
अधःलोकों के प्रतीक रुप में होता है, जहाँ
से वराह ने भूदेवी का उद्धार किया था। शेष- नाग का चित्रण
भी पशु- मानवीय रुप में देवोपासना-
मुद्रा में किया जाता है। भू देवी वराह द्वारा एक हाथ
से ऊपर उठाते हुए या अपने वामस्कंध पर धारण की हुई प्रदर्शित की जाती है। अपवादस्वरुप कुछ प्राचीन प्रतिमाओं को छोड़कर वराह- प्रतिमाएँ, प्रातः चतुर्भुजी, दांये हाथ
से शेष नाग की पूंछ पकड़े हुई अंकित की जाती है। पीछे के दोनों हाथों
में विष्णु के आयुध दिखाई पड़ते हैं।
राजस्थान में वराह की एक विशेष उल्लेखनीय प्रतिमा झालावाड़ संग्रहालय की
मूर्ति हैं, जो वराह के शरीर की विरोधी दिशाओं की गति
में संतुलन स्थापित करने का कलात्मक प्रयास है। इस प्रतिमा
में भू देवी भी इस महापरिवर्त्तन की
उथल- पुथल में संतुलन रखती हुई, अंकित की गई है।
नृसिंह अवतार का चित्रण
संभवतः मिथक में नाटकीयता के अभाव के कारण नृसिंह की प्रतिमाएँ
अन्य अवतारों की अपेक्षा कम संख्या में पाई जाती है। इन
मूर्तियों में शीर्ष सिंह का होता है तथा शेष
शरीर मानवीय होता है। पुराण नृसिंह की दो तरह की प्रतिमाओं पर विशेष बल देते हैं। पहला, चतुर्भुज नृसिंह, जिसकी दो
भुजाएँ असुर को विदिर्ण करती है तथा पीछे की दो
भुजाएँ विष्णु के आयुध- गदा एवं चक्र
लिये हुए रहती है। वे आलीढ़ मुद्रा
में खड़े हुए, सभी आभूषणों से अलंकृत, फहराती हुई जटाओं
वाले, अपने तीक्ष्ण नखों से असुर का उदर विदीर्ण करते हुए अंकित किये जाते हैं। इस प्रकार की प्रतिमाएँ
उत्तर भारत में ज्यादा प्रचलित रही हैं। दूसरे प्रकार के अंकन हैं-- संघर्षरत अवतार एवं असुर का अंकन। इस प्रकार के चित्रण
में असुर खड़गा एवं खेटक हाथ में लिए नृसिंह
से युद्ध करते हुए चित्रित किया जाता है।
विष्णु के नृसिंह अवतार का चित्रण राजस्थान
में १० वीं शताब्दी की मूर्तियों में प्राप्त होता है। झालरापाटन के वैष्णव
मंदिर (१० वीं शताब्दी) में इस प्रकार की प्रतिमा गर्भगृह की
बाह्य दक्षिणी ताख में प्रतिष्ठित है। यहाँ हिरण्यकशिपु नृसिंह के
साथ मल्लयुद्ध करता हुआ अंकित है, नृसिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़
लिए हैं। उनके पैर परस्पर गुंथे हुए हैं। इसी प्रकार की दो
अन्य प्रतिमाएँ पड़ानगर (अलवर) के ध्वंसावशेषों
से भी प्राप्त होती है। यहाँ नृसिंह की आकृति
अनेक, प्रमुख भुजाओं एवं आयुधों से अलंकृत है तथा दो
अन्य प्रमुख भुजाएँ युद्धरत हैं। नागदा के
सास मंदिर में भी नृसिंह मिथक की इस विधा का अंकन दो स्थानों
से प्राप्त होता है। एक गूढ़ मंडप के स्तंभ पर
उत्कीर्ण है तथा दूसरा गर्भगृह के द्वार की चौखट पर।
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विष्णु के
मानव अवतार
विष्णु के मानव के रुप में कई अवतारों के प्रतिमा- निर्माण तथा पूजन का प्रचलन रहा है।
उनमें से महत्वपूर्ण अवतारों के प्रतिमा- विज्ञान का उल्लेख किया जा रहा है।
वामन त्रिविक्रम अवतार
विष्णु के मानव अवतारों में मूर्तिकला के दृष्टिकोण
से यह रुप सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस कथा का दो अलग- अलग
भागों में मूर्तिकरण किया जाता है--
१. वामन रुप
२. त्रिविक्रम रुप
मूर्तिकला में वामन की
मूर्तियाँ त्रिविक्रम की तुलना में अत्यन्त
विरल है। प्रतिमा विज्ञान के अनुसार इन
मूर्तियों में विष्णु की दिव्यता की अपेक्षा अवतार- मिथक की प्रभावपूर्ण प्रस्तुति पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।
अतः मूर्तिकारों को वामन रुप अधिक कल्पना प्रवण नहीं
लगा। इन मूर्तियों को सामान्यतः विष्णु के आयुधों
से युक्त चतुर्भुज या ब्रह्मचारी वेश
में कमण्डलु, छत्र एवं दण्ड लिये अंकित किया गया है।
वामन रुप का मूर्तीकरण प्रायः विष्णु- प्रतिमा की प्रभावली
अथवा प्रवेश- द्वार की चौखट, स्तंभ या सिरदल पर दशावतार
फलक से प्राप्त होता है। बाडोली (कोटा) के एक
मंदिर में प्रस्थापित वामन की स्थानक
मुद्रा में विष्णु की प्रतिमा के समान ही
उत्कीर्ण की गई है। कुछ मूर्तियों में छत्र एवं
अक्षमाला लिए वामनाकार ब्रह्मचारी का अंकन किया जाता है। ऐसी ही एक
मूर्ति राजस्थान राजकीय संग्रहालय जयपुर तथा राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली
में उपलब्ध हैं।
त्रिविक्रम मूर्तियों में सामान्यतः वामन- मिथक की
संपूर्ण कथा को प्रस्तुत करने का प्रयास रहता है। इन
अर्धचित्रों में वामन एवं त्रिविक्रम दोनों
रुपों के साथ बाली उसकी पत्नी नमुचि तथा गरुड़ का अंकन किया जाता है। यहाँ
वामन सदैव दो भुजाओं वाला, छत्र एवं दण्ड
लिए हुए ब्रह्मचारी तथा संकल्प जल हाथ पर
लिए हुए बाली अपनी पत्नी सहित दान देने को प्रस्तुत किया जाता है। त्रिविक्रम के
मू रुपांकन में विष्णु के सर्वदेवमय
रुप की संकल्पना की जाती है।
ओसियां के प्रत्येक वैष्णव मंदिर में एक त्रिविक्रम
मूर्ति का अंकन किया गया है। ये प्रतिमाएँ चतुर्भुज, दक्षिण चरण पर खड़े,
वाम चरण से ब्रम्हाण्ड नापते हुए, सिर के
समानान्तर चरण उठाये तथा हँसते हुए
मुख में चरण डालते हुए दिखाया गया है।
परशुराम अवतार
परशुराम कथा का अंकन राजस्थान में ही नहीं,
बल्कि भारत के अन्य भागों में भी अत्यंत
विरल है। इस प्रतिमा में परशुराम को परशु
लिए दिखाया जाता है। कभी- कभी विष्णु के अस्युधों सहित चतुर्भुज
रुप भी देखा गया है।
दशरथि राम अवतार
राजस्थान के मंदिरों में राम का चित्रण
सामान्य पुरुष रुप में, ब्रह्मचारी वेश
में, जयमुकुट धारण किये, हाथ में धनुष, पीठ पर तरकस
बांधे, प्रत्यालीढ़ मुद्रा में किया गया है तथा अवतार के दिव्य
रुप की उपेक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त कई
अर्धचित्र रामायण के अंकित किये गये है, जिनकी घटनाएँ वहाँ
लोकप्रिय वाल्मिकी रामायण से अधिक प्रेरित
लगती है। इसमें प्रायः राम वनवास
से लंका विजय तक की घटनाओं का चित्रण किया जाता है। कथा की नाटकीयता को अधिक महत्व देने के
लिए महत्वपूर्ण घटनाओं का ही चित्रण किया गया है।
नागदा के सास मंदिर में मुख चतुष्की तथा गूढ़मंडप
में छज्जों पर अंदर की ओर, गूढ़मंडप के अष्टकोणीय स्तंभों पर तथा
समतल छतों पर रामकथा का चित्रण किया गया है। छज्जे के
लंबे पत्थर पर यह कथा क्रमबद्धता के
अनुसार बांये से दांये दो समानांतर पट्टियों
में चित्रित है। एक घटना को दूसरी घटना
से अलग करने के लिए स्तंभ, सरिता,
वृक्ष, अट्टालिका आदि अभिप्रायों का प्रयोग किया गया है।
किराडू के मंदिरों में नरथर वेदीबंध की गढ़नों
में तथा अंतरप पर रामकथा को चित्रित किया गया है।
रामकथा का चित्रण नागौर तथा गोठ-
मांगलोद के मंदिरों में भी देखा गया है। नागौर जिले
में केकीन्द के नीलकंठेश्वर महादेव
मंदिर के सभामंडप के आठ स्तंभ शीर्षों तथा
समतल छतों के सिरदल की लंबी पट्टिकाओं पर
रामायण के दृश्य अंकित हैं। गोठ- मांगलोद के दधिमात
माता के मंदिर पर जंघा तथा शिखर के
बीच में अंतर प पर क्रमबद्ध रुप
से राम के वनवास से लंकाविजय तक की
संपूर्ण कथा १५ लंबी पट्टिकाओं पर
उत्कीर्ण है।
बलराम अवतार
वृष्णि कुल के पंच महावीरों में एक होने के कारण संकर्षण
या बलराम का अविर्भाव बहुत पहले हो चुका था,
लेकिन इनकी पृथक मूर्ति स्वतंत्र पूजा के
उद्देश्य से नहीं बनाई गई। मूर्तिकला
में प्रायः कृष्ण के जीवन- चरित के चित्रण के
संदर्भ में ही बलराम का अंकन हुआ है, जिनका उल्लेख हमें
बाद में मिलता है। वैष्णव मंदिरों
में बलराम और रेवती की प्रतिमा
मंडोवर तथा अधिष्ठान पर उत्कीर्ण की जाती थी।
मथुरा में मिली द्वितीय शताब्दी की
सर्वाधिक प्राचीन बलराम की मूर्ति
सपं- फणों के छत्र से युक्त, दो भुजाओं
में हल एवं मुसल धारण किये हुए तथा कुण्डल पहने हुए अंकित हैं। कई
बार बलराम के व्यक्तित्व का आसवपायी
स्वरुप उनके हाथ में मदिरा- चषक के प्रतीक द्वारा
व्यक्त किया जाता है। इस प्रकार के उदाहरण ओसिया के
सूर्य मंदिर तथा वैष्णव मंदिर (८वीं
शताब्दी) के अधिष्ठान की बाह्य ताख में
भी आसवपायी पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत करते हुए
रेवती के साथ बलराम का अंकन प्राप्त होता है।
बलराम के आसवपायी स्वरुप की ७वीं तथा ८वीं
शताब्दी में उपासना की जाती थी।
कृष्ण अवतार
राजस्थान में कृष्ण की सर्वाधिक प्राचीन
अर्द्धचित्र कृष्ण जन्म की कथा को प्रस्तुत करता है, जिसमें
वसुदेव शिशु कृष्ण को सूप में रखकर नदी पार कराते हुए अंकित है। गुप्तकाल तक कृष्ण के
शैशव, बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था की घटनाओं का क्रम निर्धारित हो गया था।
ये घटनाएँ लंबे फलकों पर अंकित की जाने
लगी थी। प्रारंभिक प्रस्तुतीकरण मंडोर जोधपुर के चौथी
शताब्दी की एक गुप्तकालीन वैष्णव मंदिर के तोरण- स्तंभों पर प्राप्त होता है।
बीकानेर क्षेत्र से प्राप्त टेराकोटा की
मूर्तियों में गोवर्धन धारण तथा दानलीला के दृश्यों
में लोक कला के तत्व अधिक मुखरित हुए हैं।
राजस्थान की उत्तर गुप्तकालीन मूर्तिकला
में कृष्ण के शैशव से किशोरावस्था के दृश्य
मंदिर के गर्भगृह की बाह्य भित्ति पर अंकित किये गये हैं। इनका प्रस्तुतीकरण ओसियां, आहड़, अटरु, केकीन्द, आबानेरी आदि
मंदिरों के मंडोवर या जंघा पर ही प्राप्त होता है। एक
समय कृष्ण कथा का उत्कीर्णन यहाँ के
मंदिरों की अलंकरण योजना का एक अंग
बन गया था, परंतु विष्णु के कुछ अन्य अवतारों
यथा वराह, वामन, त्रिविक्रम, नृसिंह आदि की प्रतिमाओं की तरह आकार व स्थान
में उतना महत्व नहीं रखती थी।
ओसियां के मंदिर में उत्कीर्ण कृष्ण लीला के दृश्य
भागवत पुराण के कालक्रम तथा अन्य
सूक्ष्म विवरणों के अनुसार बालचरित
शैशव से युवावस्था तक यथार्थ रुप
में लंबी पट्टिका पर प्रस्तुत किये गये हैं।
ये प्रवेश द्वार के एक ओर से प्रारंभ होकर
लंबी पट्टिका के रुप में जाती हुई
दूसरी ओर समाप्त होती हैं। आकृति
में छोटे होने पर इस कथा चित्रण की परंपरा की ६
वीं शताब्दी से ९ वीं शताब्दी तक की क्रमबद्धता को दर्शाती है।
कृष्ण के शिशु रुप में केवल मेखला और नूपुर पहने अंकित किया गया है।
शैशवावस्था के अंकन शकट भंग तथा पूतना
बध जैसी घटनाएँ दिखाने के लिए की गई है। उसी प्रकार
बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था से
संबंधित घटनाओं का प्रस्तुतीकरण भी उम्र के
अनुसार घटित घटनाओं के अनुसार ही किया गया है। जैसे
बाल्यावस्था के साथ यमलार्जुन उद्धार,
वत्सासुर- वध, धेनुक, केशी तथा अन्य असुरों का संहार, कालियदमन, गोवर्धनधारण आदि प्रमुखता
से दर्शाता गया है। मल्लयुद्ध के दृश्य
में कृष्ण युवक के रुप में आभूषण तथा आयुधरहित अंकित किया गया है।
बुद्ध अवतार
विष्णु के अवतारों में बुद्ध की गणना संभवतः गुप्तकाल के
बाद प्रारंभ हुई। राजस्थान में यह प्रचलन ८वीं
शताब्दी प्रारंभ हो गया था। वैष्णव
मंदिरों में अन्य अवतारों के समान
बुद्ध का मूर्त प्रस्तुतीकरण विरल है। इनका प्रस्तुतीकारण
भी विष्णु तथा उनके अन्य अवतारों से
भिन्न है।
दशावतार फलकों के अतिरिक्त अन्य बुद्ध की मूर्तियाँ वैष्णव मंदिरों के अधिष्ठान या मंडोवर पर अन्य विष्णु- अवतारों के साथ पृथक रुप से उत्कीर्ण की गई है। ओसियां के हरिहर मंदिर संख्या ५ में अधिष्ठान पर आसनस्थ बुद्ध की प्रतिमा उत्कीर्ण है। एक अन्य बुद्ध प्रतिमा नृसिंह, विष्णु आदि अन्य देव प्रतिमाओं के साथ पड़ानगर (अलवर) के १० वीं सदी के वैष्णव मंदिर के ध्वंसावशेषों से प्राप्त होते हैं।
कल्कि अवतार
विष्णु के भावी अवतार माने जाने वाले कल्कि का मूर्त प्रस्तुतीकरण सीमित है। इसे प्रायः दशावतार फलकों में घोड़े पर बैठी हुई उत्कीर्ण की जाती है।
अन्य विष्णु
मूर्तियों का अंकन
शेषशायी मूर्तियों का अंकन
विष्णु की अन्य मूर्तियों में शेषशायी
मूर्तियाँ ९ वीं- १० वीं शताब्दी में राजस्थान
में अत्यधिक लोकप्रिय थी। गुप्तकालीन मंदिरों
में इन मूर्तियों का स्थान अन्य अवतारों की
भाँति पार्श्वदेवता का अर्थात मंडोवर पर
बाह्य भित्ति की ताखों में ही था, प्रमुख देव के
रुप में नहीं। समयांतर में इसने प्रमुख पूजा- प्रतीक का स्थान
ले लिया। मंदिर के गर्भगृह में प्रमुख देव के
रुप में इसको प्रतिष्ठित किया जाने लगा। इस
रुप में विष्णु सदैव शेष नाग के शरीर पर
अर्धपर्यकासन मुद्रा में अंकित किये जाते हैं।
राजस्थान में, बाड़ोली (कोटा) के एक छोटे
से मंदिर में शेषशायी की प्रतिमा गर्भगृह
में स्थापित थी, १० वीं शताब्दी में इसकी
लोकप्रियता के पराकाष्ठा को इंगित करती है। इसके अलावा ओसियां तथा
बारां से भी इस तरह की प्रतिमाएँ
मिली है, जो संभवतः उस समय के विष्णु
मंदिरों में स्थापित की गई होगी।
दक्षिण भारतीय शेषशायी प्रतिमाओं का प्रभाव
राजस्थान की ९ वीं शताब्दी के उर्त्तरार्द्ध तथा १०
वीं शताब्दी की मूर्तियों में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
बाड़ोली तथा बारां से प्राप्त शेषशायी
मूर्तियाँ वैखानसागम की वीर- शयनमूर्ति के
अनुसार उत्कीर्ण की गई प्रतीत होती है, जो अलंकृत एवं जटिल प्रतिमा का
लक्षण निर्देश देते हैं। इनमें चक्र प्रयोग-
मुद्रा में धारण किया गया है तथा ऊपरी
लंबी पट्टिका में असुर एवं देवों की आकृतियाँ अंकित है।
वायु, इंद्र तथा शिव अपने वाहनों पर
बैठे हुए अंकित किये गये हैं। ॠषि, नाग आदि का अंकन निचले
भाग में किया गया है।
वैकुण्ठ
मूर्तियों का अंकन
वैकुण्ठ मूर्तियाँ विष्णु के अवतारों का
संयुक्त रुप प्रस्तुत करती है, जिन पर त्रिमूर्ति की अंकन परंपरा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इन
मूर्तियों में वराह, पुरुष तथा सिंह की तीन
मुख वाली प्रतिमा उत्कीर्ण की जाती है। कुछ पुराणों
में तीन के स्थान पर चार मुखों का निर्देश दिया गया है,
लेकिन चौथे मुख का अंकन प्रायः नहीं किया जाता है, क्योंकि
ये प्रतिमाएँ अर्धचित्र हैं।
पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार इस प्रकार की
मूर्तियों का अंकन ६वीं शताब्दी से की जाने
लगी थी। राजस्थान में बैकुण्ठ मूर्तियाँ पर्याप्त
संख्या में प्राप्त होती है। इनमें तीन
मुख युक्त विष्णु गरुड़ या पद्मासन पर
बैठे हुए या खड़े उत्कीर्ण किये जाते हैं। चंद्रभागा
से प्राप्त एक बैकुण्ठ मूर्ति गरुड़ पर बैठी हुई आठों हाथों
में आयुध धारण किये हुए अंकित है।
विश्वरुप मूर्तियों का अंकन
विष्णु अवतारों की त्रिमूर्ति में समन्वित अवधारणा के अंतर्गत ही
विश्वरुप की संकल्पना की गई। इन मूर्ति
में अवतारों के मुखों के स्थान पर मानव-
मुखों को उत्कीर्ण किया गया।
राजस्थान में विश्वरुप मूर्ति गंगोबी कोटा
से प्राप्त होती है, जो आंशिक रुप से
भंगित है। इसी प्रकार की मूर्ति भरतपुर संग्रहालय
में भी उपलब्ध है, जो स्थानक मुद्रा में है। जिसमें आसन के नीचे
सपं- फण पकड़े हुए गरुड़ अंकित है।
योगनारायण मूर्ति का अंकन
इस प्रकार की मूर्तियों में विष्णु को
योगमुद्रा में दिखाया जाता रहा है।
वैखानसागम के अनुसार ये मूर्तियाँ विभिन्न आभूषणों
से अलंकृत, मुकुट रहित, श्वेत पद्मासन पर पर्यकबंध स्थित होनी चाहिए।
मूर्तियों की चारों भुजाएँ आयुध रहित होनी चाहिए। जबकि सिद्धांत संहिता जैसे ग्रंथ
भुजाओं को आयुध- युक्त रखने का निर्देश देते है।
ग्रंथों के निर्देशानुसार राजस्थान में दोनों तरह की
योगनारायण मूर्तियों का अंकन मिलता है, जो ८
वीं से १० वीं शताब्दी की राजस्थानी मूर्तिकला
में योगीश्वर विष्णु की अंकन परंपरा की निरंतरता की परिचायक है।
आयुध रहित योगनारायण मूर्तियाँ ओसियां के ८
वीं सदी की वैष्णव मंदिर संख्या ३ (हरिहर
मंदिर), ९ वीं सदी की आबामेरी के मंदिर तथा १०
वीं सदी के डीडवाना (मारवाड़) के मंदिरों
से प्राप्त होते है।
आयुध युक्त योगनारायण मूर्ति १० वीं
सदी की चंद्रावती सिरोही के मंदिर
से प्राप्त हुई है। यहाँ विष्णु चतुर्भुज, नासाग्र दृष्टि तथा
स्वाभाविक भुजाओं की योगमुद्रा में अंकित हैं।
विष्णु के आयुध पुरुष का अंकन
इस प्रकार की मूर्तियों में विष्णु के विभिन्न आयुधों का
मानवीय रुप में अंकन की परंपरा थी, जो गुप्तकाल
में ही अस्तित्व में आ गई तथा इसका प्रभाव
उत्तर- गुप्तकालीन मूर्तियों में भी देखा जाता है।
ये मूर्तियाँ चक्र पुरुष, शंख पुरुष, गदादेवी आदि के
रुप में विष्णु की मूर्ति की चौकी पर उनके जंघा तक
लंबाई के अनुपात में अंकित की जाती थी। आयुधों का
रुप उनके व्याकरणीय लिंग से निर्धारित होता था। गदा स्री -
अनुचरों के रुप में जबकि चक्र तथा पद्म
पुरुष रुप में प्रस्तुत किये जाते थे।
साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार विष्णु के आयुधों का
मानवीयकरण सर्वप्रथम मास के नाटकों
से प्राप्त होता है, जिसमें कालांतर
में कई बदलाब आये। ९ वीं - १० वीं शताब्दी की आयुध पुरुषों में सिर पर मूल आयुध को अंकित करने के स्थान पर अब आयुध पुरुष अपने आयुध हाथ
में लिए हुए अंकित किये जाते थे।
रंगमहल बीकानेर से प्राप्त प्रारंभिक गुप्तकाल की एक चक्रपुरुष की
मूर्ति में चक्र- पुरुष वामन आकार में सिर के पीछे चक्र अंकित करते हुए दिखाया गया है।
ये मूर्तियाँ त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हुई, एक हाथ
में मूल आयुध पकड़े हुए तथा दूसरा कट्यवलम्बित
मुद्रा में उत्कीर्ण की जाती हैं। बैठी हुई
मूर्तियों में वे अपने स्वामी के आसन के नीचे
ललितासन में बैठी हुई उत्कीर्ण की जाती है। १०
वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा ११ वीं शताब्दी
में आयुध- पुरुष हाथ में आयुध लिये तथा
मस्तक पर भी वही आयुध धारण किये हुए
उत्कीर्ण किये गये है। उदाहरण के लिए
मुसावर से प्राप्त चक्र- पुरुष के अंकन
में एक चक्र हाथ में तथा दूसरा सिर पर अंकित
मिलता है।
आयुध- पुरुषों के अंकन की एक अन्य विधा
भी प्रचलित थी , जिसमें मुख्य प्रतिमा आयुधों के सिर पर हाथ
रखे हुए अंकित की जाती थी। शिव के आयुध
भी इस प्रकार उत्कीर्ण किये जाते थे, परंतु इसका प्रचलन वैष्णव
मूर्तियों में अधिक था।
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