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सभ्यता के प्रारंभ से ही मातृदेवी के रुप की मूर्त संकल्पना मानवीय तथा प्रतीकात्मक दोनों रुपों में होती रही है। पुरातात्विक एवं पुरालेखीय प्रमाणों के आधार पर राजस्थान में शक्ति- पूजा का प्रचलन ईस्वी शताब्दी के प्रारंभ से माना जा सकता है। देवी के अंकन का प्रारंभिक पुरातात्विक उदाहरण नगर (ककोर्टनगर, टौंक) से प्राप्त एक पकाई हुई मिट्टी का ठीकरा है, जो प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व से प्रथम शताब्दी ईसवी के मध्य का माना जाता है। इस अर्धचित्र में देवी महिषासुर को अपने जंघा पर रखकर वध करती हुई अंकित है। पुनः इसी कथा- वस्तु का मूर्त रुपांकन कालीबंगा गंगानगर, ७वीं शताब्दी के चंद्रभागा, ८वीं- ९वीं शताब्दी के ओसियां, ९ वीं शताब्दी के बाडोली, १० वीं शताब्दी के जगत, १२३७ वि.सं. के रेवाड़ा तथा कुंभकालीन विजयस्तंभ के देवी खण्ड की शक्ति प्रतिमाओं से प्राप्त होता है। ये मूर्त रुपांकन राजस्थान में शक्ति- पूजा के प्रचलन तथा प्रथम शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक की निरंतरता को प्रमाणित करता है। कई मूर्तियाँ शक्ति पूजा में तांत्रिक प्रभाव को भी इंगित करती हैं।
उत्तर गुप्तकाल के समय तक शक्ति की पूजा विविध रुपों में होने लगी थी ---
१. देवी का भयानक रुप, जिसके अंतर्गत महिषमर्दिनी, चामुण्डा तथा सप्तमातृकाओं के विभिन्न रुपों का उत्कीर्णन किया जाता था।
२. देवी का शांत रुप, जिसमें क्षेमंकरी, सरस्वती, लक्ष्मी, गज- लक्ष्मी, श्रृंगार दुर्गा तथा तपस्यारत पार्वती आदि रुपों में शक्ति की उपासना होती
थी।
३. देवी का अभयदान रुप, जिसमें महिषमर्दिनी, सरस्वती और लक्ष्मी के रुप में देवी क्रमशः कल्याण, ज्ञान तथा धन का दान करने वाली थी। इस रुप की पूजा हिंदूओं के अलावा बौद्धों तथा जैनियों द्वारा भी की जाती थी।
अधिकांश मिथकों का चित्रण देवी महात्म्य एवं देवी भागवत में उल्लेखित रुपांकनों के आधार पर किया गया है।
महिष मर्दिनी स्वरुप का रुपांकन
पूजा तथा मूर्तिकला के दृष्टिकोण से शक्ति का महिषमर्दिनी अवतार सर्वाधिक लोकप्रिय रहा है। यह सभी देवताओं को उग्रता तथा क्रोध का संयुक्त साकार रुप माना जाता है, जिसका निर्माण देवताओं के क्रोध से निकली ज्वालाओं के प्रकाश से हुआ। सभी देवों ने इस संयुक्त शक्ति को अपने - अपने आयुध, शक्तियाँ, आभूषण, रत्नाभरण एवं वाहन प्रदान किये। इस प्रकार इन सभी
आयुधों को धारण करते हुए, आक्रामक मुद्रा में त्रिशुल से वार करते हुए, वाम हस्त से असुर की पूंछ पकड़े अंकित किया जाता है। कभी- कभी साथ में तोते का भी चित्रण होता है, जो स्रोतों में वर्णित लीला शुकप्रिया स्वरुप का द्योतक है।
महिषमर्दिनी मिथक को मूर्तिकला में विविध रुपों में उत्कीर्ण किया गया
है---
१. महिष रुप में असुर का अंकन
२. महिष की कटी गर्दन से मानव रुप में निकलता हुआ असुर तथा
३. मानव रुप में असुर का अंकन
महिष रुप
में असुर का अंकन
महिषमर्दिनी मिथक का यह अंश मूर्त
रुपांकन परंपरा में सर्वाधिक प्राचीन है तथा १२
वीं शताब्दी तक निरंतर उत्कीर्ण होता आया है। देवी माहात्मय के
अनुसार ---- एवमुक्त्वा समुत्पत्य सा आरुढ़ा तं महांसुरं पादेनक्राम्य कण्ठे च
शूलेनैनमताडयत्।
इस प्रकार की मूर्ति में असुर का अंकन पूर्णतः महिष के
रुप में किया जाता है। देवी उसकी पूंछ
या मुख को कुचलती हुई, उत्कीर्ण की जाती है। कभी- कभी देवी का एक पैर महिष के ऊपर
रखते हुए खड़ी अवस्था में दिखाया जाता है। महिष का
रुपांकन थोड़ा- बहुत अंतर के साथ देखा जा
सकता है।
--कुछ मूर्तियों में महिष को देवी की चरणों
से कुचला हुआ अंकित किया गया है। उसकी आँखें तथा जीभ पीड़ा एवं
मृत्यु के भय से बाहर निकली हुई होती है। सिंह को महिष पर पीछे
से आक्रमण करता हुआ दिखाया गया है। इस प्रकार की
मूर्तियाँ राजस्थान में नगर, बघेरा,
रेवाड़ा तथा जगत से प्राप्त होती है।
--महिष का दूसरा रुप, जो बाडोली के
मंदिर की मूर्ति में देखा जो सकता है,
में देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में असुर पर सहजता
से एक पैर रखे हुए खड़ी है। महिष के पैर
मुड़े हुए है तथा उसे गिरता हुआ अंकित किया गया है। प्रभावली पर
मातृकाओं तथा देवी की अनुचरियों को असुर
से युद्ध करते हुए अंकित किया गया है। इसी प्रकार की
प्रतिमा झालावाड़ के मूर्तिकारों ने
भी बनाया।
चंद्राभागा (झालरापाटन) के नवदुर्गा
मंदिर से प्राप्त मूर्ति में मृत महिष का अंकन किया गया है। यहाँ देवी महिष के छिन्न सिर के पास सहज त्रिभंग
मुद्रा में खड़ी है। महिष का मृत शरीर तथा सिंह दोनों का अंकन पृष्ठभूमि
में किया गया है।
--कुछ प्रतिमाओं में देवी महिष के
मुख को एक हाथ से मरोड़ती हुई तथा दूसरे हाथ
से त्रिशूल से आक्रमण करती हुई अंकित की गई है। इस प्रकार का उदाहरण कालीबंगा
(गंगानगर) की मृण्मय मूर्तियों से प्राप्त किया जाता है। शिरोभूषा, आभूषण तथा अंकन
शैली के आधार पर इसे प्रारंभिक गुप्तकाल का
माना जाता है। इस अंकन परंपरा की निरंतरता का उदाहरण
उदयपुर तथा झालावाड़ जैसे स्थानों के
उत्तर गुप्तकालीन मंदिरों से प्राप्त होता है। झालावाड़ क्षेत्र
में देवी की विविध मूर्तियों की प्राप्ति
से प्रमाणित होता है कि यह स्थान
शाक्त सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र रहा है।
महिष की कटी हुई गर्दन से मानव रुप में निकलता हुआ असुर का अंकन
इस कृति के अनुसार देवी कूदकर महिषासुर पर चढ़ जाती है तथा भाले से आक्रमण करती हुई अपने चरणों के नीचे उसे कुचल देती हैं। महिष की गर्दन से मनुष्य रुप में आधा निकलता हुआ असुर तब तक युद्ध करता है, जब तक देवी अपने तलवार से उसका मस्तक छिन्न नहीं करती।
इस मिथक का सुंदर प्रस्तुतीकरण ८ वीं शताब्दी के आबानेरी के हर्षमाता मंदिर से प्राप्त होता है। यह मूर्ति अब आंबेर संग्रहालय में सुरक्षित है। यहाँ देवी चार भुजाओं से युक्त है। वे दक्षिण हस्त में त्रिशूल द्वारा महिष शरीर पर आक्रमण करती हुई, वामहस्त से अर्ध- निष्क्रांत असुर को मरोड़ती हुई अंकित की गई है। देवी का मुख पूर्ण शान्ति एवं सहज मुस्कान युक्त है। इसी मंदिर की एक अन्य मूर्ति में इस द्वन्द के अतिरिक्त महिषासुर की सेना अन्य देवियों का युद्ध भी अंकित हे। यह संपूर्ण रुप से एक लंबे अर्धचित्र का विषय है तथा स्तंभों द्वारा तीन भागों में विभाजित है।
ओसियां से प्राप्त महिषमर्दिनी मूर्तियों में असुर के युद्ध के आयास तथा वीरता के भाव का चित्रण उग्र गति द्वारा किया गया है। यहाँ के सूर्य मंदिर के ताख पर बनी मूर्ति में देवी के दस हाथ अंकित किये गये हैं। यहाँ से प्राप्त एक दूसरी मूर्ति मंदिर के शिखर के तोरण- अभिप्राय पर अंकित थी। इसमें देवी को फुर्ती के साथ सभी भुजाओं
का प्रयोग करते हुए दमित करने का प्रयास स्पष्ट रुप से अंकित है।
मानव रुप
में असुर का अंकन
इस रुपांकन में महिषासुर को पूर्ण
मानव रुप में देवी से युद्ध करते
हुए प्रस्तुत किया गया है। मिथकों के
अनुसार जब देवी अपने पाश द्वारा
महिष को पकड़ना चाहती है, तब
वह महिष रुप को छोड़कर सिंह का
रुप धारण कर लेता है, जब देवी
सिंह का सिर छिन्न कर देती है, तो
वह मनुष्य का रुप धारण कर लेता
है तथा असि (तलवार) और ढ़ाल से
युद्ध करता है।
इस प्रकार के मूर्त रुपांकन जगत के
अम्बिका मंदिर में प्राप्त होते हैं।
इन मूर्तियों में प्रायः देवी अपना पैर
उसकी पीठ पर जमाए हुए असुर को कुचलती
हुई, दो हाथों से त्रिशूल उसके शरीर
में घुसाती हुई अंकित की गई है।
एक अन्य मूर्ति में खड़ी हुई अवस्था में
असुर देवी पर तलवार से आक्रमण करता
हुआ दिखाया गया है। इस मूर्ति में
उसका दूसरा हाथ देवी ने पकड़ा
हुआ है।
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महिषमर्दिनी का
सच्चिका में रुपांतरण
जैन धर्म के आविर्भाव एवं विकास के कारण कई हिंदू
मताबलंबियों ने जैन धर्म ग्रहण किया। जैनियों को
भी मातृदेवी पर अटूट विश्वास रहा है,
अतः कई मंदिरों में प्रतिष्ठित महिषमर्दिनी
मूर्तियाँ कालांतर में सच्चिका माता के
रुप में जानी जाने लगी। इस प्रकार सच्चिका
वास्तव में महिषमर्दिनी का ही दूसरा नाम है। आज
भी ओसियां जोधपुर के प्रसिद्ध सचियामाता
मंदिर में हिंदू तथा जैन दोनों धर्मावलंबी
श्रद्धा के साथ पूजा उपासना के लिए जाते हैं।
सप्तमातृका
स्वरुप का अंकन
सप्तमातृका का सर्वप्रथम उल्लेख ॠग्वेद
में मिलता है। परंतु इनका पौराणिक
स्वरुप यथा--- ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐंद्री, चामुण्डा आदि कुषाण काल
में एक निश्चित स्वरुप ग्रहण करती है। इनकी कुल
संख्या में मतभेद रहा है। विभिन्न ग्रंथों के
अनुसार इनकी कुल संख्या ७ से १६ के बीच
मानी गई है। ज्यादातर स्थानों में यह ७
या ८ की संख्या में उत्कीर्ण की जाती है।
मातृकाओं की उत्पत्ति, नाम, संख्या व
विशेषताओं का पहला स्पष्ट साक्ष्य देवी
माहात्म्य से प्राप्त होता है। वास्तव
में मातृकाओं की उत्पत्ति संगठित होकर असुरों
से युद्ध करना था। वे वास्तव में प्रत्येक देव की एक
शक्ति होती थी, जो वह उस विशेष देवता के वाहन व आयुध के
साथ अंकित की जाती थी।
मातृकाएँ प्रायः समुह में ही एक लंबी पट्टिका पर खड़ी हुई
या नृत्य करती हुई या बैठी हुई
उत्कीर्ण की जाती थी। कभी- कभी अंक में मातृत्व के प्रतीक
स्वरुप एक बालक का भी अंकन किया जाता था।
उनके पैरों के पास वाहन अंकित होते थे तथा दोनों पाश्वों
में वीरभद्र या शिव तथा गणेश का अंकन होता था। अंकन क्रम प्रायः इस प्रकार होता था। पहले
वीरभद्र या शिव, फिर ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी, काली और अंत
में गणेश। वे अधिकतर मंदिरों के प्रवेश- द्वार के सिरदल तथा चौखट पर नवग्रहों के
साथ एक लंबी या खड़ी पट्टिका पर अंकित की जाती थी।
विशेष रुप से इनके लिए निर्मित मंदिरों को मातृगृह
या मातृवेश्य के रुप में जाना जाता था।
राजस्थान के कई स्थानों मंडोर, ओसियां,
फलौदी, डूंगरपुर, उदयपुर, बघेरा आदि
से पर्याप्त संख्या में मातृका मूर्तियों के
मिलने का प्रमाण मिलता है। मंडोर
से प्राप्त एक ही पत्थर पर उत्कीर्ण की गई,
सप्तमातृका की मूर्ति ६८५ ई. का है।
मातृकाओं में कुछ महत्वपूर्ण देवियों का उल्लेख किया जा रहा है---
ब्रह्माणी
ब्रम्हा के समान ब्रह्माणी के भी तीन मुख अंकित किये जाते है। इस प्रतिमा के हाथों
में अक्षमाला तथा कमण्डल होता है तथा वाहन के
रुप में हंस।
माहेश्वरी
यह चन्द्रलेखा, सर्पों के कंकण तथा अन्य आभूषण धारण किये हुए हाथ
में त्रिशुल के साथ वृषभ पर सवार दिखाई जाती है।
कौमारी
यह कार्तिकेय की शक्ति है, जिसे मयूर
या मुर्गा के वाहन के साथ दिखाया जाता है। कुछ स्थानों पर हाथ
में मुर्गा तथा वाहन के रुप में मयूर का अंकन किया गया है। जैसे
मालागांव (सिरोही) से प्राप्त प्रतिमा
में भी मुर्गा तथा मयूर दोनों को अंकन किया
गया है।
वैष्णवी
विष्णु की शक्ति वैष्णवी का अंकन गरुड़ पर आरुढ़,
शंख, चक्र, गदा, धनुष तथा असि (तलवार)
लिये हुए दिखाया जाता है।
वाराही
यह वराह की शक्ति है, अतः इसके मूर्त
रुपांकन में मुख को वराह के रुप
में दिखाया जाता है, लेकिन आयुधों
में विष्णु के आयुधों को ही उत्कीर्ण किया जाता है। कभी- कभी हाथ
में आयुधों के साथ साथ एक मछली का
भी अंकन किया जाता है, जो तंत्र प्रभाव की द्योतक है। १०
वीं सदी की आबानेरी के मंदिर से प्राप्त
मूर्ति, हाथ में मछली लिये हुए भैंस के आगे खड़ी अंकित की गई है। प्रायः वाराही प्रतिमाओं को
बिना किसी वाहन के अंकित किया जाता है। अपवाद
स्वरुप अमझारा (डूंगरपुर) से प्राप्त प्रतिमा को वाराह पर आरुढ़ चित्रित किया गया है, वही
मालागाँव (सिरोही) से प्राप्त प्रतिमा
भैंसे पर आरुढ़ है तथा आबू क्षेत्र की वाराही प्रतिमाएँ
मानव- शव के ऊपर अंकित की गई है।
ऐन्द्री
यह इंद्र की शक्ति है तथा वज्र तथा सहस्र आंखों के
साथ हाथी पर आरुढ़ अंकित की जाती है।
चामुण्डा
इसका दूसरा नाम काली या कालिका है। यह अंबिका के
मस्तक से चण्ड और मुण्ड को मारने के
लिए निसृत हुई थी। इसके शरीर को झलकती हुई नसों तथा हड्डियों के
साथ, वीभत्स भाव लिये अंकित किया जाता है। पान- पात्र
में मत्स्य का अंकन तांत्रिक प्रभाव का
सूचक है। चंद्रभागा (झालरापाटन) के नवदुर्गा
मंदिर तथा बाडोली के घंटेश्वर मंदिर
में उत्कीर्ण चामुण्डा मानव- शव पर नृत्य करती हुई
उत्कीर्ण की गई है। पाटन (झालावड़) के
शिलादेवी मंदिर से प्राप्त एक अन्य मूर्ति
में अंबिका देवी को रक्तबीज का वध करते हुए तथा चामुण्डा को अपने पान- पात्र
में रक्त एकत्र कर पान करते हुए अंकित किया गया है।
वैनायकी
गणेश की लोकप्रियता तथा महत्व की वृद्धि के
साथ गणेश की शक्ति के स्वरुप की कल्पना
भी साकार की जाने लगी। परिणामस्वरुप इसकी
स्वतंत्र पूजा होने लगी तथा इसे योगिनी समूह
में भी स्थान दिया गया। राजस्थान में इस प्रकार की
मूर्ति हर्षनाथ (सीकर) से प्राप्त होती है।
कई मातृकाएँ ऐसी है, जिनका चित्रण अत्यंत दुर्लभ है, जैसे नारसिंही, ऐंद्री,
वैनायकी, वारुणी, आग्नेयी, यमी आदि। जैन धर्म
में भी मातृदेवियों की लोकप्रियता के कारण इसका
स्वतंत्र अंकन माउंट आबू के दिलवाड़ा
मंदिरों में भी देखा जा सकता है।
अन्य देवियों का अंकन
देवी के अन्य रुपों में, जिनका राजस्थान
में रुपांकन किया गया है, लक्ष्मी, सरस्वती, क्षेमंकरी तथा गौरी प्रमुख है। चूंकि जैन तथा
बौद्ध धर्म का आविर्भाव प्रतिक्रिया
स्वरुप हुआ है। हिंदू धर्म से निसृत होने के कारण
वे इसके प्रभाव से अलग ना हो सके। उसी
रुपांकन के साथ कई हिंदु देवी- देवताओं को इन्होंने
यक्ष- यक्षणियों के रुप में स्थान दिया। इसके प्रति अपनी
श्रद्धा को कायम रखा।
लक्ष्मी का अंकन
समृद्धि तथा धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी का अंकन प्रायः गजों द्वारा गंगा तथा
यमुना के जल से अभिषिक्त, लक्ष्मी सागर तल पर कमल पर आसीन
रुप में किया गया है। यह रुप गजलक्ष्मी के नाम
से लोकप्रिय है।
गजलक्ष्मी की प्रतिमाएँ अधिकतर राजस्थान के
उत्तर गुप्तकालीन मंदिरों में उत्कीर्ण है, जिसमें पड़ानगर (अलवर), ओसियां, आबानेरी
(जयपुर) तथा झालरापाटन के मंदिरों
से प्राप्त मूर्तियाँ प्रमुख है। इन मूर्तियों के
साथ कभी- कभी पद्मासन के नीचे दो सिंह
उत्कीर्ण किये जाते थे।
सरस्वती का अंकन
विद्या की देवी सरस्वती प्रायः स्वतंत्र देवी के
रुप में कमल पर आसीन, हाथ में वीणा, पाण्डुलिपि तथा
अक्षमाला लिए उत्कीर्ण की जाता है। राजस्थान
में लकुलीश मंदिर (एकलिंग) तथा जगत के अम्बिका
मंदिर से प्राप्त सरस्वती की प्रतिमाएँ इस
युग की प्रतिनिधि सरस्वती प्रतिमाएँ हैं। इन
मूर्तियों का रुपांकन हिंदू- मंदिरों के अलावा
भरतपुर, आबू, रणकपुर, पल्लू तथा
वसंतगढ़, जैसे जैन- केंद्रों में भी
मिलती है।
देवी के अन्य प्रचलित स्वरुपों में क्षेमंकरी (या गोधासना गौरी) तथा
वटयक्षिणी उल्लेखनीय है। जगत के अम्बिका
मंदिर में क्षेमंकरी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, वहीं हर्षनाथ (सीकर) के
मंदिर में तपस्यारत पार्वती की गोधासना गौरी की
विशाल प्रतिमा है।
वटयक्षिणी देवी, जिसका मंदिर कभी घोण्टवार्षिक (प्रतापगढ़)
में अस्तित्व में था। संभवतः महिषमर्दिनी का ही स्थानीय नामाकरण था।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के विजय स्तंभ के एक खण्ड
में रुपमंडन तथा अपराजितपृच्छा में
वर्णित समस्त देवी प्रतिरुपों के मूर्त
रुप मिलते है। पंचललीमाएँ, महालक्ष्मी, हरसिद्धि, जया, विजया, अपराजिता, विभक्ता,
मंगला, मोहिनी तथा स्तम्भिनी नामक अष्ट द्वार पालिकाओं का
भी अंकन मिलता है। इसी प्रकार जगत, नागदा तथा ओसियां के
मंदिरों में भी इनके मुर्त रुपांकन प्राप्त होते हैं।
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