राजस्थान

मेवाड़ में भूमि- वर्गीकरण

अमितेश कुमार


प्रत्येक गाँव में तीन प्रकार के भू-खण्ड थे--- 


१. आवासीय भू-खंड
२. कृषित भू-खंड
३. पड़त वा बंझर (बं )भू-खंड

आवासीय भू-खंड में आवासीय पट्टे निर्धारित किये जाते थे। इन पट्टों के अनुसार गाँव तथा उनके आवासों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता था।


कच्चे ( दाखिल्ली ) पट्टे
पक्के ( असली ) पट्टे

कच्चे गाँव में कोई भी व्यक्ति कहीं भी रह सकता था, किन्तु पक्के गाँवों में उस गाँव की ग्राम पंचायत की बगैर स्वीकृति तथा नजराना दिये बिना नहीं रहा जा सकता था।

पड़त भूमि दो प्रकार की होती थी :-

अ. गोचर भूमि
आ. बेदखली भूमि

गोचर भूमि को "चर्णोटा' भी कहा जाता था। इस भूमि पर गाँव अथवा कई गाँव की पंचायतों का सामुहिक अधिकार होता था। इस प्रकार की भूमि पशुओं के आहार- विहार हेतु राज से युक्त रहती थी। इसका क्रय- विक्रय "पाप' माना जाता था।

बेदखली भूमि पर कोई भी व्यक्ति कृषि के लिए स्वतंत्र था, किन्तु इसके लिए ग्राम- पंचायत को लागत या दस्तूर देना होता था, जो बहुत कम होता था। दस्तूर देने के बाद यह दखिली भूमि की श्रेणी में आ जाता था तथा इसे कृषित भू- खण्ड मान लिया जाता था। 

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मेवाड़ की भू -व्यवस्था

मेवाड़ राज्य का आर्थिक जीवन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप में भूमि-व्यवस्थाओं से बंधा हुआ था। सिक्के का प्रचलन कम होने के कारण राज्य एवं समाज की सेवार्थ भूमि- वितरण की परम्परा आलोच्यकाल के पूर्व से ही चली आ रही थी। किसान तो वैसे भी भूमि- उत्पादन पर आधारित अपनी जीविका चलाते थे, किन्तु भूमिहीन व्यक्ति भी यजमानी सेवाओं अथवा भूमिधारी व्यक्तियों की भू- सेवाओं द्वारा जीवन- निर्वाह करते थे।

राज्य की संप्रभु शक्ति धारक राणा राज्याधीन संपूर्ण भूमि क्षेत्र का वैधानिक स्वामी था। वह अपने क्षेत्र विशेष में किसी भी व्यक्ति को किसी भी शर्त पर अनुदान अधिग्रहण तथा करारोपण करने का अधिकार रखता था। राणा द्वारा प्रत्यक्ष रुप से नियंत्रित भूमि खालसा भूमि के रुप में जानी जाती थी। इस आरक्षित भूमि के अलावा राणा द्वारा प्रदत्त भूमि- अनुदानों की दो श्रेणियाँ थी


१. धर्मार्थ भूमि अनुदान
२. धर्मेत्तर भूमि अनुदान

१. धर्माथ भूमि अनुदान

धार्मिक कार्य संबंधित अनुदानों का समाज में विशेष महत्व रहा था। ये अनुदान दो तरह के हो सकते थे। पहला धार्मिक स्थानों, स्थानों, मंदिरों, मस्जिदों, देवरों एवं मठों में व्यवस्था बनाये रखने के लिए। इस अनुदान को षट्दर्शन कहा जाता था। १९ वी. शताब्दी में इन्हें "देवस्थानी' के नाम से जाना जाता था।

द्वितीय श्रेणी के धार्मिक अनुदान ब्राम्हण, चारण, भाट, सन्यासी, गुसांई, विद्वान आदि को जीविका निर्वाह के लिए प्रदान किये जाते थे।

धर्मार्थ भू- अनुदान की भूमि का क्रय- विक्रय प्रायः नहीं किया जाता था। ऐसी भूमिओं पर अधिकार प्राप्ति हेतु उत्तराधिकारी द्वारा शासन से पुष्टि करना आवश्यक होता था। यद्यपि ऐसे पुष्टिकरण मात्र परंपरा निर्वाह हेतु किये जाते थे। इससे शासन को प्रत्येक नवीनीकरण पर उस भूमि की स्थिति तथा उसकी द्यृतियों का पता प्राप्त होता रहता था। द्वितीय श्रेणी की भूमि का क्रय- विक्रय अथवा बंधक रखना राणा की स्वीकृति पर निर्भर करता था। 

२. धर्मेत्तर भूमि अनुदान

वैसे भूमि अनुदान को आलोच्यकालीन प्राप्त विवरणों के आधार पर दो मुख्य भागों में बाँट सकते हैं-- 

(क) असैनिक सेवार्थ
(ख) सैनिक सेवार्थ

(क) असैनिक सेवार्थ अनुदान -- असैनिक सेवार्थ अनुदान इनाम के रुप में दिये गये अनुदान या चाकदाना नौकरी के निर्मित दिये गये अनुदान हो सकते थे। विशिष्ट सेवाओं के लिए व्यक्ति अथवा वंशानुगत दिया जाने वाला भूमि अनुदान इनामिया माफी कहलाता था। इसके भू- राज का फैसला अनुदाना की इच्छा पर निर्भर था। राज्य सेवा के पारिश्रमिक हेतु दिया गया भू- अनुदान चाकराना माफी कहा जाता था। यह भमि व्यक्ति द्वारा राज्य सेवा करते रहने तक प्रदान की जाती थी, अतः इस पर कोई राज नहीं लिया जाता था। सिर्फ कुछ उत्सवों व त्योहारों पर राज के अनुपात में आंशिक नजराने लिये जाते थे। व्यवहारिता में चूँकि मेवाड़ राज्य के अधिकतर पद वंशानुगत होते थे, इसलिए ऐसी भूमि के पुनर्ग्रहण के अवसर बहुत ही कम आते थे। चूँकि ऐसी भूमि ग्रहिता द्वारा सेवार्थ प्राप्त की जाती थी। अतः इसका विक्रय नहीं किया जा सकता था। 

(ख) सैनिक सेवार्थ भूमि अनुदान -- राज्य की सैनिक सेवा के लिए प्रदान की गई भूमि की मुख्यतः चार श्रेणियाँ थी -


१. भूम
२. ग्रास
३. रावली
४. पट्टा

१. भूम -- "भूम' अधिकतर राजपूत जाति के लोगों, जिन्होंने सैनिक कार्यवाहियों में अपना सर्वस्व बलिदान कर राणा से प्रशंसा अर्जित की हो, को दी जाती थी। ऐसी भूमि पर ग्रहिता को वंशपरंपरागत अधिकार प्रदान किये जाते थे। यह भूमि राज्य के राज से मुक्त रहती थी। प्रायः राज्य के प्रत्येक प्रमुख ठिकानेदार का ठिकाना उसकी "भूम' रही थी। ऐसी भूमि के क्रय- विक्रय तथा बंधक रखने पर शासन का कोई नियंत्रण नहीं था। दूसरी तर फ भूम- धारक "भूमिया' को राज्य की सैनिक सेवा के लिए सदैव तत्पर रहना पड़ता था। इसके अलावा "भूम- बराड़' नामक वार्षिक किराया राज्य को जमा करना पड़ता था। कर्त्तव्यों का पालन नहीं करने पर भूमि अधिग्रहण हो सकता था। 

उपरोक्त भूमि अनुदान के अतिरिक्त राज्य की सैनिकोत्तर सेवाओं के लिए भील- आदिवासियों को भी गाँव में राज मुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। बदले में वे गाँव की चौकीदारी तथा राज्याधिकारियों की सेवा करते थे।

२. ग्रास -- ऐसे अनुदान राजा द्वारा निकटतम संबंधियों को रोटी- खर्च चलाने के लिए प्रदान किया जाता था। ग्रास- ग्राहिताओं से कोई राज नहीं लिया जाता था, लेकिन संकटावस्था में राज्य इनसें सैनिक सहायता प्राप्त करता था।

३. रावली या जागेरी -- रावली भूमि स्वयं राणा, जनानी ड्योढ़ी तथा कुँवरों के निजी- खर्च चलाने हेतु प्रदान की जाती थी। संभवतः पूर्व आलोच्यकालीन राणा द्वारा स्वयं का वेतन भी भूमि द्वारा निश्चित किया जाता रहा था, उत्तर आलोच्यकाल में यह निज- खर्च नकद में लिया जाने लगा।

रावली की भूमि भी राज से मुक्त रहते थे तथा इसका विक्रय या बंधक राणा की पूर्व- स्वीकृति के बिना नहीं किया जा सकता था। 

४. पट्टा -- यह भूमि मूलतः राज्य की सैनिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए दिये जाते थे। ऐसे अनुदानों में कई गाँव और परगना सम्मिलित रहते थे। ग्रहिता को क्रय- विक्रय का अधिकार तो नहीं रहता था, किन्तु वे धार्मिक- पुनरअनुदान के लिए स्वतंत्र थे। कर्त्तव्यच्युत होने पर भूमि को राज्य द्वारा अधिग्रहित कर लिया जाता था।

 

मेवाड़ में जागीरदारी

किसानों से उनकी रक्षार्थ तथा क्षेत्र- व्यवस्था हेतु शासक को कृषि- उत्पादन का भाग लेने का अधिकार प्राप्त था। यह अंश प्रायः १/६ से १/४ के मध्य पारस्परिक समझौते के अनुसार निश्चित किया जाता था। वैसे तो राज्य की सभी तरह की आर्थिक गतिविधियों पर राणा का नियंत्रण होता था, परंतु व्यवहारिक रुप से स्थिति कुछ भिन्न थी। राणा ने राज्य के उत्कृष्ट सेवार्थ जागीरदारों को वाणिज्य- व्यापार, आयात- निर्यात तथा राजस्व वसुली के व्यापक अधिकार भी दे दिये थे। जागीरों में जागीर तथा उनमें भी पुनः खंडित जागीरों की अनुदान प्रवृत्ति ने केंद्रीय राज प्रणाली के अलावा व्यक्तिगत अधिकारों की प्रतिष्ठा को भी प्रभावित कर दिया था।

राणा की भूमि पर काम करने वाले "खालसा- कृषक' केन्द्राधीन क्षेत्र में कहीं भी बसने तथा खेती करने के लिए स्वतंत्र थे, वही जागीर के कृषक बगैर जागीरदार की स्वीकृति से अन्यत्र जाने के लिए प्रतिबंधित होते थे। 


मुकाता प्रथा

मुगल प्रभाव से प्रभावित इजारेदारी प्रणाली मेवाड़ में मुकाता प्रथा के रुप में विद्यमान रही थी। भू- राज वसूली के लिए भूमि को ठेके पर देने का सर्वाधिक प्रचलन मराठा अतिक्रमण काल (१७५१ ई. से १८१८ ई.) तक व्याप्त रहा। कई तरह के खर्च व ॠणों की राशि शेष रहने पर या समयानुसार अदायगी नहीं होने पर मेवाड़ पर ॠण का भार बढ़ता जाता था। ॠणों की पूर्ति हेतु राणा तथा जागीरदार अपनी खालसा व जागीर भूमि मराठा नायकों के गिरवी बंधक रख देते थे। इन भूमि को गिरवी रखने का परिणाम यह होता था कि वे मुकाते पर रखे गये भूमि से राजस्व- वसुली का अधिकार मिल जाता था और इस प्रकार वह उस विशेष भू- खण्ड का मुकातेदार बन जाता था। 

सैद्यान्तिक रुप से तो प्रदाता द्वारा ग्रहिता से मुकाते का अनुबंध किया जाता था, किन्तु प्रदाता की ओर से हिसाब किताब का व्यवस्थित नियंत्रण नहीं था। मुकातेदार की प्रवृति सदैव अधिक से अधिक लाभार्जन की होती थी। अपने ॠण तथा ब्याज का लाभांश प्राप्त करने के लिए मुकाता- भूमि की प्रजा से मनमाना राजस्व वसूली करने लग जाता था। "बराड़' नामक सभी शुक्ल या कराधान मराठा राजस्व व्यवस्था के ही परिणाम थे।

मराठाओं के अतिक्रमण काल के पश्चात ब्रिटिश संरक्षण काल में (१८१८ ई. से

अध्ययन काल के पश्चात तक) भी मुकातादारी प्रथा यथावत् प्रचलित रही थी। इस प्रथा का सीधा परिणाम राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। यह मराठाओं के सैनिक अतिक्रमण न होकर उनकी आर्थिक लूट थी। इसी प्रणाली ने साहूकार तथा सटोरियों की एक मध्यस्थ वर्ग को जन्म दिया, जो प्रत्यक्ष रुप से प्रजा का आर्थिक दोहन करते थे। 

 

हजारेदारी प्रथा 

मुकाता प्रथा के साथ- साथ राज प्रणाली में कृषि भूमि को भागीदारी में जोतने के लिए ही जारे पर प्रदान किया जाता था। मुकाता में जहाँ एक बार रकम अदायगी का अनुबंध हो जाता था, वहाँ हीजारे में उपज का हिस्सा निश्चित किया जाता था, जो १/२ (दूजी पांती) से १/४ (चौथी पांती) तक होता था।

किसान को ही जारा भूमि करने का तात्पर्य था, राज की प्रत्यक्ष वसुली नहीं ऐसी भूमि, जो राज्य के आर्थिक संपन्न व्यक्ति को दे दी जाती थी, पर अप्रत्यक्ष राज वसुली होता था। इस प्रणाली में फसल उत्पादन तथा उनका निश्चित भागों में वितरण राज्य की कर्मचारियों की देखरेख में होता था। अतः हीजारेदारों को मनमानी का मौका कम मिलता था। इस प्रकार मध्यस्थ वर्ग की स्वेच्छाचारी स्वच्छन्द प्रवृति पर नियंत्रण बना रहता था। यह प्रथा दाता और कृषक दोनों के लिए समान रुप से हितकारी था।


मेवाड़ की राजस्व- व्यवस्था

१८ वी. शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुकातेदारी के रुप में मराठों की निरंतर भू दोहन नीति प्रजा के लिए दु:साध्य भार था। मराठे मुकातेदार लूट- खसोट में अपनी व्यस्तता के कारण एक स्थान पर नहीं ठहरते थे तथा अपनी मुकाता- भूमि को स्वामी या अन्य जागीरदारों को मौखिक अनुबंध पर दे देते थे। वाणिज्य, आवास तथा अन्य व्यवस्था शुल्कों को विभिन्न बराड़ों के रुप में वसूल किया जाता था। व्यापारिक फसलों पर १/१०ऽ हीरण्य या हासिल लिया जाता था।

१८१८ ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी और मेवाड़ के मध्य संधि के पश्चात अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए ठेका व्यवस्था को प्रोत्साहित किया गया। इसमें हीजारा प्रणाली की प्रमुखता थी। हीजारे प्रदान की गई भूमि पर राज का निर्धारण हिस्सों अथवा नकद कूंत द्वारा किया जाता था। कूंते में बराबरी के तीन भाग में यदि भूमि हीजारे पर होती तो, तीन भाग तथा राणा के नियंत्रण वाली भूमि पर दो भाग किये जाते थे। हीजारा भूमि पर प्रथम भाग

शासन का ,द्वितीय भाग हीजारेदार का तथा तृतीय भाग किसान का होता था। राणा नियंत्रित भूमि पर प्रथम भाग शासन का तथा द्वितीय भाग कृषक का रहता था। कृषक के हिस्से का १/२ भाग राज्य तथा समाज सेवकों के हिस्से तथा यजमानी नेग के रुप में दिये जाते थे।

कूंता प्रणाली में राज खड़ी फसल पर लिया जाता था। फसल की क्षति का राज पर प्रभाव नहीं पड़ता था।

इस प्रकार यह राज अधिकारियों के लिए लाभप्रद था। बांटा अथवा भाग प्रणाली में फसल की लाभ- हानि का प्रभाव किसान के साथ- साथ शासन को भी भुगतना पड़ता था। कुछ विशेष स्थितियों में फसल का राज कूंते द्वारा नहीं देकर भाग द्वारा अदा करने को आग्रह किया जाता था।

कूंता निर्धारकों द्वारा फसल के राज को कम या ज्यादा कूंतने की गुंजाइश रहती थी। वे अपना निजी लाभांश प्राप्त कर, कूंते के किसानों को कई प्रकार की छूट प्रदान करते थे। संभवतः राणाओं को भी इन संभव गतिविधियों का भान रहता था। वे राज्य द्वारा भ्रष्टाचार की स्थिति को स्वीकारते हुए राज अधिकारियों व कर्मचारियों से उनकी आय पर "लाग' लेते थे।

१८६२ ई. में लाटा- कूंता के राज निर्धारण को बंद कर दिया गया। राज्य- प्रधान कोठारी केशरसिंह ने १८५२ ई. से १८६२ ई. तक की औसत उपज के हिसाब से नकद राज लेने की योजना प्रारंभ की। राज प्रशासन में प्रशासनिक परिवर्त्तन करते हुए वंशानुगत अधिकारियों के जगह पटवारी तथा चपरासी की वैतनिक नियुक्तियाँ की गई। राज के हिसाब- किताब तथा किसानों की सुविधा के लिए दो- तीन गाँवों को मिलाकर पटवार- खाने खोले गये। इस प्रकार यह मेवाड़ में दफतरीय- पद्धति प्रारंभ होने का काल था। इस बदलाव ने जहाँ बिचौलियों के भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया, वहाँ किसानों के लिए लाभकारी था।

राणा सज्जनसिंह के काल में भू- राजस्व व्यवस्था के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश- भारत सरकार के एक अधिकारी श्री विंगेट की सहायता से राज्य की संपूर्ण भूमि कर पक्का बंदोबस्त किया गया। सन् १८८६ ई. में फतहसिंह के काल से इस बंदोबस्त के अनुसार, लगान लिया जाने लगा था। भूमि का उसके ऊपज के अनुसार वर्गीकरण किया गया था। गाँव के परकोटों वाली कृषिकारी भूमि "आधण्', गाँव के पास वाली भूमि "गोरमा', तथा गाँव से दूर वाली को राकड़- कांकड़ कहा जाता था। पहाड़ी या पथरीली भूमि "मगदा' तथा वर्षा पर निर्भर भूमि "माल' कहलाती थी। इन भूमि के अलग- अलग कूंते निश्चित कर, उसी के अनुसार राज निर्धारित किया गया था।

बंदोबस्ती ने जातिवादी भू- राज को पूर्णतः समाप्त कर, सभी को एक श्रेणी में लाने का प्रयास किया, लेकिन भूमि के साथ- साथ फसल का वर्गीकरण नहीं किया जाना, इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष था।

 

अन्य राज : लाग- बाग  

मेवाड़ में भाग- भोग (भू- राजस्व) के साथ- साथ ग्रहिता को लागत- विलगत (शाब्दिक अर्थ परम्पराई- मूल्य) देने का भी प्रचलन था। संभवतः लाग- बाग लागत- विलगत कर ही अपभ्रंश है। इस प्रकार लाग- बाग परम्पराई सामाजिक- आर्थिक उपहार थे, जो प्रजा द्वारा उनकी रक्षार्थ सेना नायकों तथा वीरों को कई प्रकार से स्वेच्छापूर्वक भेंट की जाती थी।

समय के साथ मुद्रा के प्रसार के कारण इनकी उपहारीक स्थिति शुल्क के रुप में परिवर्तित हो गई। नकद भुगतान नहीं करने की अवस्था में जिंस को प्रचलित बाजार- मूल्य में परिवर्त्तन कर नकद का मूल्यांकन कुछ कम करके कर लिया जाता था। लाग- बाग का निश्चित मूल्यांकन नहीं होने के कारण यह मनमाने ढ़ंग से निर्धारित किये जाते थे। 

विभिन्न जागीरों तथा खालसा क्षेत्रों में अलग- अलग हिसाब से निम्न लागतों के रुप में लोग- बाग निर्धारित की जाती थी :-


१. कृषि उत्पादन लागत, जिसमें प्रत्येक किसान से प्रत्येक फसल पर "रसाला' की लागत प्राप्त की जाती थी। 
२. वाणिज्य- व्यवसाय एवं आवास लागत 
३. धर्मार्थ एवं सामाजिक लागत
४. आयात- निर्यात एवं बिक्री लागत
५. अन्य लागत, जैसे पदोन्नति के लिए "उपरकराई' डाक- व्यवस्था के लिए "कासीद- बराड़' ॠण लेने पर "हुण्डी री लागत' रुपयों की जाँच- परख के लिए कसौटी तथा भरणा- वसूली की लागतें। 

कृषक को राज प्रदान करने के पश्चात् १५ऽ लाभांश प्राप्त होता था, जिसमें ७ऽ सिर्फ लाग- बाग में चला जाता था। भुगतान नहीं कर पाने पर भूमि स्वामी या ग्रामपति द्वारा धौंस, रोजीना और दस्तक की "लाग' लगाई जाती थी। १९०० ई. तक लाग- बाग के प्रति लोगों में आक्रोश उत्पन्न हो गया। इस आक्रोश 
के तात्कालिक जन- जागरणों ने हिस्सा बँटवारा, जिससे किसान- आंदोलन की भूमिका बननी शुरु हो गयी थी। अंततः राणा भूपालसिंह ने १९३२ ई. को कई लाग- बाग समाप्त कर दिये। फिर भी जागीर क्षेत्र में तथा सामाजिक परंपराओं में इसका अस्तित्व किसी न किसी रुप में बचा रहा।


बैठ -बेगार

लाग- बाग के जैसे ही बैठ- बेगार भी राज शुल्क था। यह शुल्क शारीरिक सेवा के रुप में लिया जाता था। इस प्रथा का अत्यधिक प्रचलन का मुख्य कारण भू- अनुदानी सामन्तिक व्यवस्था थी, जिसमें कृषक तथा शिल्पी दस्तकार अधिकृत स्वामी या मुकातेदार की शारीरिक श्रम- सेवा देने के कर्त्तव्य से आबद्ध हो जाता था। इसके अतिरिक्त लाग- बाग के कर्जदार लोगों को भी ॠण- प्रदाता स्वामी द्वारा बाधित श्रम सेवा करनी पड़ती थी। ऐसे दास, जिन्हें खेत में काम करना पड़ता था, "हाली' कहे जाते थे। केवल गृह कार्य करने के लिए रखे गये दास, "चाकर' कहलाते थे। भील जाति के लोगों को कृषि के लिए 'भूम' प्रदान की जाती थी। जिसके बदले में वे ग्राम- सुरक्षा करते थे तथा साथ- साथ शारीरिक श्रम भी बगैर पारश्रमिक के करना पड़ता था। इसे "बेठिया' कहा जाता था। 

शिल्पियों और कृषकों के बेगार सेवा करने का अन्य कारण आवास- लागते भी थी। कोई भी व्यक्ति ग्राम स्वामी या क्षेत्र- स्वामी की बगैर स्वीकृति गाँव छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता था। अंततः कठिन आर्थिक- परिस्थितियों से मजबूर व्यक्ति दास के रुप में जीविका- यापन के लिए मजबूर हो जाता था।

 

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