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मेवाड़ क्षेत्र की परिवर्तित
सीमाओं के अनुरुप क्षेत्र की राजधानियाँ
भी समयानुसार बदलती रही थी। इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग चित्तौड़ के
उत्तर में , १.५ मील दूर स्थित "नगरी' स्थान
भिबि- जनपद की राजधानी था, जिसे तत्कालीन
समय में मंजिमिका के नाम से जाना जाता था। जनपद के नष्ट होने के पश्चात् ७
वीं शताब्दी तक प्रामाणिक विवरणों के अभाव
में इस प्रदेश की राजनीतिक अवस्था का विवरण ज्ञात नहीं होता है, किन्तु
बप्पा रावल द्वारा शासन अधिकृत करने के
समय से १३ वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक एकलिंग, देलवाड़ा, नागद्राह, चीखा तथा
अघाटपुर (आयड़) मेवाड़ राज्य की राजधानियाँ व प्रशासनिक केंद्र रह चुके थे।
रावल जैतसिंह (१२१३ - १२५० ई.) के समय यहाँ की
राजधानी नागद्रह (नागदा) थी, जो सुल्तान इल्नुतमिश के आक्रमण के कारण नष्ट हो गई। तब
रावल ने अघाटपुर को नवीन राजधानी के
रुप में विकसित किया। उसके पुत्र रावल तेजसिंह (१२५० - १२७३ ई.) ने
सामरिक महत्व को देखते हुए चित्तौड़ को अपनी
राजधानी बनाया। सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौड़ आक्रमण के
समय मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ ही थी। १४ - १५
वीं सदी तक चित्तौड़ व कुंभलगढ़ मेवाड़ की
राजधानी रहे हैं। राणा कुंभा (१४३३ - १४६८) ने कुंभलगढ़ तथा
राणा सांगा (१५०९ - १५२८ ई. ) ने चित्तौड़ को अपनी
राजधानी बनाया। राणा प्रताप (१५७२ -१५९७ ई.) तथा उसके पुत्र
राणा अमरसिंह प्रथम (१५९७ - १६२० ई.) ने मेवाड़
मुगल संघर्ष काल में
गांगुंदा व चावंड नामक स्थानों को संघर्ष कालीन
राजधानियाँ बनायी। राणा उदयसिंह (१५४० - १५७२ ई.) ने पीछोली नामक गाँव को अपनी
राजधानी बनाया। पीछोली गाँव ही १७
वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उदयपुर नगर के नाम
से प्रसिद्ध हो गया। राणा कर्णसिंह (१६२० - १६२८ ई.) के
बाद से उदयपुर नगर ही मेवाड़ की स्थायी
राजधानी रहा, जबतक राणा भूपालसिंह द्वारा १८ अप्रैल १९४८ ई.
में इसका विलय नहीं कर दिया गया।
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