|
कृषि आधारित
अर्थव्यवस्था होने के कारण मेवाड़ की अधिकांश जनता गाँवों
में निवास करती थी। कृषि ही इनके
रोजगार का प्रमुख साधन रहा है। अध्ययनकाल के दौरान गाँवों
में इनकी जनसंख्या ९२.८ऽ थी।
गाँवों के नाम प्रायः उसकी भौगोलिक स्थिति
अथवा किसी विशेष जाति समुह के निवास होने के कारण, उसी जैसे नाम
से पुकारे जाते थे। उदाहरण के लिए,
मगरा वाला (पहाड़ पर स्थित) गाभ, वामणिया (विशेष
रुप से ब्राह्मण जाति के रहने के कारण ), गायरियावास आदि । किसी
विशेष व्यक्ति को प्रायः जाति- निवास के आधार पर जाना जाता था। किसी
व्यक्ति को शासक द्वारा भूमि अनुदान में
मिलने पर कालांतर में कभी- कभी ग्रहिता के नाम
से उद्बोधित होने लगती थी, जैसे गजसिंह जी
री भागल, भगवान दो कलां इत्यादि।
मुहल्लों का विकास जाति एवं व्यवसायों के आधार पर होता था।
एक मुहल्ले में एक ही प्रकार की जाति या
व्यवसाय करने वाले लोगों का प्रभुत्व होता था।
भील, मीणा, ग्रासिया जैसे वन्य बस्तियों को "फलां' कहा जाता था, वहीं
राजपूत जागीरदार के भाई- बांधव की
बस्तियों को "बस्सी' कहते थे। धाबाई तथा गुर्जर जातियों की
बस्ती "हवाला' कहलाती थी और खेड़ियों की
बस्ती को "ढ़ाणी' कहा जाता था। मूल गाँव
से एक - दो मील की दूरी पर खेतों में अवस्थित ५- १५ घरों की
बस्ति "खेड़ा' या "मझरा' कहलाती थी। गाँव के निकट ही खेतों
में अवस्थित भिन्न- भिन्न पारिवारिक बस्तियाँ "भागल' कहलाती थी। आज
भी गाँवों में एक ही परिवार के विभिन्न
सदस्यों की बस्ती को भागल, चंदाना की
भागल आदि। नगर में "भागल' का प्रयोग पारिवारिक पोल
(द्वार ) के रुप में किया जाता था, जैसे
भगतणों की पोल, सुथारों की पोल, मेहताओं की पोल आदि।
तत्कालीन मेवाड़ में नगर, ग्राम तथा कस्बों की कोई निश्चित धारणा नहीं थी। प्रायः
सभी स्थान खेतों के मध्य, कृषि अर्थव्यवस्था पर आधारित रहे थे।
आधुनिक गाँवों से अलग मेवाड़ के छोटे गाँव अव्यवस्थित रहे है। इस
राज्य के प्रथम श्रेणी के जागीर- मुख्यालय, परगना, ग्राम्य
मंडियाँ एवं हटवाड़े तथा मुख्य धार्मिक महत्व के स्थानों को वृहत् ग्राम्य की
श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसे गाँवों की जनसंख्या अधिक थी तथा
साथ में सुविधाएँ अधिक थी। ये प्रायः किसी नदी
या तालाब पर बसी होती थी। गाँव के अंदर ही
वाणिज्य - व्यवसाय हेतु हाट (बाजार)
बने होते थे। धीरे- धीरे ये गाँव कच्चे तथा पक्के
मार्गों के विकास के साथ ही, यातायात के
साधनों से जुड़ने लगे । बसाव की दृष्टि
से वृहत् ग्रामों को तीन भागों में
बांटा जा सकता है--
क. मुख्य जागीर ठिकाने के
मुख्यालय गाँव
ख. धार्मिक स्थान, व्यवसाय केन्द्र तथा जिला
मुख्यालय केंद्र
ग. ग्राम- नगर बस्ती
क. मुख्य जागीर ठिकाने के मुख्यालय गाँव
१८ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुख्य जागीर ठिकानों के गाँवों की
संख्या १६ थी, जो १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक
बढ़कर २४ हो गयी। जागीरों को बढ़ाने का अधिकार
राणा के हाथ में होता था। उपरोक्त ठिकानों की
बस्तियों के चारों ओर सुरक्षा हेतु परकोटे
बने हुए थे। इन परकोटों में स्थान- स्थान पर दरवाजे का प्रावधान
रखा जाता था। इन दरवाजों पर से जागीर-
सैनिकों का पहरा होता था। परकोटे के बाहर गाँव के खेत- खलिहान होते थे।
ख. धार्मिक स्थान, व्यवसाय केन्द्र तथा जिला
मुख्यालय केन्द्र
इस प्रकार के वृहत्त- ग्रामों की संख्या १९
वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कुल २१ हो गयी थी।
वे थीं-- साईरा, सारण, राश्मी, राजनगर,
मांडलगढ़, केलवाड़ा (कुम्भलगढ़ ), खभनोर, कपासन, हुरड़ा, जहाजपुर, चित्तौड़गढ़, छोटी
सादड़ी, मांडल पुर, नाथद्वारा, ॠषभदेव, कांकरोली, कोटड़ा, खेखाड़ा
(छावनी ), हमीरगढ़ और गुलाबपुरा। इनमें चित्तौड़गढ़, कुभलगढ़,
मांडलगढ़ आदि सैन्य- सुरक्षात्मक स्थिति
लिये पहाड़ों पर बसे वृहत् ग्राम थे।
ग. ग्राम्य
नगर बस्ती इस
श्रेणी के गाँवों में उदयपुर तथा भीलवाड़ा, इन दो ग्राम्य- नगरों का स्थान आता है।
ये स्थान राज्य के प्रशासनिक इकाइयों के
मुख्यतम स्थान थे। साथ ही साथ वे उद्योग,
वाणिज्य एवं व्यापार के प्रमुख केंद्र थे।
|