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ग्रामीण बस्तियों की आवासीय
व्यवस्था जातिगत भावना से प्रभावित थी। जहाँ द्विज जातियाँ गाँव
या नगर के केंद्र मे स्थित रहती थी, वहीं निम्न जातियों के आवासों की स्थिति विकेन्द्राभिमुखी होती थी। शिल्पी, दस्तकार, कृषक, पशुपालन
तथा सेवक जातियाँ दोनों समूहों के
मध्य में रहती थी। आदिवासी जातियाँ आक्रमण स्थिति
से सुरक्षा के लिए अपना घर पहाड़ियों के
मध्य अथवा जंगल से आवृत ऊँचे- ऊँचे डूंगरों पर
बनाती थी। ऊँचे स्थान पर बने मकान,
यदि वह बड़ा हो, तो गढ़ तथा छोटे को गढ़ी कहते थे।
समतल पर बने मकान "रावला' कहलाते थे। गाँवों के
मकान व्यवसायानुरुप तथा सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों
से प्रेरित होते थे।
ग्राम्य- नगर एवं वृहत् गाँव चारों तरफ
से परकोटे के घिरे होते थे। साथ- ही -
साथ उनमें तालाब, बगीचे तथा मंदिर
बने होते थे। जलाशयों की संख्या प्रायः एक
से तीन तक होती थी। सामंत तथा उनके कृपा पात्रों के विहार हेतु
बनी बाग- बाड़ियों का उपभोग साधारण
वर्ग के लिए प्रायः वर्जित था। कई बार
राणा या अनुदाता सम्मान के रुप में इन
बाड़ियों का अनुदान कर देते थे। जातिगत
मंदिरों के अतिरिक्त शासक, सामंत तथा
संपन्न व्यक्तियों के मंदिर भी बने होते थे।
मंदिरों की स्थिति प्रायः प्रत्येक चोहटे पर होती थी, जो जन-
साधारण की धार्मिक श्रद्धा की परिचायक है।
ग्राम्य नगरों में गाँव के मुखिया तथा
राज्य प्रासाद से मुख्यमार्ग परकोटों
से पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख या पश्चिभाभिमुख दिशा
में जाता था। परिस्थितिवश ऐसा करने पर पहले इसे
मोड़ दिया जाता था। मुख्य- मार्ग के दोनों ओर दुकानें एवं शिल्पी- दस्तकारों की कर्मशालाएँ हुआ करती थी।
मार्ग स्थित ऐसे वाणिज्य - व्यवसाय क्षेत्र को हाटा कहा जाता था। यह स्थानीय
व्यापार हेतु प्रयुक्त होता था। वस्तुओं के आयात- निर्यात हेतु अलग
से मंडियां बनी होती थी। इन मंडियों का प्रबंधन महाजनों की पंचायत करती थी। पंचायत के
अनुभवी व्यापारी एवं साहूकार श्रेष्ठी (सेठ ) कहे जाते थे।
उदयपुर का राज्य - मार्ग कोतवाली से
उत्तराभिमुख तथा पूर्वाभिमुख दिशाओं
में विभक्त होकर हाथीपोल तथा सूरजपोल
से नगर के बाहर जाता था।
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