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वृहत् गाँवों तथा ग्राम्य नगर की आवास-
व्यवस्था में बहुत हद तक समानता थी। धनाभाव
में जहाँ गाँवों के मकान में फूस तथा कच्चे खपरेलों के घरों का आधिक्य था, वही ग्राम्य- नगरों की
बस्तियों में चूने- पत्थर तथा पक्का-खपरेल के
बने मकान अधिकता में थे।
गाँव के घर छत- निर्माण के आधार पर चार प्रकार के होते थे---
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पत्थर की पट्टियों की छत
वाले पक्के मकान, जिनकी दीवारें भी चूने व पत्थर की
बनी होती थी।
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चूने व पत्थर की
बनी दीवारों पर केलु- खपरेल की छत
वाले मकान, जिन्हें घर- केलूवट- पक्का कहा जाता है।
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घास- फूस
से ढ़के हुए मिट्टी के मकान, जिन्हें
"घर कच्चा फूस' कहा जाता था।
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बाँस या लकड़ी की दीवारों
से निर्मित "झूंपी', जिन्हें भील जातियाँ "टापरा' तथा
मीणा- मेर जातियाँ "मादा' कहती थी।
पहाड़ी तथा जंगली
भागों में बनी ऐसे झूंपियां तीन ओर
से "थूर' कही जाने वाली कांटों की
बाड़ से तथा पृष्ठ में पहाड़ अथवा वन्य झाड़ियों
से घिरी होती थी। अधिकतम ६ फीट ऊँची
ये रचनाएँ प्रायः एक कक्षीय होती है, जिसमें खिड़की और
रोशनदान की व्यवस्था नहीं होती थी।
मैदान तथा पठारी भू- प्रदेशों में बने ऐसे टापरों के बाहर
बाड़े के अंदर "डागली' बनी रहती थी। इन डागलियों
में बैठकर रात्रिकाल में भी फसलों की चौकसी की जाती थी।
अछूत जाति के सदस्यों के स्वनिर्मित मकान, गाँव के बाहरी हिस्से
में बने होते थे। टापरों जैसे ही ये भी एक कक्षीय होते थे, जिसमें
साफ हवा के आवागमन की कोई खास
व्यवस्था नहीं रहती थी।
किसानों एवं दस्तकारों को अपना मकान
बनवाने के लिए कुम्हार, खाती, लुहार आदि की आवश्यकता पड़ती थी।
उनका पारिश्रमिक प्रायः फसल पर जिन्सों
में चुकाया जाता था। इनके मकानों में दो
अथवा तीन कक्ष (ओवरा ) बने होते थे, जिनके आगे की तरफ ढ़ालिया (बरामदे )
बने होते थे। गोबर व मिट्टी की दीवारों के
बने इन मकानों की छत के लू- खपरेल की रहती थी। ओवरों के आगे
बड़ा खुला चौक और पोल बनी होती थी, जहाँ पशु
बाँधने, बैलगाड़ी तथा
कृषोपयोगी सामान रखने का इंतजाम होता था। पोल के अंदर एक तरफ कक्ष
अथवा चबूतरा बना होता था, जहाँ मेहमानों को ठहराया जाता था। पोल के बाहर दोनो ओर १-१.५
फीट ऊँची चबूतरी अथवा ३- ३.५ फीट ऊँचा चबूतरा
बनाया जाता था। यह स्थान दैनिक मिलने- जुलने के स्थान
अथवा सामाजिक उत्सवों पर जाति पंचायत की
बैठकों में काम आता है।
निम्न जातियों में पर्दाप्रथा का प्रचलन कम होने के कारण इनके
मकान खुले हुए तथा सपाट होते थे। पोलों
से संपूर्ण गृह का अवलोकन किया जाता था। किसानों की पोल का
मार्ग ६-७ फीट चौड़ा होता था, जिसमें
बैलगाड़ी आसानी से आ- जा सकती थी। कुम्हार,
सुथार, लुहार, आदि दस्तकार जातियाँ तथा
सोनी, झीणगर, सिकलीगर जैसी शिल्पी जातियाँ अपने
मकान के पोल में अपना व्यवसाय करती है।
अर्थात मकान के पोल कार्यशाला के रुप
में प्रयुक्त होते रहे हैं।
कृषक, पशुपालक, शिल्पी- दस्तकार तथा निम्न जातियों
में पर्दाप्रथा का प्रचलन कम होने के कारण,
मकान प्रायः खुले हुए एवं सपाट होते थे। पोलों
से संपूर्ण गृह- दृश्य का अवलोकन किया जा
सकता था। खुले हुए चौपाड़ी में निर्मित
ये मकान स्वास्थ्यानुकूल होते थे। हवा तथा पर्याप्त प्रकाश के
लिए बखारे (बड़े छेद ) बने होते थे। पशु
बांधने, खाद को एकत्रित करने तथा घास
रखने वाले स्थान को "बाड़ा' कहा जाता था। इन
बाड़ों में बने हुए कमरे को "नोहरा' कहा जाता था।
समय- समय पर यह स्थान सामाजिक-
उत्सवों पर दिये जाने वाले जातिभोजों न्यातमेलों के
लिए भी प्रयोग किया जाता था।
उच्च जातियाँ, जैसे ब्राह्मण, राजपूत तथा महाजन जातियों के आवासों की
बनावट थोड़ी अलग होती थी। द्विज जातियों
में पर्दाप्रथा का प्रचलन होने के कारण
मकान के मुख्य द्वार के सामने दीवार का ओटा (अवरोधक )
बनाया जाता था। आर्थिक रुप से संपन्न द्विज परिवार पक्का केलू- खपरेल
में रहता था, जिसकी छत खपरेल की बनी होती थी। ऊपरी
मंजिल पर बने कक्ष"मेड़ी' कहलाती थी।
मेड़ी की फर्श बांस तथा मिट्टी की बनी होती थी। चढ़ने -
उतरने के लिए लकड़ी या बांस की सीढियां
बनाई जाती थी।
गाँवा के जागीरदार का मकान समतल स्थान पर रावला तथा पहाड़ी गाँवों
में गढ़ या गढ़ी कहलाता था। इसके बनाने
में चूने तथा पत्थर का प्रयोग किया जाता था। इसमें
सोने, उठने- बैठने के लिए अलग- अलग कक्ष
बने होते थे, जो अंतरवास या जनाना, बाहरदारी तथा
बैठक के रुप में होते थे। गोखड़े, खिड़कियाँ तथा झरोखे इसकी
सुंदरता को बढ़ाते थे।
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