|
१३ वीं सदी के शुरुआत में जब मंगोलों ने मध्य एशिया और ईरान को तहस- नहस कर
दिया, तब कई सूफियों ने भारत की ओर रुख किया। वैसे राजस्थान में सूफियों की जमात का पहला आगमन सन् १०९१ ई.
(हिजरी ४८४) में ही हो गया था।
धीरे- धीरे अजमेर और नागौर चिश्तियों का कस्बा बन गया। नागौर कई सूफी संतों व आलियों का बढ़ा सद्र मकाम हो गया। वहाँ के प्रमुख सूफियों का उल्लेख किया जा रहा है :-
हमीदुद्दीन रेहानी
हमीदुद्दीन रेहानी, नागौर में आने वाले सूफियों में सबसे पहले थे। उन्हें संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान था। हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मावलंबियों में इनके प्रति विशेष श्रद्धा थी। इनका बनवाया हुआ मकान, आज भी ओसवालों के नोहरे में बताया जाता है। इनकी मजार बख्त सागर के समीप है।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी
नागौर में कयाम करने वालों में काजी हमीदुद्दीन नागौरी सुहरावर्दिया सिलसिले से जुड़े थे। भारत में सुहरावर्दिया सिलसिले की नींव १२ वीं सदी में शैख अबू नजीब अब्बदुल कादरि सुहशबर्दी ने रखी थी। हमीदुद्दीन नागौरी इन्हीं के खलीफाओं में से एक थे। इनका असली नाम शैख मुहम्मद इब्ने अता था। इनके पिता शैख अताउद्दीन, बुखारा के रहने वाले थे।
सन् १२०६ ई. में अताउद्दीन मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये। पिता के देहांत के बाद हमीदुद्दीन ने नागौर के कजात का पद सम्हाला। नागौर के समीप रहल गाँव को आबाद किया। वर्तमान में यह "रोल' के नाम से जाना जाता है। तीन वर्ष तक नागौर में रहने के बाद अचानक उन्हें वैराग्य की ओर झुकाव हो गया और वे पुनः बगदाद चले गये। वहाँ उनकी मुलाकात ख्वाजा कुतुबुद्दीन बाख्तियार काकी से हुई थी। इसी बीच वे मक्का व मदीना में ही रहे। अंततः दिल्ली आकर बस गये। सन् १२४४ ई. में यही इनकी मृत्यु हो गयी।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी ऊँचे दर्जे के आलिम- फाजिल थे। सैयद अशरफ जहाँगीर ने जताइफे अशरफी में लिखा है कि ख्वाजा बख्तियार काकी ने इनकी खिलअत भी प्रदान की थी। इन्होंने "लवाएह', तवालिए- शुमूस, राहतुल अवहि व इश्किया जैसे कई ग्रंथ लिखे। सूफियों की दर्सी किताबों में ये किताबें प्रतिदिन पढ़ी- पढ़ाई जाती थीं।
काजी हमीदुद्दीन नागौरी को चिश्तियों की तरह "समा' की महफिलों से विशेष लगाव था। यह उनकी खानकाह की दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था। काजी का मानना था कि जो ब्रम्हज्ञानी है, दुनिया से परहेज करते हैं, उनके लिए "समाअ' में शिर्कत करना मुनासिब है। उन्होंने अपने सिलसिले के प्रचार पर बहुत कम ध्यान दिया। उनका बेटा मौलाना नसीहुद्दीन ने दिल्ली में रहकर इस सिलसिले का प्रचार- प्रसार का काम किया।
उनके मुरीदों में चार महत्वपूर्ण थे - शैख अहमद नहखानी, जो पेशे से बुनकर थे, शैख आदनुद्दीन, जो पेशे से कसाई थे, शैख शाही मोतब, जो बदायूं के निवासी थे तथा ख्वाजा महमूद मुईनदुज, जो लोम- वस्र सीने का धंधा करते थे।
काजी हमीदुद्दीन कम बोलते थे तथा प्रायः अपनी दोनों आँखे बंद रखते थे। उनके मुरीदों ने जब इसकी वजह जाननी चाही, तो वे बोले ""दो चश्म न दारम कि ई आलम रा बिह बीनम'' (मेरे पास दो आँखें नहीं हैं, जिससे मैं इस संसार को भी देख सकूं।)
सूफी हमीदुद्दन सवाली
सूफी हमीदुद्दीन सवाली को सुल्तानुत्तार कान
(त्याग के सम्राट की) उपाधि से नवाजा गया है। इन्होंने नागौर में रहकर हर धर्म व मजहब के लोगों को आपसी प्रेम और सद्भाव से रहने का संदेश दिया। कई हिंदू मताबलंबी "तार किशनजी' के रुप में इनकी पूजा करते हैं।
इनका असली नाम अबू अहमद सईदी था। आपका जन्म सन् ११९३ ई.
(हिजरी ५९०) में हुआ था। वे ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के खलीफा थे तथा ख्वाली नामक गांव में रहते थे, जो इन दिनों भागली के नाम से जाना जाता है। इनका देहांत सन् १२७३ ई.
(हिजरी ६७२) नागौर में हुआ।
सूफी हमीदुद्दीन सवाली बड़े संतोषी प्रवृति के थे। इन्होंने कभी किसी से कोई भेंट स्वीकार नहीं किया। भागली गाँव में ही इनके पास एक बीघा जमीन थी, जिसपर वे स्वयं खेती करते थे। सियारुल ओलिया, जिसमें अधिकांश चिश्ती सूफियों का विवरण है, में उल्लेख है कि एक बार नागौर का मुक्ता, शेख के पास पहुँचा और कुछ जमीन स्वीकार करने के लिए निवेदन किया। उन्होंने कहा, ""हमारे ख्वाजगान ने किसी से कुछ कबूल नहीं किया, तो फिर मैं कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। सुल्तान को यह खबर पहुँचाई गई। सुल्तान ने ५०० टंके की थैलियाँ और एक गाँव का फरमान भेजा, परंतु शेख हमीदुद्दीन ने यह भेंट स्वीकार नहीं की।
शेख हमीदुद्दीन नागौरी अपने समय में अध्यात्मिक ज्ञान में विशेष दर्जा रखते थे। उनसे न केवल नागौर बल्कि दूर- दूर से व्यक्ति उनसे शिक्षा प्राप्त करने आते थे। बंगाल के सुल्तान गियासुद्दीन द्वितीय (सन् १३६७ से १३७३ ई.) ने भी शेख हमीदुद्दीन नागौरी से शिक्षा प्राप्त की थी।
इनकी पुस्तक व फारसी पत्र और अशआर कसरत में मौजूद हैं। आपकी सबसे मशहूर पुस्तक ""उसूले- तरीका'' है। जो फारसी मकतूबात सरुरुस्सदूर के नाम से विख्यात है।
शेख फरीदुद्दीन नागौरी
शेख फरीदुद्दीन नागौरी, मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन थे। वे शेख हमीदुद्दीन नागौरी के पोते थे। उनका जन्म हिजरी ६३९ में तथा मृत्यु हिजरी ७१९ में दिल्ली में हुआ। उन्होंने शेख हमीदुद्दीन नागौरी के मलफूजात
(उच्चरित- प्रवचन) का जखीरा "सुरुर- उस- सुदूर' को संग्रहीत किया।
शेख अहमद खट्टू
शेख अहमद खट्टू का जन्म सन् १३३७ ई. (हिजरी ७३८) में हुआ। जब वे चार वर्ष के थे, तो एक रेत भरे तूफान में खो गये। एक कारवां उनको अपने साथ ले गया। वे कारवां के साथ डीडवाना पहुँचे। इन्हें नजीव नामक व्यक्ति ने अपने पास रख लिया। इस समय खाटू में सूफी बाबा इस्हाक रहते थे। बाबा इस्हाक ने इनको मगरबी सिलसिले की तालीम दी। वे खाटू में ईश्वर का ध्यान करते रहे, उसके पश्चात हज यात्रा पर निकले। हज यात्रा के बाद आदन होते हुए, वे खाटू लौट आए।
जब १३९८ ई. में अमीरे- तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया, उस समय ये दिल्ली में ही थे। वे तैमूर से मिले। तैमूर उनसे प्रभावित हुआ।
गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह के अनुरोध पर इन्होंने गुजरात में रहना स्वीकार किया और सरखेज में रहने लगे। सरखेज में उनके लिए खानकाह और मदरसा भी बनवाया गया। जहाँ वे अपना समय इबादत और ईश्वर के ध्यान में गुजारते थे।
जनता द्वारा इन्हें कुतुबुल- अकताब (ध्रुवताराओं का ध्रुवतारा) और गंजबख्श
(खजाने का दाता) कहा जाता था।
शेख अहमद खट्टू का देहावसान सन् १४४६ ई.
(हिजरी ८४९) में हुआ। सरखेज की जामा मस्जिद के समीप इनकी मजार है।
शेख कबीर चिश्ती
शेख कबीर चिश्ती सुल्तानुत्तारकीन हमीदुद्दीन नागौरी के वंशज थे। काफी समय नागौर में व्यतीत कर, वे अहमद आबाद चले गये और वहीं सन् १४५४ ई.
(हिजरी ८५८) में देहावसान हो गया।
ख्वाजा हुसैन नागौरी
ये भी सुल्तानुत्तारकीन हमीदुद्दीन नागौरी के वंशज थे तथा शेख कबीर चिश्ती के मुरीद थे।
इन्होंने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बाँटकर, केवल एक छकड़ा अपने पास रख लिया। जिस पर बैठकर वे यात्रायें करते थे। छकड़ा भी स्वयं हाँकते थे तथा बैलों को चराने भी स्वयं जाते थे। सन् १४५९ ई.
(हिजरी ९०१) में इनका देहांत हुआ। इनकी मजार नागौरी में है।
ख्वाजा हुसैन नागौरी ने "नुरुन्नवी' नामक ग्रंथ की रचना की। इन्होंने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के कुछ भवन बनवाये तथा नागौर में सुल्तानुत्तारकीन के मजार के अहाते में बुलंद दरवाजे का निर्माण करवाया।
|