पूरे राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार- प्रसार शुरु से ही रहा है। इस धर्म से इस राज्य का एक विशेष संबंध रहा है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि जैनों के अंतिम तीथर्ंकर भगवान महावीर स्वयं यहाँ के भीनमाल नगर में आये थे। आबू रोड से ८ कि.मी. पश्चिम की तरफ स्थित मुंगस्थान नामक स्थान से सन् १३६९ ई. का मिला एक शिलालेख यह बताता है कि महावीर स्वामी ने अर्बुद की धरा का भी स्पर्श किया था। यहाँ के मारवाड़ क्षेत्र के कई स्थलों, जैसों अचल गढ़, चंद्रावती, ब्राह्मणवाड़, सांचोर, जालोर, जोधपुर, नागौर, बीकानेर इत्यादि स्थान तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में, जो जैन धर्म का प्रचार व फैलाव हुआ, वह उल्लेखनीय है।
जैन धर्म के प्रसार के साथ कई जैनाचार्यों का पर्दापण हुआ। इन संतों में कुछ वैसे थे, जिनका जन्म यहीं हुआ तथा संयम- साधना की भी यहीं पालना की। दूसरी श्रेणी, वैसे संतों की थी, जिनकी मातृभूमि तो मारवाड़ नहीं थी, परंतु वे यहीं आकर बस गये थे। इन जैन संतों ने अपनी लेखनी के माध्यम से कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कर डाली। ये हस्तलिखित ग्रंथ प्रायः जैन धर्म, दर्शन, चित्रकला, इतिहास तथा उपदेशों से संबंधित थे। ये रचनाएँ दोनों प्रबंध काव्य और मुक्तक काल के रुप में लिखे गये, जो ये दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र कवियों के विचरण व साहित्य- सृजन का विशिष्ट क्षेत्र रहा है। इसमें से कई ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। भाषा का माध्यम प्राकृत और अपभ्रंश तथा संस्कृत तो है ही, साथ- साथ कई रचनाएँ राजस्थानी भाषा में भी खूब की गई है। कई महत्वपूर्ण रचनाओं का राजस्थानी भाषा में लेखन लोक भाषा अपनाने की पुरानी परंपरा को दर्शाता है, जैसे महावीर ने स्वयं अपने उपदेश लोकभाषा अर्ध- मागधी में दिये।
मारवाड़ में सर्वप्रथम किस जैन संत- कवि ने राजस्थानी भाषा में लिखना प्रारंभ किया, इस विषय पर प्रामाणिक रुप से कुछ कहना बहुत कठिन है। वि.सं. ८३५ में उद्योतन सूरि ने जालोर में बैठकर ग्रंथ "कुवलयमाला' की रचना की। यह ग्रंथ प्राकृत में लिखा गया है, परंतु इसमें मरुभाषा के नाम से राजस्थानी का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार १० वीं शताब्दी में सिद्धर्षि नामक संत कवि ने भीमाल में "उपमिति भव प्रपंच कहा' रुपक ग्रंथ बनाया। इसमें भी राजस्थानी भाषा का आदि स्वरुप देखने को मिलता है। अपभ्रंश की रचनाएँ भी इसी क्षेत्र में लिखी हुई मिलती है, उनमें धनपाल कवि की सांचोर में लिखी "सत्यपुरीय महावीर उच्छाह' रचना प्रमुख है। महमूद गजनबी द्वारा वि. सं. १०८१ में सांचोर के महावीर जिनालय की मूर्ति तोड़ने की असफल कोशिश की गई, इस बात का वर्णन है। ब्राह्मणवाड़ में बारहवीं शदी सिंह कवि ने "पुज्जुनकहा' नामक काव्य ग्रंथ लिखा। उपरोक्त दोनों ही रचनाएँ अपभ्रंश की हैं, परंतु इनमें प्राकृत के बाद के राजस्थानी का साहित्य स्वरुप देखने को मिलता है। अभयदेव के शिष्य मलधारी हेमचंद्र ने वि.सं. ११८० में मेड़ता और छत्रपल्ली में रहकर अपनी प्रसिद्ध कृति "भवभावना' की रचना की। जिनदत्त सूरी की अपभ्रंश काव्यत्रयी के अंतर्गत छपी हुई है।
तेरहवीं सदी राजस्थानी का आदिकाल माना जा सकता है। इस काल में राजस्थानी जैन संतों की स्वतंत्र रचनाएँ मिलनी प्रारंभ हो जाती है। सर्वप्रथम रचना नागौर के वादिदेवसूरि के शिष्य
वज्रसेनसूरि की "भरतेश्वरबाहुबली घोर' मिलती है। यह पैंतालिस छंदों की रचना है और इसमें जैन धर्म के प्रथम तीथर्ंकर भगवान ॠषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबली के युद्ध का वर्णन है। शांतिनाथ जिनालय के संस्थापक सूरि के उत्तराधिकारी जिनेश्वर सूरि की लिखी "महावीर जन्माभिषेक' श्री बासूपूज बोलिका चर्चरी, शांतिनाथ बोली आदि राजस्थानी रचनाएँ मिलती है। जिनपति सूरि के एक अन्य शिष्य सुमतिगणि ने "नेमिरास' की रचना की। इसके अंतर्गत बाईसवें तीथर्ंकर नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन है। इस तरह तेरहवीं सदी के अंदर, जो राजस्थानी जैन संत रचनाएँ मिलती है, वे सब राजस्थानी की रचनाएँ तो हैं, किंतु इन पर अपभ्रंश और गुजराती का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
चौदहवीं सदी में खरतरगच्छ के आचार्य जिनेश्वर सूरि का शिष्य उपाध्याय लक्ष्मीतिलक एक प्रसिद्ध विद्वान और संत कवि था। इसके द्वारा लिखित शांतिनाथ देव दास राजस्थानी का काव्य है। इसमें खेड़ नगर के शांतिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा और वि.सं. १३१३ में जालोर के शांतिजिनालय की प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक वर्णन है। कालांतर में इस रास को जालोर में मंचित भी किया गया। जोधपुर राज्य के कोरटा गाँव में वि.सं. १३६३ में प्रज्ञातिलक के काल की "कच्छूली रास' नामक राजस्थानी रचना भी मिलती है।
१५ वीं सदी के उत्तरार्द्ध में पीपलगच्छ का हीरानंद सूरि का अच्छा संत कवि हुए। वस्तुपाल, तेजपाल रास, विद्याविलास, पवाडा, कलिकाल रास आदि इनकी रचनाएँ हैं। इसकी "जम्बूसामी विवाहउल' रचना सांचोर में लिखी हुई है। इसी तरह सोलहवीं सदी के प्रारंभ में वि. सं. १५०५ में संघकलस नामक संत ने "सम्यक्तव रास' मारवाड़ के तलवाडापुर
(तिलवाड़ा) में रचा। मारवाड़ के समियाणा ग्राम में जन्में गुणरत्न सूरी के शिष्य पद्यमंदिरगणि ने "गुणरत्न सूरि विवाहलउ' नाम की ४९ छंदों की एक रचना लिखी। पद्यमंदिर सूरि के राजस्थानी में लिखे हुए दो स्तवन भी मिलते हैं। ये दोनों ही स्तवन वि. सं. १५४३ में लिखे गये। पहला स्तवन वरकाणा पार्श्वनाथ का स्तवन है, जिसमें २० गाथा है और दूसरा जालोर नवफणा पारस दस भव स्तवन है, जिसमें ३५ गाथा है।
१५ वीं सदी में नागौर जैन तपागच्छ के किसी अज्ञात कवि ने "पेरोजखान प्रशस्ति ' लिखा। इसमें उन्होंने खानजादा वंश के वजीर- उल- मुल्क से लेकर सुल्तान फिरोज खान के समय तक के प्रशस्तियों का उल्लेख किया। यह ग्रंथ खानजादा वंश के इतिहास की जानकारी की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। १६ वीं सदी के अंत में यही के आचार्य चंद्रकीर्ति के शिष्य हर्ष कीर्ति ने संस्कृत और डिंगल में धातुपाठ, धातु- तरंगिणी, सारस्वत दीपिका सिंदूर प्रकरण टीका,कल्याण मंदिर टीका आदि कई ग्रंथों की रचना की। यही चंद्र सूरि के शिष्य हर्षगणि यहाँ के प्रमुख कवि थे। वि.सं. १६७३ में इन्होंने मेड़ता में "पंचमी तप गर्भिल नेमि जिनवर स्तवन' की रचना की।
१६ वीं सदी के पश्चात् भी कई उल्लेखनीय जैन संत कवि हुए हैं। इनमें से मारवाड़ के कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख किया जा रहा है :-
१. पार्श्वचंद्र सूरि
पार्श्वचंद्र सूरि मारवाड़ के एक प्रमुख जैन संत कवि माना जाता है। इनका जन्म सिरोही राज्य के हमीरपुर गाँव की पोरवाल जाति में वि.सं. १५३७ में हुआ तथा वि. सं. १६१२ में जोधपुर में देहांत हो गया।
अपने संपूर्ण जीवन- काल में इन्होंने जैन धर्म संबंधी कई रचनाएँ की। अधिकांश रचनाएँ जैन सिद्धांतों का उल्लेख करती है। इन्होंने गद्य व पद्य दोनों ही रुपों में लिखा। सिर्फ पद्य में इनकी ९२ रचनाएँ प्राप्त होती हैं।
कालांतर में पार्श्वचंद्र सूरि के नाम पर ही जैन मूर्तिपूजक समाज में पार्श्व चंद्र गच्छ का प्रचलन हुआ। बीकानेर में इस गच्छ की श्री पूजगादी है तथा नागौर में उपासरा है।
२. विजयदेव सूरि
ये पार्श्वनाथ गच्छ परंपरा के संत कवि थे। इनके द्वारा रचित "शीलरास' की साहित्य जगत में बहुत सराहना हुई। इसकी रचना जालोर में की गई। इस रचना की प्रतियाँ हस्तलिखित ग्रंथ भण्डारों में उपलब्ध है। ८० पद्यों की इस रचना में शील धर्म का वर्णन है।
३. वाचक नियमसमुद्र
ये उपकेश गच्छ से संबद्ध हर्षसमुद्र के शिष्य थे। इनका रचनाकाल वि. सं. १५८३ से १६१४ तक माना जाता है। ज्यादातर रचनाएँ बीकानेर में लिखी गई हैं। अब तक इनकी कुल २५ रचनाओं की जानकारी है, जिनमें "विक्रय पंचदण्ड चौपई' "चित्रसेन पद्मावती रास' व "चंदन बाला रास' उल्लेखनीय है।
४ महोपाध्याय पुण्यसागर व पद्मराज
महोपाध्याय पुण्यसागर खरतरगच्छ के संत कवि थे तथा पद्मराज उनके शिष्य थे। पुण्यसागर ने वि.सं. १६०४ में "सुबाहु संधि' नामक ग्रंथ की रचना की। इसमें ८९ पद्य हैं। इसके अलावा इन्होंने "साधु वंदना' "नमि राजर्षि गीत' व अनेक स्तवन भी लिखे।
पद्मराज भी अच्छे संत कवि माने जाते हैं। उनकी लिखी "अभयकुमार चौपई' एक प्रसिद्ध रचना है। यह रचना वि. सं. १६५० में जैसलमेर में हुई।
५. वाचक मालदेव
वाचक मालदेव वाचक भावदेव सूरि के शिष्य थे। इनका कार्य क्षेत्र बीकानेर रियासत का भटनेर कस्बा रहा है, जिसे हनुमानगढ़ कहा जाता है। इस क्षेत्र में बड़गच्छ का अच्छा- खासा प्रभाव रहा है।
वाचक मालदेव की रचनाएँ संस्कृत और प्राकृत में मिलती हैं, लेकिन राजस्थानी रचनाओं को ज्यादा प्रसिद्धि मिली। "पुरंदर चौपई' का अत्यधिक प्रचार हुआ। इनकी कई रचनाएँ विक्रम तथा भोज की कथाओं को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इसके अलावा उन्होंने गीत, स्तवन और सज्झाय सज्ञक भी लिखे हैं।
६. साधु कीर्ति
साधु कीर्ति जिनभद्र सूरि की परंपरा से जुड़े हुए थे। इनकी रचनाएँ गद्य व पद्य दोनों में मिलती है। वि. सं. १६३६ में नागौर में रचित "नेमिराजर्षि चौपई' इनकी प्रमुख रचना है। "शीतल जिन स्तवन' भी इन्होंने ही लिखा है।
७. कुशललाभ
मारवाड़ में राजस्थानी के जैन संतों में वाचक कुशललाभ का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। ये खरतरगच्छ के प्रचारक अभयधर्म के शिष्य थे। जैसलमेर के रावल मालदेव के कुंवर हरराज के लिए इन्होंने वि. सं. १६१६ में ढोलामारु और वि. सं. १६१७ में माधवानंद कामकंदला नामक रचनाएँ लिखीं। दोनों रचनाएँ लौकिक प्रेम की काव्यमय कथाएँ हैं। इसका राजस्थान में व्यापकता से प्रचार हुआ।
उन्होंने राजस्थानी भाषा के छंदों के आधार पर पिंगल सिरोमणि ग्रंथ भी बनाया। इनकी प्रमुख छंद रचनाएँ - "तेजसार रास', "अगड़दत्त रास', "जिनपालित- जिनरक्षित संधि', "दुरगा सतसई', "पूजा बाहण गीत', "पार्श्व स्तवन', "नवकर छंद', "गौड़ी पार्श्व छंद' व "शत्रुंजय यात्रा स्तवन'।
८. चरित्रसिंह
चरित्रसिंह का कार्यक्षेत्र जैसलमेर रहा है। ये मतिभद्र के शिष्य थे। उन्होंने "मुनिमालिका' नामक ग्रंथ की रचना की थी। राजस्थानी में लिखी इनकी अन्य रचनाएँ है - "चतुस्मरण प्रकरण संधि', "पठस्थान प्रकरण संधि' व साधुगुणस्तवन।
९. हेमरत्न सूरि
हेमरत्न सूरि पूर्णिमा गच्छ के अनुयायी थे तथा ज्ञान तिलक सूरि के शिष्य थे। राजस्थानी
भाषा में रचित "गौरा बादल पद्मिणी चउपई' इनक मुख्य रचना मानी जा सकती है। यह रचना उन्होंने वि. सं. १६४५ में समदड़ी नगर में ताराचंद कावड़िया के निर्देश से किया था। इनकी अन्य रचनाएँ हैं - "अमर कुमार चौपई' वि. सं. १६३८ में बीकानेर में रचित, "लीलावती चौपई' तथा "महिपाल चौपई'।
१०. सारंग
संत कवि सारंग मड़ाहड़ गच्छ के पद्यसुंदर के शिष्य थे। वे राजस्थानी भाषा की प्रसिद्ध रचना "कृष्ण रुक्मणी री वेलि' की संस्कृत टीका के कर्ता थे। इनका कार्य क्षेत्र जालोन था। इन्होंने वि. सं. १६३९ में "विल्हण पंचासिका चौपई', वि.सं. १६४५ में "भोज प्रबंध चौपई' और "वीरांगद चौपई' की रचना की।
११. कनकसोम
उपाध्याय साधु कीर्ति के गुरुभ्राता कनकसोम ने नागौर में वि.सं. १६३२ में "जिनपालित जिनरक्षित रास' और वि. सं. १६५५ में "थावचा सुकोशल चरित' नामक दो ग्रंथों की रचना की। उनके द्वारा लिखित गीत, स्तवन और सज्झाय भी मिलते हैं। इनका रचनाकाल वि. सं. १६१५ से १६५५ तक माना जाता है।
१२. कविवर हीर कलश
ये खरतरगच्छीय हर्षप्रभ के शिष्य थे। इनका मुख्य काम क्षेत्र बीकानेर और नागौर रहा है। ये ज्योतिष के भी प्रसिद्ध विद्वान थे। राजस्थानी भाषा में इन्होंने "हीरकलश जोइसहीर' नामक ९०५ छंदों वाली रचना लिखी, जिसकी बहुत सराहना हुई। इनकी दूसरी रचनाओं में "मुनिपति चौपई' (वि. सं. १६१८ बीकानेर), "सोलह सपन सज्झाय' (वि.सं. १६२२ राजलदेसर), "आराधना चौपई', (वि.सं. १६२३, नागौर), "सिंघासन बत्तीसी'
(वि.सं. १६३६ मेड़ता), "जीभदांत वाद' (वि.सं. १६४३, बीकानेर), "हीयाली'
(वि.सं. १६४३ बीकानेर) आदि उपलब्ध है। कई अन्य फुटकर रचनाओं को मिलाकर इनकी कुल रचनाएँ लगभग ३० है।
१३. महोपाध्याय समय सुंदर
महोपाध्याय समयसुंदर राजस्थानी भाषा के सबसे बड़े जैन संत कवि और गीतकार थे। इनका जन्म सांचोर नगर में वि.सं. १६१० में पोरवाल जाति में हुआ था।
इनके माता का नाम लीलादेवी तथा पिता का नाम श्रावण रुपजी था। इनका रचना काल वि.सं. १६४० से १७०० के बीच माना जाता है। मेड़ता, जालौर, नागौर और जैसलमेर में रहते हुए, इन्होंने राजस्थानी के अनेक प्रबंध व मुक्तक काव्यों की रचना की। इनका अंतिम पड़ाव गुजरात
रहा। अपने सम्पूर्ण जीवन काल में इन्होंने छोटी- बड़ी ५०० से अधिक रचनाएँ की। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं -
-- समयाचारी शतक (संस्कृत, वि.सं. १६७२, मेड़ता नगर में)
-- क्षमा बत्तीसी (डिंगल- नागौर में)
-- विशेष शतक (संस्कृत, वि.सं. १६७२, मेड़ता नगर में)
-- सिंहल सुत- प्रिय मेलक रास (डिंगल, वि. सं. १६७२, मेड़ता नगर में)
-- नल दमयंती रास (डिंगल, वि.सं. १६८२, नागौर में)
-- शत्रुंजयरास (डिंगल, वि.सं. १६८३, मेड़ता नगर में)
-- सीताराम प्रबंध चौपाई (डिंगल, वि. सं. १६८३, मेड़ता नगर में)
-- मृगावती रास
-- पुण्यसागर रास्त
-- वास्तुपाल तेजपाल रास
-- प्रियमेलक रास
-- चार प्रत्येक बुद्ध रास
-- वल्कल चीरी रास
-- साम्ब प्रद्युम्न चौपई
-- चम्पक श्रेष्ठी चौपाई
-- धनदत्त चौपाई
इनके द्वारा लिखित "सीताराम प्रबंध चौपई' राजस्थानी रामायण के नाम से बहुत ही लोकप्रिय हुआ। गीतों में तो इनकी श्रेष्ठता सर्वमान्य है। "समयसुंदर रा गीतड़ा और राणे कुम्भे रा भीतड़ा' कहावत उनकी महानता को चरितार्थ करता है।
१४. जिनराज सूरि
जिनराज सूरि का जन्म वि.सं. १६४७ में हुआ था। इनके पिता का नाम बोथरा धर्मसी तथा माता का नाम धारलदे था। इन्होंने नौ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम राजगुप्त था। जिनसिंह सूरि के पट्टधर शिष्य थे। वि.सं. १६६८ में वाचक पद और वि.सं.१६७४ में इन्हें मेड़ता में प्राचार्य पदवी मिली और अनका नाम जिनराज सूरि रखा गया। वि.सं. १६७८ में "शालिभद्र रास' की रचना की। इस रचना को बहुत लोकप्रियता मिली। इनकी दूसरी रचनाओं में "कयवन्ना रास', "गजसुकमाल रास', फुटकर गीत और कवित्त भी बड़ी संख्या में उपलब्ध मिलते हैं।
१५. जिन समुद्र सूरि
जिन समुद्र सूरि श्री श्रीमाल जाति के थे। उनके पिता का नाम शाह हरराज तथा माता का नाम लखमादेवी था। इनका साधु अवस्था का नाम महिमसमुद्र और आचार्य पदवी मिलने के बाद
जिन समुद्र सूरि के नाम से इनको ख्याति मिली। ये बेगड़गच्छ के संत कवि थे और जिनचंद्र सूरि के स्वर्गवास के पश्चात् वि.सं. १७१३ में आचार्य बने। इनकी रचनाओं से ज्ञात होता है कि इनका रचना क्षेत्र जैसलमेर, सिंध और जोधपुर रहा। इनकी करीब ३० बड़ी रचनाएँ हैं। शेष स्तवन, फाग, छतीसी इत्यादि छोटी और फुटकर रचनाएँ मिलती है। मुख्य बड़ी रचनाएँ इस प्रकार है - "वसुदेव चौपई', "ॠषिदत्ता चौपई', "रुक्मणी चरित्र', "हरिबल चौपई', "इलाचीकुमार चौपाई', "प्रवचन रचना वेलि', "शत्रुंजय रास'।
१६. श्री सार
ये श्रीसार महोपाध्याय सहजकीर्ति के गुरुभ्राता और खरतरगच्छ की क्षेमकीर्ति शाखा के वाचक हेमनंदन के शिष्य थे। इनका विचरण क्षेत्र सेत्रावा, जैसलमेर, फलौदी और पाली रहा। इन्होंने पृथ्वीराज राठौड़ कृत "वेलि क्रिसन रुक्मणी री' की संस्कृत टीका भी लिखी। "आणंद श्रावक री संधि' नामक रचना का राजस्थानी साहित्य जगत में खूब प्रचार हुआ। इनकी अन्य दूसरी रचनाओं के नाम इस प्रकार है - "जिनराज सूरि रास'
(वि. सं. १६८१ सेत्रावा) "पारसनाथ रास' (वि. सं. १६८३, जैसलमेर), "सतरभेदी पूजा स्तवन'(फलोदी), "मोती कपासिया छंद'
(वि. सं. १६८९, फलौधी), "सार बावनी' (वि.सं. १६८२, पाली), "मृगापुत्र चौपई'
(वि.सं. १६७७, बीकानेर) आदि।
१७. जिनहर्ष
ये संत खरतरगच्छ की क्षेम शाखा के हैं। इनका जन्म नाम जसराज और दीक्षा नाम जिनहर्ष है। इनकी पहली रचना वि.सं. १७०४ की लिखी मिली है। इनके लिखे गये ७० के करीब तो प्रबंध काव्य और बहुत से गीत, कवित्त, छप्पय आदि भी मिलते हैं। मारवाड़ में पैदा होने के उपरांत भी दीक्षोपरांत अधिकांश समय गुजरात के पाटन नगर में ही बीता। वहीं रहते हुए इन्होंने साहित्य सृजन किया। इनकी प्रारंभिक रचनाएँ बाड़मेर, सांचोर में लिखी मिलती है, जिनमें "मत्योसररास' वि.सं. १७१८ "मृगावती चौपई' वि.सं. १७१४, सांचोर आदि मुख्य रचनाएँ हैं।
१८. सहजकीर्ति
महामहोपाध्याय सहजकीर्ति खरतरगच्छ की क्षेमकीर्ति शाखा के वाचक हेमनंदन के शिष्य थे। ये व्याकरण, कोष और संस्कृत भाषा के माने हुए विद्वान थे, परंतु राजस्थानी में भी बहुत काव्य रचा। इनकी मुख्य रचनाएँ इस प्रकार है - "सुदर्शन चौपई'
(वि.सं. १६६१ बगड़ी) "कलावती चौपई (वि.सं. १६६७), "देवराज बच्छराज चौपई'
(१६७५, बीकानेर), "नरदेव चौपई' (१६८२, पाली)।
१९. विजयमेरु
विनयमेरु खरतरगच्छ के अनुयायी हेम धर्म के शिष्य थे। इनकी जैसलमेर में लिखी "शत्रुंजय रास'
(वि.सं. १६७९, जैसलमेंर) "देवराज वच्छराज प्रबंध', "रीणी अर पन्नवणा विचार स्तवन,(वि.सं. १६९२, साचोर) में लिखी काव्य रचनाएँ मिलती हैं।
२०. महोपाध्याय धर्मवर्द्धन
इनका जन्म नाम धर्मसी और संत कवि के रुप में इनका नाम धर्मवर्द्धन था। इनकी दीक्षा जिनचंद्र सूरि के हाथों वि.सं. १७१३ में सांचोर में हुई। ये राजस्थानी के अच्छे कवि में से एक थे। इन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों ही प्रकार के साहित्य का सृजन किया। इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ "श्रेणिक चौपई'
(वि.सं. १७१९) "अमरसेन वयरसेन चौपई,
(वि.सं.१७२४) "सुरसुंदरी रास' (वि.सं. १७३६ बिलाड़ा), "दशाणभद्र चौपई'
(वि.सं. १७५७ मेड़ता), "शील रास गाथा, बीकानेर, "धर्मबावनी' कुण्डलियाँ, स्तवन आदि।
२१. आनंदधन
इनका जन्म का नाम लाभानंद था, लेकिन इन्होंने आनंदधन के नाम सक ही अनेकों पदों की रचना की। मेड़ता इनके साहित्य सृजन का मुख्य स्थल था। इनके फुटकर पद मिलते हैं, जिनमें अध्यात्म की अनुभूति है।
२२. कुशलधीर
ये जिनमाणक्य परंपरा के वाचक कल्याणलाभ के शिष्य थे। इनकी रचनायें सांचोर, सोजत, जोधपुर आदि स्थानों पर लिखी मिलती है। "कृष्ण रुक्मणी री वेलि' पर आधारित "बालावबोध', "शीलवती रास'
(वि.सं. १७२२, सांचोर), "लीलावती रास',
(वि.सं. १७२८ सोजत), "भोज चौपई (वि.सं. १७२९ सोजत) आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।
२३. अभयसोम
ये सोमसुदंर के शिष्य और संत कवि थे। इनकी राजस्थानी रचनाएँ वि.सं. १७११ से १७४७ तक मिलती है। वि.सं. १७२३ में इन्होने सिरोही और उसके आस- पास के क्षेत्र में विचरण किया और सिरोही में "खापरा चोर चौपई' की वि.सं. १७२३ में की। इनकी दूसरी रचनाओं हैं - "वैदर्भी चौपाई', "चंद्रोदय कथा चौपाई', "जयन्ति संधि', विक्रम लीलावती चौपाई', "मानतुंग मानवती चौपई', "वस्तुपाल तेजपाल चौपाई', "गुणावली चौपाई'।
२४ कीर्तिसुंदर
कीर्तिसुंदर का रचना काल वि.सं. १७५७ से वि. सं. १७६२ तक है। इन्होंने अपनी
अधिकांश रचनाएँ जैतारण व मेड़मा में की है। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं - "अभवती सुकुमाल चौढ़ालियो', "ज्ञान छत्तीसी', "माकड़ रास', अभयकुमारादि पाँच साधुरास इत्यादि।
२५. विनयचंद्र
विनयचंद्र का जन्म वि.सं.१८९७ की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को फलौधी
(मारवाड़) में हुआ। इनके पिता का नाम प्रतापमल पुंगलिया और माता का नाम रंभा था। ये शांत स्वभाव वाले तथा कवि- हृदय संत थे। सोलह वर्ष की उम्र में ये जैन संत बने वि.सं.१९७२ में इनका स्वर्गवास हुआ। इनकी रचनाओं में - "अनाथी री सज्झाय', अन्जना सती रो रास', "गौतम रास', "धन्नासी री सज्झाय', "नेमजी रो ब्यावलो', "सुभद्रा सती चौपई', "नेमिनाथ राजीमती रो बारह मासियो' आदि प्रमुख हैं।
२६. रायचंद
ॠषि रामचंद जन्म वि.सं. १७९६ को आश्विन शुक्ला एकादशी को जोधपुर में हुआ। इनके पिता का नाम विजयचंद धारीवाल और माता का नाम नंदा देवी था। वि.सं.१८१४ में पीपाड़ नगर में स्थानकवासी आचार्य जयमल के शिष्य बने तथा वि.सं. १८६१ में रोहट में इनका स्वर्गवास हुआ। इनका रचनाकांल वि.सं. १८२१ से वि.सं. १८५८ के बीच है। अधिकांश रचनाएँ राजस्थानी में है। छोटी- बड़ी सब मिलाकर इन्होंने लगभग २०० रचनाएँ की है, जिनमें जुगमंधन स्तवन, महावीर जी को चढ़ालियों, जयवंती रो चतढ़ालियो, मृग लेखयानी चौपाई।
२७. आचार्य संत भीखनजी
वे पंत भीखनजी का जन्म वि.सं. १७८३ की आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को हुआ। वे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के प्रवर्त्तक थे, साथ-साथ ही राजस्थानी के बहुत बड़े कवि और लेखक भी थे। वि. सं. १८१७ की आषाढ़ी पूर्णिमा को इन्होंने तेरापंथ की स्थापना की। अनकी रचनाएँ "भिक्षु ग्रंथ- रत्नाकर' के नाम से दो भागों में छपी है। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में ही साहित्य श्रृजन किया। इनकी गद्य रचनाओं में हुण्डिया, चरचाएँ, थोकड़ै आदि प्रमुख हैं।
२८. कमल हर्ष
कमल हर्ष ने वि. सं. १७२८ से १७५० के बीच मेड़ता नगर में रहकर पाण्डवरास, धन्ना चौपाईद्व अंजना चौपाई, रात्रि भोजन चौपाई, आदिनाथ चौढ़लियों, दशवै कालिक आदि ग्रंथों की रचना की।
२९. उत्तमचंद भण्डारी
उत्तमचंद भण्डारी महाराजा मानसिंह के सचिव थे। उन्होंने राजकीय सेना में नागौर में रहकर काव्य शास्रीय ग्रंथ "अलंकार आशय' की रचना की।
३०. उदयचंद भण्डारी
उदयचंद भण्डारी ने नागौर में ज्ञान प्रदीपिका और छंद प्रबंध तथा डीडवाना में शनीरश्चर जी की कथा का प्रणयन किया। उन्होंने साहित्यसार छंद विभूषण, ब्रह्मविलास, आत्मज्ञान जैसी कुल २५ ग्रंथों की रचना की।
३१. गुण विजय
वि. सं. १६५२ में विजयसिंह सूरि विजय प्रकाश रास की रचना की।
३२. सुमति वल्लभ
सुमति वल्लभ ने वि.सं. १७१९ में श्री जिनदास निर्वाणरास की रचनप की।
३३. ज्ञान सागर
ज्ञान सागर ने इलायची कुमार रास और आषाढ़ भूतिरास की रचना की।
३४. जयाचार्य
ये तेरापंथ के चौथे आचार्य थे। इनका जन्म जोधपुर के रोहट गाँ में वि.सं. १८६० की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ था। ये जन्मजात आशुकवि थे। ये राजस्थानी के सबसे बड़े साहित्यकार माने जाते हैं। छोटी- बड़ी कुल मिलाकर इनकी १२८ रचनाएँ मिलती है। "भगवती री जोड़' नामक रचना उनकी सबसे बड़ी रचना है, जिसमें एक लाख पद्य परिमाण है।
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