राजस्थान विशेषकर इसका नागौर जनपद शुरु से संतों व भक्तों की पावनभूमि के रुप में जाना जाता रहा है। इन संतों ने विविध संप्रदायों को अस्तित्व में लाया। इन संप्रदायों में रामस्नेही संप्रदाय बहुत बड़ा अवदान रहा है।
रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव १८ वीं शताब्दी में हुआ। साधारण जन को लोकभाषा में धर्म के मर्म की बात समझाकर, एक सुत्र में पिरोने में इस संप्रदाय से जुड़े लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन संतों ने हिंदू- मुसलमान, जैन- वैष्णव, द्विज- शूद्र, सगुण-निर्गुण, भक्ति व योग के द्वन्द्व को समाप्त कर एक ऐसे समन्वित सरल मानवीय धर्म की प्रतिष्ठापना की जो सबके लिए सुकर एवं ग्राह्य था। आगे चलकर मानवीय मूल्यों से सम्पन्न इसी धर्म को "रामस्नेही संप्रदाय' की संज्ञा से अभिहित किया गया।
रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती आयी है। इनका सिद्धांत संत दरियाजी के सिद्धांतों पर आधारित उनके अनुयायियों ने इनका प्रचार- प्रसार देश के विभिन्न भागों में निरंतर करते रहे। इस संप्रदाय के प्रमुख संतों का उल्लेख इस प्रकार है -
दरियाव जी / दरिया साहब
नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। इनका जन्म जोधपुर राज्य के जैतारण गाँव में वि.सं. १७३३ ( ई. १६७६ ) की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, बुधवार को हुआ था। इनके पिता का नाम मानसा तथा माता का नाम गीगा था। ये पठान धुनिया थे।
मुरधर देस भरतखण्ड मांई, जैतारण एक गाँव कहाई।
जात पठाण रहत दोय भाई, फतेह मानसा नाम कहाई।।
-- दरियाव महाराज के जन्म चरण की परची
पिता मानसा सही, माता गीगा सो कहिये।
बण सुत को घर बुदम जात धुणियां जो लहिये।।
-- दरियाव महाराज की जन्मलीला
( ह.ग्रंथ, रा.प्रा.वि.प्रतिष्ठान, जोधपुर )
खुद दरिया साहब ने अपनी बाणी में कहा है -
जो धुनियां तो भी मैं राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा।।
-- दरिया बाणी पद
प्रेमदास की कृपा से दरिया के सारे जंजाल मिट गये --
सतगुरु दाता मुक्ति का दरिया प्रेमदयाल।
किरपा कर चरनों लिया मेट्या सकल जंजाल।।
-- दरिया बाणी
दरिया अपने गुरु में बड़ी श्रद्धा रखते थे और गुरु भी सदैव कृपा की वर्षा द्वारा दरिया के अन्तःकरण का सेचन करते रहते थे। कहा जाता है कि एक बार गुरु प्रेमदास को रसोई ( भोजन) देनी थी, परंतु दरिया निर्धन थे, अतः चिंतित हुए। रात को जब दरिया सोये हुए थे, तब भगवान ने हुंडी लिखकर उनके सिरहाने रख दी, जिससे रुपये लेकर दरिया ने गुरु को रसोई ( भोजन ) दी। इसका उल्लेख दादूपंथी संत ब्रह्मदासजी ने अपनी भक्तमाल में किया है --
सिख दरिया प्रेम सतगुर, दयण रसोई द्वार।
सिराणे गा मेल सूतां, हुंडी सिरजणहार, तो
किरतार जी किरतान, कारज सारिया किरतार
-- भक्तमाल चतुर्थ, छः २४
दरिया ने मेड़ता व रेण के बीच पड़ने वाले ""खेजड़ा'' नामक स्थान का साधना स्थली के रुप में चुना और साधना की परिपक्वता के पश्चात् लोकहितार्थ अलग- अलग स्थानों में घूमकर अपने अनुभवों एवं उपदेशों का प्रचार- प्रसार किया। इस दौरान इनके अनेक शिष्य बने। राम- नाम का प्रचार करते हुए राम के स्नेही दरिया ने सन् १७५८ ई.( वि.सं. १८१५ ) मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को रेण में ही इनका देहांत हो गया। रेण में आज भी संत दरियावजी की संगमरमर की समाधि बनी हुई है, जहाँ प्रति वर्ष चैत्र सुदि पूर्णिमा को मेला लगता है।
गुरु दरिया द्वारा समय- समय पर दिये गये उपदेश एवं उनकी साधनात्मक अनुभूतिमय कविता का शिष्यों ने संकलित किया, यही ""वाणी'' कहलाती है। अपनी वाणी में उन्होंने बोल- चाल के शब्दों का ही प्रयोग किया है। यों फारसी- अरबी शब्दों ( जैसे- रहीम, हवाल, दरद, हुकुम, सुलतान, गलतान, गुजरान, शैतान, खबर, ,ख्वार, दस्त, दीवाना, मौल, मंजिल, हाजिर, दरबार, दरवेस आदि ) का भी प्रयोग हुआ है, पर ये सब जनसाधारण में प्रचलित शब्द ही हैं, इसलिए बोधगम्य है। चूंकि उनकी साधना व प्रचार क्षेत्र राजस्थान ही रहा, अतः उनकी वाणी में राजस्थानी
शब्दों का बाहुल्य है।
कहा जाता है कि इनकी ""वाणी''दस हजार ( १०००० ) साखी व पदों के परिमाण में थी, परंतु स्वयं दरियासाहब ने उस वाणी- संग्रह को जल में बहा दिया। इनके संभावित कारण में माने जाते हैं --
१. अब दरिया उस असामान्य आध्यात्मिक भूमिका को स्पर्श कर चुके थे, जहाँ कविता की यश कामना का प्रवेश वर्जित है।
२. उनके सामने ही कबीर व दादू आदि निर्गुण संतों की बाणियों ने पूजा का रुप धारण कर लिया था, जिससे उसका मूल उद्देश्य ही अलग- थलग पड़ गया था।
३. दरिया उस ब्रह्म की ज्योति का साक्षात्कार कर चुके थे, जिसके दर्शन के पश्चात् कथनी व करनी झूठी लगने लगती है, धुआं जैसे प्रतीत होने लगती है। स्वयं दरिया की वाणी है --
अनुभव झूठी थोथरी निर्गुण सच्चा नाम।
परम जोत परचे भई तो धुआं से क्या काम।।
फिर भी दरिया साहब के निर्वाण के पश्चात् श्रद्धालु अनुयायियों ने उनकी यंत्र- तंत्र विकीर्ण साखियों व पदों का संकलन किया, जो लगभग ७०० साखी व पदों के रुप में प्राप्त हे।
उनके भक्तिभाव में अनेक रचनाएँ हुई, जो अपने- आप में एक समृद्ध साहित्यिक प्रतिभा को दर्शाता है।
कोई कंथ कबीर का, दादू का महाराज
सब संतन का बालमा दरिया का सरताज।
दरिया के साहिब राम
राम- सुमिरन
दरिया ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है। राम- स्मरण से ही कर्म व भ्रम का विनाश संभव है। अतः अन्य सभी आशाओं का परित्याग कर केवल रामस्मरण पर बल देना चाहिए --
""दरिया सुमिरै राम को दूजी आस निवारि।''
राम- स्मरण करने वाला ही श्रेष्ठ है। जिस घट ( शरीर, हृदय ) में राम- स्मरण नहीं होता, उसे दरिया घट नहीं ""मरघट'' कहते हैं।
सब ग्रंथों का अर्थ ( प्रयोजन ) और सब बातों की एक बात है
-- ""राम- सुमिरन''
सकल ग्रंथ का अर्थ है, सकल बात की बात।
दरिया सुमिरन राम का, कर लीजै दिन रात।।
-- सुमिरन का अंग
दरिया साहब की मान्यता है कि सब धर्मों का मूल राम- नाम है और रामस्मरण के अभाव में चौरासी लाख योनियों में बार- बार भटकना पड़ेगा, अतः प्रेम एवं भक्तिसंयुत हृदय से राम का सुमिरन करते रहना चाहिए, लेकिन यह रामस्मरण भी गुरु द्वारा निर्देशित विधि- विशेष से संपन्न होना चाहिए। केवल मुख से राम- राम करने से राम प्राप्ति नहीं हो सकती। उस राम- शब्द यानि नाद का प्रकाशित होना अनिवार्य है, तभी ""ब्रह्म परचै'' संभव हे। शब्द- सूरति का योग ही ब्रह्म का साक्षात्कार है, निर्वाण है, जिसे सदुरु सुलभ बनाता है। सुरति यानि चित्तवृति का राम शब्द में अबोध रुप से समाहित होना ही सुरति- शब्द योग है।
इसलिए जब तक शरीर में सांस चल रहा है, तब तक राम- स्मरण कर लेना चाहिए, इस अवसर को व्यर्थ नहीं खोना है, क्योंकि यह शरीर तो मिट्टी के कच्चे ""करवा'' की तरह है, जिसके विनष्ट होने में कोई देर नहीं लगती --
दरिया काया कारवी मौसर है दिन चारि।
जब लग सांस शरीर में तब लग राम संभारि।।
-- सुमिरन का अंग
राम- सुमिरन में ही मनुष्य देह की सार्थकता है, वरन् पशु व मनुष्य में अंतर ही क्या!
राम नाम नहीं हिरदै धरा, जैसे पसुवा तेसै नरा।
जन दरिया जिन राम न ध्याया, पसुआ ही ज्यों जनम गंवाया।।
-- दरिया वाणी पद
गुरु प्रदत्त निरंतर राम- स्मरण की साधना से धीरे- धीरे एक स्थिति ऐसी आती है, जिसमें ""राम'' शब्द भी लोप हो जाता है, केवल ररंकार ध्वनि ही शेष रहती है। क्षर अक्षर में परिवर्तित हो जाता है, यह ध्वनि ही निरति है। यही ""पर- भाव'' है और इसी ""पर- भाव'' में भाव अर्थात् सुरति
का लय हो जाता है अर्थात भाव व ""पर- भाव'' परस्पर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, यही निर्वाण है, यही समाधि है --
एक एक तो ध्याय कर, एक एक आराध।
एक- एक से मिल रहा, जाका नाम समाध।।
-- ब्रह्म परचै का अंग
यही सगुण का निर्गुण में विलय है, यही संतों का सुरति- निरति परिचय है और चौथे पद ( निर्वाण) में निवास की स्थिति है। यही जीव का शिव से मिलन है, आत्मा का परमात्मा से परिचय है, यही वेदान्तियों की त्रिपुटी से रहित निर्विकल्प समाधि है। यहाँ सुख- दुख, राग- द्वेष, चंद- सूर, पानी- पावक आदि किसी प्रकार के द्वन्द्व का अस्तित्व नहीं। यही संतों का निज घर में प्रवेश होना है, यही अलख ब्रह्म की उपलब्धि है, यही बिछुड़े जीव का अपने मूल उद्रम ( जात ) से मिलन है, यही बूंद का समुद्र में विलीनीकरण है, यही अनंत जन्मों की बिछुड़ी मछली का सागर में समाना है। इस सुरत- निरति की एकाकारिता से ही जन्म- मरण का संकट सदा- सदा के लिए मिट जाता है। यही सुरति- निरति परिचय संत दरिया का साधन भी है और साध्य भी। परंतु इस समाधि की स्थिति की प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया- विशेष से गुजरना पड़ता है। वह प्रक्रिया- विधि- सद्रुरु सिखलाता है, इसलिए संत- मत में सद्रुरु की महत्ता स्वीकार की गई है।
इस प्रक्रिया में गुरु- प्रदत्त ""राम'' शब्द की स्थिति सबसे पहले रसना में, फिर कण्ठ में , कण्ठ से हृदय तथा हृदय से नाभि में होती है। नाभि में शब्द- परिचय के साथ सारे विवादों का निराकरण भी शुरु हो गया है और प्रेम की किरणे प्रस्फुटिक होने लगती हें। इसलिए संतों द्वारा नाभि का स्मरण अति उत्तम कहा गया है। नाभि से शब्द गुह्यद्वार में प्रवेश करता हुआ मेरुदण्डकी २१ मणियों का छेदन कर ( औघट घट लांघ ) सुषुम्ना ( बंकनाल ) के रास्ते ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता हुआ त्रिकुटी के संधिस्थल पर पहुँच जाता है। यहाँ अनादिदेव का स्पर्श होता है और उसके साथ ही सभी वाद- विवादों का अंत हो जाता है। यहाँ निरंतर अमृत झरता रहता है। इस अमृत के मधुर- पान से अनुभव ज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ सुख की सरिता का निरंतर प्रवाह प्रवहमान होता रहता है। परंतु दरिया का प्राप्य इस सुखमय त्रिकुटी प्रदेश से भी श्रेष्ठ है, क्योंति दरिया का मानना है --
दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय।
जहाँ सुख है तहं दुख सही, रवि जहं रजनी होय।।
-- नाद परचै का अंग
यद्यपि त्रिकुटी तक पहुँचना भी बिरले संतों का काम है, फिर भी निर्वाण अर्थात् ब्रह्मपद तो उससे और आगे की वस्तु है --
दरिया त्रिकुटी हद लग, कोई पहुँचे संत सयान।
आगे अनहद ब्रह्म है, निराधार निर्बान।।
निर्वाण को प्राप्त करने हेतु सुन्न- समाधि की आवश्यकता है और शून्य समाधि ( निर्विकल्प समाधि ) के लिए सुरति को उलट कर केवल ब्रह्म की आराधना में लगाना पड़ता है, अर्थात् उन्मनी अवस्था प्राप्त करनी पड़ती है --
सुरत उलट आठों पहर, करत ब्रह्म आराध।
दरिया तब ही देखिये, लागी सुन्न समाध।।
भक्ति की महत्ता
दरिया का योग भक्ति का प्राबल्य है। इसीलिये तो उनकी वाणी में एक भक्त की सी विनम्रता है और भक्ति की याचना भी --
जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा।
मैं नांही मेहनत का लोभी, बख्सो मौज भक्ति निज पाऊँ।।
-- दरिया बाणी पद
इनकी रचना में एक भक्त का सा तीव्र विरह है, तड़प है, मिलन की तालाबेली है, बिछड़न का दर्द है --
बिरहन पिव के कारण ढूंढ़न वन खण्ड जाय।
नित बीती पिव ना मिल्या दरद रहा लिपटाय।।
बिरहन का धर बिरह में , ता घट लोहु न माँस।।
अपने साहिब कारण सिसके सांसी सांस।।
-- बिरह का अंग
भक्त दरिया की कोई इच्छा नहीं, उसकी इच्छा धणी के हुकुम की अनुगामिनी है --
मच्छी पंछी साध का दरिया मारग नांहि।
इच्छा चालै आपणी हुकुम धणी के मांहि।।
-- उपदेश का अंग
भक्त व भगवान् का संबंध दासी- स्वामी का संबंध बताते हुए दरिया, स्वामी की आज्ञा को ही शिरोधार्य मानता है --
साहिब में राम हैं मैं उनकी दासी।
जो बान्या सो बन रहा आज्ञा अबिनासी।।
-- दिरया बाणी पद
दरिया ने तो स्पष्टतः योग को पिपीलिका- मार्ग की संज्ञा देकर उसकी कष्टसाध्यता के विरुद्ध भक्ति को विहंगम- मार्ग बतलाकर उसकी सहजता पर बल दिया है --
सांख योग पपील गति विघन पड़ै बहु आय।
बाबल लागै गिर पड़ै मंजिल न पहुँचे जाय।।
भक्तिसार बिहंग गति जहं इच्छा तहं जाय।
श्री सतगुर इच्छा करैं बिघन न ब्यापै ताय।।
सतगुरु की आवश्यकता
दरिया साहब ने भी कबीर, दादू आदि निर्गुण मार्गी संतों की तरह आत्मसाक्षात्कार या परम- पद की प्राप्ति के लिए सदगुरु की ही मुक्ति का दाता बतलाया है।
उनकी मान्यता है कि सतगुरु ही हरि की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं तथा शिष्य में पड़े संस्कार- रुप बीज को अंकुरित कर उसे पल्लवित एवं पुष्पित करते हैं --
""सतगुरु दाता मुक्ति का दरिया प्रेम दयाल।''
-- सतगुरु का अंग
दरिया का मान्यता है कि गुरु प्रदत्त राम- शब्द तथा ज्ञान द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। शास्रों के पठन तथा श्रवण से प्राप्त ज्ञान द्वारा आत्म- साक्षात्कार संभव नहीं, क्योंकि शास्र द्वारा प्राप्त ज्ञान वैसा ही निस्सार एवं प्रयोजतनहीन है, जैसा हाथी के मुँह से अलग हुआ दाँत। हाथी का दाँत जब तक हाथी के मुंह से स्वाभाविक रुप में स्थित है, तभी तक वह शक्ति व बलसंयुत है और किसी गढ़ अथवा पौल ( दरवाजा ) को तोड़ने में सक्षम है, टूटकर मुँह से अलग होने पर निस्सार है।
दाँत रहे हस्ती बिना, तो पौल न टूटे कोय।
कै कर धारे कामिनी कै खैलारां होय।।
-- साध का अंग
समाज संबंधी दायित्व
दरिया साहब सामाजिक एक रुपता में विश्वास करते थे। उन्होंने एक जाति- वर्ण व वर्ण- भेद रहित समाज की कल्पना की थी। उनके दरबार में कोई अछूत नहीं था, सब एक से थे। उनके विचार बिल्कुल सरल परंतु प्रभावी थे।
दरिया के विचार में अभक्त तो निंदनीय है ही, परंतु भगवद्भक्त भी वहीं बंदनीय है, जो सदाचार के गुणों की अनुपालन के साथ भगवद्भक्ति करता है -
ररंकार मुख ऊचरै पालै सील संतोष।
दरिया जिनको धिन्न है, सदा रहे निर्दोष।।
-- मिश्रित साखी
दरिया का उपास्य राम, निर्गुण, निराकार, निरंजन, अनादि एवं अंतर में स्थित परब्रह्म परमेश्वार है। ऐसे राम के लिए कहीं बाहर भटकने, तीर्थाटन करने व बाह्याडम्बर करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पवित्रीकृत मन की अंतर्मुखी वृत्ति द्वारा अपने हृत्प्रदेश में ही उसके दर्शन किये जा सकते हैं --
दुनिया भरम भूल बौराई।
आतम राम सकल घट भीतर जाकी सुध न पाई।
मथुरा कासी जाय द्वारिका अड़सठ तीरथ न्हावैं।
सतगुर बिन सोजी नहीं कोई फिर फिर गोता खावै।
चेतन मूरत जड़ को सेवै बड़ा थूज मत गैला।
देह आचार कियें काहा होई भीतर है मन मैला।।
जप तप संजम काया कसनी सांख जोग ब्रत दान।
या ते नहीं ब्रह्म से मैला गुन अरु करम बंधाना।।
दरिया के यहाँ मजहब के काल्पनिक भेद के लिए कोई अवकाश नहीं --
ररा तो रब्ब आप है ममा मोहम्मद जान।
दोय हरफ के मायने सब ही बेद कुरान।।
-- मिश्रित साखी
दरिया की साधना- पद्धति में बाह्य- साधनों व बाह्याडम्बरों का सर्वथा अभाव है, उनकी उपासना, पूजा व आरती मंदिर में नहीं होती, घट ( हृदय ) के भीतर होती है --
तन देवल बिच आतम पूजा, देव निरंजन और न दूजा।
दीपक ज्ञान पाँच कर बाती, धूप ध्यान खेवों दिनराती।
अनहद झालर शब्द अखंडा निसदिन सेव करै मन पण्डा।।
-- दरिया कृत आरती
दरिया के विचार में बाह्य आडम्बर या भेष परमात्मा- प्राप्ति के नहीं, आजीविका के साधन है -- ""दरिया भेष विचारिये, खैर मैर की छौड़।''
परमात्म- प्राप्ति के लिए कर्म- विरत या संन्यस्त होने की कोई अनिवार्यता नहीं, वह तो संसार में ""स्वकर्मण्यभिरतः'' होते हुए भी की जा सकती है। दरिया के विचार में तो गृही और साधु दोनों के लिए उत्तम रीति भी यही है --
हाथ काम मुख राम है, हिरदै सांची प्रीति।
जन दरिया गृह साध की याही उत्तम रीति।।
-- सांच का अंग
इस प्रकार दरिया ने व्यक्ति की वृकिंद्धगता वित्तेषणा के शमनार्थ, माया धन की अस्थिरता, शरीर की नश्वरता तथा कराल काल की विकरालता दिखाकर संग्रह की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के बहाने परोक्ष रुप से सामाजिक समानता लाने का ही प्रयास किया है --
जगत जगत कर जोड़ ही दरिया हित चित लाय।
माया संग न चालही जावे नर छिटकाय।।
सुई डोरा साह का सुरग सिधाया नांह।
जन दरिया माया यहू रही यहां की यांह।।
तथा
मुसलमान हिंदू काहा षट दर्शन रंक राव।
जन दरिया निज नाम बिन सब पर जम का डाव।
मरना है रहना नहीं, या में फेर न सार।
जन दरिया भय मानकर अपना राम संभार।।
तीन लोक चौदह भुवन राव रंक सुलतान।
दरिया बंचे को नहीं सब जंवरे को खान।।
-- सुमिरन का अंग
वैकल्पिक अवगुणों के विनाश एवं सद्गुणों के विकास से ही समाज में परिवर्तन संभव है, अतः दरिया ने सदाचरण एवं चारित्रिक मूल्यों पर बल देकर सत्संगति व गुणोपेत सज्जनों की जो प्रशंसा की है, उसके पीछे उनकी मूल्यवान समाज रचना की भावना ही काम करती दिखाई दे रही है --
दरिया लच्छन साध का क्या गृही क्या भेष।
निहकपटी निपंख रहै, बाहिर भीतर एक।।
बिक्ख छुडावै चाह कर अमृत देवैं हाथ।
जन दरिया नित कीजिये उन संतन को साथ।।
दरिया संगत साध की सहजै पलटै बंस।
कीट छांड मुक्ता चुगै, होय काग से हंस।।
दरिया संगत साध की कलविष नासै धोय।
कपटी की संगत कियां आपहु कपटी होय।।
दरिया साहब का नारी के प्रति उदार और मानवीय दृष्टिकोण रहा है। उनके विचार में नारी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है, उसे गर्हित एवं निंदनीय बताकर श्रेष्ठ समाज की कल्पना करना बेमानी है। नारी तो वस्तुतः ममता, त्याग व स्नेह की प्रतिमूर्ति है --
नारी जननी जगत की पाल पोष दे पोस।
मूरख राम बिसारि कै ताहि लगावै दौस।।
नारी आवै प्रीतिकर सतगुरु परसे आण।
जन दरिया उपदेस दै मांय बहन धी जाण।।
संत दरिया के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही- पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। फलस्वरुप यह धर्म दरिया साहब के समय ही समग्र मारवाड़ में प्रचारित हो चुका था और दरिया साहब के निर्वाण के बाद भी उनकी शिष्यपरंपरा व अनुयायियों में वृद्धि होती गयी। परिणामतः इस शाखा के रामद्वारे राजस्थान- डेह, चाडी, भोजास, फिडोद, सीलगाँव, तालनपुर, बिराईरामचौकी, रियां बड़ी, जाटावास, पाटवा, भैरुन्दा, पीसांग, पुष्कर, अजमेर, उदयपुर, नाथद्वारा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, मण्डोर ( जोधपुर ), फलौदी, फतेहपुर ( सीकर ), बाड़मेर जसोल आदि में तथा राजस्थान के बाहर मालवा- इंदौर, उज्जैन, देवास, धार, झींकर,
भाणपुर, महाराष्ट्र- यवतमाल, धानौड़ी, अमरवती, धामण गाँव, आकोल में, उत्तर- प्रदेश- रिछोला (पीलीभीत ) तथा दिल्ली में स्थापित हुए।
दरिया साहब के शिष्यों की संख्या ७२ बतलाई गई है, जिनमें अधिकांश शिष्य नागौर जनपद के ही हैं। शिष्यों में आठ प्रमुख है --
१. किसनदास टांकला,
२. सुखराम मेड़ता,
३. पूरणदास रेण,
४. नानकदास कुचेरा,
५. चतुरदास रेण,
६. हरखाराम नागौर,
७. टेमदास डीडवाना,
८. मनसाराम सांजू
इन आठ प्रमुख शिष्यों में भी चार शिष्य अतिप्रसिद्ध हुए --
किसनदास सुखराम उजागर पूरण नानकदास।
सिष चारों प्रगट दरिया के करी भक्ति परकास।।
-- परमदास- पद
दरिया साहब के इन शिष्यों ने उनके विचारों को समाज में व्यापकता से फैलाया। साथ- ही- साथ उनका साहित्यसृजन में भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन शिष्यों तथा इनके द्वारा रचित साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है --
किसनदास
किसनदास दरिया साहब के प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. १७४६ माघ शुक्ला ५ को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे।
कुछ वर्ष तक गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.१७७३ वैशाख शुक्ल ११ को दरिया साहब से दीक्षा ली। इनके २१ शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मद्रष्टा १३ शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं --
१. हेमदास, २. खेतसी, ३.गोरधनदास, ४. हरिदास ( चाडी), ५. मेघोदास ( चाडी), ६. हरकिशन ७. बुधाराम, ८. लाडूराम, ९. भैरुदास, १०. सांवलदास, ११. टीकूदास, १२. शोभाराम, १३. दूधाराम।
इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है।
कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।
संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे --
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।
पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।।
-- भक्तमाल/ छंद ४३७
किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है -
ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।१।।
बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।२।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।३।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।४।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।५।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।६।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।७।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।८।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।९।।
इन बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग ४००० है। जिनमें ग्रंथ १४, चौपाई ९१४, साखी ६६४, कवित्त १४, चंद्रायण ११, कुण्डलिया १५, हरजस २२, आरती २ हैं। विक्रम सं. १८२५ आषाढ़ ७ को टांकला में इनका निधन हो गया।
सुखराम
सुखराम दरिया साहब के प्रमुख शिष्यों में हैं। इनका जन्म वि.सं. १७५८ भाद्रपद शुक्ला ७ सोमवार को हरसौर में हुआ। ये जाति से लुहार थे और चाकू- छुरी आदि की शाण ( धार ) बनाने का काम करते थे --
""जन सुखराम जात लौहारा, लिव खुरसांण लगाया।''
-- किसनदास की भक्तमाल
इनकी साधना एवं समाधि स्थल मेड़ता रही है। ये अपने समय के श्रेष्ठ साधक थे। इनकी साधना का परिचय देते हुए संत दयालुदास ने भक्तमाल में इनका उल्लेख इस प्रकार किया है --
गुरु दरियाशाह परस पद सुखराम पीयूष पियपा।
मन मजमस मिट जहर, न्रिम्रल नख चख मुख धारा।।
आरत विरह अदोत, लिगन प्रिय प्राण पियारा।
आसण अचल सधीर, सदा सिंवरण दिशा सूरा।
लिव खुरसांण लगाय, कांल क्रम कीना दूरा।।
जीव सीव मिल अमर पद, जन चरण शरण जीवक जीया।
गुरु दरियाशाह परस, पद सुखराम राम पीयुष पिया।।
-- भक्तमाल, छंद ४३८
कहा जाता है कि इन्होंने मारवाड़ नरेश बख्तसिंह को असाध्य रोग से मुक्त किया था। इनका देहावसान वि. १८२३ फाल्गुन शुक्ल ११ को मेड़ता में हुआ।
इनका बाणी साहित्य- साखी, शब्द, छंद, रेखता में १७ ग्रंथ, ५५ अंग, ७७ चंद्रायण, कुण्डलिया, छप्पय ३३, हरजस ३८, आरती २ । कुल वाणी श्लोक परिणाम ३००० हैं। इनकी रचनाएँ भी उच्च कोटि की थी --
राजा गिणे न बादशाह बूढ़ो गिणे न बात।
सुखिया इण संसार में बड़ो कसाई काल।।१।।
जाया सो ही जायगा सभी काल के गाल।
सुखरामा तिहूं काल में करे हाल बेहाल।।२।।
धोला धणी पठाईया मत कर काला केस।
सुखिया साहिब भेजिया भरण तणा संदेश।।३।।
राजा राणा पातस्या कहा रंक कहा सेट।
सुखिया इण संसार के लारे लागो पेट।।४।।
पेट ने हो तो रामजी काहे करत कलाप।
इकन्त जाय सुखराम कह करते तेरो जाप।।५।।
तन मद धन मद पृथ्वी लागे पाय।
जम की झाट बुरी है राजा सब मद उतर जाय।।६।।
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