राजस्थान |
संदर्भ : मारवाड़ की सांस्कृतिक विरासत (महेंद्रसिंह नगर) जोधपुर की प्राचीनतम बस्ती : ब्रम्हपुरी प्रेम कुमार |
जोधपुर के मेहरानगढ़ (मयूर ध्वज) दुर्ग के पश्चिम की ओर अलग- थलग पड़ी, यह बस्ती एक प्राचीन नगर की झलक देता है। इतिहासकारों का मानना है कि यह जोधपुर राज्य की प्राचीनतम बस्ती है, जहाँ सभी जाति के लोग एक साथ निवास करते थे। पहाड़ी पर "भैरव जी' के बहुत- सारे मंदिर होने के कारण उस समय यह बस्ती "भैरु- भाकरी' के नाम से जाना जाता था।
कहा जाता है कि राव जोधाजी शापग्रस्त होकर मण्डोर से इस स्थान पर अपनी राजधानी स्थानांतरित करने का विचार किया। संवत् १५१५ ई. में किले की नींव रखी गई। उसके बाद से ही यहाँ शहर बसना शुरु हो गया। इससे पहले इस पहाड़ी और इसकी तलहटी में रेवड़ रखने वाले रबारी रहा करते थे। वास्तव में यह स्थान सुरक्षा के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण माना गया। पाँच चोटी वाली, इस पहाड़ी, पचोटिया- भाखर से कोसों दूर तक सुरक्षा हेतु न रखा जा सकता था। इसके उत्तर- पश्चिम का हिस्सा दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र था, जबकि दक्षिणी तरफ कोसों दूर तक समाट भूमि थी। निर्माण- कार्य के दौरान शहर में चार द्वार बनाये गये -- १. सिंहपाल २. बजाजों की पोल ३. भैरव पोल तथा ४. रामपोल। इनमें सिंहपोल तथा बजाजों की पोल तलहटी में बने दरवाजे थे तथा भैंरुपोल तथा रामपोल के बीच ब्रम्हपुरी की बस्ती बसी थी। नई राजधानी स्थापित करने के लिए कई आधारभूत संरचनाओं के साथ- साथ आबादी की भी जरुरत पड़ी। धीरे- धीरे लोग किले के पास ही उसकी पश्चिमी तलहटी में और उसी के सामने "भैरु- भाकरी' पर मकान बनाकर रहने लगे। महाराजा मालदेव जी ने शहर का विस्तार किया। धीरे- धीरे इसमें ब्राम्हण, क्षत्रिय, ओसवाल, कायस्त, व्यापारी, सुथार, सुनार, तेली आदि कई जातियाँ बस गई। विभिन्न जातियों के वास के स्थान पर स्थान- विशेष का नामक रखा गया। "सुनारों का वास' संवत् १६५८ ई. में भ माधव के बस जाने के बाद "भट्टों का वास' बन गया। तेलियों की गली का नामांकरण बाद में रंगीला मुहल्ला हो गया। कुछ प्रमाणों से प्रतीत होता है कि यह बस्ती पहले ब्रम्हपुरी नहीं कहलाती थी। राजधानी बनने के बाद वैसे तो यहाँ सभी जातियों के लोग बसने लगे थे, लेकिन इस बस्ती में १८ वीं शताब्दी तक ब्राह्मणों की जनसंख्या करीब ९० ऽ थी, अतः यह स्थान ब्रह्मपुरी के नाम से जाना जाने लगी। कुछ ब्राह्मण आश्रय व रक्षा की दृष्टि से यहाँ आकर बसने लगे, तो कुछ महारानियों के साथ दहेज में जांशी, वेदिया के रुप में आये। कुछ विद्वान ब्राह्मणों, जैसे अग्निहोत्री, ज्योतिषी, वैद्य, तांत्रिक, वैदिक आदि को राजाओं द्वारा आमंत्रित कर बसाया गया। कुछ गरीब ब्राह्मण राजधानी हो जाने के कारण आजीविका की दृष्टि से यहाँ आकर बसे। कालांतर में भाटियों, महाजनों व अन्य कई जातियों के गुरु ब्राह्मण पुष्करणा, शाकद्वीपी, दाधीच आदि भी यहाँ आकर निवास करने लगे। इस प्रकार यह स्थान प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मणों का एक बहुत बड़ा समाज बन गया, जिसने देश को कई विद्वान, शिक्षक, ज्योतिषाचार्य, गणितज्ञ, वैद्य, संस्कृतज्ञ व वैभाकरण दिये हैं। ब्रह्मपुरी के मकानों की बनावट प्रारंभ में यहाँ कच्चे व पक्के दोनों प्रकार के मकान बनाये गये थे। ज्यादातर पक्के मकान पत्थरों के बने हैं। मकानों का आसमानी रंग ज्ञान तथा विद्या के प्रतीक समझे जाते हैं। हर घर में बारशाली, चौक, रसोई, जलधर (परिण्डा), घर के ठाकुर जी मंदिर, अंतरशाला, अन्न- भंडार, पूर्ण- भण्डार (ओरा), तलघर (भूरहा), और महलिया (मालिया) होता था। छत केलूड़ों की बनी होती थी। लकड़ी के बने होने के कारण यह गर्मियों में ठण्डी रहती है। कई मकान दुमंजिले होते थे, जहाँ संयुक्त परिवार का वास होता था। घरों में तलघर (तहखना नुमा रचना) यहाँ के मकानों की प्रमुख विशेषता है। इसका प्रयोग लोग सोने व रहने के लिए भी करते रहे हैं। यह सुरक्षा की दृष्टि से भी उपयोगी रहे हैं। कहा जाता है कि अंग्रेजों से हारने के बाद नागपुर का राजा भागता- भागता जोधपुर आया था। उसे १८ दिनों के लिए यहीं के एक तलघर में झुपा कर रखा गया था। मकानों के आगे लोग पक्के फुटपाथ व नालियाँ न बनाकर, इसे गलियों के बीच में बनाते थे। जिससे कि नालियों का पानी मकान की नींव या तलघर में न जाये। यहाँ के मकानों की चबूतरी पर "शौचालय' का रिवाज नहीं था। लोग अपने बच्चों को साथ लेकर बस्ती से दूर पहाड़ों पर, जलाशय के पास जाया करते थे तथा स्नान- संध्यादि से निवृत होते थे। औरतें रामपोल की बारी के पास नजदीकी पहाड़ियों को शौच- स्थल के रुप में प्रयोग करती थी। बीमार व शिशुओं के लिए चबुतरी पर छेद बना दिया जाता था। इसे हरिजन समय- समय पर साफ किया करते थे। ब्रह्मपुरी में "हथाई' का प्रचलन था, जिसमें सभी जाति के लोग बिना छोटे- बड़े का भेदभाव किये समझदारी से अपनी आपसी समस्याओं का समाधान करने की कोशिश करते थे। इसके लिए वे मुहल्ले के खुले स्थान पर बड़े- बड़े लकड़ी के पाटे या पत्थर की चौतरियाँ बनाते थे। स्थानीय लोग प्रायः शाम को या रात को भोजनोपरांत अपने- अपने मुहल्लों के नुक्कड़ में ऐसे ही निर्धारित स्थानों पर इकट्ठे हो जाते थे तथा सभी तरह की चर्चाओं में भाग लेते थे। जिसका विषय कभी राजनीतिक चर्चा भी हो सकती थी, तो कभी ज्ञानचर्चा भी। वे इन चर्चाओं के उपरांत सर्वसम्मति से अपने प्रस्ताव भी पारित करते थे। हथाई में हुई चर्चा से किसी विशेष तथ्य की जानकारी लोगों तक पहुँचती थी। राज्य का गुप्तचर भी हथाई में चलने वाली बातों के आधार पर राजा को सूचना प्रेषित करता था। ब्रह्मपुरी में सात मुख्य हथाईयाँ थी -- भागीपोल की हथाई, हजारी चबूतरा, देवागार हथाई, चाँद बावड़ी की हथाई, चूना की चौकी की हथाई, रंगीला मुहल्ला की हथाई एवं पीपलियाँ मुहल्ला की हथाई। बोली २० वीं सदी के ७० के दशक तक लोग धोती, बगलबंदी, पाग, दुपट्टी व जूते पहनते थे। वे ललाट पर तिलक लगाते थे तथा गले में रुद्राक्ष पहनते थे। संपन्न परिवार के लोग इकलंघी धोती, गले में बेर वाले बनियान, कुर्ता, अचकन, पाग तथा दुपट्टी पहनते थे। औरतें सामान्यतः फड़द के पादांशुक (गागरा), अंगरखी, अंदर कंधुकी और ओरणा- दुशाला पहनती थी। जिससे गागरे की कसने की डोरियों के छिद्र छिप जाते थे। पागें जरतारी की भी होती थी। वहाँ के लोग विशेष मौकों पर दुपट्टी तथा अचकन भी जरी के साथ पहनते थे। ऐसे अवसरों पर राजाओं की तरह जामा पहनने का भी प्रचलन था। ब्राह्मणों का खान- पान विशेष रुप से सात्विक था। २० वीं सदी के पूर्वाद्ध तक तो प्रायः वे स्वयंपाठी ही थे। उनका भोजन, चावल, रोटी, शाक व दाल था। गोठों में रोटी- दाल बनते थे। शादी, जनेऊ व अन्य त्योहारों के उपलक्ष्य में लापसी, चूरमा, सीरा, मोतीचूर के लड्डू, मालपुआ, मोलरियाँ, दुपटरोटी आदि प्रचलन में था। खास मौकों पर बाजरी के लड्डू, कच्चे मोठ, पक्के मोंठ की उठातरी आदि बनाई जाती थी। बाजार की मिठाईयों में बिना शक्कर के गिलास की मिठाई काम में लेते हैं। शिक्षा का प्रारंभ प्रायः बसंत पंचमी से करवाया जाता था। उस दिन नारियल, गुड़ व पैसे लेकर किसी वैदिक ब्राह्मण के पास जाकर भेंट किया जाता था, "ऊँ' अक्षर का उच्चारण कराया जाता था तथा लेखन का मुहू निर्धारित किया जाता था। उसके बाद उन्हें "पौधशाला' में भेजा जाता था। अक्षराभ्यास व अंकगणित की शिक्षा पाने के बाद उन्हें किसी विद्वान ब्राह्मण को सौंप दिया जाता था, जहाँ वे शास्रज्ञान प्राप्त करते थे। उपनयन संस्कार के बाद वेदों की शिक्षा दी जाती थी। बाद में उन्हें किसी वैद्यक, ज्योतिष, कर्मकाण्ड आदि विषयों के विद्वानों के पास भेज दिया जाता था, जहाँ उन्हें नि:शुल्क शिक्षा मिलती थी। लोग इन ब्राह्मणों को विशेष आदर करते थे। शारीरिक शिक्षा के लिए कई अखाड़ों का प्रावधान किया गया था। इनमें से प्रमुख अखोड़ थे --
लोगों के व्यवसाय कुछ ब्राह्मणों का कार्य, उनके सामान्य कार्यों से अलग भी था। कुछ राज्य के कर्मचारी की तरह नियुक्त थे, तो कुछ धना व्यापारियों, सामंतों एवं अन्य जातियों के साथ लेन- देन का भी कार्य करते थे। ओसवालों ने नौकरी और ब्याज का व्यवसाय ब्राह्मणों से छीन लिया। ओसवाल बिना एवज लिए लेन- देन नहीं करते थे, दूसरी तरफ ब्राह्मण कभी गिरवीं रखकर नहीं देते थे। ब्राह्मणों का विश्वास था कि उनका पैसा कोई नहीं खाएगा। बच्चों तथा युवकों का मनोरंजन विभिन्न खेल- कूद से हो जाया करता था। यहाँ के मुख्य खेल टुन्धा, मारदड़ी, ठीयादड़ी, गिल्ली- डंडा, कबड्डी और झूरणी थे। टुंधा से बलवान के किस अंग पर चोट करने पर वह स्थानभ्रष्ट हो जाता था, यह सीखते थे। मारदड़ी से दौड़ का अभ्यास होता था। ठीयादड़ी में निशाना लगाया जाता था। गिल्ली- डंडा में गिल्ली को डण्डे की मदद से उपर उठाने का प्रयास किया जाता था। कबड्डी में लोग सांस रोके, एक पद बोलते हुए प्रतिद्वेंदी के क्षेत्र में जाते थे। इन खेलों के अलावा ताश, शतरंज, चौपड़ आदि भी खेले जाते थे, जो प्रायः वृद्ध लोग खेलते थे। लड़कियों के खेलों में मुख्य कूटे के घर, बर्तन, चक्की, चकरी और झरणी थे। बच्चे नृसिंह जयंती, जन्माष्टमी और वराह जयंती जैसे अवसरों पर उस देवता विशेष या उनसे संबंधित कच्चों का नकल करती थी। नृसिंह जयंती के अवसर पर पीले कपड़े पहनकर शेर और मलूका के मुँह कूट (कागज की लुगदी) का बनाते थे तथा नृसिंह की तरह गली- मुहल्लों में कुँदते- फानते थे। कूटे की गौरे बनाकर पूजने का भी चलन था। होली, राखी, ॠषिपंचमी भी धूमधाम से मनाया जाता था। होली के अवसर पर बच्चे विभिन्न वेश- भूषे में नाचते- गाते। होली के बाद प्रत्येक मुहल्ले में महीने- भर "गेर नृत्य' चलते थे। प्रत्येक सदस्य के न्योछावर में आए रुपयों की गोठ होती थी। श्रीमाली ब्राह्मणों के रीति- रिवाज ब्राह्मणों में चारों वेदों के अनुयायी ब्राह्मण है। यजुर्वेद के जानकार मारवाड़ी कहलाते हैं, सामवेदी मेवाड़ी, ॠग्वेदी आम्नाय तथा अथर्ववेदी छोगाली आम्नाय कहलाते हैं। यजुर्वेदियों की राखी श्रावणी शुक्ल १५ को होता है। सामवेदियों की राखी भाद्रपद शुक्ल हस्त नक्षत्र को, ॠगवेदियों की भाद्रपद शुक्ल ५ को तथा अथर्वण वालों की ॠषि पंचमी को होती है। राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर मनकरणजी के तालाब पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अर्रूंधति, गणपति, दुर्गा, गोमिला चयि तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा करवाते हैं। उनका तपंण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद, फिर घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी वस्र व रेशमी डोरे से राखी बनाया जाता है। राखी में सफेद सरस अभिमंत्रित करते हैं, जिसे काम में लाया जाता है। यह कार्य गोधूलि बेला में किया जाता है, जिसके बाद भोजन का प्रावधान है। उनके कुछ पर्व ऐसे भी हैं, जो दूसरी जातियों में नहीं मनाये जाते। ऐसे पर्वों की मान्यताएँ श्रीमाली ब्राह्मणों की उत्पत्ति व सुरक्षा से जुड़ी हुई है। $. भीनमाल के नागवंशियों ने वहाँ के (श्रीमाली) ब्राह्मण निवासियों को आश्रय दिया था व रक्षा की थी। उनकी यादगार में हर ब्राह्मण अपने घर के बाहर नाग (सूर्य) की मूर्ति रखते थे। जहाँ मूर्ति नहीं है, वहाँ लोग अपने घर में दूध व कोयले के चूने से निर्मित गोगा चौदहस की मूर्ति बनाकर पूजते हैं। इन्हें कपास की माला से पूजा जाता था तथा बाजरे की लड्डू का भोग लगाया जाता था।
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