राजस्थान

 

संस्कृत साहित्य

प्रेम कुमार


 

 

मारवाड़ में संस्कृत साहित्य की विविध विधाओं का विकास

साहित्यिक दृष्टि से मारवाड़ क्षेत्र उन्नत रहा है। राजस्थानी भाषा और साहित्य की समृद्धि के लिए तो इसकी केन्द्रीय भूमिका रही ही है साथ ही साथ गुणात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट संस्कृत-कृतियों के कारण संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास में इस क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उल्लेखनीय है कि मारवाड़ के नरेश संस्कृत के साहित्यकारों को समुचित आश्रय प्रदान कर उनकी सतत् साहित्य-साधना में सहभागी बने। 

यह परम सुखद तथ्य है कि मारवाड़, मुख्यतः सूर्यनगर जोधपुर में संस्कृत के ऐसे महान् साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत साहित्य की विविध विधाओं से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की है। यहाँ कतिपय प्रमुख कृतियों का उल्लेख किया जा रहा है : 

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महाका ें का प्रणयन

मारवाड़ के प्राचीनतम और सर्वश्रेष्ठ महाकवि के रुप में 'शिशुपालवध' के रचियता 'माघ' का नाम सुप्रथित ही है। महाकवि माघ का जन्म भीन-माल के एक प्रतिष्ठित धना ब्राह्मण-कुल में हुआ था। संस्कृत साहित्य में महाकवि माघ के स्थान का निर्धारण सूर्य को दीपक से प्रकाशित करने जैसा होगा। वे अपने अप्रतिम कवित्व के कारण स्वतः प्रतिष्ठित हैं। वे सर्वश्रेष्ठ संस्कृतमहाकवियों की त्रयी में अन्यतम हैं। माघ की कीर्तिलता केवल एक ही महाकाव्य 'शिशुमाल-वध' रुपी वृक्ष पर अवलम्बित है। इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिनरेश शिशुपाल के वध का सांगोपांग वर्णन है। उपमा, अर्थगौरव तथा पदलालित्य - इन तीन गुणों का सुभग सह-अस्तित्व माघ के कमनीय काव्य में मिलता है, अतः "माघे सन्ति त्रयो गुणा:" उनके बारे में सुप्रसिद्ध है।

माघ केवल सरस कवि ही नहीं थे, प्रत्युत एक प्रकाण्ड सर्वशास्रतत्त्वज्ञ विद्वान् थे। दर्शनशास्र, संगीतशास्र तथा व्याकरणशास्र में उनकी विद्वत्ता अप्रतिम थी। उनका पाण्डित्य एकांगी नही, प्रत्युत सर्वगामी था। अतएव उन्हें 'पण्डित-कवि' भी कहा गया है। एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि महाकवि भारवि द्वारा प्रवर्तित अलंकृत शैली का पूर्ण विकसित स्वरुप माघ के महाकाव्य 'शिशुपालवध' में प्राप्त होता है, जिसका प्रभाव बाद के कवियों पर बहुत ही अधिक पड़ा। महाकवि माघ के 'शिशुपालवध' के प्रत्येक पक्ष की विशेषता का साहित्यिक अध्ययन विद्वानों ने किया है, शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है। पं० बलदेव उपाध्याय ने उचित ही कहा है - "अलंकृत महाकाव्य की यह आदर्श कल्पना महाकवि माघ का संस्कृतसाहित्य को अविस्मरणीय योगदान है, जिसका अनुसरण तथा परिबृहंण कर हमारा काव्य कर हमारा काव्य साहित्य समृद्ध, सम्पन्न तथा सुसंस्कृत हुआ है।"

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महाचित्रकाव्य का प्रणयन

मारवाड़ में बीसवीं शताब्दी के महाकवियों में पण्डित नित्यानन्द शास्री का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने संस्कृतसाहित्य की विविध विधाओं पर उत्कृष्ट कृतियों का प्रणयन कर सुरसरस्वती की सतत् सेवा की है। यहाँ आशुकवि के 'श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्' ग्रन्थ को 'महाचित्रकाव्य' शब्द से अभिहित किया है। उन्होंने महाकवि भ द्वारा प्रवर्तित शास्रकाव्य या वैयाकरणकाव्य का अनुसरण करते हुए इस महाचित्रकाव्य का प्रणयन किया है। केवल सूत्ररटन और सूत्रानुसारिणी शब्दसिद्धि प्रक्रिया से व्याकरणशास्र में अबाधित गति प्राप्त नहीं हो सकती - इस वस्तुस्थिति की सम्यक्तया समझते हुए आशुकवि ने इस महाचित्रकाव्य द्वारा व्यवहारोपयुक्त व्याकरण
(Applied grammar) की शिक्षा दी है। भट्टिकाव्य (रावणवध) का -

"दीपतुल्यः प्रबन्धोअयं शब्दलक्षणचक्षुषाम्।
हस्तादर्श इवान्धानां भवेद् व्याकरणदते।।"

इस श्लोक द्वारा अभिव्यक्त वैशिष्ट्य प्रस्तुत महाकाव्य में भी चरितार्थ होता है। यह काव्य आशुकवि के ज्येष्ठभ्राता पं० भगवतीलाल द्वारा रचित 'शाण' नामक संस्कृत-टीका से भी संवलित है। टीकाकार ने प्रस्तावना में इसके मुख्य तथा गौण विषय का निर्देश करते हुए व्याकरणज्ञान के लिए इसकी उपयोगिता का उल्लेख इस प्रकार किया है -

पूर्व तावद मुख्यो भक्तिविषयः, इतः परं व्याकरणविषयः।
आमूल-चूलं काव्येअत्रे तथा कविनैष विषय उदाहृतः,
येन श्रीरामचन्द्रे स्मर्यमाणे समुपस्थिता स्यात् कौमुदी।
किं बहुना, केषुचित्तु स्थलेषु वैकल्पिका विधयोअपि निरुपिता:।
क्वचित् क्वचित्तु उपमा अपि व्याकरण-सम्बन्धिन्यो दर्शिता।

अर्थात् इस महाकाव्य का मुख्य विषय भक्ति है और उसके पश्चात् गौझा विषय है - व्याकरण। कवि ने इस काव्य में भक्ति विषय इस प्रकार वर्झिात किया है कि श्री रामचन्द्र के स्मरण के साथ व्याकरण-कौमुदी भी उपस्थित हो जाती है। कतिपय स्थलों पर वैकल्पिक विधियों का भी निरुपण किया है। कहीं-कहीं व्याकरण सम्बन्धी उपमाएँ भी प्रस्तुत की हैं। कवि के द्वारा विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती की प्रार्थना हेतु किया गया व्याकरण सम्बन्धी मनोहारी उपमा का प्रयोग ध्यातव्य है।

प्रभेव सूर्यस्य तमो हरन्ती
तिष्ठन्त्यथअन्तः कमलेअलिनीव।
ष्ठां स्थामिव व्याकरणव्यवस्था
त्वमम्व वाग् मां कुरु विज्ञमज्ञम्।।

अर्थात् हे मातः वाग्देवि ! सूर्यप्रभा की तरह तम (अज्ञानान्धकार) का हरण करती हुई और कमल में अलिनी (भ्रमरी) की तरह हृत्कमल में विराजमान आप मुझ अज्ञ (मूढ़) को उसी प्रकार विज्ञ बना दें जिस प्रकार व्याकरणशास्र की मर्यादा ष्ठा धातु को स्था में परिणत कर देती है।

यद्यपि व्याकरण को लक्ष्य में रखकर इस ग्रन्थ का निर्माण हुअ है, तथापि, जैसा कि टीकाकार के कथन से स्पष्ट है, मुख्य विषय तो भगवद्शक्ति ही है और यह काव्य ही नहीं, महाकाव्य है, व्याकरण-ग्रन्थ नहीं है। अतएव आशुकवि ने इसमें महाकाव्य के आवश्यक गुणों का निवेश बड़ी योग्यता के साथ किया है।

 

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अलंकृतशैली के महाकाव्य का प्रणयन

संस्कृतकाव्य की अलंकृत शैली को विकास की पराकाष्ठा प्राप्त कराने वाले महाकवि माघ के लगभग १३०० वर्ष पश्चात् भी "जरासन्धवधम्' नामक उत्कृष्ट महाकाव्य का प्रणयन कर उनकी काव्यशैली को निरन्तरता प्रदान करने वाले आधुनिक संस्कृतमहाकवि गोस्वामी हरिराय मारवाड़ के लिए गौरव का विषय है। स्वयं महाकवि ने महाकवि माघ की काव्यसरणि के अनुकरण का स्पष्ट निर्देश किया है: 

"प्रस्तुतमिदं - जरासन्धवधमहाकाव्यम् - यत्र मया महाकविश्रीमाघसरणिरेवोररीकृतेति निरपन्हवम्। यतो एतैरेव कालिदासभारविमाघश्रीहर्षादिभि: पूर्वसूरिभि: कृतवाग्द्वारे शास्रेअस्मिन् मम गतिरिति नि:सन्देहं स्वीकुर्वे।

तद्यथा

काव्येअस्मिन् काव्यतत्त्वज्ञैर्लक्ष्यतामनसूयिभि: ।
प्रतिभाअनवरोधेन श्रीमाधोअनुसृतो मया ।।

अपि च

काव्यान्तरे वायसतीर्थदृष्टेर्लक्ष्मीपते: कीर्तिकात्रचारौ ।
माघप्रबन्धे यदि पक्षपातो विपश्चितां माअनुचितो विभातु ।।" 

बीस सर्गों में समाप्त इस महाकाव्य में वैदभी रीति का अनुसरण किया गया है।

गोस्वामीजी ने इस महाकाव्य के उन्नीसवें सर्ग में अनेक अर्वाचीन चित्रबन्धों का रमणीय चित्रण किया है। यथा - वेणुबन्ध का विन्यास -

नश्यन्ति प्रमदार्ता:, न श्यन्ति प्रमदार्ता: ।
नश्यन्ति प्रमदार्ता:, न श्यन्ति प्रमदार्ता: ।।

कवि ने चित्रबन्धों का प्रयोग करते हुए कहा है कि उनका सम्पूर्ण आयास विद्वज्जनमनोमोद के लिए है, मात्सर्यग्रस्त व्यक्तियों के लिए नहीं -

गौणीकृत्य रसं क्वचिद्विरुचयं चित्रै: प्रयत्नैर्मया
बन्धैर्बद्धमिदं स्वयं बहुविधैरवक्तिनै: सर्वथा ।
तत्तत्तत्त्वविदां मुदे हि न पुनश्छिद्रस्पृशां दुर्ऱ्हदां
भेदज्ञा: भ्रमरा भवन्त्युदरुहां नैवोत्कटा मर्कटा: ।

कविवर माघ की तरह वे पदों के ललित विन्यास में निपुण हैं, नित-नूतन श्रुतिमधुर शब्दावली के श्लाघ्य उनके पद्यों के कुछ अंश उदाहरण के रुप में प्रस्तुत हैं -

अनंगरंगंजगदंगनाजनै: पिपासितं रुच्यधरीकृतारुणम् ।
समस्तमाधुर्यरसैकनिर्झरं सुधनिधि धारयतोअधरं स्मितम् ।।

मनीषिणः सच्छरणर्हणक्षणप्रधारणकारणकीर्तिधारिणः ।
रणनणूच्चैरणदुत्कवारणगणार्णवप्लावितरैपवौजसः ।।

सतः सतः साधु सतां ततां तति प्रति प्रतीपस्य कृते दुरात्मनाम् ।
सुखस्य नित्यं शरणर्थिनोअर्थिनः कृपाभराक्रान्तकृतान्तदन्तिनः ।।

काचित्कचानामतिमेचकानां निकंच्य किंचित्किल कुंचितत्वम् ।
संस्मृत्य कृष्णं रुचिवृत्तिसाम्यान्मनस्युपालम्भवती चुकोप ।।

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छन्दोअलंकार ग्रंथ की रचना

वैसे तो संस्कृतसाहित्य में दन्दों और अलंकारों के विवेचन के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है, फिर भी जोधपुर निवासी आशुकवि पण्डित नित्यानन्द शास्री द्वारा रचित "लघुच्छन्दोअलंकारदपंण' नामक ग्रन्थ विशेष महत्व का है। कवि ने अत्यन्त अपेक्षित छन्द:शास्र और अलंकारशास्र को विशेष महत्व देते हुए इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। मारवाड़ के संस्कृत ग्रंथों में इस विधा का यह एक ही ग्रन्थ प्राप्त है। 

यह कथन अतिश्योक्ति नहीं होगा कि समस्त संस्कृत वाड्मय में इस विधा का अन्य ग्रन्थ विरल ही है। इसग्रन्थ का अन्य नाम "देवीस्तव' है। यह नित्यानन्दिका नामक स्वोपज्ञ टीका तथा कविवर के ज्येष्ठ भ्राता पं० भगवतीलाल द्वारा रचित हिन्दी अनुवाद से संवलित है। शास्री जी कहते हैं - परम आर्हत वाग्भट ने अलंकार को पार करने के लिए उडुप की तरह वाग्भटालंकार नामक सरलतर अलंकारशास्र का निर्माण किया है। 

कविकुलचूडालंकार कालिदास ने छन्दोग्रन्थ रुपी पर्वत के शिखर पर सोपान की तरह श्रुतबोध नामक सुबोध छन्दोग्रन्थ का निर्माण किया है। इस ग्रन्थद्वयी के द्वारा तत्तत् शास्र में जिस प्रकार प्रवेश प्राप्त किया जा सकता है, उस प्रकार ग्रन्थान्तर से नही। इस प्रकार अन्य ग्रन्थों के पद्योदाहरणों में अलंकारों और छन्दों को घथ्टत करने का पुनः पुनः अनुशीलन सम्भव न होने से वे विषय छन्दोअलंकार शास्र के प्रवेशार्थी को अधिकतर प्रयास के बिना हृदयंगम नहीं होते - इस विचार से चित्त में यह चिन्तनधारा कवि ने एक ही ग्रन्थ में श्रुतबोध के छन्दों और वाग्भटालंकार के अलंकारों का सन्निवेश कर दिया है। 

विद्यार्थी को उन-उन अलंकारों और छन्दों के उदाहरणों का ग्रन्थान्तर में अन्वेषण नहीं करना पड़ता है। इस ग्रन्थ की यह विलक्षणता उल्लेखनीय है कि कवि ने प्रत्येक पद्य में पहले सम्बन्धित अलंकार और बाद में छन्द का भी नामनिर्देश युक्तिपूर्वक कर दिया है। उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है -

मधुकृदम्ब ! यथा क्रमनीरजं
द्रुतविलम्बितयातमहं श्रये ।
जयति यन्निजभा मृदुता-गतै:
किसलयं च बिसं च सितच्छदम् ।।

यहाँ कवि ने यथा क्रम शब्द के द्वारा अलंकार तथा द्रुतविलम्बित छन्द का नामनिर्देश किया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ आशुकवि पं० नित्यानन्द की युगांतरकारिणी प्रतिभा का परिचायक है।

 

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पद्यव्याकरण का निर्माण

संस्कृतवाड्मय में पद्यव्याकरण का प्रवर्त्तन करने वाले विद्वानों में जोधपुरवासी वैयाकरणकेसरी पं० लालचन्द्र का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। एक और आशुकवि नित्यानन्द ने श्रीरामचरिताब्धिरत्न नामक चित्रमहाकाव्य में व्याकरण सम्बन्धी नियमों का सन्निवेश कर महाकवि भ द्वारा प्रवर्तित वैयाकरण काव्य या शास्रकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया, तो दूसरी ओर पण्डित लालचन्द्र ने व्याकरणशास्र को इस अभिनव विधा में निबद्ध कर संस्कृतवाड्मय के साहित्य संवर्धन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 

कविवर द्वारा रचित खण्ड,यात्मक पद्यव्याकरण संस्कृत और प्राकृत के व्याकरणशास्र का विलक्षण ग्रन्थ है। इसके पद्यकौमुदी नामक प्रथम खण्ड में पाणिनीय व्याकरण की सूत्रानुसारिणी प्रक्रिया वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध ३३८ ललित पद्यों में परिष्कारपूर्वक संक्षेप में प्रस्तुत की गई है। प्रसाद-शैली में रचित पद्य अत्यधिक चित्तानुरंजक हैं। 

कविवर इस ग्रन्थ की रचना में न तो अपने पाण्डित्य के प्रदर्शन के लिए प्रवृत्त हुए थे और न निज कवित्वोत्कर्ष के लिए, अपितु शिष्यहित के प्रयोजन से ही उन्होंने इतना परिश्रम किया था। व्याकरणशास्र में प्रवेशार्थी शिष्यगण स्वल्प श्रम से पाणिनीय शब्दानुशासन में प्रवीण हो जाएं - ऐसा सोंचकर उक्त ग्रंथ का निर्माण किया था, जैसा कि ग्रंथ के प्रारम्भ में किये गये उल्लेख से स्पष्ट है -

आशान्वितोअस्मि निजचित्त उताहमीशात्
नित्य श्रमः सफलतां मम चैष्यतीह ।
शाब्दीयशिष्यसुकृतेअखिलसंस्कृतीये
स्वल्पश्रमेण पठनाय सुपुस्तकेअयम् ।।

गद्यात्मकेषु किल दीर्घतरेषु सत्सु
श्रीशाबदबोधनपरेष्वमितेषु भूम्याम् ।
शब्दार्णवप्रतरणे पिहितोद्यमानां
पद्यप्लवं विचयामि मुदे शिशूनाम् ।।

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प्रशस्तिकाव्यों का प्रणयन

वृहत्कवि पं० लालचन्द्र द्वारा रचित यशवन्तयशोदीपिका, मोक्षमूलरयशोदीपिका तथा ज्युबिलीप्रमोदिका नामक प्रशस्तिकाव्य उनके उत्कृष्ट कवित्व के परिचायक हैं। संस्कृतसाहित्य के इतिहासकारों ने आश्रयदाता राजाओं के चरितकाव्यों को ऐतिहासिक काव्यों की कोटि में परिगणित किया है, अतः इस दृष्टि से यशवन्तयशोदीपिका ऐतिहासिक काव्य की कोटि में भी रखा जा सकता है। कवि ने सन् १८८७ में सम्पन्न महाराज्ञी विक्टोरिया के ज्युबिलीमहोत्सव के बारे में अपने भावों की अभिव्यक्ति क लिए इस ग्रंथ का प्रणयन किया था। यह ग्रंथ अंग्रजी अनुवाद से भी संवलित है।

इस कृति का संस्कृत के इतर काव्यों से अनितरसाधारण वैलक्षण्य यह है कि इसमें संस्कृत-शब्दों के साथ अंग्रेजी शब्दों का संस्कृतीकरण किये बिना ही सन्निवेश कर दिया है, जो अत्यन्त चमत्कृतिपूर्ण है। 

पं० लालचन्द्र ने इस प्रकार का सफल प्रयोग कर संस्कृत की औदार्यशक्ति का ही परिचय नहीं दिया है, अपितु इस कृति के असंस्कृतज्ञों तथा संस्कृत के अल्पज्ञों के लिए भी सुबोध बना दिया है। संस्कृत के अगाध वैदुष्य से सम्पन्न होने पर भी कवि ने इस लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखा कि उनके ग्रन्थ की भाषा तथा शैली सुबाध और सरल हो। इनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं -

हिन्दस्य हर्षदगवर्नरजेन्न्रलोअपि
एजन्टगोरनरजन्तलवाल्टरोअपि ।
श्रीपुल्टिकल्टरजिडेण्टसुपौलटोअपि
सर्वे प्रसादसुमुखा मम सन्तु नित्यम् ।।

श्रीयोधनाथयशवन्तमहाधिराजः
श्रीमत्प्रतापहरिकर्नलमाननीयः ।
श्रीमत्काण्ड इन चीजकिशोरसिंहः
सर्वे प्रसादसुमुखा मम कृयतोअपि ।।
(ज्युबिलीप्रमोदिका)

अंग्रजी ही नहीं, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषाओं में प्रयुक्त प्रचलित शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग कर दिया गया है। जैसे - कवि ने तार शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया है-

तारेण दूरवसतां विलैर्घटीभि:
सम्प्रप्नुवन्ति चरितानि सुवांछितानि ।
यान्यक्षराणि तरतारमुखोद्गतानि
तान्येव तत्र गमनात् समनूदिगरन्ति ।।
(ज्युबिलीप्रमोदिका)

कवि ने तत्कालीन सेनापति री किशोरसिंहजी की प्रेरणा से इस काव्य की रचना की थी, जैसा कि निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है -

प्रोक्तं किशोरहरिणोत्सवके सुजाते
मह्यं तदा त्वमपि संस्कृतभाषया वै ।
ग्रन्थं रच ज्युबिलिस्मरणार्थमेनं
प्रामोदिकाज्युबिलिकाभिधया प्रसिद्धम् ।।
(ज्युबिलीप्रमोदिका)

कवि ने आंग्लभाषा तथा अन्य भाषाओं के शब्दों का सन्निवेश इस कौशल से किया है, जिसके कारण यह प्रतीत होता है मानो ये संस्कृत शब्द ही हों।

 

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ऐतिहासिक महाकाव्यों का प्रणयन

संस्कृत साहित्य में इस विधा की भी प्राचीन परम्परा है। कवियों ने आश्रयदाता की कीर्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रयोजन से उनका जीवनचरित गद्य या पद्य में निबद्ध करने का प्रयास करते रहे। परन्तु उनका यह प्रयास शुद्ध साहित्यिक दृष्टि से ही अभिप्रेरित था, ऐतिहासिक तथ्य देने का प्रयास कहीं कम था।

मारवाड़ में ऐतिहासिक महाकाव्य के प्रणेता के रुप में पण्डितप्रवर जगज्जीवन भ का नाम प्रसिद्ध है। उनके द्वारा रचित अजितोदय ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। जगज्जीवन भ महाराज अजीतसिंह के समसामयिक थे। इस महाकाव्य में वि० सं० १७३० से १७८१ तक की धटनाओं का वर्णन है। 

महाराज जसवन्तसिंह (प्रथम) के आकस्मिक देहावसान के पश्चात् मारवाड़ की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति तथा मुगल सम्राट औरंगजेब की मनोवृत्तियों का स्पष्ट चित्रण इस महाकाव्य में प्राप्त होता है। मुगलकालीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति की मुख्य धाराओं का समुचित ज्ञान करने के लिए यह ग्रन्थ अतिमहत्त्वपूर्ण है। 

कवि ने महाराज अजीतसिंह के गुणों से प्रेरित होकर इस ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की थी, जैसा कि निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है -

राज्ञोअनेकगुणर्णवस्य सकलक्षोणीशचूडामणे
राठोउान्वयजाम्बुजव्रजवनप्रोल्लासकाहमणे: ।
वक्ष्ये चित्रमथाअजितस्य नृपते: प्रीत्या चरित्रं शुभं
यद्यसिम प्रतिबद्धवागपि मुदा वाग्देवताप्रेरितः ।।
(अजितोदयम्, १/४)

उल्लेखनीय है कि यह महाकाव्य जोध्पुर के ही अन्य सुप्रथित महाकवि नित्यानन्द शास्री द्वारा सम्यक्तया सम्पादित है।

जोधपुरवासी आधुनिक महाकवि गोस्वामी हरिराय द्वारा रचित पुरुषसम्भव-महाकाव्यम्ऐतिहासिक महाकाव्य के रुप में विशेषतया उल्लेखनीय है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्ण पुरुष भगवान श्रीनाथजी (श्रीकृष्ण) के सम्भव (प्राकट्य) का वर्णन होने से इसका सम्पूर्ण नाम श्रीगोवर्धनधरप्राकट्योपाख्यं पुरुषसम्भवम् रखा गया है। इसमें श्रृंगार, वीर आदि सभी प्रमुख रसों की शोभन संसृष्टि हुई है, परन्तु मुख्य (अंगी) रस भक्ति रस है। पांचाली शैली में निबद्ध इस कहाकाव्य में १२ सर्ग हैं। 
यह उल्लेखनीय है कि महाकवि ने कल्हण के आदर्श को लक्षित कर इस ऐतिहासिक महाकाव्य में ऐतिहासिक तथ्यों को प्रामाणिक रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अतः इस दृष्टि से यह महाकाव्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। जहाँ एक ओर काव्यानुशीलन कुशल विद्वानों द्वारा इसका काव्यसौष्ठव समीक्षणीय है, वहाँ दूसरी ओर इतिहासविदों द्वारा इसमें प्रस्तुत ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता परीक्षणीय है।

स्वयं महाकवि ने प्राक्कथन में जो लिखा है, उसका अंश इस प्रकार है - ""प्रस्तुत ग्रंथ 'पुरुष-संभवमहाकाव्यम्' अवश्य ही एक साहित्यिक कृति है, तथापि इसमें वर्णित तथ्यात्मक कथावस्तु के कारण मुख्यतया यह ऐतिहासिक कृति बन गई है, इसमें सन्देह नहीं।'' "".......तथापि मूलतः चौपासनी के गोस्वामी, उनके सेव्यस्वरुप श्री श्याममनोहर जी एवं भक्त कवि सूरदास की भगवत्सेवा आदि लुप्तप्राय ऐतिहासिक घटनाओं को प्रकाश में लाना ही इस महाकाव्य का मुख्य उद्देश्य है।'' 

कवि का यह स्पष्ट उद्घोष है कि काव्यशास्रीय परिपाटी का यथाशक्य निर्वाह करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों के निरुपण में काल्पनिकता को अवकाश नहीं दिया है। कवि ने ऐतिहासिक घटनाओं को अक्षुण्ण रखते हुए रसालंकारादि का भी यथोचित निर्वाह किया है।

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गीतिकाव्य की रचना

गीतिकाव्य भी एक उत्कृष्ट काव्यविधा है। इसका सर्वाधिक विकसित स्वरुप संस्कृतसाहित्य में ही प्राप्त होता है। गीतिकाव्य सुरभारती का परम रमणीय अंग है। संस्कृत में गीतिकाव्य के दो प्रकार प्राप्त होते हैं - मुक्तक तथा प्रबन्ध। मेघदूत की काव्यसुषमा से आकृष्ट होकर उसका अनुकरण करते हुए परवर्ती कवियों ने भी "सन्देशकाव्यों' या "दूतकाव्यों' का प्रणयन किया।

मारवाड़ के आशुकवि पं० नित्यानन्द शास्री ने उस दूतकाव्य परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए "हनुमद्दुूतम्' की रचना कर संस्कृतसाहित्य में इस विधा के विकास के लिए उल्लेखनीय योगदान किया है। आचार्य बलदेव ने संस्कृतसाहित्य के इतिहास में उनकी कृति का उल्लेख किया है।

गेयता गीतिकाव्य का अनिवार्य उपादान होने से प्रत्येक गीतिकाव्य में सुलभ होती है।

मारवाड़ में जयदेव की कोमल कान्त पदावली और भावसान्द्रता से प्रभावित होकर कविवर जगदीशचन्द्र आचार्य ने "संगीतलहरी' नामक मुक्तक गीतिकाव्य की रचना की है। काव्य के संदर्भ में कवि के वचन इस प्रकार हैं -

""राग-रागिणी-समन्वित शब्दसामर्थ्य और ललितपदावलीयुक्त जयदेव की रचनाओं से लेखक बहुत प्रभावित हुआ। संगीतबद्ध गीत-रचना का मैंने प्रयास किया और भिन्न-भिन्न रागों में काव्य रचना की।''

इस गीतिकाव्य में विविध विषयों से सम्बन्धित विविध रागबद्ध गीत मिलते हैं। यह उल्लेखनीय है कि कवि ने ध्रुपद और ख्याल की गायकी के रुप में भी अपने विचार व्यक्त किये हैं। बीसवीं शताब्दी में भी जयदेव के गीतगोबिन्द की शैली का सफल निर्वाह कर कविवर जगदीशचन्द्र आचार्य ने साहित्य परम्परा का निर्वाह किया। इस काव्य के भावसौष्ठव और शब्दमाधुर्य आदि की अनुभूति के लिए यहां कतिपय उद्धरण प्रस्तुत हैं -

(१) हे रसने रट राधारमणम्
अयि रसने रट राधारमणम्
जम जगदीशं पदगतशरणम् ।। ध्रुव ।। १ ।।

क्षणभड्गुरजीवनकलिकेयम्
श्व उषसि विकसेदथवा नेयम् ।
भज यदुवरमधुसूदनमेनम्
जप जगदीशं पदगतशरणम् ।। हे रसने ।। २ ।।

मलयगिरे: शुचिशीतलमरुतां
तनुसुखदो न भवेदुपभोगः ।
भज भवरोगहरं हरिमेनम्
जप जगदीशं पदगतशरणम् ।। हे रसने ।। ३ ।।

(पृष्ठ १)

(२) अधरमधुरमुरलीधारी
खेलति राधाहृदयबिहारी ।। ध्रुव ।। १ ।।

यमुनातटगताकुंजनिकुजे
विदलितमानसकिल्विषपुंजे
विचरति दारवदपंविदारी ।। अधर ।। २ ।।

कोकिलकल रवमंजुलनदितम्
व्रजललनामुखमधुरं हसितम्
शरदि चन्द्रिकारासविहारी ।। अधर ।। ३ ।।

(पृष्ठ ३९)

 

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स्तोत्र -रचना

संस्कृत का स्तोत्र साहित्य अतिविशाल, सरस तथा हृदयावर्जक है। स्तोत्रकाव्यों में शिव, विष्णु, सूर्य, भगवती दुर्गा, लक्ष्मी, गंगा, यमुना, गोदा आदि की महिमा का गान करते हुए भक्तकवियों ने अपने कोमल तथा अन्तर्भावों को सहजता से अभिव्यक्त करने की कोशिश की है। संगीत का पुट मिल जाने से इनका प्रभाव नि:संदेह बढ़ जाता है।

मारवाड़ में इस विधा का विकास करने वाले कवियों में आशुकवि नित्यानन्द शास्री तथा कविवर जगदीशचन्द्र आचार्य का नाम विशष रुप से उल्लेखनीय है। आशुकवि द्वारा रचित "लघुच्छन्दोअलंकारदपंण', जिका दूसरा नाम "देवीस्तव' है, छन्दों एवं अलंकारों के परिज्ञान के साथ साथ देवतास्तव के गठन से जन्य फल का प्रापक भी है।

इसके अलावा कवि ने "मारुतिस्तव' तथा "विविधदवस्तवसड्ग्रह' नामक स्तोत्र ग्रंथों की भी रचना की थी।

कविवर जगदीशचंद्र आचार्य द्वारा रचित मनदाकिनी-माधुरी नामक लघु स्तोत्र काव्य से भक्ति तथा माधुर्य की अनुपम धारा प्रवाहित होती है। इसमें कुल ३२ पद्य हैं। कवि ने कोमल कान्त पदावली से भगवती मन्दाकिनी की महिमा का गान किया है। उनकी रचना के कतिपय पद्य यहाँ उद्घृत हैं -

कल्याणी कुमुदेशकुन्दधवला धाराधरोल्लासिनी
शर्वांगस्थविरा शिवामृतमयी नीलाम्बरश्रीयुता ।
तन्वन्तःकरणा सलीलसलीला स्वर्गापगा पावनी 
मन्दोत्तुंगतरंगभंगतटिनी मन्दाकिनी पातु माम् ।। १ ।।

यन्मूर्तस्तवने नितान्तमुपमामालोपमारुपको-
त्प्रेक्षानन्वयकाव्यलिंगयमकानुप्राससारादयः ।
मोदन्ते मधुरप्रसादजननव्यापारचित्रस्मिता
मोन्दोत्तुंगतरंगभंगतटिनी मन्दाकिनी पातु माम् ।। ८ ।।

सिद्धानां गिरिकन्दरासु वसतां ब्रह्मैकनिष्ठावतां
सौगालौकिकसिद्धिलब्धपरमज्ञानोल्लसच्चेतसाम् ।
सर्वेषामनुकम्पया तनुभृतां कल्याणमातन्वतां
मातस्त्वत्तटवासिनामनुपमं दृश्यं परं शोभनम् ।। २३ ।।

 

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गद्यकाव्य की रचना

गद्यकविचूडामणि बाण की "कादम्बरी' को उपजीव्य के रुप में स्वीकार कर मारवाड़ के गद्यकवि जगदीशचन्द्र आचार्य ने बाणभ को समर्पित करते हुए मारन्दिका नामक गद्यकृति का निर्माण किया। ""कादम्बरीरचयित्रे कवीश्वराय श्रीबाणभट्टाय सादरं समर्मिता।'' बाण की कादम्बरी का गद्य स्निग्ध, रसपेशल, हृदयावर्जक पांचाली शैली का भव्य प्रतीक है, जिसका प्रभूत प्रभावमारन्दिका के रचयिता पर पड़ा है। मकरन्दिका की कथा कवि की कमनीय कल्पना से प्रसूत है। इसके नामकरण की सार्थकता की ओर संकेत करते हुए कवि ने कहा है।

कथायां रमते यत्र नायिका मकरन्दिका ।
बुधस्तत्पठने पश्येन्मकरन्दं पदे पदे ।।

(मकरन्दिका, पृ० ५)

बाण के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए कवि ने अधिकांशतया पांचाली शैली का प्रयोग किया है, परन्तु कहीं-कहीं वैदभी शैली का भी अवलम्ब लिया है। इस उक्ति को स्वीकार करते हुए कहा है कि इस कृति में गुण, शैलद, कल्पना तथा विशिष्ट शब्दावली का मंजुल समन्वय है। पाठक को सन्देहवृत्ति प्रदान करने के लिए कथा में भूत-म्रेत, अतिमानव, यक्ष, गन्धर्व आदि के तत्वों का समावेश किया गया है।

कवि द्वारा कथा प्रारम्भ से पहले किया गया शिवस्तव अत्यधिक आह्मलादजनक है -

''अनन्तब्रह्माण्ड वितान-व्याप्तात्मसकललोकललामभूतस्वर्लोकेन्द्रेन्द्रप्रभृत्यनेक-नाकौकः
सिद्धकिन्नरगन्धर्वयक्षराक्षसगणविहितार्हणोअनल्पविकल्पतल्पशायिन्यनेकदिव्यप्सरोअरिलोपासितदि नकरकरोत्फुल्लीकृतकनकपुण्डरीककिंजल्करेणुकांचनीभूतकल्लोलमंजुकलरववाहिन्यमरसरिदलंकृतजटाजूट।

(मकरन्दिका, पृ० ५)

दर्शनों को प्रभावोत्पादक बनाने और भावों में तीव्रता का आधान करने के लिए कवि ने बाण की तरह उपमा, उत्प्रक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का अत्यधिक कमनीय प्रयोग किया है। मकरन्दिका के कमनीय अंगों के अलौकिक सौन्दर्य के निरुपण से कवि का अद्भुत वर्णन कौशल ध्यातव्य है - ""प्रफुल्लपुण्डरीकदलायतलोचना, खचितनानाकुसुमशोभितकबरीकलापा, कुंकुमरागालंकृतसीमन्ता ............कन्दपंविहारस्थलं गोपयन्तीव टफुरनादसमाकृष्टहंसमिथुना, रम्भोरु:, सौदर्यमूर्ति: सा मकरन्दिका रराज।'' 

(मकरन्दिका, पृ० २९)

कवि ने कहीं-कहीं छोटे-छोटे अतिसरल वाक्यों का प्रयोग कर वैदर्भी शैली में अपनी विलक्षणता प्रदर्शित की है। यथा - ""राज्ञी तत्र प्रथमत आहूता। तस्यै रुद्रसेन इदं फलं ददो। सा काले सुन्दरं तेजोमयं कुमारं प्रासूत। स राजकुमारः प्रासादे प्रतिदिनं वदृबे। तस्य नामाभिधानं चित्रकेतुरिति ख्यातम्।'' (मकरन्दिका, पृ० १७)

 

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स्मृति (धर्मशास्रीय ग्रंथ) की रचना

महान विचारक पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ ने बीसवीं शताब्दी में "विश्वेश्वरस्मृति' नामक युगानुरुप स्मृति का निर्माण कर एक महान कर्तव्य का निर्वाह किया है।

दो भागों में विभक्त इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में मनुस्मृति में कथित आचार-विचारों की सकारण-युगानुरुप व्याख्या की है। स्मृतिकार ने उचित ही कहा है -

पुरातनं मानवधर्ममेव सम्यक् परिष्कृत्य युगानुरुपम् ।
विश्वेश्वरेणात्र कृते प्रयत्नेअत्यावश्यको विज्ञसुदृष्टिपातः ।।

इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग में सम्पूर्ण आर्यदाय भाग का युगानुरुप विवेचन किया गया है। प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित विधान इसमें परिश्रमपूर्वक संग्रहीत हैं। इस ग्रंथ के संशोधक आशुकवि नित्यानन्द शास्री ने कहा है - ""श्री विश्वेश्वरनाथ रेउमहोदयेन इममार्यविधानाभिधानं महान्तं ग्रन्थमारचरुयातीवोपकृतः संस्कृतसाहित्यसंसारः।'' यह उल्लेखनीय है कि ग्रन्थ कलावती नामक हिन्दी टीका से भी संवलित है।

इस ग्रंथ से कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत हैं -

द्विजातयस्तथा शूद्रा हिन्दवो द्विविधा मता: ।
कर्मणां च तयोर्व्याख्या शास्रेषु विशदा कृता ।।
परमद्यात्र संजाते मिश्रणे तूक्तकर्मणाम् ।
वर्णानां मिश्रणे चापि दुष्करो वर्णनिर्णयः ।।

सन्तति के संदर्भ में -

पालने शिक्षणे कष्टं कष्टं वृत्त्यर्जनेअपि च ।
अताअल्पैव जनि: श्रेष्ठा परिवृते युगेअधुना ।।

मितलोभ के संदर्भ में -

लोभाभावोअतिलोभश्च द्वावेतौ हानिदौ यतः ।
अर्थप्रधाने कालेअस्मिन् मितलोभो भवेत् ततः ।।

विद्या के संदर्भ में -

वेदशास्रपुराणानां स्थाने विद्या तु लौकिकी ।
जीविकार्थ प्रचलिता प्रबला समयस्थिति: ।।

इस प्रकार मारवाड़ में संस्कृत साहित्य की प्रायः सभी विधाओं से सम्बन्धित उच्च कोटि की कृतियों का सर्जन हुआ है। आवश्यकता यह है कि वर्त्तमान संस्कृत - साहित्यकार पुराने प्रकाशित व अप्रकाशित कृतियों के माध्यम से महान साहित्यिक विभूतियों के वैशिष्ट्य तथा योगदान पर तर्कसंगत शोध को तथा उन्हें साहित्य-प्रेमियों के और नजदीक लाने की कोशिश करे।

 

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