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उच्चवर्ग के आवास-गृह
उच्चवर्ग के आवास-गृह के अन्तर्गत राजप्रासाद व उनके प्रमुख सामन्तों जागीरदारों व उच्च राजवर्गीय अधिकारियों के आवास सम्मिलित किये जा
सकते हैं।
यहाँ के राजप्रासाद व उच्च वर्ग के आवास-गृह सादे ढंग से निर्मित होते थे हालांकि वे भव्य व विशाल हुआ करते थे। जब यहाँ के शासकों का सम्पर्क मुगलों से हुआ तबसे यहाँ के राजप्रासादों को मुगल शैली के अनुरुप रोचक बनाने का क्रम आरम्भ हुआ।
मुगल स्थापत्य का यहां प्रभाव अधिक बढ़ने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा कि मुगलों के पतन के पश्चात् उनके आश्रित शिल्पकारों को यहां के शासकों ने प्रश्रय दिया। उनके आश्रय में उन कलाकारों ने अपना कार्य पुनः प्रारंभ किया, अतः उनकी कला में मुगल प्रभाव आना स्वाभाविक था। इस प्रकार मुगल शैली का प्रभाव यहां के स्थापत्य में समय पाकर विस्तार पाता गया।
उनमें फव्वारें, छोटे बाग, पतले खम्भे और उन पर बेल-बूटों का काम तथा संगमरमर का प्रयोग होने लगा। राजप्रासादों का अलंकरण विशेषरुप से आरम्भ हुआ। बारीक-खुदाई व कुराई का काम, अलंकृत छज्जे, गवाक्ष आदि राजस्थानी राजप्रासादों में विशेष रुप से की जाने लगी।
इन महलों की दीवार पर चित्रकारी पत्थर की जालियों की नक्काशी, झरोखे, कलात्मक खंभों के अतिरिक्त इस काल में बने राजप्रासादों में हौज, फव्वारे इत्यादि की व्यवस्था भी होती थी, जिन पर मुगल स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। चित्रकारी में फूल, बेल-बूटे, नारी सौन्दर्य और धार्मिक महापुरुषों या ग्रंथों के विविध प्रसंग के चित्र अधिकतर बनाये जाते थे जिनमें चमकीले रंगों का प्रयोग किया जाता था। छत व अलंकरण में सुनहरी रंग का प्रयोग राजप्रासादों की अपनी विशेषता कही जायेगी। इसके अतिरिक्त लाल, गुलाबी, हरा व आसमानी रंग मुख्यतया प्रयोग में लाया जाता था।
राजप्रासाद में शाही शानो-शौकत व भव्यता का पूरा ख्याल रखते हुए मर्दाना व जनाना महल अलग-अलग बनाये जाते थे। राजा के दरबार, कचहरी, दीवान के बैठने की जगह, रहने
का निवास, सोने का कमरा व रानियों के रनिवास की अलग-अलग व्यवस्था होती थी।
राजप्रासादों की भांति राजा के दीवान, प्रमुख सामन्तों व उच्चाधिकारियों के आवासगृह भी बड़े भव्य और अलंकरण युक्त हुआ करते थे जो उसके पद एवं ऐश्वर्य का गरिमा के अनुकूल होते थे। उच्च राजवर्गीय लोगों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियां बनती थी जिसमें कई कमरे बने होते जो आवश्यक साज-सज्जा की सामग्री से युक्त होते। इन हवेलियों में उनके नौकरों के रहने के लिए अलग से आवास-गृह बने होते थे। हवेलियों के स्थापत्य व अलंकरण में राजप्रासादों का अनुकरण किया जाता था।
ंचे
अधिकांश सामन्तों के आवास गृह प्रायः गांव के मध्य में स्थान पर बहुत सी जगह घेर कर बनाये जाते थे और उनके चारों ओर परकोटा भी निर्मित करके उसे छोटे दुर्ग की भांति बनाया जाता था। मुख्य द्वार बड़ा व विशाल बनाया जाता जिसके समीप दोनों ओर बुजç बनायी जाती थी इनके आवास को 'गढ़' या "कोट' के नाम से पुकारा जाता था। स्थानीय भाषा में उसे "रावळा' भी कहा जाता था। इन गढ़ और कोट में एक राजा के दुर्ग की भांति ही छोटे स्तर पर सब प्रकार की आवश्यक सामग्री व उसके रख रखाव हेतु भवन निर्मित होते थे। इसके अतिरिक्त हर कोट या गढ़ में कचहरी, लोगों के बैठने के लिए "दरीखाना' व घोड़ों के लिए "घुड़साल' आदि की व्यवस्था होती थी।
उच्च वर्ग के आवासगृह मुख्यतया पत्थर द्वारा निर्मित्त होते थे। इसमें चूने आदि का कार्य भी किया जाता था। कई अन्य वस्तुएं मिलाकर चूने के प्लास्टर को संगमरमर की तरह चिकना बना दिया जाता था। कहीं-कहीं संगमरमर का प्रयोग भी मिलता है परन्तु इसका प्रयोग बहुत कम जगह और कम मात्रा में मिलता है।
मध्यम वर्ग के आवास-गृह
मध्यम वर्ग के आवास-गृह अपेक्षाकृत छोटे होते थे उसमें "पोळ' के आगे खुला आंगन होता था जिसे चौक के नाम से पुकारा जाता है। इसके आगे रहने व सोने के लिए साळ व ओरे बनाये जाते थे। रसोई व सामान रखने के लिए अलग से कमरे बने होते थे। घर के पीटे पालतू पशु बांधने के लिए प्रायः जगह बनी होती थी, जिसे बाड़ा कहा जाता था। इस वर्ग के मकानों में ईंटों व जहां सुलभ था स्थानीय पत्थरों का मकान बनाने में प्रयोग करते थे। साधारण स्तर के लोग कच्ची ईंटों व गारे गोबर से लिपे पुते मकानों में रहते थे। मध्यमवर्ग के परिवारों में दोहरी मंजिल के मकान कम पाये जाते थे। इन्हें मेड़ी या माळिया कहा जाता था।
इस वर्ग के लोग अपने मकान की छतें प्रायः मिट्टी के बने केलुओं से ढका करते थे जो गांव के कुम्हार द्वारा निर्मित होते थे। प्रत्येक वर्ष, वर्षा के पूर्व उस छत की जांच की जाती थी। टूटे-फूटे कलू हटाकर उसकी जगह नये कलू रखे जाते थे। इन केलुओं या थेपड़ों के नीचे बांस अथवा स्थानीय पेड़ों की लकड़ी प्रयुक्त होती थी। साळ और ओरों में खिड़कियां छोटी और कम हुआ करती थीं, किन्तु उसमें आळे अवश्य बने होते थे। इन आळों में एक आळा कुलदेवी यक अन्य देवी-देवताओं की पूजापाठ हेतु नियत होता था। होली-दीपावली जैसे बड़े पवाç के पूर्व घर की लिपाई पुताई और सफाई का कार्य हुआ करता था। चूने, मुड्ड व रजमी का प्रयोग पुताई के लिए किया जाता था व विभिन्न प्रकार के मांडणों से आंगन, चौक, मुख्यद्वार आदि को अलंकृत केया जाता था। मुख्यद्वार के दोनों ओर चबूतरी या चौकी अवश्य बनायी जाती थी।
निम्नवर्ग के आवास गृह
निम्नवर्ग के आवास गृह सादे व अलंकरणहीन होते थे।
वे प्रायः बहुत छोटे व गारे गोबर व कच्ची ईंटों
से बने होते थे। मध्यम वर्ग की भांति
मकान की छत केलू की बनी होती थी केवल एक
या दो कमरेनुमा ओरे बनाकर उसी
से काम चलाते थे। इस वर्ग के कई लोग अपने आवास हेतु झूंपड़े का प्रयोग
भी करते थे, जो घास-फूंस का बना होता था। झूंपड़े के निर्माण
में आक, सणिया आदि यहां के स्थानीय पौधे व घास का प्रयोग करते थे।
घर के आगे खुला आंगन (चौक) अवश्य होता था जिसका प्रयोग
बैठने-सोने व अपने गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं को
बांधने के लिए किया जाता था।
मध्यम वर्ग की भांति इस वर्ग के कुछ
लोगों में भी अपने आवास गृहों के मुख्यद्वार के दोनों ओर चौकी
(चबूतरी) बनाने का रिवाज था, यह परम्परा गांवों
में आज भी देखने को मिलती है। चौक के इर्द-गिर्द मिट्टी की कच्ची ईंटों
से निर्मित दीवार जिसे स्थानीय भाषा
में "चांदा' कहते थे, के ऊपरी सिरे पर सिणिया व घास इत्यादि
रखकर मुड्ड या मिट्टी डाला करते थे जिसे यहां पलांणी देना कहा जाता था। ऐसा करने
से बरसात के पानी से सीधा दीवार पर असर नहीं पड़ता था।
होली-दीपावली आदि त्योहारों में
वे प्रायः आवास को लीप-पोत कर व
भली भांति बुहार कर रखते थे। पर्व
या शादी विवाह के उत्सव पर रजमी,
मुड्ड आदि से पुताई की जाती थी।
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