राजस्थान

 

मारवाड़ के मेले

प्रेम कुमार


मारवाड़ के मेले यहाँ की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताओं का एक हिस्सा रहा है। मध्यकाल में प्रचलित प्रमुख मेलों का उल्लेख किया जा रहा है।

रामदेवरा का मेला

रामदेवरा को स्थानीय लोग 'कणीचा' के नाम से भी जानते है। यह राज्य के पोकरण कस्बे से १२ कि.मी. की दूरी पर उत्तर की तरफ अवस्थित है। इस पावन धाम के संस्थापक १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रामदेव तंवर ने की थी। उन्होंने अपनी भतीजी, वीरमदेव की पुत्री जिसका विवाह राठौर जगमाल मालावत के पुत्र हम्मीर से हुई। को दहेज में अपना निवास-स्थान पोकरण दे दिया और उसके बाद यह नए स्थान को अपना निवास बनाया जो रामदेवरा और रुणीचा के नाम से जाना जाने लगा।

बाबा रामदेव ने कई चमत्कारिक लीलाएँ की। भैरव दमन लीला ने यहाँ के जनमानस को सबसे अधिक प्रभावित किया। सातलमेर के कुख्यात भैरव के प्रबल उत्पात से आस-पास के सभी गाँव उजड़ चुके थे। मात्र एक बालकनाथ नामक एक साधु इससे प्रभावित नहीं हुआ था। यही बालकनाथ रामदेव के धर्मगुरु हुए। पोखरण में इनका साधनास्थल है तथा यसूरिया पहाड़ी पर उनकी समाधि बनी हुई हैं। रामदेव ने भैरव का अन्त कर लोगों को नई जिन्दगी दी। वि.सं. १५१५ में बाबा ने स्वनिर्मित रामसरोवर में जीवित समाधि ले ली। उस स्थान पर एक विशाल मन्दिर बना है तथा उनकी याद में प्रत्येक साल भाद्रपद शुक्लाद्वितीया से ग्यारस तक यहाँ मेला लगता है। मेले में दूर-दूर से लोग पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ आते है तथा बाबा का दर्शन, रामसरोवर में मन्जन, बावड़ी के जल का आचमन एवं नगर प्रदक्षिणा करते है।

बाबा रामदेव अद्दुूतोद्धारक के रुप में माने जाते है। इनके भक्तों में हिन्दू व मुस्लिम दोनों है। हिन्दू इन्हें अपने लोकदेवता के रुप में पूजते है तो मुस्लिम इन्हें रामसा पीर कहते है। इस प्रकार ये हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक भी रहे है। हिन्दू समुदाय में निम्न जातियों खासकर चमारों में इनकी मान्यता अधिक है। मेले में लोग अपनी मनौतियों के साथ आराध्य के दर्शन के लिए आते है। कुष्ठ एवं असाध्य रोगों के निवारण की कामना से भी बड़ी संख्या में लोग इस पावन तीर्थ की यात्रा करते है। मेले में तेरहताली नृत्य का आकर्षक प्रदर्शन किया जाता है। इसे प्राय: कामड़िया प्रस्तुत करते है। हर जगह रामदेव जी के भजनों व उनके जीवन-लीलाओं का गान किया जाता है।

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नाकोड़ा का मेला

जैन तीर्थ के रुप में जाना जाने वाला नाकोड़ा बालोतरा से १० कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि ई.पू. तीसरी शताब्दी में नाकोर सेन और वीरमदत नामक दो राजपूत भाइयों ने अपने नामों से नाकोर नगर और वीरमपुर नामक नगर बसाए। जैन धर्म से प्रभावित दोनों ने नगरों के मध्य सुन्दर जिनालयों का निर्माण करवाया। इसका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा।

जैन मतानुसार उनके तीर्थकर वीतराग होते हैं। वे किसी को वरदान या शाप नहीं देते न ही आराधना से प्रसन्न या अप्रसन्न होते हैं। वीतराग की आराधना का फल प्रदान करने के लिए एक अधिष्ठायक देव की स्थापना की जाती है। माना जाता हे कि यही देवता उस मन्दिर की रक्षा भी करते हैं। यहाँ स्थित श्री नकोरा भैरव बहुत ही प्रसिद्ध हैं।

वैसे तो यहाँ हमेशा श्रद्धालुओं की भीड़ लगी होती है परन्तु पूर्णिमा के दिन विशेष आयोजन होता है। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष वदि १० को भगवान पार्श्वनाथ का जन्म-दिवस मनाया जाता है। इसे कल्याण दिवस कहा जाता है। पार्श्वनाथ का भव्य जलूस गाजे-बाजे के साथ बड़ी धूमधाम से निकाला जाता है। इसे यहाँ नक्कारसी के नाम से पुकारा जाता है। इस दिन दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ आते है।

नकोड़-भैरव मन्दिर के अलावा कई अन्य जैन-तीर्थकरों के भी भव्य मन्दिर बने हैं। इनमें पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, ॠषभदेव आदि के मन्दिर प्रमुख हैं। पार्श्वनाथ के मन्दिर के निकट ही १६वीं शताब्दी का वैष्णव मन्दिर तथा १७वीं शताब्दी का शिव मन्दिर भी बना हुआ है।

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मंडोर का वीरपुरी का मेला

नागादि नामक छोटी नदी के किनारे बसा नगर मंडोर का अस्तित्व चौथी सदी के आस-पास से माना जाता है। जौधपुर से ५ मील उत्तर दिशा की तरफ स्थित यह स्थान प्राचीन मारवाड़ की राजधानी थी। शिलालेखों में मंडोर का नाम मांडव्यपुर मिलता है। इस स्थान के मांडव्य ॠषि की साधना-स्थली होने का भी उल्लेख है।

कई राजवंशों के इतिहास से जुड़े इस ऐतिहासिक स्थल पर १७वीं शताब्दी के अन्त से वीरपुरी का मेला लगना शुरु हो गया था। एक प्रचलित कथा है कि जब महाराजा जसवंतसिंह प्रथम औरंगजेब की ओर से युद्ध करने अहमद नगर पहुँचे तो उनकी सेना को नारी क्षति उठानी पड़ी। तब उन्होंने मारवाड़ के वीर सपूतों का स्मरण किया तथा उन्हीं से प्रेरित होकर युद्ध में विजय श्री प्राप्त की। वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने वीर वीथिका का निर्माण करवाया। अब प्रति वर्ष वे इसी विजय दिवस पर सवारी के साथ मंडोर जाया करते थे। जोधपुर की जनता भी इस वीरशाला को गरिमा का विषय मानते थे।

वीर-वीथिका के निर्माण की प्रक्रिया यहाँ कई महाराजाओं तक चलती रही। सभी ने अपने-अपने समय में विभिन्न मूर्तियाँ उत्कीर्ण करवाई। कुछ लोगों का मानना हे कि उपरोक्त वीर-वीथिका का निर्माण तथा उनकी भव्य आकृतियाँ महाराजा अभयसिंह ने बनवाई परन्तु नैवासी पं. विश्वेश्वरनाथ रेड आदि विद्धानों के अनुसार इसका निर्माण महाराजा अजीत सिंह ने करवाया था। इन देवताओं की साथ में अभय सिंह तथा मानसिंह के समय में भी वीर वीथिका बनाने का उल्लेख मिलता है।

यह वीर-विथिका क्षत्रिय जाति की वीरपूजा का प्रतीक रहा है। आज भी सावन माह के अंतिम सोमवार को यहाँ वीरपुरी का मेला लगता है।

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तिलवाड़ा का मेला

इस मेले का आयोजन सर्वप्रथम राव मल्लीनाथ के श्रद्धालु भक्तों द्वारा उनकी याद में किया गया। इसे तैत्री मेला, पशुमेला तथा मल्लीनाथ बाबा का मेला के नाम से जाना जाता है। राव सलखा के पुत्र राव मल्लीनाथ एक वीर और सिद्ध पुरुष थे। रावल माल के प्रति लोगों के दिलों में अटूट प्रेम व विश्वास था।

राव मल्लीनाथ का जन्म वि.सं. १४१५ में हुआ था। वे एक वीर और प्रतापी शासक थे। उन्होंने दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की तेरह तुंग (फौजी टुकड़ियों के दल) का वि.सं. १४३५ में मेहवे की हद में हराया। आज भी यह कहावत प्रचलित है 'तेरह तुंगा मांगियां माले सलखाणी'। इसी ऐतिहासिक घटना के कारण बाड़मेर क्षेत्र के एक भाग का नाम मालानी पड़ा। मालानी के निकट तिलवाड़ा ग्राम के पास लूनी नदी की तलहटी में वि.सं. १४५६ में मल्लीनाथ ने जीवित समाधि ले ली।

कालान्तर में यहाँ पशु मेला भी आयोजित किया जाने लगा।

पहले मेले का आयोजन राज्य की ओर से होता था तथा इससे होने वाली आमदनी भी राज्य की आय के रुप में जमा होती थी।

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परबतसर का मेला

यह मेला परबतसर परगना के हाजा कस्बे में तेजाजी की याद में प्रतिवर्ष भाद्रपद के शुल्क पक्ष की १० से पूर्णिमा तक लगता है। इसका आयोजन भाद्रपद कृष्णा ११ से भाद्रपद शुक्ला ११ तक होता था। सारे इन्तजाम की जिम्मेवारी शासन पर होती थी।

तेजाजी का जन्म १७वीं सदी में नागौर के खड़नाथ नामक गाँव में एक जाट परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि लाछा गूजरी की गायों को मेणों से मुक्त करने के पश्चात घायल अवस्था में प्रतिज्ञानुसार सपं के सम्मुख उपस्थित हुए। सपंदेश से सुरसरे ग्राम में इनका स्वर्गवास हो गया। जाट जाति में इनका विशेष महत्व है। देवतुल्य मानकर इनकी पूजा की जाती है। कृषक वर्ग इनके यशगीत गाते हैं। सर्पों के देवता के रुप में भी इनकी पूजा होती है। लोक विश्वास है कि इनके नाम की राखी बाँधने पर सपंदशित व्यक्ति विष के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।

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शीतलाष्टमी का मेला

जोधपुर में कागा में शीतला माता का मन्दिर बना है। मारवाड़ में कई स्थानों पर शीतला सप्तमी का त्यौहार मनाया जाता है कि जोधपुर शहर में यह शीतला अष्टमी को मनाया जाता है।

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नागपंचमी का मेला

यह मेला मंडोर में ही प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी को लगता है। इस दिन नाग की देव रुप में पूजा अर्चना होती है। लोग नारियल, मिश्री आदि चढ़ाते है। नागादि नदी और नागकुण्ड के पवित्र जल का पूजन भन्जन भी करते है।

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खेड़ापा का मेला

जोधपुर-नागौर मार्ग में स्थित खेड़ापा में होली पर प्रत्येक वर्ष मेला लगता है। यह स्थान रामस्नेही सम्प्रदाय का तीर्थ स्थल है। यह इस सम्प्रदाय की चार शाखाओं में एक है। इस शाखा का प्रारंभ रामदास ने किया था। यहाँ उन्हीं की चरण पादुकाएँ, माला व वस्र रखे गए है।

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विलाड़ा का मेला

जोधपुर के निकट स्थित बिलाड़ा नामक स्थान पर हर एक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन मेला लगता है। यह स्थान राजा बलि की टेकरी के नाम से जाना जाता है। यहाँ विरोचन पुत्र बलि ने ५ अश्वमेघ यज्ञ किये तथा बाण मारकर वाणगंगा नामक पवित्र सरोवर का निर्माण 
किया। कहा जाता है कि इसमें भूगर्भ से पानी आता है तथा यह कभी नहीं सूखता। इसके किनारे गंगेश्वर महादेव, काली दी आदि कई मन्दिरे हैं।

यह स्थान भक्त प्रह्मलाद के पुत्र विरोचन से भी सम्बद्ध है। उसके मृत्योपरान्त उसकी सभी ९ रानियाँ यहीं सती हुई। उसकी स्मृति में चैत्र मास की अमावस्या को यहाँ नौ रानियों का मेला लगता है। आई माता जो सीखी जाति की कुलदेवी है का प्रसिद्ध मन्दिर भी यहीं है।

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खेड़ का मेला

खेड़ मारवाड़ राज्य में बालोतरा के समीप ५ मील पश्चिम की तरफ लूवी नदी के किनारे स्थित है। यहाँ प्रत्येक पूर्णिमा को मेला लगता है। माघ मास में रेबारी जाति के लोग अपने बच्चों का मुंडन करवाने यहाँ आते है।

खेड़ स्थित मग्नावशेष व मूर्तियाँ इस स्थान के ऐतिहासिक महत्व को बदलाते है। वर्तमान में यहाँ आद्दोड़राय का विशाल मन्दिर व अन्य कई छोटे-छोटे मन्दिर है।

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रेण का मेला

मेड़ता रोड से १२ मील की दूरी पर स्थित यह स्थान रेणा शाखा के प्रवर्तक दरियावजी की तप स्थली रही है। यहीं पर दरियावजी की समाधि भी है।

खेड़ापा भी राग स्नेही सम्प्रदाय की एक प्रमुख शाखा का पीठासन स्थल है। यहाँ मार्गशीर्ष व चैत्री पूर्णिमा को वर्ष में दो बार मेला लगता है।

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मारवाड़ के अन्य मेले

- बिलाड़ा से १६ मील की दूरी पर सोजत नामक कस्बा कभी वाणासुर की राजधानी थी, शौणितपुर के नाम से जाना जाता था। यहाँ माघ मास में मेला लगता है। 

- बिलाड़ा के निकट कापरड़ गाँव जहाँ कई श्वेताम्बर जैन मन्दिर है, चैत्र शुक्ल पंचमी को मेला लगता है।

- समुजेश्वर जो लूनी से ४ मील की दूरी पर स्थित है, में श्रावण के प्रथम सोमवार को शिवरात्रि का मेला लगता है।

- कोलू नामक गाँव में लोक देवता पाबूजी का मेला लगता है।

- बँगहटी नामक गाँव में हडबूजी का मेला लगता है। 

- मुकाम में विश्नोई सम्प्रदाय के प्रवर्तक जांभोजी का मेला लगता है। 

इन मेलों में तथा साथ ही साथ समीपवर्ती क्षेत्रों में आयोजित मेलों में मारवाड़ के लोग बड़ी श्रद्धा व उत्साह से भाग लेते रहे हैं। 

 

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