राजस्थान |
मेवाड़ में संचार- व्यवस्था : बामणी - डाक अमितेश कुमार |
मेवाड़ राज्य में आज की तरह सुसंगठित संचार व्यवस्था नहीं थी। जन- साधारण में जातियों के अपने-अपने नाई, सेवक, चारण या भाट ही पारिवारिक संदेशों का आदान- प्रदान करते थे। ऐसी संदेश- प्रक्रिया प्रायः मौखिक होती थी। राज्य कार्य के लिए पैदल (दौड़ायत), ऊँट सवार, सांड़ीवार तथा घुड़सवार रखे जाते थे। वे राज- काज से संबद्ध सूचना वार्ताओं को प्रायः मौखिक रुप से ही इधर- उधर पहुँचाते थे। मौखिक संदेश- प्रक्रिया का कारण संभवतः उस समय का संशयात्मक राजनीतिक वातावरण था। व्यापारिक पत्र माल वाहनों अथवा यात्रियों के साथ भेजे जाते थे। १९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक इसी रुढिगत व्यवस्था का प्रयोग किया गया। इस के बाद सूचना संचार के लिए बग्गियाँ काम में भी जाने लगी। अब लिखित सूचना का प्रचलन शुरु हो गया था। किंतु जनसाधारण में अभी भी सूचना- विनिमय की कोई राज्य आधारित व्यवस्था नहीं थी। यह व्यवस्था राणा स्वरुपसिंह के शासन से आरंभ हुई, जो नियमित राजकीय डाक लाने ले जाने का कार्य करती थी। यह व्यवस्था "बामणी- डाक व्यवस्था' के नाम से जानी जाती थी। बामणी डाक व्यवस्था संभवतः बंगाल के हरकारा- डाक व्यवस्था से प्रभावित थी। इस व्यवस्था में ब्राम्हण जाति के लोगों को वार्षिक ठेके के आधार पर डाक संबंधी उत्तरदायित्व प्रदान किया गया था। ब्राह्मण वर्ग के प्रति लोगों का आदर व दया मान था। साथ- ही- साथ चूँकि ब्राह्मण को मारना या लूटना पाप- कर्म माना जाता था, अतः पैसे व पत्र ज्यादा सुरक्षित रहते थे। ठेके में हानि होने की स्थिति में राज्य द्वारा आर्थिक- अनुदान कर क्षतिपूर्ति किया जाता था। ठेका लेने वाले व्यक्ति को डाक- व्यवस्था बनाये रखने के लिए हरकारे रखने पड़ते थे, जिनका मासिक वेतन निश्चित किया जाता था। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह प्रति माह ४ रुपया था। इस डाक- व्यवस्था को जन- साधारण के उपयोग हेतु राणा शंभूसिंह के शासन- काल में खोला गया। जन- साधारण को प्रति पत्र की कीमत के आधार पर एक निश्चित लागत चुकानी पड़ती थी। मेवाड़ राज्य के अंदर पत्रों के आदान- प्रदान की लागत निश्चित थी, किंतु बाहर भेजी जाने वाली डाक पर अलग से प्रति कोस के हिसाब से पैसा लिया जाता था। २० वीं शताब्दी के एक दशक तक वामणी डाक नियमित रुप से प्रत्येक परगने के मुख्यालय तक जाती थी। अलग से कोई डाक- कार्यालय नहीं था। ठेकेदार का घर तथा हरकारे स्वयं डाक- घर का कार्य करते थे। सन् १८६५ ई. में आंग्ल सरकार ने डाक- घर स्थापित किया। इसके साथ ही नसीराबाद, खेरवाड़ा, कोटड़ा व छावनी पर छावनी के छाक- घर खुले। इनका प्रयोग ब्रिटिश भारत सरकार, एजेंटों एवं राज्य के कर्मचारियों के समाचारों का आदान- प्रदान करना था। रेलवे के विकास के बारे में जन- साधारण के प्रयोग के लिए प्रत्येक रेलवे- स्टेशन पर प्रशासन ने एक- एक डाक घर तथा तार- घर खोल दिया। १९ वीं सदी के अंत तक जन- साधारण की सूचना नियमित तथा व्यवस्थित रुप से आने- जाने लगी थी।
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