Yugantar |
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श्री उपेन्द्र नाथ झा 'व्यास' |
- "अपनेक नाम ?" - "उपेन्द्रना झा।" - "गाम-घऽरक नाम ?" - "चुल्हाइ, नुनू, भचाइ।.. चुल्हाइ छोड़ि दिऔक... काटू-काटू।" - "जी छेड़ि देलिऐक।" - "सुनू !" - "जी ।" - "गाममे लोक इन्जीनियर साहेब कहैत अछि।" - "अपनेक गाम?" - "हरिपुर बख्शी टोल।" - "पंचायत-हरितपुर ... हरिपुरे प्राय , प्रखंड- खजौली, जिला- मधुबनी।" - "अपनेक पिताक नाम?" - "स्व. पंडित विश्वनाथ झा" - "पिताक जीविका?" - "नहि, कोनो तेहन नहि, ... पूजा-पाठ, घर-गृहस्थी !" बोकिंरग रोड, पटनाक 'श्रीभवन' ! पुरान टाइपक तीनमंजिला मकान । नारिकेरक गाछ । अरुहूलक फूल, कौरोटिन । छोटछीन ओसारा । ओसारासँ लागल ड्राइंग रुम । ड्रांइग रुममे एकटा पलंग । पलंग पर बिछौन । बिछौन पर तकिया । तकिया पर माथ रखने मैथिलीक एकान्त साधक सारस्वत परम्पराक स्वनामधन्य लेखक पं. श्री उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास' पड़ल छलाह । - "व्यास अपनेक राशिक नाम थिक ?" व्यास जी पड़ल छलाह से उठि क' बैसि रहलाह, कहलन्हि- "राशिक नाम गोपनीय होइत छैक । तें से वक्तव्य नहि । एक बेरि दरभांगे जयकान्त बाबू सेहो पुछने छलाह - अपनेक उपमान व्यासक रहस्य की ?" - "जी, से रहस्य खोलल जाए !" - "हम राजनगरमे पढ़ैत रही । होस्टलमे रहैत रही । ओतहि हिन्दीक शिक्षक रहथि-रामेश्वर पाण्डेय । हमरा बड़ मानथि । जातिक भूमिहार ।" - "जी, तकर बाद ... " - "असलमे, हम स्कूल मे यदा-कदा अवसर-अनवसर रामायण-महाभारतक कथा शिक्षक आ छात्रकें सुनौल करियनि । जेना पराशर, द्रोपदी, धर्मराज युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, घटोत्कच आदिक प्रसंग - से सुनि हमरा रामेश्वर पांडेय 'व्यास' कहए लगलाह । हुनका देखा-देखी सब विद्यार्थी- शिक्षक सेहो 'व्यास' कहब शुरु क' देलनि। बादमे इएह नाम प्रचलित भ' गेल ।... औ, हमर जन्मतिथिक प्रसंग प्रश्न नहि पूछब ?" - "जी, असलमे, जीविकापन्न व्यक्तिक जन्मतिथि पुछबासँ हम डेराइत छी ।" व्यास जी चकित होइत कहलन्हि- "से किएक ?" - "एहि प्रसंग अधिकांश लोकक उत्तर मि सिद्ध भेल अछि ! लोक एक आध बरख कम क'क' लिखा देने रहैत छथिन !" व्यास जी मुस्कुराइत कहलन्हि- "मुदा, हमरा संगे तँ गजब भ' गेल । हमर सर्टिफिकेट एज एक साल अधिक क'क' लिखा देल गेल । हमर जन्म तिथि अछि- श्रावण कृष्ण त्रयोदशी सोम, सन् १३२५ साल, तदानुसार १६-७-१९१७ ।... स्कूल मे हमर जन्मतिथि अंकित कएल गेल ४ अगस्त, १९१६ । फलतः एक बरख पूर्वे हमरा अवकाश ग्रहण कर' पड़ल ! मुदा जखन ई बात तत्कालीन मुख्य सचिवकें बूझल भेलनि तँ ओ हमरा पर विशेष अनुग्रह कएल । -"जी से कहेन ?" -"से कहैत छी ... ।" -"कहल जाय ... ।" - "हम अवकाश ग्रहण कएल ४ अगस्त ७४ कें ... आ २० सितम्बर ७४ सँ ३० अक्तूबर ७७ धरि एडवाइ इन्डस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट आॅथरीटीमे मुख्य सचिवक विशेष अनुग्रहसँ सेवापन्न रहलहुँ !" 'श्रीभवन'क ड्राइंग रुमक सोफा पर हम बसैल छी । दिन रहइक बृहस्पति, ४ जून, १९९८ । घड़ीमे बजैत रहैक एगारह ! 'व्यास' जीक जन्म १९१७ मे ... अस्सी-एक-एकासी बरखक गौर वर्ण, पूजा-पाठक संस्कारसँ सौम्य रुप छवि । कौलिक संस्कार आ अपन सनातन धर्मक प्रति अखण्ड निष्ठा रखनिहार 'व्यास' जीक राशि 'मिथुन' छन्हि । मीन लग्न । ... नवमेश ... दशमेश मंगल बृहस्पति ! हम साकांक्ष होइत पुछलियनि- "मिथुन राशिक लोककें आरम्भिक जीवन अत्यन्त विपन्नता आ संघर्षमे बितबय पड़ैत छैन्हि । ... अपनेक की अनुभव ?" निमिष मात्रक लेल व्यासजी आत्मस्थ भ गेलाह - स्वपावस्थित जकाँ .... दूर-दूर बहुत दूर बीतल अतीतमे डूबि गेलाह - "औ, ई बात अहाँ ठीक कहैत छी। हमर जन्म अत्यन्त निर्धन परिवार भेल। अद्य किं श्वः प्रातः ? बड़ दु:ख । बड़ संघर्ष। अवहेलना आ उपेक्षा ।" पुनः हमरा दिस साकांक्ष होइत कहलन्हि- "अहाँ कें ज्योतिषक ज्ञान अछि की ?" - "जी, थोड़-बहुत अभिरुचि अछि !" - "मुदा की कहब ? हमर परिवारमे एखन तीन गोट सदस्य मिथुन राशिक छथि । मुदा तकरा सबकें ओ दुख आ संघर्ष कहाँ ?" -"जी, से सबटा ग्रह तँ अपने आत्मसात क' लेने छिऐक ।" -"सब ईश्वरक कृपा ! सब ईश्वरक कृपा !!" हरिपुर बख्शी टोलक उपेन्द्रनाथ झाक जन्म अत्यन्त निर्धन परिवारमे भेल छलन्हि। पिताक द्वारा अक्षरारम्भ संस्कार भेल रहिन । गामक छोटछीन लोअर प्राइमरी स्कूलमे प्राथमिक शिक्षा भेल रहनि । गामसँ एक किलोमीटर दूरी पर अवस्थित अपर प्रइमरी स्कूल कलुआहीमे शिक्षा ग्रहण कएल । बड़ चंचल, प्रतिभाशाली । संस्कृत, गणित, भूगोलमे प्रखर प्रतिभा- अंग्रेजी कमजोर रहनि । मिडिलमे जिला भरिमे छठम स्थान प्राप्त कएल। एक बरख अधिक सर्टिफिकेटमे रहलाक कारणे एक बरख अधिक भ' गेल रहनि - फलतः छात्रवृत्ति नहि भेटलनि। बोकिंरग रोडक 'श्रीभवन'क ड्राइंग रुपमे पलंग पर बैसल मिथुन राशिक श्री उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास' एक जन बंगालीक स्मरण कए भावभिभूत भ' उठैत छथि ! - "अहाँ धीरेन्द्रनाथ लाहाक नाम सुनने छिऐन्हि ।" - "जी, नहि ... ।" -"कोना सुनबन्हि ओहन शिक्षाविद् आ गुणग्राही व्यक्ति हम अपन जीवनमे देखल नहि । ओ दरभंगा राजमे राजनगरमे मैने रहथि। सन् १९२९ मे जखन रमेश्वर सिहंक देहान्त भ' गेलन्हि तँ ओ १९३१ मे राजनगरमे रमेश्वर हाइ इंगलिश स्कूलक स्थापना कएल ।" " -रमेश्वर सिहंक देहान्त बाद किएक ?" -"असल मे, रमेश्वर सिंह मिथिला मध्य अंग्रेजी शिक्षाक बड़का विरोधी रहथि । .... हुनका होइन जे रैयत-प्रजा जँ अंग्रेजी पढि लेत तँ हमर सामन्तशाही नहि चलत ... पढ़ल-लिखल लोक हमर बात नहि मानत । पं. गंगानाथ झा जे यश अर्जित कएल- महामहोपाध्याय भेलाह से बुनका नहि अरघनि !" - "जी, तकर बाद ... " - "हम अपन गामसँ आबि राजनगरमे स्कूलक होस्टलमे रहि पढ़ए लगलहुँ स्कूलक संस्थापक धीरेन्द्रनाथ लाहा आ स्कूलक अन्य शिक्षकक सहयोग एवं आशीर्वाद भेटए लागल । मुदा हमर विपन्नता ... आर्थिक अभाव ... कखनो कालकऽ लागय जे आब आगाँ हम कोना पढ़ब ? हमर संस्कृतक किताब, हमर भूगोलक नक्शा, हमर गणितक पोथी -हमर नैया पार कोना लागत ? पिता अत्यन्त विपन्न...पूजा-पाठ मे लीन ! आब की हेतैक ? धीरेन्द्रनाथ लाहा पीठ ठोकथि - और पढ़ो ! और पढ़ो !! मुदा आगाँ पढ़ब कोना ?" - " जी, कहल जाए .... " - " तकर बाद हमर जीवनमे दैवी कृपा भेल - साक्षात् ईश्वरक कृपा !" - " जी, से कोना ?" - "हम बाल्यावस्थासँ खर्रख जाइत-अबइत रही । खर्रखसँ हमर परिवारक बड्ड दूरस्थ सम्बन्ध रहय । मुदा खर्रखमे स्व. बलभद्र बाबू आ दयाबाबूसँ जे हमरा स्नेह, सहयोग, सम्बल आ आत्मीयता भेटल से की हम विसरि सकैत छी ?" - " जी..... । "
- " देखू, बड़ी राजमाता आ हमर नानी
समवयस्क । राजमाता साहिबाक प्रपितामह आ हमर नानीक पितामह सहोदर... यैह
सम्बन्ध रहइक । हम रामवाग जाइ ... खर्रख जाइ।
बलभद्र बाबू अतिशय गम्भीर रहथि । ... प्रणाम करियनि तँ कोनो
भावमुद्रा बुझबामे नहि आबए ... मुदा दया
बाबू बड्ड आत्मीयता प्रदान करथि । स्कूल- परीक्षाफल- किताब आदिक प्रसंग जिज्ञासा करथि । किताब आदि खरीद क' देथि । प्रोत्साहित करथि । दया
बाबूक सहयोगसँ हमरा मिडिल क्लासमे पढितहि काल
राजमाता साहिबासँ नियमित प्रतिमास पाँच
रु.क छात्रवृत्ति प्राप्त होबए लागल हम जे महाभारत
लिखब आरम्भ कएल .... जकर आदिपर्व प्रकाशित भ' गेल अछि -
से सब दया बाबूक प्रेरणा आ उत्साह
सँ ?" - " जी, से कोना ?" - "से हम महाभारतक आदिपर्वमे सेहो लिखि देने छिऐक-सात-आठ वर्ष पूर्व श्री भाइ श्री दयानाथ झा, जे हमर प्रारम्भिक जीवनमे तँ अत्यधिक सहायक भेलाहे, एखनो धरि दुनक स्नेह ओ आशीर्वादसँ आह्मलादित होइत रहैत छी। एक दिन गप्पक प्रसंगमे हँसैत कहलनि-हम अहाकें 'व्यास' तखन बूझब जखन अहाँ महाभारत लिखब। हुनक बात सुनि हमरो हँसी लागल। परन्तु मनमे जेना ई बात जड़ि पकड़ि लेलक । ..... जखन आदिपर्व भाईकें देलिऐन्हि तँ विह्मव होइत कहलन्हि - 'व्यासजी' हमरो अहाँ 'अमर' क' देलहुँ !" सन् १९३६ मे नार्थब्रुक स्कूल, दरभंगामे मैट्रिक परीक्षाककेन्द्र रहइक । व्यासजी परीक्षामे राजनगर हाइस्कूलक विद्यार्थीक रुपमे सम्मिलित भेल रहथि । सर्चलाइटमे रिजल्ट बहरयलैक । एक जन विद्यार्थी जे हिनका चिन्हैत रहथिन्ह-हर्षोन्माद करैत बजलाह - उपेन्द्रनाथकें फस्र्ट डिवीजन भेलन्हि । राजनगरक नवस्थापित हाइस्कूलक लेल ई एकटा बड़का गौरवक बत रहैक । हरिपुर बख्शी टोलक एक जन गरीब, विपन्न, अभावग्रस्त पंडित विश्वनाथ झाक पुत्र श्री उपेन्द्रनाथ झा फस्र्ट डिवीजन प्राप्त कएल। माय कतेक कबुला कएने रहथिन । सबसँ बेशी खुशी मुदा खर्रखमे भेल रहनि - बलभद्र बाबू गद्गद् हृदयसँ आशीर्वाद रहथिन। दया बाबू मधुर बँटने रहथिन ! -"हरिपुर, कलुआही, आ राजनगरमे सर्वाधिक कोन व्यक्तिक प्रभाव अपने पर पड़ल ?" व्यास जी गम्भीर होइत कहलन्हि - "मुकुन्द झा 'बख्शी'। बड्ड कर्मठ आ शास्र-पुराणक मर्मज्ञ रहथि । अधिक काल देखियनि- 'हाथ पर गेली प्रूफ रखने खटाक-खटाक प्रूफ-संशोधन करथि । लोटा माँजथि तँ चमका देथि । अधिक काल घरहट रहनि । अपने चार पर चढञि जाथि । एक दिन बैसल राम-राम-श्रीराम-जयराम करैत रही। राम-राम शब्द सुनि बख्शीजी हमर हाथ पर अपन लिखल एक पुस्तक 'शब्दरुपावली' राखि देलनि । कहलनि पढू - राम-हरि सभक ज्ञान भ' जायत । शब्दरुपावलीक एक श्लोक एखनो हमारा स्मरण अबैत अछि-
'व्यास' जी १९३४ में प्रथमा, १९३६ मे मध्यमा आदिक डिग्री प्राप्त कएल। मिथुन राशिक रहने व्यास जीक स्वाभाविक रुपें ज्योतिषविद्यामे विशेष अभिरुचि छन्हि । गणित पर अधिकार रहलन्हि तें ज्योतिण विषयमे डिग्री प्राप्त करबामे विशेष असौकर्य नहि भेलन्हि। तावत एक जन टेबुल पर चाह आ जलखइ राखि जाइत छथि । हम जलखइ करैत पुछैत छिऐनि - "अपनेकें भोजनमे की नीक लगैत अछि ?" -"सब किछु आ किछु नाहि !" -"कमलाकातक माछ ?" देखू-देखू- हम राजनगरमे माछ छोड़ि देने रहिऐक - मुदा कण्ठी नहि लेलिऐक- गुरु नहि ककरो बनौलिऐक । एक वर्ष धरि नहि खएलिऐक । ... फेर माछ ... नौकरीमे रही तँ सप्ताहमे दू बेर चलैक आब परिवार पैघ-हमर इच्छा गौण । ओना हमरा की नीक लगैए से कहू ?" -"जी, अबस्स, अबस्से किने !" -"हमरा नीक लगैए - तरुआ ... ।" -"जेना .. " -"जेना तिलकोरक तरुआ, पथरचूरक, फूलक तरुआ, लाल मरचाइक तरुआ ! हमर माय जे तरुआ तरथि तँ पच्चीस तरुआमेसँ दस-बारह हम नि संकोच भावें खा जइऐक !" हम चाह शेष करैत पुछलियनि -" ओल-अरिकोंच ?" -"नीक लगैए ! मुदा नहि भटेल तँ तइ लेल हम व्याकुल नहि होइ छी !" तावत फोनक घंटी घनघना उठलैक- व्यास जी अपने खराम खटखटबैत फोन पर निमिष मात्रक लेल गप्प कएलन्हि आ फेर प्रकृतिस्थ भ' बिछौन पर वैसि रहलाह । मिथुन राशिक स्वामी बुध होइत छथि । नवमेश दशमेश मंगल-बृहस्पति रहने व्यासजी अपन जीवन आ जीविकामे यशस्वी भेल छथि । मिथुनराशिक व्यक्ति प्रभावशाली, सुसंगठित, श्रृंगार रससँ ओत-प्रोत, चंचल, हँसमुख आ मिलनसार होइत छथि । लेखन, बौद्धिक-कार्य, ज्योतिष एवं काव्य-रचनामे सुदक्ष होइय छथि । -"अपनेक कविता कोना बहरायल ?" - "बहरायत की ? ... " फेर हँस लगलाह " -नस-नसमे कविताक नशा अछि। तखन अहाँ पुछलहुँ कविता कोना बहरायल ? ... तँ से सुनू !" -"जी, कहल जाए ... ।" -"असल मे, हमरा गणित, हिन्दी, संस्कृत आ भूगोल पर अधिकार जकाँ रहय। ... मुदा इतिहास हम विसरि जइऐक-बाप के ? बेटा के ? इस्वी कोन ? क्षेत्र कतय ? नीति की ? कूटनीति की ? इतिहासक पोथि देखि क' हमरा आदंक होब' लगाए । तखन हम एकटा उपाय कएल ।" -"से की ?" -"इतिहासक घटना सबकें छन्दोबद्ध रुपमे लिखब आरम्भ कएल ।" -"माने इतिहासक कोखिसँ अपनेक कविताक जन्म भेल !" व्यासजी भभा-भभा क हँसैत कहलन्हि - "से आब अहाँ सब जे कहियौक - एक जन सूचित कएल जे कोइलख की कतऽ हमर कविता हस्तलिखित पत्रिकामे बहरायल छल। मुदा हमर जे पहिल काव्य-रचना अछि तकर विवरण हम कहैत छी !" -"जी, कहल जाए ...।" -"राजनगरक मैने आ हाइस्कूल संस्थापर धीरेन्द्रनाथ लाहाक बदली भ गेल रहनि । समस्त राजनगर जनपद एहि समाचारसँ मर्माहत भ' उठल। परिसरक समस्त लोक भावविह्मवल भ' उठलाह । हनुक विदाइ-समारोहक भव्य आयोजन भेल रहैक । ओहि समयक एकटा प्रसिद्ध तर्ज रहैक ..
एहि तर्ज पर पं. श्री शुकदेव झा विदाइ गान लिखने रहथि ... आ तकरा हुनक प्रिय शिष्य कोइलखक भवनाथ (पछाति डाक्टर) गाबि-गाबि रियाज करैत रहथि ।" -"जी, तकर बाद ... ?" -"हम स्वयं धीरेन्द्र बाबूक वैदुष्य आ विशाल हृदयसँ प्रभावित रही । हमरो इच्छा जागल जे हमहूँ एकटा विदाइ गान प्रस्तुत करी । भरी राति जागि क' लीखल । पंक्ति-पंक्ति अश्रुमे डूबल । एहि कविताक एक चरण सुना रहल छी .... एखनो मोन अछि-
तकर बाद हम पटना साइन्स कॉलेज नाम लिखाओल ... पछाति इंजीनियकिंरग कालेजमेन - ओतहि पटनामे सुभद्र बाबू रिसर्च करैत रहथि । हुनकासँ सम्पर्क भेल । प्रोफेसर परिमोहन झाक आशीर्वाद प्राप्त कएल । १९३८ मे दरभंगासँ स्व. रामनाथ बाबू द्वारा सम्पादित त्रैमासिक 'साहित्यपत्र' मे धारावाही रुपें प्रकाशित श्रध्देय तन्त्रनाथ बाबूक 'कीचकवध'क छन्द विशेष आकृष्ट कएलक । ... एहि प्रसंग एकटा बात ओर मोन पड़ल।" -"जी, से की ? कहल जाए ... " - "ओहि वर्ष दुर्गापूजाक अवसर पर मिथिला मिहिरमे प्रकाशित हुनक एक 'सॉनेट' (चतुर्दश-पदी) सेहो बढियां लागल छल । ओहि छन्दक अनुकरण कए हम पहिल सॉनेट 'सूय्र्य' १९३८ ई. मेष-संक्रान्ति दिन लिखल । एहि चतुर्दशपदीक किछु पाँती सूनल जाए ...
'चतुर्दश-पदी' क एक-एक पंक्ति सुनि हम झूमि उठलहुँ । आधुनिक मैथिली साहित्यक रससिद्ध कवि व्यासजी पुरान स्मृतिमे डूबल पल मात्रक लेल कविता पढ़ैत-पढ़ैत भावाभिभूत भए उठलाह - "बूझल किने ? " हम रसमुग्ध रही । तन्द्रा जेना टूटल ......... । व्यासजी मुग्ध होइत कहलनि -"तकर बाद हम क्रमाहि 'ब्लैंक भर्स' छन्द सेहो अपनाओल । पटनामे, १९३९ मे विद्यापति स्मृतिपर्वक आयोजन धूम-धामक संग सम्पन्न भेल रहैक । काव्य-पाठक हेतु हमरो आमंत्रिक कएल गेल छल । ओही दिन, एक साँसमेएक बैसकीमे हम १७४ पंक्तिक कविताकें पूरा कएल । संध्याकाल पर्वसमारोहमे 'विद्यापतिक मृत्यु' शीर्षक एहि कविताक पाठ कएल ।" -"एहि कविताक किछु पंक्ति अपने सुनाओल जाए !" -"हँ, अवश्य ......... " व्यासजी, पड़ल छलाह से उठिक' बैसि रहलाह आ कहलन्हि - "बड़ आनन्द होइए ....... काव्य पाठमे, रस चर्चामे ....... किछु मार्मिक पंक्ति सुनबैत छी -
कविक मुखसँ कविताक पाठ ........ आह्मलाद आ आनन्दसँ पल मात्रक हेतु हम उद्वेलित भ' उठैत छी । ........ कवि कोकिल विद्यापतिक अन्तिम प्रयाण । गंगा मैयाक गोदमे लय-विलय । पुनः हम साकाँक्ष भ' उठैत छी, बोकिंरग रोड, पटनाक' श्रीभवनमे बैसल हमरा आश्चर्य होइत अछि । ........ आश्चर्य होइत अछि जे एहन विद्ग्ध रससिद्ध कवि इंजीनियकिंरग कालेजमे एडमिशनक निर्णय किएक लेलनि हम साकांक्ष होइत पुछैत छियनि - "अपने जन्मजात कवि ........ किशोर वयसँ रस-छन्द अलंकारमे डूबल- किएक इंजीनियकिंरग कालेजमे एडमिशनक निर्णय लेलिऐक?" - "हँ, ई हमर जीवनक महत्त्वपूर्ण निर्णय छल । असलमे, मएट्रिकमे हमरा फस्र्ट डिवीजन भेल । आब स्वयं बलभद्र बाबू (खरखड़) हमर गार्जियन भ' गेल रहथि । हमर रिजल्ट होइतहिं बलभद्र बाबू घोषणा कएल- 'आब एहि बच्चाक देख-रेख हम स्वयं करब !' हुनकहि आदेशसँ हम इंजीनियकिंरग कालेजमे एडमीशल लेल । ......... ई हुनकहि निर्णय छल । ..ततबे नहि ..." - "जी" -"बलभद्र बाबूक युक्तिसँ हमरा आइ. एस-सी. मेपढ़बा काल राजमातासँ प्रतिमास १५/- छात्रवृत्ति भेटए लागल । एहिमे ९ रु. मेसचार्ज, सीटरेन्ट ३ रु. आ पुस्तकादि अन्य खर्च ३ रु. होइत छल। ........ आइ. एस-सी. मे हमर कालेजक फीस माफ छल । जखन इंजीनियकिंरग कालेजमे हम एडमीशन लेल तँ बड़का भाइक ( बलभद्र बाबू) असीम कृपासँ हमरा राजमातासँ २५/- रु. प्रतिमास छात्रवृत्ति भेटए लागल । एहिमे कालेजक फीस ८ रु., सीटरेन्ट ४ रु., मेसचार्ज ९ रु., पुस्तकादि अन्य खर्च ४ रु. । -"अपनेक इंजीनियकिंरग कालेजमे एडमीशनक जे निर्णय बलभद्र बाबूक रहनि की तकरा अपने आब एहि अवस्थामे उचित मानैत छी ?" व्यासजीक सम्पूर्ण मनस्थिति एकाग्र भ' उठलनि, अविचल भावें बजलाह- "शत-प्रतिशत उचित ! सब तरहें उचित !.. हँ, एकटा बात आर ...।" "जी ... ।"
-"हम ओही समय तन्त्रनाथ बाबूक कीचक-वधसँ प्रभावित भ' एकटा महाकाव्य
लिखने रही । मुदा से हेड़ा गेल । आब छोडू ओकर गप्प जे हेड़ा गेल
से हेड़ा गेल। व्यासजी विचलित होइत कहलनि - "तकर की अर्थ ?" -"तकर अर्थ जे अपने तंत्रनाथ बाबूक अनुकरणमे रचना करैत छी !" व्यासजी गम्भीर होइत कहलनि -" ई बात सत्य नहि । प्रत्येक कवि अपन रास्ताक स्वयं तलाश करैत अछि । एहिमे पूर्वसँ अबैत कतेक पंथ, कतेक भावसँ प्रभावित होइत अछि । ब्लैंकभर्स... माइकेल मधुसूदन भारतमे प्रचलित कएल- अपन मेघनाद-वधमे.. तकर बाद तंत्रनाथ बाबू कीचक -वधमे ... हमर कवि-जीवनक आरम्भिक काल छल हमरो नीक लागल - मुदा एकटा बात । -"जी, से की ?" - "आगाँ चलि क' हमर संयासी (खण्डकाव्य) एवं प्रतीक (कवितासंग्रह) मे संकलित अनेक काव्य-रचनामे तंत्रनाथ बाबू अथवा आन कोनो कविक प्रभाव नहि भेटत ।... 'पतन' हमर पढू ... अपना ढंगक काव्य-रचना थिक... कोनो प्रभाव नहि ... मौलिक ... सर्वथा !" -"संन्यासी (खण्डकाव्य) ... ?" -"हँ-हँ, संन्यासी खण्डकाव्य हम १९४१ मे लिखब आरम्भ कएल। खेपा-खेपी लिखैत चारि बर्खमे पूरा भेल । मौलिक कथानक अछि । १९४७ मे धारावाही रुपमे मिथिला मिहिरमे छपल । पछाति इलाहाबादक कृष्णकान्त -जयकान्त मिश्र आदि कहलन्हि - व्यासजी हम छापि देब । पाइ हमर - छपलानि ओ पछाति मात्र ७५० प्रति देलनि । कहलनि - एतबे छपलैक ! तकर बाद हम उपन्यास लिखब आरम्भ कएल - कुमार !... असलमे हम रिएक्सनमे 'कुमार' क रचना कएल ।" -"रिएक्सन ... केहन रिएक्सन ?" -"देखू ओहि समय, प्रोफेसर हरिमोहनझाक कन्यादान आ द्विरागमन आदि प्रकाशित भेल रहनि । गल्प आदिक प्रकाशन सेहो ... भोलालाल दास आदि हरिमोहन बाबूकें पीठ ठोकैत रहथिन - वाह ! हरिमोहन बाबू वाह ! की बढियाँ लीखल अछि ! ... हम वैचारिक स्तर पर हरिमोहन बाबूक रचनाक संदेशसँ असहमत रही ...खाली अपन समाजक खिधांस ... खाली अपन संस्कृतिपर आक्रमण, मैथिल समाजक उत्कर्ष, आदर्श एवं गरिमामय संस्कृतिसँ के परिचित नहि ? उत्कर्षक चर्चा नहि, अपकर्षक चर्चा... खाली अपकर्षक चर्चा करैत रहबाक की औचित्य ? एहिसँ मैथिल समाजक मनोबल टूटय लगलैक - लगैक जेना सबटा खरापे-खराप अछि । - "जी, तकर बाद ?" - "एक दिन सतीश बाबू (पूर्व मुख्य न्यायधीश) आ हरिमोहन बाबू आमने-सामने बैसिक' गप्प करैत रहथि ... हमहूँ ओतहि ठाढ़ रही । सतीश बाबू व्याकुल जकाँ हरिमोहन बाबूसँ पुछलिथिन - की अहाँ अपन समाजक खाली खिधांस लिखैत छी ? अपन समाजक उत्कर्ष पर लिखू ! हमरो सँ नहि रहल गेल, हम पढितहि रही, हमहूँ निवेदन कएलियनि - ठीके, प्रोफेसर साहेब, अपने की कहाँ लिखने जा रहल छिऐक ! - बहुत अनुचित भ' रहल छैक ।" - "जी, तकर बाद ?" - " तकर बाद ... तकर बाद तँ प्रलय भ' गेल । हरिमोहन बाबूक आँखि लाल-लाल भ' उठलनि । हमरा दिस आग्नेय नेत्रसँ तकैत बजलाह- अहाँ ... अहाँ विद्यार्थी की टुभ-टुभ बजैत छी ... अहाँ की बुझैत छिऐक ... अहाँकें कोन ज्ञान ? ..... हम स्तब्ध रहि गेलहुँ । तत्काल हम कोनो उत्तर नहि द' सकलियनि । सोचलहुँ, आब लेखनक माध्यमे हम हरिमोहन बाबूकें उत्तर देबिन .... तकर बाद हम एक आदर्श व्यक्तित्वकें ल' उपान्यास लिखब आरम्भ कएल .... यैह उपन्यास पछाति 'कुमार' नामसँ प्रकाशित भेल ।" - "कुमार उपन्यास पर अपनेक समकालीन लेखक लोकनिक केहन प्रतिक्रिया रहलैन्हि ?" -"सबसँ बेसी प्रशंसा कएल 'सुमन'जी । .... लिखलनि - 'व्यास'जी अहाँ रुचिए बदलि देलिऐ ... खाली विवाह ... द्विरागमन .... विवाह द्विरागमन - यैह उपन्यासक विषय रहइक ... अपने मौलिक उपन्यास लिखल अछि । रमानाथ बाबू, तंत्रनाथ बाबूक प्रशंसासँ आह्मलादित भेलहुँ ।" -"आ हरिमोहन बाबू ?" -" हँ, हरिमोहन बाबू सेहो पीठ ठोकलनि । आशीर्वाद देलन्हि । हे -ओ जे हरिमोहनबाबू बला' हम रिएक्सन कहलहुँ तकरा काटि दिऔक ... ओ लिखबाक काज नहि ! नोट तँ ने कएलहुँ ।" मिथुन राशिक व्यासजीक मन स्थिति रहि-रहिक' चंचल भ' उठैत छनि । मिथुन
राशिक व्यक्ति प्रत्यक्ष संधर्ष आ विवादसँ अपनाकें
बचबैत रहैत छथि । ... मुदा हमरा फेर आश्चर्य होइत अछि । आश्चर्य होइत अछि जे
युवा व्यासजी अपन आरम्भिक रचना 'संन्यासी' आ
'कुमार' किएक लिखलनि ? केहन विरक्ति ? केहन अवसाद ? ककर विछोह ? असफल प्रेम ?
अनेक प्रश्न, अनंत उत्सुकता ... अस्सी - एक -एकासी
बरखक व्यासजी बोकिंरग रोडक श्रीभवनमे पलंग पर बैसल छथि । हम पुछैत छिऐनि- "अपने व्यासजी हमर प्रश्न सुनि क' हँस' लगलाह - "कोनो विरिक्त नहि कथुक विरक्ति नहि । हमरा अपना छात्रावस्थामे रमानाथ बाबूक अनुज शचीनाथजी बड्ड प्रभावित कएने रहथि । ... ओ हमर आदर्श जकाँ रहथि । हम जखन कैभिन्डस हाउसमे रहैत रही तँ ओ हमर बगलाबला रुम मे रहैत छलाह । हनुक विचार, आचरण आ प्रतिभा हमरा बड़ आकर्षित करए। ओ गप्प-सप्पमे बाजल करथि जे विवाह नहि करब ! समाजक हेतु समर्पित भ' जाएब । कुमारे रहब ! ... तें जखन हम कन्यादान-द्विरागमन आदिक विकल्पमे 'कुमार'क रचना लिखब आरम्भ कएल तँ ओहिमे हम शचीनाथजीकें उपन्यासक नायकक रुपमे प्रस्तुत कएल- एहि उपन्यासमे अधिकांश घटना सत्ये छैक ।" -"जी, भोगल यथार्थ ।" -"हँ, सैह बुझियौक ... यथार्थ घटना आ चरित्र पर आधारित उपन्यास अछि ।" -"अपनेक विवाह कहिया भेल ?" -" १९४६ । २९ वर्षक अवस्थामे । हमर ससुर अछि अथरी (बेलसंड) जिला-सीतामढ़ी । हमर ससुर रहथि पं. टेकनाथ मिश्र- डिस्ट्रिक्ट जजक रुपमे अवकाश ग्रहण कएल ... आब दिवंगत । हँ एकटा बात ...।" -"जी, ... ?" -"कुमार उपन्यास हम लिखल जखन कुमारे रही । पांडुलिपि मुजफ्फरपुरमे मित्रवर उमानाथबाबूकें द' देलिऐनि । आदि देखबाक भार हुनके ऊपर छलनि । तहिया उमानाथबाबू मुजफ्फरपुरमे रहथि । छपबामे बड़ समय लागल । वियाह आ चतुर्थी आदिक बाद जखन हम मुजफ्फरपुर पहुँचलहुँ तँ पाँच-सात प्रति कुमारक छपल भेटल - तें कुमारक प्रकाशन तखन भेल जखन हम विवाहित भ' गेलहुँ ।" हमरा फेर आश्चर्य होइत अछि । एना होइत छैक ... मिथुन राशिक व्यक्तिक परत-दर-परत खुजैत जाएत आ आश्चर्य भेल जाएत । हमरासँ रहल नहि गेल, हम पुछैत छियनि - "हमरा एकटा बातक बड़ आश्चर्य भ' रहल अछि ?" -"से की अओ ! आब की ?" -"जी, अपनेक समयमे मैथिल समाजसे बाल-विवाहक प्रचलन रहैक । बेशीसँ बेशी मएट्रिक आ आइ. ए. धरि... वरक विवाह भ' जाइत रहैक - अपने देखनुक ... प्रतिभाशाली ... नीक रिजल्ट ... तखन एतेक विलम्ब किऐक ?" -"एहि प्रसंग एकटा रहस्यमूलक घटना अछि ... कहि दी आ की नहि कही ?" हम व्यग्र होइत बजलहुँ - "जी आब नहि कहबैक तँ कहिया कहबैक ?" -'तखन सूनू !' -'जी ...' -" रामनाथ बाबू सब भाइ हाथ देखबामे पारंगत । राँचीमे हुनक भाइ बोध नाथजीसँ हमरा बड़ घनिष्ठता रहय । ओ तँ एक्सपर्ट । शचीनाथजी सेहो हस्तरेखाक ज्ञाता... विशेषज्ञ एक दिन हुनकर तरहत्थी पर अपन तरहत्थी पर अपन तरहत्थी हम राखि देलिएनि ।.. हमर हाथ देखू !" -"जी .." -"जेना होइत छैक नौकरी, मान-सम्मान, परीक्षाफल, घर-घराड़ी, यश आ तकर बाद लजाइत-सन हम पुछलिएनि- हमर विवाह ? ... शचीनाथजी हमर दहिना हाथक तरहत्थीक रेखाकें विभिन्न कोणसँ देखल - एक अंगुरीक दूरीकें भजियौलनि आ तखन गम्भीर मुखाकृति कएने बजलाह - व्यास ! अहाँकें दूटा विवाह होएत । ... हम तँ सन्न रहि गेलहुँ । हतप्रभ । विस्मित आ स्तब्ध ! हम शचीनाथजी कें अभिरोषभरल मुद्रामे कहलियनि - 'एना नहि भ' सकैत छैक... अहाँ फेरसँ गणना देखिऔक ....फेरसँ गणना करिऔक । शचीनाथजी फेरसँ देखलनि, फरेसँ गणना कएलन्हि आ तखन पुनः गम्भीर मुखाकृति कएने बजलाह - व्यास ! अहाँकें दू टा व्याह होएत !" -"जी तखन ?" -"तखन हम कहलियनि जे शचीमाथजी ई कहू, बढिञासँ गणनाक उपरांत कहू जे हमर पहिल वियाह कोन अवस्थामे होएत ? शचीनाथजी पुनः तरहत्थीक रेखाकें विभिन्न कोणसँ देखल । एक अंगुरी आ दोसर अंगुरीक दूरीक गणना कएल आ तखन कहलन्हि - तइसम बरखक अवस्थामे व्यास ! अहाँक पहिल वियाह होएत !" -"एहि भविष्यवाणीक अपनेक मनःस्थिति पर केहन प्रभाव पड़ल ?" -"सुनू ने, सैह तँ कहैत छी । ... हम तँ बेचैन ... घोर बेचैन । गंगाकात घुमैत-रहलहुँ एकांत ... शुन्य .... क्यो कत्तहु नहि, अन्हार भ' गोलक बाद, बहुत राति बितलाक बाद हम होस्टल आपस अएलहुँ । ओही राति, निशाभाग रातिमे निर्णय लेल जे हम तइसम बरखक अवस्थाक बादे विवाह करब । तइसम समाप्त भ' जाएत तखन पहिल विवाहक कोनो अर्थ नहि रहि जाएत । ... तें हम तइसम के कहए उनतीसम बरखक अवस्थामे वियाह कएल । बूझल कि ने !" ड्राइंग रुममे सिलिंग फैन नचैत रहैक । खिड़की केबाड़ी सब निमुन्न । कनेक एकटा केबाड़ी अड़काओल... ताहीसँ कनेक प्रकाश अबैक रहैक । जेठक दुपहरिया तपैत... एक कात पलंग पर व्यासजी पड़ल छथि आ हम बगलमे कुर्सी पर बसैल मिथिला-मैथिलीक एक अति दुर्लभ विभूतिक हिमखण्ड जकाँ रहि-रहिक' पघिलैत भाव-चित्रकें देखि रहल छी । रमानाथ बाबूक कहब छलनि जे व्यासजीसँ जे क्यो परिचित छथि, जे क्यो हिनका संग गप्प कएने छथि, सबहुँ स्वीकार करताह जे गप्प करबाक हिनकामे एक गोट अद्भुत छटा छन्हि जाहिसँ हिनक व्यक्तिगत वैशिष्ट्य अभिव्यक्त होइत रहैत अछि । अपना हृदगत भावकें प्रच्छन्न राखि हिनका गप्प करए नाहि अबैत छन्हि । हिनका गप्पसँ हिनक स्वभाव, हिनक आचार, हिनक संस्कार, सब कथुक जेना अभिव्यञ्जन होइत रहए । हृदयकें खोलि कए ई गप्प करताह । गप्पक तरंगमे डूबल हम साकांक्ष होइत पुछैत छियनि -" साहित्य आकदमी पुरस्कार ग्रहण करबाक हेतु अपने स्वयं दिल्ली गेल रहिऐक ?" ई प्रश्न सूनि अत्यंत प्रसन्न भ' उठालह -" हँ अओ ! स्वयं गेल रहिऐक !" -"परिवारक सदस्य लोकनि ?" -"नहि, हम स्वयं एकरसे हवाइ जहाजसँ गेल रहिऐक । बिहार-भवनमे टिकल रही । परिवारमे ... हमर आँगनसँ ओहन कोनो रुचि नहि ... आन बाल-बच्चा सब अपन-अपन काजमे । एकसरे गेल रहिऐक ।" -"अपनेकें जे पुरस्कार भेटल ताहि पर लोकक केहन प्रतिक्रिया ?" -"औ, से की पुछैत छी ! बधाई-पत्र मास दिन धरि अबैत रहल-एक बैगसँ कम नहि हेतैक । फोन पर से अलग । चीफ मिन्स्टर, गवर्नर, मुख्य सचिव ... सब । दिल्लीक एकटा पत्र बॉक्स बनाक न्युज छपने रहैक - Believe it or not, a technocart is getting a highest literary award in this year . टाइम्स आॅफ इण्डियाक पहिल पृष्ठ पर ... हे, देखू, जेना ई टाइम्स आॅफ इण्डिया अछि ने ... एकर पहिल पृष्ठक मुख्य स्थल पर ... हे, एतऽ, हमर पाग पहिरने फोटो छपल ...सुनीति बाबूसँ पुरस्कार ग्रहण करैत ! की भव्य चित्र रहैक । रिडियोसँ हमर भाषण प्रसारित भेल ।" -"दू पत्र की थिकैक ?" -"लघु उपन्यास । मैथिली साहित्यमे ई एक नव प्रयोग छल ! एहिमे वर्णित विषय, कथावस्तु आधुनिक समाजमे सहजाँहि देखबामे आओत ... किन्तु एहि लघु उपन्यासक स्थान, काल, पात्र सभ कल्पित अछि ।" -"दू पत्रक प्रकाशन-काल ?" -"दू पत्र हम राँचीमे लिखल ... । १९६८ मे छपल ........ एहि पुस्तक पर १९६९ वर्षक साहित्य अकादेमी पुरस्कार देल गेल । पुस्तक लिखलाक बाद रमानाथ बाबूकें देखए देलिऐन्हि । रमानाथ बाबू कहलन्हि- कनेक छोट अछि । ताहि पर हम हुनका कहलिऐन्हि जे हेमिंग्वे द्वारा लिखित Old Man and the sea एहिसँ पैघ नहि छैक !" -"अपनेकें जे पुरस्कार भेटल ताहि पर मैथिली साहित्यकारक एक वर्गक प्रतिक्रिया अपनेक खिलाफ रहय ... से किएक ?" -"हमरा किछु गोटे बड़े गंजन करैत गेलाह - ई बत लिखबैक नहि- सुधांशुशेखर चौधरीक प्रतिक्रिया भेलनि जे व्यासजी तँ इंजीनियर छथि, कोनो गरीब साहित्यकारकें पुरस्कार भेटितैक तँ आर्थिक लाभ होइतैक । ... किछु गोटे दू पत्रकें नव प्रयोग मानबा ले' तैयार नहि - पूर्वहि हरिमोहन बाबूक पाँच पत्र प्रकाशित छैनि । किछु गोटए की कहलनि से बूझल अछि ?" -"जी, से की ?" -"कहलनि जे व्यासजी गुटबाजीसँ पुरस्कार प्राप्त कएलनि । रमानाथ बाबूक गुटमे छथि तें पुरस्कार भेटलनि - आब एकर जवाब छैक ? ओहि समयक नियमक अनुसारे तीन सालक कालखण्डमे प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ पोथी पर पुरस्कार भेटैत छलैक। आब यदि काशीकान्त मिश्र 'मधुप' आ सुरेन्द्र झा 'सुमन'क पुस्तक रहितनि आ तखन हमरा भेटितय तँ हमहुँ कहितिऐक गलत भेलैक - से तँ नहि रहिन .... तखन ईर्ष्या, द्वेष... किछु साहित्यकार तीन अंक धरि हमर खिलाफ छापि एकटा पत्रिका हमर पतासँ हमर घऽर पठा देथि। मुदा हमर पर तकर कोनो प्रभावे नहि पड़ल। जनैत छी ... सुबल गांगुली सन निष्णात पत्रकार दू दिन हमरा ओएत अएलाह आ तखन विस्तृत रिपोर्ट हमरा पर आ हमर किताब पर 'द इलस्ट्रेटेड वीकली मे प्रकाशित कएल । ... हम सब दिनसँ तपस्यामे लागल छी । माँ मैथिलीक तपस्या । यश-अपयश, निन्दा-प्रशंसासँ ऊपर साहित्य-साधनामे निमग्न !"
उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास'क नानीक पिता १६ कनिञासँ विवाह कएने रहथिन। नाना रहथिन बड़का तांत्रिक । डोकहरक राजेश्वर भगवतीक शरणापन्न - श्मशानकें सधने ! पिता पूजा-पाठमे निमग्न...अति निर्धन । खड़रख, बड़ी राजमाता, धीरेन्द्रनाथ लाहा, बंगाली प्रोफेसर कुमार बाबू, शचीनाथजी आ गुरुतुल्य गप्प करबामे आन्नद अबैत छनि । कखनहुँ पलंग पर पड़ल, कखनहुँ बैसल, कखनहुँ तकिया पर ओंगठल ... व्यासजी हमरा दिस अभिमुख होइत कहलनि - "हमर जीवन पर हमर नानाक अप्रत्यक्ष प्रभाव रहल अछि । ओ बड़ पैघ तांत्रिक छलाह ।... डोकहरमे तपस्या करैत रहथि .... एक बेरि की भेलैक तँ मधुबनीक कोनो बाबू साहेबक ड्योढ़ीक प्रेतक उपद्रव आरम्भ भ' गेलैनि । .... बहुआसीनकें बुझा पड़लनि जे एकटा सुन्दर युवती ...उज् नूआ पहिरने, उलटा छाबा, सिंगरहाक गाछ तऽर कनि रहल छैक .... ड्योढ़ीक कतेको गोटे खेपा-खेपी अनेक राति एहन विकराल दृश्य देखि विचलित होइत गेलाह .... बड़का-बड़का तान्त्रिक बजाओल गेलाह ... मुदा प्रेतक शमन नहि कएल भेलन्हि । बेरेक कोनो प्रेत कोनो तरहें काबू नहि होइत छैक । ... तखन क्यो हमर नानासँ निवेदन कएलकैन । .... हमर नाना तीन दिन धरि मधुबनी ड्योढ़मे रहि प्रतेक उपद्रवकें शमन कएल... आ चारिम दिन भोर होएबासँ पहिनहि ओ निपत्ता भ' गेलाह। बाबू साहेब लोकनि दान-दक्षिणा देबाक लेल सौंसे मधुबनी, दड़िभंगा तकबौलथिन-मुदा कत्तहु नहि ... कतेक दिनुका बाद पता लगलैन जे हमर नाना महिषीक उग्रताराक शरणापन्न भेल तपस्या करैमे लीन रहथि । प्रेतकें काबू करबामे जे शक्तिक क्षय भेल रहनि से पुनः मैया उग्रताराक तपस्या कए प्राप्त कएल ।" व्यासजीक जेना तन्द्रा भंग भेलन्हि - "हाँ-हाँ, ओ प्रेत बला काटू । ... ओ सब नहि लिखू ।" -"जी, अपनेकें नव कविता पचल ?" -"अरे, पचत किएक नहि ... हमहूँ नव कविता लिखैत छी । यात्रीजीक एकटा कविता छनि से हमरा बड़ पसिन्न, सुनू - सुनबैत छी -
'चित्रा'क यात्री हमरा पसिन्न छथि । मुदा बादमे जखन कम्युनिस्ट भ' गेलाह तँ कविता हल्लुक भ' गेलनि । ... अपन पिता आदिक प्रति जे यात्रीजी अल-बल लिखैत-बजैत छथि से सब हमरा पसिन्न नहि ।" -"किएक पसिन्न नहि ... ?" -"देखू हम सब छी पुरना चालिक .... हम, श्री सुरेन्द्र झा 'सुमन' आ श्री चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' ! आ यात्री- राजकमल आदि नवका चालिक छथि ।" -"पुरना आ नवकामे की अन्तर ?" -"हमरा लोकनिकें अपन संस्कृति, सनातन धर्म, ईश्वर, कौलिक परम्परा आदि पर पूर्ण निष्ठा अछि। आ यात्री-राजकमल से सब नहि मानैत छथि । ओ सब ईश्वरकें नहि मानैत छथि ... नास्तिक सब छथि।... हुनकर सभक साहित्यमे फूहड़ सेक्सक भरमार अछि। हल्लुक । से सब हमरा पसिन्न नहि ।" -"शरतबाबूक राजलक्ष्मीक प्रति अपनेक केहन प्रतिक्रिया ?" -"देखू औ ... अहाँ बड़ भयंकर प्रश्न पूछि देलहुँ । हम शरत साहित्यसँ बड़ प्रभावित । अहाँकें बुझाले होएत जे हम विप्रदास आ बाभनक बेटीक मैथिलीमे अनुवाद कएने छी । श्रीकान्त प्रथम खण्डक अनुवाद सेहो प्रकाशित भेल अछि । विप्रदास पर साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कारसँ सम्मानित कएने अछि ।" -"जी राजलक्षमीक प्रसंग, शरतक राजलक्ष्मी ।" -"विचारि क' देखबैक तँ राजलक्ष्मीक चरित्र अति उत्तम । औ साहित्य थिकैक की ? खसलके उठौलहुँ। अन्हरमे दीप जरौलहुँ । आब देखू राजलक्ष्मी रणडी छल - यदि तकरा ओहिना छोड़ि देल जयतै तँ ओकर केहन विनाश होएतैक- शरतबाबू राजलक्ष्मीकें उठएबाक... उदात्त चरित्र दिस लए जएबाक प्रशंसनीय प्रयास कयने छथि। तें राजलक्ष्मीक चरित्र उत्कर्षमूलक ।" -"अपनेक मैथिली लेखन सम्बन्धमे अग्रिम योजना की अछि ?" -"एखन हम महाभारतक लेखन आ प्रकाशनमे लागल छी । ... ईशनाथबाबूसँ एकटा पैघ मतिभ्रम भ' गेलनि जतबे ओ महा भारत लिखलनि ताहिमे ... तें परिशुद्ध रुपमे हम मैथिली महाभारत प्रस्तुत कए रहल छी । आदिपर्व प्रकाशित भ' गेल !" -"जी, अग्रिम योजना ?" - "अग्रिम योजना अछि आत्मकथा लिखबाक हम अपन आत्मकथा लिखबाक हम अपन आत्मकथा लिखब । .... घर-परिवारक.. लोक सभक तँ दुरगाह छन्हि ... आब ईश्वरक जे कृपा !" -"अपनेकें कोनो बातक कचोट अछि ?" -"हँ, एक बातक ... हमरा रमानाथबाबू कहलैन्हि - व्यास जी, हमरा ओएत एक दिन भोजन करु ! कार्य-व्यवस्तता रहलाक कारणे अवकाश नहि भेटल । चाह-पान होइ ... विदा भ' जाइ। एक दिन रमानाथ बाबूसँ भेट भेल तँ कहलन्हि - आब हमर कोन ? व्यासजी, एक दिन अवश्य आबी ... संगे-संग बैसिक' भजन करी- कहलियनि, अबै' छी पटनासँ तँ एहि खेप अवश्य भोजन हेतैक.... मुदा ताबत फओन पर सूचना भेटल-रमानाथबाबू नहि रहलाह ! से, कचोट-मर्मान्तक कचोट रहि गेल ।" - "अपनेकें संस्कृत साहित्यक कोन नायक अधिक प्रभावित करैत छथि ?" - "सब, नमो वासुदेवाय ... हम सनातन मैथिल जकाँ पंचदेवोपासक छी । सब प्रभावित करैत छथि ।" -"अपनेकें कोन नायिका विशेष प्रभावित करैत छथि ?" व्यासजी गम्भीर होइत कहलनि- "सीता ... " पुनः दुनू हाथ उठाक' करबद्ध मुद्रामे बजलाह - "जय जानकी मैया !" -"आ उर्वशी ?" -"नहि ।" -"आ वसंतसेना ।" -"ओ सतँ नाटक थिक ! ... ओ सब नहि ।" -"अपनेक जीवनक ससँ पेघ उपलब्धि की - इंजीनियर बनब ? साहित्य आकदमी पुरस्कार ? पटनामे मकान ?" -"देखू, एहि सबमे हमर कोनो क्रडिट नहि । हम निमित्त मात्र । सब ईश्वरक कृपा... एक बिचे जखन हम पटनामे पढ़ैत रही तँ कतेक हमर आत्मीय मैथिलबन्धु जनौ जरा क' चाटि गेल रहथि । ... हमरो कहलनि, कहैत गेलाह - मुदा हम नित्यकर्म, सन्ध्यावन्दन आ प्रातःगंगा-स्नान आदि नही छोड़ल । पछाति ओहिमेसँ कतेक गोटए पूजा-पाठ करब पुनः आरम्भ कएल । ... हमरा तँ ईश्वर पर अविचल आस्था अछि अडिग!" -"अपनेक कोनो इच्छा ?" -"औ, एकटा इच्छा अछि जे दरभंगामे प्रबुद्ध मैथिल बन्धुक बीचमे बैसिक' अपन लिखल कविताक पाठ करी ।.......... लोक हमर कविता ठीकासँ बूझि नहि रहल अछि, रस ग्रहण नहि कए रहल अछि । ..." घड़ीमे बजैत रहैक तीन । सौंसे पटना धीपल जकाँ । -"अपनेक जँ आज्ञा होइक तँ एक प्रश्न आर पूछी ?" -"अवश्य, अवश्य पूछू !" -"जी, 'रुसल जमाय' अपनहि पर लिखने छिऐक ?" व्यासजी भभा-भभा क' हँस' लगलाह - ई, संदेह अधिक गोटएकें भ' जाइत छैक । हमर वियाहक ९ सालक बाद लहेरियासरायमे हमर सारसँ एक जन मैथिल पुछलिथिन- एँ अओ ! व्यासजी अपने पर रुसल जमाय लिखने छथि हमर सार केहन सज्जन- गछि लेलथिन्ह... तँ किने अपने पर लिखने छथि ! ... आब हमरा बड़का पराभव ... असलमे, हमर वियाह भेल १९४६ मे आ हम रुसल जमाय लिखलहुँ १९४५ मे- अर्थात् वियाहसँ एक वर्ष पूर्वहि-तखन हम अपना पर कोना लिखब-मुदा जे जेना छै-से धरि छै सत्ये !" आ तकरा बाद हम प्रणाम कए बोंरिग रोडक श्रीभवनसँ विदा भ' गेल रही। बीतल कालक स्मृतिमे डूबल जकाँ - बोकिंरग रोडक चौराहा पर ठाढ़ छी - चुपचाप ... पटनाक राजसत्ता ... विधानसभा ... सचिवालय ... राजभवन ... ऊँच ... बहुत ऊँच गोलघर मुदा हमर मैथिली कत्तहु नहि, कत्तहु नहि अस्सी -एक-एकासी बरखक व्यासजी जँ पुछितथि जे अहाँ सब मैथिलीक लेल क' रहल छी - तँ हम की जबाब दितियनि ? की ... ??
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आशुतोष कुमार, राहुल
रंजन
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प्रकाशक
: प्रकाशक मैथिली रचना मंच,
सोमनाथ निकेतन, शुभंकर, दरभंगा (बिहार)
- ८४६००६
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प्रकाशित
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प्रिंटवेल, टावर चौक,
दरभंगा - ८४६००४ ,
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: ३५२०५
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