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अमीर ख़ुसरो दहलवी

 

सन १२९६ ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने राज्य के लोभ और लालच में अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और दिल्ली का राज सिंहासन हड़प लिया। स्वंय अमीर खुसरो ने एक इतिहासकार के नाते अपने ग्रंथ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है-"अरे कुछ सुना अलाउद्दीन खिलजी सुलतान बन बैठा। सुलतान बनने से पहले इसने क्या-क्या नए करतब दिखाए। हाँ वहीं कड़ा से देहली तक सड़क के दोनों तरफ़ तोपों से दीनार और अशर्किफ़याँ बाँटता आया। लोग कहते हैं अलाउद्दीन ख़ून बरसाता हुआ उठा और ख़ून की होली खेलता हुआ तख़ते शाही तक पहुँच गया। हाँ भई, खल्के खुदा को राजा प्रजा को देखो। लोग अशर्किफ़यों के लिए दामन फैलाए लपके और ख़ून के धब्बे भूल गए। हे लक्ष्मी सब तेरी माया है।" अलाउद्दीन रिश्ते में जलालुद्दीन का भतीजा और दामाद था। अलाउद्दीन ने खुसरो के प्रति बड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाया। खुसरो ने उस काल की ऐतिहासिक घटनाओं का आँखों देखा उल्लेख अपनी गद्य रचना खजाइनुल फतूह (तारीखे-अलाई, ६९५ हिज्री/७११ हिज्री, कन १२९५-सन-१३११ ई. तक की घटनाएँ। अर्थात फ़तहों का ख़ज़ाना। (इस ग्रंथ में देवगिरी, देहली, गुजरात, मालवा, चितौड़ आदि के आक्रमणों एवं विजयों का वर्णन है। साथ ही अलाउद्दीन का शासन प्रबंध, भवन निर्माण, जनता की सुख शांति हेतु उसके द्वारा किए गए यत्न आदि का उल्लेख है।

अमीर खुसरो की विशाल और सार्वभौमिक प्रतिमा ने 'खुदाए सुखन' अर्थात 'काव्य कला के ईश्वर माने जाने वाले कवि निजामी गंजवी के खम्स का जवाब लिखा है। जो खम्साए खुसरो के नाम से मशहूर है। खम्स का अर्थ है पाँच। खुसरो ने यह उन्हीं छंदों में, उन्हीं विषयों पर लिखा है। खुसरो अपने इस खम्से को निजामी के खम्से से अच्छा मानते हैं। कुछ ने इसे एक शेर को निजामी के पूरे खम्से से अच्छा माना है। इसे पंचगंज भी कहते हैं। इसमें कुल मिलाकर १८,००० पद हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इसे खुसरो ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के कहने पर लिखा है। इसमें बादशाहों की प्रशंसा भी है।

इतना ही नहीं इसमें खुसरो ने अपने कवि उचित कर्तव्यों का पालन करते हुए अलुउद्दीन जैसे धर्माद, सनकी, जालिम व हठी बादशाह को जनता की भलाई और उदारता का व्यवहार करने का सुझाव दिया है। एक स्थान पर खुसरो ने लिखा है कि जब खुदा ने तुझे यह शाही तख्त प्रदान किया तो तुझे भी जनता के कल्याण का ख्याल रखान चाहिए। ताकि तू भी प्रसन्न रहे और खुदा भी तुझसे प्रसन्न रहे। यदि तू अपने खास लोगों पर कृपा करता है तो कर किन्तु उन लोगों की भी उपेक्षा मत कर जो लोग बेचारे भूखे-प्यासे सोते हैं। खुसरो की जलालुद्दीन खिलजी जैसे बादशाहों को ऐसी हिदायद करना निश्चित ही खुसरो के नैतिक बल का प्रतीक है तथा उनकी दिलेरी का पिरचायक है। अमीर खुसरो ने अपना पंचगंज ६९८ हिज्री से ७०१ हिज्री के बीच लिखा यानि सन १२९८ ई. से १३०१ ई. तक। इसमें पाँच मसनवियाँ हैं। इन्हें खुसरो की पंचपदी भी कहते हैं। ये इस प्रकार है -

(१) मतला-उल-अनवार : निजामी के मखजनुल असरार का जवाब है। (६९८ हि./सन १२९८ ई.) अर्थात रोशनी निकलने की जगह। उम्र ४५ कवि जामी ने इसी के अनुकरण पर अपना 'तोहफतुल अबरार' (अच्छे लोगों का तोहफा) लिखा था। इसमें खुसरो ने अपनी इकलौती लड़की को सीख दी है जो बहुत सुन्दर थी। विवाह के फस्चात जब बेटी विदा होने लगी तो खुसरो ने उसे उपदेश दिया था - खबरदार चर्खा कभी न छोड़ना। झरोखे के पास बैठकर इधर-उधर न झाँकना।

प्राचीन काल में यह रिवाज़ था कि जब कोई बादशाह अथवा शाहज़ादा अपने हमराहों के साथ सैर-सपाटा करने को निकलते थे तो जो भी युवती अथवा कन्या पसंद आ जाती थी तो वह अपने सिपहसालारों के माध्यम से उनके अभिभावक अथवा पति अथवा कन्या के पिता के पास भेज कर कहलवाते थे कि उनकी पुत्री, कन्या अथवा पत्नी को राजदरबार में भेज दें। यदि कोई तैयार नहीं होता था तो अपने सिपहसालारों के ज़रिये उसको उठवाकर अपने हरम में डाल देते थे तथा वह पहले बाँदियों के रुप में और बाद में रखैल बन कर रखी जाती थी। अत: वह बादशाहों व शाहजादों की बुरी नज़र से उसे बचा कर रखना चाहते थे। अमीर खुसरो ने अपनी बेटी को फ़ारसी के निम्न पद में सीख दी है -


"दो को तोजन गुज़ाश्तन न पल अस्त, हालते-परदा पोकिंशशे बदन अस्त।
पाक दामाने आफियत तद कुन, रुब ब दीवारो पुश्त बर दर कुन।
गर तमाशाए-रोज़नत हवस अस्त, रोज़नत चश्मे-तोजने तो बस अस्त।।


भावार्थ यह है कि - बेटी! चरखा कातना तथा सीना-पिरोना न छोड़ना। इसे छोड़ना अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह परदापोशी का, जि ढकने का अच्छा तरीक़ा है। औरतों को यही ठीक है कि वे घर पर दरवाज़े की ओर पीठ कर के घर में सुकून से बैठें। इधर-उधर ताक-झाँक न करें। झरोखे में से झाँकने की साध को 'सुई' की नकुए से देखकर पूरी करो। हमेशा परदे में रहा करो ताकि तुम्हें कोई देख न सके। उपर्युक्त प्रथम पंक्ति में यह संदेश था कि जब कभी आने जाने वाले को देखने का मन करे तो ऊपरी मंज़िल में परदा डालकर सुई के धागा डालने वाले छेद को आँख पर लगाकर बाज़ार का नज़ारा देखा करो। चरखा कातना इस बात को इंगित करता है कि घर में जो सूत काता जाए उससे कढ़े या गाढ़ा (मोटा कपड़ा) बुनवाकर घर के सभी मर्द तथा औरतें पहना करें। महात्मा गाँधी जी ने तो बहुत सालों के बाद सूत कातकर खादी तैयार करके खादी के कपड़े पहनने पर ज़ोर दिया था। लेकिन हमारे नायक अमीर खुसरो ने बहुत पहले तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ही खादी घर में तैयार करके खादी कपड़े पहनने के लिए कह दिया था। मतला-उल-अनवार मसनवी पंद्रह दिन की अवधी में लिखी बताई जाती है। इसमें ३३२४ पद हैं। इसका विषय नैतिकता और सूफ़ी मत है। खुदाबख्श पुस्तकालय पटना में इसकी एक पांडुलिपि सुरक्षित रखी है।

(२) शीरी व खुसरो - यह कवि निजामी की खुसरो व शीरी का जवाब है। यह ६९८ हिज्री/ सन १२९८ ई., उम्र ४५ वर्ष में लिखी गई। खुसरो ने इसमें प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है। इसमें बड़े बेटे को सीख दी है। इस रोमांटिक अभिव्यक्ति में भावात्मक तन्मयता की प्रधानता है। मुल्ला अब्दुल कादिर बादयूनी, फैजी लिखते हैं कि ऐसी मसनवी इन तीन सौ वर्षों में अन्य किसी ने नहीं लिखी। डॉ. असद अली के अनुसार यह रचना अब उपलब्ध नहीं तथा इसकी खोज की जानी चाहिए।

(३) मजनूँ व लैला - निजामी के लैला मजनूँ का जवाब ६९९ हिज्री, सन १२९९ ई. उम्र ४६ वर्ष। प्रेम तथा ॠंगार की भावनाओं का चित्रण। इसमें २६६० पद हैं। इसका प्रत्येक शेर गागर में सागर के समान है। यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। कुछ विद्वान इसका काल ६९८ हिज्री भी मानते हैं। कलात्मक दृष्टि से जो विशेषताएँ 'मजनूँ व लैला' में पाई जाती हैं, वें और किसी मसनवी में नहीं हैं। प्रणय के रहस्य, प्रिय व प्रिया की रहस्यमयी बातें, प्रभाव और मनोभाव जिस सुन्दरता, सरलता, सहजता, रंगीनी और तड़प तथा लगन के साथ खुसरो ने इसको काव्य का रुप दिया है, उसका उदाहरण खुसरो के पूर्व के कवियों के काव्यों में अप्राप्य है।

हम यहाँ अमीर खुसरो की इस रुमानी मसनवी - 'मजनूँ व लैला' का संक्षिप्त वर्णन करते हैं -

मजनूँ के काल्पनिक होने के संबंध में कई कथन वर्णित हैं। इन सबका तात्पर्य यह है कि बनी उम्मिया के खानदान का कोई शहज़ादा किसी परीरुप सुन्दरी पर आशिक़ था। अपने प्रेम के रहस्य को छिपाने के लिए वह जो अश्आर दीवानगी में कहता, वह 'मजनूँ' के नाम से कहता। यह सत्य है कि लैला और मजनूँ वास्तव में इस दुनिया में थे। नज्द इनका वतन था। यह अरब का एक भाग है जो शाम से मिला हुआ है। यह स्थल बहुत ही हरा-भार तथा खूबसूरत वादियों वाला है। इसके हरे-भरे पहाड़ तरह-तरह की खुशबू में महकते हैं। लैला और मजनूँ दोनों भी बनी अमीर नामक कबीले से संबंधित थे। बचपन में दोनों अपने-अपने घर में मवेशी (पशु) चराया करते थे। इस स्थिति में प्रेम भावना ने सर उठाया। जब दोनो ज़रा बड़े हुए और उसके हुस्न व खूबसूरती की चारों तरफ़ ज़ोर-शोर से चर्चा होने लगी तो लैला पर्दानशीन हो गई। मजनूँ को ये नागवारा गुज़रा। आखिर वह अब कैसे अपनी प्रियतमा को निहारे। उसके विरह ने मजनूँ के पागलपन को और तेज कर दिया जिसके कारण दोनों की प्रेम कहानी भी आग हो गई। यानी कि मशहूर हो गई। मजनूँ के माता-पिता ने ममता के भाव से लैला के घर शादी का पैगाम भेजा लेकिन लैला के माता-पिता ने बदनामी के डर से शादी से इंकार कर दिया। बदनामी का डर यह था कि मजनूँ कुछ रोजी रोटी कमाता न था और एक आवारा के रुप में पूरे शहर में मशहूर था। इस इंकार से मजनूँ के संयम का खलिहान जलकर खाक हो गया। मानों उसके अरमानों का गला घोंट दिया गया हो। अंतत: और कोई सकारात्मक परिस्थिति की कोई गुंजाइश जब नहीं न आई तब मजनूँ अपने सारे कपड़े फाड़कर दीवाना सा जंगल को निकल गया। वह जंगल में मारा-मारा फिरने लगा। जंगल में भ्रमर करते हुए प्रेम के चमत्कार प्रकट हुए। प्रेम अग्नि ने इस दिशा में उससे जो दर्द भरे अशआर कहलवाए हैं वे प्रेम की विविध भावनाओं का दपंण है। इस भ्रमण में सहरा के हिरन मजनूँ के खास राजदार थे। पुत्र की इस तबाही और बरबादी से माता-पिता का दिल कुढ़ता था। एक दफा वह उसको हरमे-मोहतरम में ले गए और कहा कि काबे का गिलाफ थामकर लैला के प्रेम से मुक्ति पाने की प्रार्थना करो। मजनूँ ने गिलाफ पकड़ कर कहा - "ऐ मेरे रब। लैला की मुहब्बत मेरे दिल से कभी न निकालना। खुदा की रहमत हो उस बंदे पर जो मेरी इस दुआ पर आमीन कहे।" (अरबी शेर का रुपांतर) सितम बलाए सितम यह हुआ कि लैला के कठोर माता-पिता ने उसकी शादी किसी और जगह कर दी। उस समय मजनूँ पर जो संकट का पहाड़ टूट गिरा होगा उसका वर्णन जरुरी नहीं। लैला की बेचैनी और विकलता ने उसके पति का जीवन दूभर कर दिया। उसने तंगा आ कर उससे संबंध तोड़ दिया। मजनूँ कभी कभार दीवानगी के जोश में अपनी प्रिया की गली में निकल आता और अपने दर्द भरे अशआर से लैला तथा उसके कबीले वालों को तड़पा जाता। परिणाम स्वरुप लैला ने इसी विरही दशा में अपने प्राण दे दिए। लैला की मृत्यु की दर्द भरी खबर सुनकर मजनूँ कब जीवित रह सकता था। अमीर खुसरो ने अपनी मसनवी में कला की दृष्टि से आवश्यक बातें, हम्द, नात, और मुनाजात आदि के अतिरिक्त कई दिलचस्प शीर्षक कायम किए हुए हैं। इनके किस्से की संक्षिप्त रुपरेखा निम्नलिखित है -

"लैला व मजनूँ का पाठशाला में एकत्रित बैठना, प्रेम पाठ की पुनरावृत्ति भेद प्रकट होना, माँ का लैला को उपदेश, पर्दा-नशीनी, मजनूँ का पागलपन, पिता का मजनूँ को समझाकर जंगल से लाना, लैला के यहाँ शादी का पैगाम भेजना, उसके माता-पिता का इंकार करना, कबीले के सरदार नौफिल का लैला के परिवार से लड़ना, इस लड़ाई में मजनूँ की ओर से कस्बों की दावत, मजनूँ के पागलपन का और बढ़ना, नौफिल की पुत्री से मजनूँ का निकाह, लैला के निकाह की खबर सुनकर मजनूँ को खत लिखना, मजनूँ का उत्तर देना, दोस्तों द्वारा मजनूँ को बाग में ले जाना, परन्तु उसका दीवानगी में भाग खड़ा होना, मजनूँ का बुलबुल से बातें करना, लैला के कुत्ते से मजनूँ की मुलाकात, लैला का सपने में ऊँटनी में सवार हो कर मजनू के पास पहुँचना, लैला का सखियों के साथ बाग में जाना, मजनूँ के एक मित्र का लैला को पहचान कर दर्द भरे स्वर में मजनूँ की गजल गाना, लैला का विकल हो कर घर लौटना और मृत्यु शैय्या पर फँस जाना, लैला की बीमारी का समाचार सुनकर मजनूँ का उसके पुर्से को आना और उसकी अर्थी देखना, मजनूँ का मस्त होकर गीत गाना, लैला के अंतिम संस्कार के समय मजनूँ का दम तोड़ देना और साथ ही दफन होना।"

मजनूँ व लैला के क़िस्से की ऊपर दी हुई रुपरेखा में बड़ी ही सरलता और सहजता है, प्रेम अग्नि तथा विरह का यह अफ़साना मन को अति प्रभावित करता है और यह वन भ्रमण की एक आकर्षक दास्तान है। इसके लिए भगवान की ओर से खुसरो को एक दर्द भरा दिल प्राप्त हुआ था। हज़रत निजामुद्दीन औलिया प्रार्थना करते समय उनके हृदय की तड़प का वास्ता देते थे और उनका चिश्ती वंश से संबंधित होना उनके इस उत्साह का कारण था। मजनूँ की इस दास्तान में गज़ल की तमाम विशेषताएँ पाई जाती हैं। अत: वास्तववादिता अमीर खुसरो का वैशिष्टय था। मसनवी के हर क़िस्से पर हमको सत्य का आभास होता है। खुसरो के काव्य में प्राकृतिक चित्रकारी है। उनकी लेखनी ने जो शब्द चित्र खीचें हैं, वे 'माना' तथा बहजाद का चित्र कोष ही तो है।

(४) आइने-सिकंदरी-या सिकंदर नामा - निजामी के सिकंदरनामा का जवाब (६९९ हिज्री/सन १२९९ ई.) इसमें सिकन्दरे आजम और खाकाने चीन की लड़ाई का वर्णन है। इसमें अमीर खुसरो ने अपने छोटे लड़के को सीख दी है। इसमें रोज़ीरोटी कमाने, व कुवते बाज़ू की रोटी को प्राथमिकता, हुनर (कला) सीखने, मज़हब की पाबंदी करने और सच बोलने की वह तरक़ीब है जो उन्होंने अपने बड़े बेटे को अपनी मसनवी शीरी खुसरो में दी है। इस रचना के द्वारा खुसरो यह दिखाना चाहते थे कि वे भी निजामी की तरह वीर रस प्रधान मसनवी लिख सकते हैं।

(५) हशव-बहिश्त- निजामी के हफ्त पैकर का जवाब (७०१ हिज्री/सन १३०१ ई.) फ़ारसी की सर्वश्रेष्ठ कृति। इसमें इरान के बहराम गोर और एक चीनी हसीना (सुन्दरी) की काल्पनिक प्रेम गाथा का बेहद ही मार्मिक चित्रण है जो दिल को छू जाने वाली है। इसमें खुसरो ने मानो अपना व्यक्तिगत दर्द पिरो दिया है। कहानी मूलत: विदेशी है अत: भारत से संबंधित बातें कम हैं। इसका वह भाग बेहद ही महत्वपूर्ण है जिसमें खुसरो ने अपनी बेटी को संबोधित कर उपदेशजनक बातें लिखी हैं। मौलाना शिबली (आजमगढ़) के अनुसार इसमें खुसरो की लेखन कला व शैली चरमोत्कर्ष को पहुँच गई है। घटनाओं के चित्रण की दृष्टि से फ़ारसी की कोई भी मसनवी, चाहे वह किसी भी काल की हो, इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती।

आज के संदर्भ में खुसरो की कविता का अनुशीलन भावात्मक एकता के पुरस्कर्ताओं के लिए भी लाभकारी होगा। खुसरो वतन परस्तों अर्थात देश प्रेमियों के सरताज कहलाए जाने योग्य हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन देश भक्तों के लिए एक संदेश है। देश वासियों के दिलों को जीतने के लिए जाति, धर्म, आदि की एकता की कोई आवश्यकता नहीं। अपितु धार्मिक सहिष्णुता, विचारों की उदारता, मानव मात्र के साथ प्रेम का व्यवहार, सबकी भलाई (कल्याण) की कामना तथा राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता होती है। इस लेख में उद्घृत खुसरो की विभिन्न मसनवियों के उद्धरणों से यह बात भली-भाँति प्रभावित होती है तथा उनके भारत विषयक आत्यंतिक प्रेम का परिचय मिलता है।

 

 

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अमीर खुसरो द्वारा लिखित फारसी ग्रंथ | कव्वाली


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