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अमीर ख़ुसरो दहलवी



आइए अब पुन: खुसरो के जीवन काल में प्रेवश करें। तो हम बात कर रहे थे बादशाह कुतुतबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी की। वह बेहद ही घमंडी, मगरुर, और जालिम स्वभाव का था। कुछ राजदरबारियों ने जो अमीर खुसरो की शोहरत से जलते थे ने बादशाह को खुसरो के गुरु हजरत निजामुद्दीन चिश्ती के विरुद्ध भड़का दिया। एक दिन दरबार में बादशाह ने जरा सख्ती से अमीर खुसरो से प्रश्न किया - "क्यों शायर खुसरो, ये तुम्हारे पीर निजामुद्दीन औलिया किस नशे में हैं? क्यों वे आज तक हमारे सलाम को हाजिर नहीं हुए।" खुसरो ने मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए, फौरन सम्भल कर कहा - 'हुजूर उन्हे इबादत से फुर्सत कहाँ? अल्लाह में दिन रात मशगूल रहते हैं। अल्लाह के जरुरत मंद बंदे उन्हें हर वक्त खुबहो-शाम घेरे रहते हैं सरकार।" यह सुनकर बादशाह ने जोर से कड़क आवाज में अमीर खुसरो की बात को अनसुना करते हुए कहा, "हमारा हुक्म है अमीर खुसरो के पीर से, निजामुद्दीन फकीर से कह दो की चाँद रात आती है। अगर नए चाँद के बाद जुम्मा की सुबह दरबार में हमारे सामने सलामी के लिए हाजिर न हुए तो दूसरे दिन उनका सर हाजिर किया जाएगा।" खुसरो घबराते हुए बोले मगर हुजूर! 'इससे पहले कि खुसरो नासमझ बादशाह को कुछ समझा पाते उसने 'हुक्म की तामील हो' कह कर दरबार बर्खास्त कर दिया।

सन १३२० का साल है। चाँद रात आई। गरमी और घुटन की रात। आधी रात को किला सीरी की छत पर खुले आसमान के नीचे, नशे में धुत बादशाह को उसके एक खास जवान (मंत्री) खुसरो खाँ गुजराती ने मार डाला। उसने बेहद फुर्ती से बादशाह का सर काट कर नीचे फ्ैंक दिया। ख्वाजा निजामुद्दीन उस वक्त नमाज़ पढ़ रहे थे। उनका सर अल्लाह के सजदे में झुका हुआ था। इसी के साथ खिलजी वंश का राज्य एक अभिशाप की भाँति समाप्त हो गया। चंद महिने न गुजरे थे कि पंजाब में एक अनपढ़, सख्तगीर और दिलेर फौजी सिपहसालार सत्तर वर्षीय गाजी खाँ उर्फ गयासुद्दीन तुगलक (सन १३२१ ई.) ने आकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। चालीस अमीरों की काउंसिल ने इस तुगलक अमीर को सुलतान बना दिया। जब शाही खजाना खुलवाया गया तो वह एकदम खाली निकला। गयासुद्दीन तुगलक ने फौरन एक आपातकालीन बैठक बुलवाई। बादशाह ने बेहद गुस्से में अपने वजीर से पूछा - "क्यों बख्शी। दो सौ साल का जमा किया हुआ शाही खजाना खाली क्यों है?" बख्शी ने कहा "हुजूर दिल्ली पर आपकी चढ़ाई से पहले सब का सब वाँट दिया गया।" बादशाह ने पूछा "किस किस के घर भेजा?" बख्शी बोला 'हुजूर! अमीर, फौजदारों, मंत्रियों और फकीरों के घर।' बादशाह ने फौरन हुक्मनामा जारी किया - "अमीर और फौजदार हाजिर हों। और जितना माल पहुँचा हो सब सरकारी खजाने में पुन: वापस कर दें।" बख्शी ने पूछा - "जहाँपनाह! और पीर और फकीरों के लिए क्या हुक्म है?" बादशाह गुस्से में बोला - 'पीर और फकीर? ये सब झूठे, मक्कार, जालसाज, धोखेबाज होते हैं। इनके ईमान का कोई भरोसा नहीं। पैसे के लालच में दिन रात झूठ बोलते हैं। सबसे एक एक तनगा उगलवा लिया जाए।' बख्शी ने कहा - 'मगर हुजूर! सलामत रहें। ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की खानकाह में तो रोज रात को झाड़ू दी जाती है। वहाँ आज का पहुँचा माल, कल की सुबह नहीं दिखता।' बादशाह क्रोध से आग-बबूला हो उठा। आँखे लाल किए वह सख्त आवाज में बोला - 'कल की सुबह मैं उन्हें देख लूँगा। कह दो कि मेरी फतेह से पहले शाही खजाने का जितना हिस्सा उन्हें पहुँचा हो, फौरन वापस कर दें वरना सजाए मौत दी जाएगी। दो हजार तनके रोज का खाना पकवाता है। हजारों आदमियों कि खिलाया जाता है। हिन्दू, मुसलमान, अमीर, फकीर, दरवेश, बैरागी, भिखारी सब एक जगह खाते हैं। यह क्या तमाशा है? यह क्या साजिश है? रोज रात को गाने बजाने की महफिल होती है। खूब नाच गाना होता है। यह कैसा अजीब षडयंत्र है शाही दरबार के खिलाफ। जरुर कोई गहरी साजिश है। फकीर में बादशाहत करता है। अंदर का हाल तत्काल मालूम किया जाए।" एक दरबारी ने आग में घी का काम करते हुए बादशाह के कान भरे - हुजूर मुनासिब ख्याल फरमाते हैं। अमीर खुसरो से दरयाफ्त करें। वो रोजाना रात गए तक अपने पीर की खानकाह में हाजिरी दिया करते हैं।" बादशाह ने जवाब दिया - 'हम फौजी आदमी हैं। हमें न पीरों से गरज है न शायरों से मतलब। कह दो निजामुद्दीन से, कि अपना शाही दस्तरखान, ताम-झाम कहीं और ले जाए। कह दो कि शाही फौज अवध और बंगाल की तरफ कूच करती है। हमें दुश्मनों का कड़ा व सख्त सामना है। हमारी देहली को वापसी तक फकीर निजामुद्दीन औलिया शहर खाली कर के अपने मुरीदों के साथ किसी और तरफ चला जाए। ख्वाजा का मुरीद राजकवि शायर अमीर खुसरो लश्कर के साथ जाएगा। और आखिर माल भर बाद जब गयासुद्दीन तुगलक फतेह के नक्कारे बजाता हुआ विजय उत्सव मनाता हुआ जमुना नदी के किनारे दिल्ली शहर के सामने बल्कि ग्यासपुरा की खानकाह निजामुद्दीन के सामने आ पहुँचा?

निजामुद्दीन चिश्ती के मुरीदों को जैसे ही ये समाचार मिला, वे उनसे फौरन मिल और कहा - 'हमारी जान पर रहम कीजिए पीर साहब। शहजादे जूना खाँ ने जमुना पार इस्तकबाल के लिए महल खड़ा किया है। कल सुबह वह उसमें उतरेगा। दिल्ली में उसके इस्तकबाल को सिर्फ एक रात बाकी है हुजूर। ख्वाजा साहब हमें अपनी जान से ज्यादा आपकी जान अज़ीज़ है। उसके दिल्ली में उतरने से पहले ही आप फौरन यहाँ से निकल चलिए।" यह सब सुनकर भी ख्वाजा के चेहरे पर कोई शिकन न आई। बेहद इतमिनान व तसल्लीपूर्वक वह बोले - 'हमें किसी से क्या लेना देना। हम शहर के एक किनारे पड़े हैं। खल्के खुदा की खिदमत करते हैं। सालमती की दुआ करते हैं। हनोज दिल्ली दूरस्त। (अर्थात दिल्ली अभी दूर है।)

सुबह जैसे ही गयासुद्दीन तुगलक ने महल में प्रवेश किया, उसकी छत गिर पड़ी और बादशाह छत के नीचे दब कर मर गया। सन १३२५ का वर्ष है। ख्वाजा निजामुद्दीन की बीमारी की खबरें पहुँच रही थीं। जिस समय ख्वाजा निजामुद्दीन चिश्ती का देहांत हुआ, उस समय अमीर खुसरो बंगाल से देहली लौट रहे थे। दिल्ली पहुँचकर जब उन्होंने अपने पीर की मृत्यु का समाचार सुना तो वह पागल की भाँति वहाँ से चिल्लाते हुए उनकी कब्र पर दौड़ कर गिर पड़े और बेहद करुण भरी आवाज में यह दोहा पढ़ा -


"गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चलो खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।।"


इनके अनन्तर अमीर खुसरो के पास जो कुछ भी धन-सम्पत्ति थी उसे लुटा दिया। गरीबों और यतीमों में बाँट दिया और स्वंय उनकी (गुरु निजामुद्दीन चिश्ती) की मजार पर काला कपड़ा पहनकर शोक में जा बैठे। रोते-रोते बस एक ही बात कहते थे - कि आफताब (सूरज) जमीन में छुप गया है और उसकी किरणें सिर धुनती फिरें। गुरु के देहांत से उनको इतना अधिक हार्दिक आघात पहुँचा कि छ: मास के अन्दर उनका भी देहांत १८ शव्वाल ७२५ हिज्री (१३२५ ई.) को हो गया। उनकी कब्र भी दिल्ली में उनके गुरु के बगल में ही है। आज भी उनकी मजार पर उर्स होता है और मेला लगता है। यहाँ हिन्दू-मुस्लिम तथा अन्य धर्मों के लोग एकत्रित हो कर श्रद्धा पुष्प अर्पित करते हैं।

 

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