सैनिक
स्थापत्य कला
चन्देलकालीन
मूर्तिकला
जिस
युग में चन्देल सत्ता का उत्थान तथा पतन हुआ, वह
मध्यकालीन शौर्य तथा पराक्रम का युग था। उस
युग में देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, जिनमें एक-दूसरे
से बढ़ जाने की प्रतिद्वन्द्विता थी। उन दिनों
विशाल एवं एकान्त दुर्गों का बड़ा महत्व था।
उनमें किसी राज्य के बनाने तथा बिगाड़ने की
सामर्थ्य थी। गुप्त तथा वर्द्धन नरेशों के
बाद उत्तरी भारत में चन्देल अग्रणी बने, क्योंकि
उनके पास कालिं सदृश अजेय दुर्ग थे, जिसकी ख्याति दूर-दूर
फैली हुई थी। इसके अतिरिक्त चन्देलों के पास
अन्य अनेक दुर्ग थे क्योंकि उनके राज्य की
भौगोलिक स्थिति दुर्ग-निर्माण में सहायक थी। जनश्रुति के आधार पर चन्देलों के पास आठ प्रसिद्ध दुर्ग थे, किन्तु इनके अतिरिक्त और भी दुर्ग
बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं। उनमें
से कुछ सुरक्षित हैं, पर अधिकांश के
भग्नावशेष मात्र हैं और जंगलों से
भरे पड़े हैं, जिनमें पशु निवास करते हैं। कुछ प्रसिद्ध दुर्गों का विवरण नीचे दिया जाता है।
जनश्रुति के आधार पर चन्देलों के
मुख्य दुर्ग वारीगढ़, कालिंजर, अजयगढ़,
मनियागढ़, मुड़फा, कालपी तथा गढ़ा
में थे। उनके अतिरिक्त देवगढ़, महोबा,
रावतपुर तथा जैतपुर के भी दुर्ग उल्लेखनीय हैं।
१. कलिं दुर्ग
समस्त चन्देल दुर्गों
में कालिंजर-दुर्ग का विशिष्ट स्थान है।
मध्य युगीन-भारत में यह अद्वितीय माना जाता है। यह
इलाहाबाद से ९० मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चौरस चोटी पर है। यह दुर्ग आयताकार है और इसकी
लम्बाई एक मील तथा चौड़ाई आधा मील है। किले के दो
मुख्यद्वार हैं, उनमें से प्रधान द्वार नगर की ओर
उत्तराभिमुख है। दूसरा द्वार दक्षिण-पूर्व के कोने
में पन्ना की ओर है इनके अतिरिक्त इसमें
सात द्वार और हैं:--
१. आदम
अथवा आलमगीर अथवा सूर्यद्वार
२. गणेश द्वार
३. चाँदी अथवा चाँद बुर्ज द्वार अथवा स्वर्गारोहण द्वार
४. बुधभद्र द्वार
५. हनुमान द्वार
६. लाल दरवाजा
७. बड़ा दरवाजा
मूलतः इस दुर्ग
में छह द्वार थे। बाद में आलगीर औरंगजेब के
राजत्वकाल में "आलम-गीर दरवाजा' और जोड़ दिया गया था। इस दरवाजे
में तीन पंक्तियों में फारसी का एक पद्यात्मक
लेख है, जिसमें यह अंकित है कि इस द्वार का निर्माण
राजकुमार मुराद ने सन् १०८४ हि. अथवा १६७३
में किया था।
सबसे निचले
अथवा आलमगीर द्वार तक पहुंचने के
लिये २०० फीट की चढ़ाई पार करनी पड़ती है। इसके
बाद एक दुर्गम चढ़ाई है। उसको पार करने के उपरान्त द्वितीय द्वार
अथवा गणेश द्वार मिलता है। कुछ और ऊपर चढ़ने पर
सड़क के मोड़ पर चाँदी दरवाजा अथवा स्वर्गारोहण द्वार है। फिर ऊपर चढ़ने पर
बुधभद्र द्वार तथा हनुमान द्वार मिलते हैं। हनुमान दरवाजे
में एक पत्थर पर हनुमान की पत्थर में कटी हुई
मूत्ति एक अन्य चट्टान के सहारे रक्खी हुई है। वहाँ हनुमान कुंड नामक एक तालाब
भी है। छठा दरवाजा पुनः कुछ और ऊपर चढ़ने पर
मिलता है। यह लाल पत्थर से निर्मित होने के कारण
लाल दरवाजा कहलाता है। कुछ थोड़ी और चढ़ाई पार करने पर
सातवाँ तथा अन्तिम दरवाजा मिलता है। यह
बड़ा दरवाजा कहलाता है और यह दुर्ग का
मुख्य द्वार है।
इस दुर्ग
में पानी का उत्तम प्रबन्ध है। दुर्ग के अन्दर
अनेक जलकुण्ड हैं। यथा: पाताल गंगा, पाण्डु-कुण्ड,
बुढिया ताल, मृगधारा, कोटतीर्थ आदि। कालिं हिन्दुओं का तीर्थ स्थान
भी है। वेदों में इसका निर्देश तपस्या-स्थान के
रुप में हुआ है। महाभारत में यह उल्लेख है कि जो
व्यक्ति कालिं में स्नान करता है उसे सहस्त्र गोदान का फल
मिलता है। पद्मपुरान में यह वर्णन है कि कालिंजर
उत्तर भारत के नौ तीर्थों में से एक है और अब
भी वहां अनेक यात्री जाते हैं।
२. अजयगढ़ दुर्ग
यह कालिंजर
से २० मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चोटी पर
बना हुआ है। यह उत्तर से दक्षिण एक मील
लम्बा और लगभग इतना ही पश्चिम
से पूर्व को चौड़ा है। यह त्रिभुजाकार है और इसका घेरा
लगभग ३ मील है। कहा जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण किसी
राजा अजयपाल ने करवाया था, किन्तु इस तथ्य के पुष्टीकरण का कोई प्रमाण नहीं है।
शिलालेखों में इसका उल्लेख जयपुर दुर्ग के नाम
से मिलता है।
इस दुर्ग में केवल दो द्वार हैं। प्रथम द्वार तरोहनी द्वार कहलाता है, क्योंकि वहां से पहाड़ी के नीचे स्थित तरोहनी ग्राम को
मार्ग जाता है। दूसरा द्वार केवल दरवाजा कहलाता है।
संभवतः यह शिलालेखों में उल्लिखित कालिं दरवाजा हो, क्योंकि वहां से कालिं दुर्ग को
रास्ता जाता है। इस दुर्ग में भी पानी का
उत्तम प्रबन्ध है।
३. मड़फा दुर्ग
यह
विशाल दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है और कालिंजर
से उत्तर-पूर्व १२ मील की दूरी पर है। इस किले का उल्लेख किसी
भी मुस्लिम इतिहासकार ने नहीं किया। इस तथ्य के आधार पर कनिंघम का
अनुमान है कि कलिं के पतन के पश्चात् ही इसकी ख्याति हुई। अब यह दुर्ग निर्जन है और वहां जंगल है।
४. मनियागढ़
केन नदी के पश्चिमी तट पर ६००
फीट से ७०० फीट की ऊंची एक छोटी पहाड़ी के ऊपर यह दुर्ग
बना हुआ है। यह एक प्राचीन दुर्ग है और वहीं चन्देलों की कुलदेवी
मनिया देवी का मंदिर है। अब वह
भग्नावशेष मात्र है और जंगलों से
भरा पड़ा है।
५. कालपी दुर्ग
इस दुर्ग की स्थिति
बड़ी महत्वपूर्ण थी। इतिहासकार फरिश्ता का
अनुमान है कि कन्नौज के राजा वासुदेव ने इसका
निर्माण करवाया था, किन्तु स्थानीय जनश्रूतियों
में यह प्रचलित है कि इसका निर्माण किसी प्राचीन
राजा कालिदेव ने करवाया था। यह बाहर से १२५
फीट और इसकी ऊंचाई ८० फीट है। यह
सम्पूर्ण दुर्ग शतरंज की गोट की भांति है और इसकी छत चौरस है। इसके
मध्य के चार स्तम्भ भी नहीं हैं और इस प्रकार जो जगह
बची है वह विशाल गुम्बज से ढ़की हुई है। यह गुम्बज
मुख्य इमारत की छत से लगभग ६० फीट ऊंचा है। इसके चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे
बुर्ज हैं। मध्य का बुर्ज छत से लगभग ४०
फीट ऊंचा है।
६. महोबा दुर्ग
चन्देल
राजधानी महोबे का प्राचीन दुर्ग मदनसागर
से उत्तर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। इसकी
लम्बाई १६२५ फीट तथा चौड़ाई लगभग ६००
फीट है। इसके दो मुख्य द्वारों में
भैंसा दरवाजा पश्चिम की ओर है और दरीवा-दरवाजा पूर्व की ओर है। इसकी दीवार कटे हुए चौकोर पत्थरों
से बनी है।
७. हाटा दुर्ग
इसकी निर्माण
शैली अन्य दुर्गों की ही भाँति है, किन्तु इसके
शिखर बहत हैं, जो ऊपर की ओर नुकीले होते चले गए हैं।
शिखर तथा दीवारें (युद्धक चहारदीवारी)
से ढकी हुई हैं और गारे तथा बटियों के पत्थर
से बनी है। इस दुर्ग के अन्दर एक राज-प्रसाद का
भग्नावशेष भी है।
८. गढ़ा दुर्ग
बहुत दिन पूर्व यह दुर्ग गिरा दिया गया था और इसकी
सामग्री रेलवे कम्पनी ने इस्तेमाल कर
ली है।
इन दुर्गों के अतिरिक्त रावतपुर, जैतपुर,
राजगढ़, कुंडलपुर तथा अन्य स्थानों पर भी चन्देल दुर्गों के चिह्म पाये जाते हैं, जो चन्देलों की
सैनिक प्रवृत्ति के प्रतीक हैं।
चन्देलकालीन
मूर्तिकला
जिस प्रकार
उत्तरी भारत में चन्देल मंदिर बेजोड़ हैं, उसी प्रकार
उनकी मूर्तिकला भी बेजोड़ है। चन्देल
शासकों के अन्तर्गत राष्ट्र की बढ़ी हुई
समृद्धि से देश की ललितकला के प्रसार
में बड़ा योग मिला। गुप्तकाल की मूर्तिकला
में विदेशी छाप जाती रही थी। उस युग
में मथुरा तथा गान्धार कला-केन्दों का पतन हो चुका था और
उनके स्थान पर सारनाथ तथा पाटलिपुत्र के कला-केन्द्रों का विकास हो रहा था। दोनों प्राचीन कला केन्द्रों
में केवल बुद्ध तथा बोधिसत्व की ही
मूर्तियों का निर्माण होता था। किन्तु नूतन कलाकेन्द्रों के विकास
से इस स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन हो गया था।
बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं का स्थान हिन्दुओं के पौराणिक देवी-देवताओं ने ग्रहण कर
लिया। दोनों कलाकेन्द्रों ने आशातीत
सफलता प्राप्त की और कुछ समय पश्चात् उन्होंने तीन
मध्ययुगीन कला-केन्द्रों को जन्म दिया- १.
बंगाल तथा बिहार का पूर्वीय
कला केन्द्र, २. मध्य भारत का चन्देल चेदि कलाकेन्द्र तथा ३.
मालवा का धारा-कला-केन्द्र।
बुन्देलखण्ड
में चन्देल चेदि कला-केन्द्र की मूर्तिकला अपनी पूर्णता को पहुंच गई थी। अंग विन्यास,
मुख की भाव-भंगिमा तथा शरीर के
व्यापारों के निर्दोष कृतित्व में शिल्पकारों ने पूर्ण निपुणता प्राप्त कर
ली थी। अधिकांश मूर्तियों में महोबा
में प्राप्त काले संगमरमर का प्रयोग हुआ है, किन्तु विन्ध्य पर्वत
से प्राप्त लाल-पत्थर का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है, क्योंकि इस पत्थर
में भी सुन्दर ओप होती है।
खजुराहों तथा
अन्य स्थानों में शायद ही कोई मंदिर हो, जो
विशिष्ट मूर्तियों से न अलंकृत हो। चन्देल
मूर्तिकला दो मुख्य भागों में विभाजित की जाती है: १. धार्मिक तथा २. धर्मनिरपेक्ष।
१. धार्मिक मूर्तिकला
इसका पुनः तीन विभागों
में वर्गीकरण किया जाता है:
१.
हिन्दू मूर्तिकला ,
२.
जैन मूर्तिकला तथा
३.
बौद्ध मूर्तिकला
१.१
हिन्दू मूर्तिकला :
कन्दरीय महादेव
मन्दिर
कन्दरीय महादेव मंदिर में मूर्तिकला का बाहुल्य है। जनरल कनिंघम की गणना के
अनुसार इस मदिर के अन्दर २२६ मूर्तियाँ तथा तथा
मंदिर के बाहर ६४६ मूर्तियाँ हैं। मंदिर
में शायद ही कोई स्थान हो जो मूर्तियों
से अलंकृत न हो। दीवारें, दीवारगीरें, स्तंभ आदि
सभी स्थान मूर्ति-समूहों से अलंकृत हैं।
मंदिर की कुर्सी के ऊपर मंदिर के चारों ओर
मूर्तियों की तीन पट्टियां हैं। इन
मूर्तियों में अधिकांश हिन्दू देवी-देवताओं की हैं, किन्तु कुछ अश्लील
मूर्तियां भी हैं। इन पट्टियों के ऊपर उभरी
हुई तथा आगे बढ़ी हुई मूर्तियां
मंदिर के चारों ओर हैं और इनके ऊपर
अनेक विशिष्ट मूर्तियां हैं। इन विशिष्ट एवं बहुसंख्यक
मूर्तियों का प्रभाव हर्षातिरेक उत्पन्न करता है और
मूर्तियों के विवरणों की विविधता
से आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। मंदिर की छत
भी बड़ी मनोरम एवं विविध मूर्तियों
से सुसज्जित है।
गर्भगृह के
मध्य में साढ़े चार फीट के घेरे का
संगमरमर का शिवलिंग है और उसके दाहिनी तथा
बाईं ओर शिव तथा ब्रह्मा की मूर्तियां हैं।
विश्वनाथ
मन्दिर
खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में मूर्तिला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
मंदिर के अन्दर तथा बाहर बहुसंख्यक
मूर्तियाँ हैं। मंदिर की बाहरी दीवार
में मूर्तियों की तीन पट्टियाँ हैं। इनके
मध्य का मूर्ति-समूह अन्य मंदिरों की
मूर्तियों की भांति आकर्षक है। अपने
वस्रों को गिराती हुई अनेक नारी प्रतिमायें
बनी हुई हैं, मानों वे जानबूझ कर अपने अंगों का प्रदर्शन कर रही हों।
अन्य मन्दिरों की भाँति इस मंदिर के
भीतरी भाग के अलंकरण में भी
बहुलता तथा विविधता है। इसकी छत
भी बहुत अलंकृत है। मंदिर के मुख्यद्वार के
सामने एक छोटा मंदिर है, जिसमें नन्दी की एक
विशाल मूर्ति है। इसकी कुर्सी हाथियों की
मूर्तियों की एक पंक्ति से अलंकृत है। प्रत्येक हाथी
सामने की ओर मुँह किये हुए दो नर
मूर्तियों के मध्य में है।
खजुराहो का चतुर्भुज मंदिर
यह मंदिर भी बाहर तथा अन्दर बहुत अधिक अलंकृत है। इसमें
शूकर के आखेट, हाथी, घोड़ों तथा विभिन्न
शस्रास्रों से सुसज्जित सैनिकों के जुलूसों के
मनोरम चित्रण हैं। मंदिर के अन्दर ४
फीट १ इंच ऊँची खड़ी हुई चतुर्भुजी
मूर्ति है। उसके तीन शिर हैं, जिनमें
से बीच का शिर सिंह का तथा शेष दो
शिर मनुष्य के हैं।
खजुराहो का लक्ष्मीनाथ अथवा विष्णु
मन्दिर
इस मंदिर के महामंडप के स्तम्भ अन्य खजुराहों
मंदिरों की भांति अलंकृत है। उसकी आठ दीवारगीरें नारियों तथा सिंहों की
मूर्तियों से सुसज्जित हैं। प्रवेश द्वार के स्तम्भ का काम आश्चर्यजनक
रुप से सुन्दर है। प्रत्येक फलक के नीचे
से मुंह खोले हुए नक्र का आविर्भाव होता है और नक्र के खुले हुए मुँह
से एक अलंकृत नाल नीचे की ओर मुड़ती है और आन्त
में दो नलिकायें निकलती हैं और वह ऊपर मेहराव से जा
मिलती है। प्रत्येक नलिका नीचे की ओर
मुड़ती है और अन्त में दो नलिकायें
मध्यके खुले हुये भाग में मिल जाती है। नाल के
उद्भव बिंदु से हाथ के बल से लटकती हुई नारी
मूर्ति है, जिसके उभय पद नक्र के मुख पर स्थित हैं,
मानों उनका भी आविर्भाव नाल के साथ ही हुआ हो। कनिंघम इस अलंकरण की अस्वाभाविकता की आलोचना करते हैं।
उनका मत है कि दोनों नक्रों के शिरों का कोई आधार नहीं हैं,
वेस्तम्भों से प्रादुर्भूत हैं। उनका मत है कि नक्रों के
शिरों का आधार दीवारगीर होने चाहिए।
अन्य मन्दिरों की भांति मंदिर का भीतरी
भाग मूर्तियों की दो पंक्तियों से अलंकृत है।
कुँवर मठ
इस मंदिर का अलंकरण प्रायः उसी कलात्मक ढंग
से हुआ है, जैसा कि चतुर्भुज मंदिर
में। निचला अष्टकोणात्मक मार्ग अनेक स्थलों पर हाथी, घोड़े तथा
शास्रास्रों से सुसज्जित सैनिकों के जुलूस
सम्बन्धी मूर्तियों से अलंकृत हैं। अष्टभुज क्षेत्र के कोणों पर नारी
मूर्तियाँ हैं, जो दीवारगीरों पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त गायकों तथा नर्तकों के
भी चित्र हैं।
जतकरा का चतुर्भुज मंदिर
इस मंदिर का अलंकरण खजुराहो कला के आधार पर हुआ है, किन्तु इसकी कुछ
मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय है। मंडप की
मूर्ति पंक्ति की मुख्य मूर्ति जो दक्षिण की ओर है, वह
अर्द्धनारी की बैठी हुई मूर्ति है। उसके ऊपर त्रिशूल
अथवा सपंयुक्त भगवान् शिव की चतुर्भुजी
मूर्ति है। उसके नीचे रथारुढ़ सूर्य की
मूर्ति है। पीठिका में सप्ताश्वों की मूर्तियां
उत्कीर्ण हैं। मध्यपंक्ति की मुख्य मूर्ति के
उत्तर की ओर सिंह के शिर वाली नारी
मूर्ति है। उसके नीचे गदा तथा शंख युक्त
बैठे हुए भगवान् विष्णु की मूर्ति है।
छत्र को पत्र अथवा खजुराहो का सूर्य
मंदिर
मंदिर के भीतर आठ फीट की ऊँचाई तक विभिन्न
मूर्तियाँ हैं। उनमें पाँच फीट ऊँची द्विभुज
सूर्य की मूर्ति हैं, जिसके करयुग्मों
में कमल तथा पुष्प हैं। पीठिका में उसके
रथ के सप्ताश्वों की मूर्तियाँ हैं। मण्डप के स्तम्भों के अलंकरण का केवल
रेखांकन ही संभव हो पाया था, और शिल्पी
संभवतः अपनी इच्छानुकूल उसकी पूर्ति न कर पाया था।
मंदिर का बाहरी भाग
अन्य मंदिरों की भाँति मूर्ति समूह की तीन पंक्तियों
से अलंकृत है।
खजुराहो का वाराह मन्दिर
यह भगवान विष्णु के अवतार वाराह देव का
मंदिर है। वाराह मूर्ति की लम्बाई ८
फीट ९ इंच तथा ऊंचाई ५ फीट ९ इंच है। यह खड़ी
मुद्रा में है, जिसके दो पैर आगे की ओर
बढ़े हुए हैं। पीठिका में कुंडली बाँधे हुए एक
बड़े नाग की मूर्ति है। उसकी पूंछ पर वाराह की पूंछ आधारित है। वाराह का
शिर एक बैठी हुई नर मूर्ति के आधार पर टिका हुआ है। नाग के
शिर के निकट नर मूर्ति के दो पैर हैं, जो
भगवती पृथ्वी के पद कहे जाते हैं। क्योंकि उसके हाथ के चिह्म वाराह की गर्दन पर भी पाये जाते हैं। वाराह का
शरीर एवं गर्दन बाहर से छोटी-छोटी नर
मूर्तियों से अलंकृत हैं।
मदनपुर का वाराह मन्दिर
इस मंदिर में ६ फीट २ इंच लम्बी एक
विशाल मूर्ति है, जिसके साथ ही इस
मूर्ति के दोनों ओर छोटी मूर्तियों की छह-छह पंक्तियां हैं। इस
मूर्ति की पीठिका टूटी हुई है, किन्तु एक पिछला पैर अब
भी वैसा ही है एक बहुत बड़ा नाग भी
उत्कीर्ण है। यह नाग समुद्र का द्योतक है, जिससे वाराह ने नारी-रुप पृथ्वी का
उद्धार किया था।
कालिं का कालभैरव मन्दिर
कालिं दुर्ग के स्वर्गारोहण कुण्ड
में खड़ी हुई मुद्रा में २४ फीट ऊंची कालभैरव की
विशाल मूर्ति है, जो दो फीट गहरे पानी
में खड़ी हुई है। यह मूर्ति अष्टादश
भुजी है। यह नरमुण्डों की माला, नाग के
बाल तथा भुजबन्ध धारण किये हुए है। एक नाग इस
मूर्ति के गले में लिपटा हुआ है। इस
मूर्ति के हाथ में अनेक वस्तुएं हैं, जिनमें
से कृपाण खप्पर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस
विशाल मूर्ति के निकट ४ फीट ऊंची काली की
मूर्ति है। वह मूर्ति भी नरमुण्ड माला धारण किये हुए हैं।
रसिन का काली मन्दिर
बांदा जिले में रसिन के एक जीर्ण-शीर्ण
मंदिर में काली की एक टूटी हुई मूर्ति है। यह
मूर्ति दीवाल में उत्कीर्ण एक अन्य से दण्डवत करती हुई
मूर्ति के ऊपर खड़ी है। यह ८ फीट ऊंची और ४
फीट चौडी है, इसकी २४ भुजाएँ हैं और इसके चारों ओर
भगवती काली की छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं।
मुख्य मूर्ति का उदर बहुत बैठा हुआ है और पसलियों के
मध्य में बड़ी पूंछवाला विच्छू अंकित किया गया है।
इस मंदिर की अन्य मूर्तियों में दशभुजी दुर्गा, महिषासुरी हनुमान आदि की
मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय है।
अन्य हिन्दू मूर्तियां
कालिं में दुर्गा की एक अन्य मूर्ति है, जो अष्टभुजी है और त्रिशूल तथा खप्पर धारण किये हुए है।
अजयगढ़ के तरोहिणी द्वार में देवियों की
मूर्तियों की ८ पंक्तियाँ हैं, जिनमें सात
बैठी हुई मुद्रा में, और एक खड़ी हुई
मुद्रा में है। उनमें से प्रत्येक ३ फीट ऊंची तथा ३
फीट १० इंच चौड़ी और उनकी पीठिका भी अलग-अलग है।
रोरा में एक शिव मंदिर है। वहां
अनेक मूर्तियां उपलब्ध हैं। विशाल शिवलिंग के अतिरिक्त वहां मूषक-युक्त गणेश की
मूर्ति, मयूरवाहिनी देवी, तथा
वृषारुढ़ पार्वती की मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त एक द्विमुखी नारी तथा कुछ
अन्य छोटी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर के बाहर एक टूटी हुई
मूर्ति है, उसमें गले में माला धारण किये हुए एक चतुर्भुजी नारी
मूर्ति है।
१.२
जैन मूर्तिकला
जिस
भांति हिन्दू तथा जैन मंदिरों की योजना
में अन्तर है, उसी प्रकार दोनों धर्मों की
मूर्तिकला में भी कुछ अन्तर है। जैन मन्दिरों का अलंकरण हिन्दू
मंदिरों की परिपटी पर हुआ है। अन्तर केवल यह है कि जैन
मंदिरों के अलंकरण में केवल जैन देवी-देवताओं की
मूर्तियों को ही उपकरण बनाया गया है।
खजुराहो समूह के जैन
मंदिरों में सर्वोत्कृष्ट जैन मंदिर जिननाथ का है। यह
अनेक मूर्तियों से अलंकत है। इसमें छोटी
मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ हैं। जिनमें दो नीचे की पंक्तियों
में मूर्तियां खड़ी हुई मुद्रा में हैं और
सर्वोपरि पं की मूर्तियां बैठी हुई
अथवा उड़ती हुई मुद्रा में दिखलाई गई हैं। गर्भगृह के द्वार पर खड़ी हुई
मुद्रा में एक नग्न मूर्ति है। मुख्य द्वार की
सीढियों में समुद्रमन्थन का दृश्य उत्कीर्ण है।
जैन
मंन्दिरों के अलंकरण की यह सर्वग्राह्य
शैली थी। प्रायः सभी जैन मंदिरों में इसी
शैली का अनुकरण हुआ है। जनरल कनिंघम को अपनी
यात्रा के सिलसिले में १३ जैन मूर्तियां
मिली थीं, जो कभी खजुराहो के घंटई
मंदिर के अलंकरण की प्रसाधन थीं। उन
मूर्तियों का विवरण नीचे दिया जाता है:
-
घुटनों पर
बैठे हुए मुद्रा में ६ फीट ३ इंच ऊंची तथा ३
फीट एक इंच चौड़ी नर मूर्ति, जिसकी गर्दन तनी हुई है। इस
मूर्ति की पीठिका में एक चक्र उत्कीर्ण है।
-
खड़ी हुई
मुद्रा में दो फीट ५ इंच की एक नग्न
मूर्ति।
-
उसी प्रकार की एक छोटी
मूर्ति।
-
उसी प्रकार की
मूर्ति और उसके पीछे कुंडली बांधे हुए
सपं की मूर्ति।
-
घुटनों के बल
बैठी हुई मुद्रा में २ फीट १० इंच की नग्न
मूर्ति, जिसकी पीठिका में चक्र उत्कीर्ण हैं।
-
घुटनों पर
बैठी हुई मुद्रा में ४ फीट ६ इंच ऊंची २
फीट चौड़ी मूर्ति, जिसकी पीठिका
में वृषभ उत्कीर्ण है।
-
मध्यम कद की खड़ी हुई नग्नमूर्ति, जिसकी पीठिका
में चंद्र अंकित है।
-
घुटनों पर
बैठी हुई नग्न मूर्ति तथा पीठिका
में टूटे हुए बैल की मूर्ति।
-
घुटनों पर
बैठी हुई ३ फीट ऊंची मूर्ति, जिसकी पीठिका
में चक्र बना है।
-
घुटनों पर
बैठी हुई ४ फीट ऊंच तथा २ फीट १० इंच चौड़ी
मूर्ति।
-
घुटनों पर
बैठी हुई नग्न मूर्ति।
-
सिंह पर
बैठी हुई चतुर्भुजी देवी की
मूर्ति, जिसके एक फुट ७ इंच चौड़ी पीठिका पर
शंख तथा पद्म उत्कीर्ण हैं।
-
गरुड़ पर
बैठी हुई चतुर्भुजी देवी की
मूर्ति तथा जिसकी एक फुट ७ इंच चौड़ी पीठिका पर फल तथा
शंख की मूर्ति उत्कीर्ण है
अंतिम दो मूर्तियां हिन्दू-धर्म की हैं, किन्तु अपने
लघु आकार के कारण ये मूर्तियां अन्य
मूर्तियों की सहायक मूर्तियां प्रतीत होती हैं। शेष ११
मूर्तियां जैन-धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय की हैं।
खजुराहो के पार्श्वनाथ
मंदिर में जैनियों के २३ वें तीथर्ंकर पार्श्वनाथ की
मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह नग्न पुरुष
मूर्ति है और इसके दोनों ओर नग्न नारी प्रतिमायें हैं। खजुराहो के
अन्य जैन मंदिरों में आदिनाथ, जिननाथ,
सेतनाथ आदि अन्य तीथर्ंकरों की भी
मूर्तियां हैं।
मदनपुर का जैन मंदिर
मदनपुर में दो जैन मंदिर हैं। उनमें से बड़े मंदिर में खड़ी हुई मुद्रा में एक विशाल नग्न मूर्ति है। दूसरा मंदिर भग्नावशेष मात्र हैं और वहां निम्नलिखित तीन मूर्तियां उपलब्ध हैं:
१. आदिनाथ, जिनकी पीठिका में वृषभ उत्कीर्ण है।
२. शंभुनाथ, जिनकी पीठिका में अश्व अंकित है।
३. चन्द्रप्रभा, जिनकी पीठिका में वक्रचन्द्र की मूर्ति अंकित है।
दौनी के जैन मंदिर में शान्तनाथ की मूर्ति है और उस मूर्ति की पीठिका में दो हिरणों की मूर्ति उत्कीर्ण है। पीठिका में १३वीं विक्रम शताब्दी का एक लेख भी है। यह मूर्ति टूटी हुई है। इसकी दो भुजायें खण्डित हैं। इसके अतिरिक्त अन्य छोटी-छोटी मूर्तियां भी टूटी-फूटी दशा में हैं। जैनियों के तीर्थथान कुण्डलग्राम में नेमिनाथ की एक विशाल मूर्ति है। दुधई में भी दो जैन मंदिर हैं। एक मंदिर में खडी हुई मुद्रा में १२ फीट ऊँची मूर्ति है, जिसकी गर्दन तनी हुई है। दूसरे मंदिर में घुटनों में बैठी हुई पांच फीट की एक मूर्ति है। उसके दोनों ओर एक-एक खड़ी हुई नग्न प्रतिमायें हैं। अजयगढ़ के तरोहिनी द्वार में भी बैठी हुई मुद्रा में अनेक जैन मूर्तियां हैं, जिनके हाथ उनकी गोदी में रक्खे हुए हैं। उनके निकट एक गाय तथा बछड़े और बैठी हुई मुद्रा में चतुर्भुजी देवी की मूर्ति है, जिसकी गोद में एक बच्चा है और उसकी बाईं ओर एक के ऊपर दूसरा इस प्रकार आठ शूकर-शावकों के जोड़े हैं। यह शक्ति की मूर्ति है जो समृद्धि की देवी है।
३.
बौद्ध मूर्तिकला
बहुत दिनों तक
लोगों का यह अनुमान था कि चन्देलों के
समय में बौद्ध-धर्म का प्रचार न था, किन्तु
महोबा में प्राप्त ६ बौद्ध प्रतिमाओं ने इस संदेह का निराकरण कर दिया। दो
मूर्तियों की पीठिका के लेख से ज्ञात होता है कि
उनका निर्माण ११वीं अथवा १२वीं शताब्दी
में हुआ था। इन मूर्तियों से स्पष्ट होता है कि हिन्दू तथा जैन-धर्म के
साथ ही साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था।
सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति
यह मूर्ति २ फीट ८ इंच ऊंची तथा एक फुट १० इंच चौड़ी है। यह
भारतीय मूर्तिकला की सर्वोत्कृष्ट
मूर्तियों में से है। बैठे हुए राजलीला
मुद्रा में इस मूर्ति का निर्माण हुआ है। इसका दाहिना घुटना ऊपर की ओर
सटा हुआ है और उस पर दाहिना
हाथ रक्खा हुआ है तथा उसमें एक माला है।
बोधिसत्व के नीचे एक गदद्यदी है और उसके नीचे
सीधे कमलासन में मुंह खोले हुए सिंह की
मूर्ति है जो बोधिसत्व की ओर देख रही है। देवी का दाहिना हाथ
बायें घुटने के पीछे गदद्यदी पर रखा हुआ है और कमलदण्ड धारण किये हुए है। दाहिने हाथ के पीछे उसका त्रिशूल है, जो चारों ओर से नाग
से घिरा हुआ है। उसके केश घुंघराले हैं और
उनमें से कुछ उसके कंधों पर लटक रहे हैं तथा शेष केशराशि जटा-जूट के
रुप में सुशोभित हैं।
शरीर के ऊपरी हिस्से का कुछ भाग
वस्र से ढका हुआ है और अधोवस्र जांघ तक है।
मूर्ति के पीछे पत्थर में कमल पुष्प के
रुप में उसके शिर के पीछे प्रकाश-चन्द्र है और उसके दोनों ओर करबद्ध उपासकों की
मूर्तियाँ हैं। इस मूर्ति के सिंहासन
में ११वीं शताब्दी के वर्णों में एक लेख
भी है।
बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की मूर्ति
यह मूर्ति पद्मपाणि के नाम से विख्यात है। इसकी ऊंचाई २
फीट २ इंच तथा चौड़ाई १ फीट १ इंच है। यह कमलासन
में राजलीला मुद्रा में है। इसका
बाँया हाथ बाईं जांघ के पीछे सिंहासन पर है। दाहिना हाथ घुटनों
से दाहिनी जाँध पर टिका हुआ है।
बाँयें हाथ में कमल-दण्ड है। बोधिसत्व की
मूर्ति के एक ओर एक लम्बे कमलनाल
युत कमल-पुष्प हैं। सिंहनाद की मूर्ति की
भाँति इस मूर्ति के सिर पर भी जटाजूट हैं। इसकी पोशाक
भी अन्य बोधिसत्वों के मूर्ति की भांति
सर्वथा पूर्ण है। पीठिका के पश्चिमी
भाग में नतमस्तक किए हुए एक मूर्ति हैं, जो
सम्भवतः समपंण कर्ता की मूति है। कमलासन, जिस पर यह
मूर्ति स्थापित है, वह तीन मूर्तियों पर आधारित है।
बौद्धदेवी तारा की मूर्ति : (ऊंचाई १
फीट ९ इंच, चौड़ाई ११)
गन्धर्व-गृहीत कमल पर बज्रासन में बैठी हुई यह
भगवती तारा की मूर्ति है, जिसका
बाँया हाथ वितर्क मुद्रा में तथा दाहिना हाथ
वरद मुद्रा में है। बाँए हाथ में कमलनाल तथा दाहिने हाथ
में संभवतः वज्र है। पीछे के पत्थर के सिरे में ५ ध्यानी
बौद्धों की मूर्तियाँ विभिन्न मुद्राओं
में हैं। देवी के बांए एक नारी प्रतिमा है। पीठिका
में ११वीं शताब्दी का एक लेख है।
गौतम बुद्ध की मूर्ति
यह मूर्ति भूमिस्पर्श मुद्रा में है। इसके घुंघराले
बालों की जटाएँ हैं। कान के निचले हिस्से
बढ़े हुए हैं और शिर में उष्णीष हैं।
भगवान बुद्ध कमलासन में बैठे हुए हैं। सिंहासन के नीचे दीपक
रखने का स्थान है। हाथी, दो सिंह तथा दो गन्धर्वों? की
उत्कीर्ण मूर्तियों पर यह सिंहासन आधारित है।
धर्म निरपेक्ष मूर्तियाँ
इस प्रकार की मूर्तियों का बुन्देलखण्ड
में नितान्त अभाव है। यद्यपि प्रत्येक खजुराहो
मंदिर में कामक्रीड़ा में रत स्री-पुरुषों के चित्र
उत्कीर्ण किये गये हैं, फिर भी अजयगढ़ की काले
संगमरमर की अजयपाल की मूर्ति के
सदृश नर मूर्तियों का अभाव है। इस प्रकार की पशुओं की कुछ
मूर्तियाँ अवश्य हैं।
नर मूर्तियाँ
खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में मनुष्य के आकार की कामक्रीड़ा
में रत स्री-पुरुषों की मूर्तियाँ हैं। घुँघराले काले
बालों तथा माला धारण किये हुए
बाईं ओर पुरुष तथा दाहिनी ओर एक नारी की
मूर्ति है, जो इस मैथुन को देख रही है, किन्तु अपनी आंखों के ऊपर एक हाथ
रख कर मानों इस काम क्रीड़ा को न देखने का अभिनय कर रही हो।
खजुराहो के लक्ष्मीनाथ मदिर में मनुष्य के आकार की स्री-पुरुष की
मूर्तियों का एक जोड़ा है, जो वस्राभूषण
से अलंकृत तथा शिर की पोशाक धारण किये हुए परस्पर चुम्बन करते हुए दिखलाये गये हैं। खजुराहो के काली
मंदिर में मनुष्य के आकार की पुरुष की
मूर्तियों का एक जोड़ा परस्पर आलिंगन करता हुआ दिखलाया गया है। नारी
मूर्ति के दोनों हाथ पुरुष मूर्ति की गर्दन पर दिखलाये गये हैं।
उनके नेत्र अर्द्ध निमीलित अवस्था में हैं,
बाल घुँघराले हैं और वे कड़ा धारण किये हुए हैं।
पशुओं की मूर्तियाँ
हिन्दू-धर्म के विभिन्न देवी-देवताओं के
साथ उनके वाहन के रुप में विभिन्न पशुओं का उल्लेख होता है और उसके साथ-ही-साथ
उनके पशु-वाहनों की भी मूर्तियाँ
मिलती हैं, उदाहरणार्थ सिंह, वृषभ,
मयूर, गरुड़, हंस, मूषक आदि की
मूर्तियाँ शिव, पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, विष्णु,
ब्रह्मा तथा गणेश की मूर्तियों के साथ पाई जाती हैं। किन्तु इनके अतिरिक्त
भी अन्य पशुओं की मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनका प्रयोजन कुछ और ही था।
महोबा की हस्ति-मूर्ति
महोबा की एक झील में सजीव हाथियों के आकार की पांच हस्ति-मूर्तियां हैं। यह
मूर्तियाँ लाल पत्थर की बनी हुई है।
उनकी औसत लम्बाई तथा उनके शरीर का औसत घेरा १२
फीट है। पांचों हाथियों के पैर टूटे हुए हैं।
वे प्राप्त भी नहीं हैं। उनका शरीर झूल
से अलंकृत है। यद्यपि उनके महावत का पता नहीं है, फिर
भी उन मूर्तियों की पीठ और गर्दन के खुरदुरेपन
से महावत के बैठने के स्थान का
बोध होता है। इन मूर्तियों के मूल स्थान के
सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है, फिर
भी अनुमान यही है कि मदिर के तीनों दरवाजों
में प्रत्येक द्वार पर दो-दो मूर्तियाँ रही होंगी।
विश्वनाथ
मंदिर में सजीव हाथियों के आकार की १० हाथियों की
मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियां एक पत्थर
से संलग्न हैं और गर्भगृह तथा अन्तराल के पांच स्तम्भों
वाले छज्जे के ऊपर की छत के १० कोणों
से निकल-सी रही हैं। इलाहाबाद
से ४३ मील दक्षिण-पश्चिम बाँदा जिले
में लोखरी नामक स्थान पर हाथी की एक
विशाल मूर्ति है, जो ७ फीट लम्बी और ३
फीट चौड़ी है तथा सिर तक ५ फीट ऊंची है। यह
मूर्ति एक तालाब के किनारे स्थित है और उसमें हाल का ही एक
शिलालेख है।
मदनपुर के खंडहरों
में एक वृषभ की मूर्ति प्राप्त हुई है, जो तीन
फुट १० इंच लंबी है। चार-चार फीट ऊँचे दो सिंह की
मूर्तियाँ भी वहां प्राप्त हुई हैं।
खजुराहो में विश्वनाथ मंदिर के सामने एक छोटा
मंदिर है, जिसमें ७ फीट ऊंची एक
विशाल वृषभ मूर्ति है। इस मूर्ति की पालिश बहुत ही
सुन्दर है। इस मूर्ति के सींग तथा पैर टूट गये हैं तथा प्लास्टर
से उनकी मरम्मत कर दी गयी है। मूर्ति की पीठिका
में वृषभ के सिर के नीचे बैठी हुई एक नारी प्रतिमा के चिह्म हैं।
खजुराहो-मूर्तिकला में अश्लीलता
मध्ययुगीन अन्य मंदिरों की भांति खजुराहो के
मंदिरों के अलंकरण में भी अश्लील
मूर्तियों का प्रयोग किया गया है। इन
मूर्तियों के निर्माण में अद्भुत कौशल का प्रदर्शन हुआ है किन्तु अंग्रेज
लेखकों ने इन मूर्तियों तथा मंदिरों को
सदाचार के प्रतिकूल मानकर इनका उल्लेख नहीं किया और अपनी प्रदर्शिका पुस्तकों
में यह निर्देश किया है कि इन स्थानों पर
बच्चों तथा स्रियों को न जाना चाहिए। एलियाँ डेलाँ नामक
फ्रुेंच विद्वान ने इन मूर्तियों के पक्ष
में कहा है कि मध्ययुगीन मंदिरों के निर्माता किसी
भी भांति असभ्य न थे। उनके विचारों को हमें गर्व के
साथ ठुकरा नहीं देना चाहिए। उनमें अद्वितीय
सूक्ष्म निरीक्षण तथा अपार ज्ञान था। उन्होंने
मानव विचारों के सभी पहलुओं
में सम्यक् सफलता प्राप्त की थी। प्रेम क्रीड़ाओं के अंकन
से उनकी असभ्यता का नहीं, बल्कि उनके
मनोविज्ञान तथा प्रतीकवादिता का
बोध होता है। उन्होंने इन मूर्तियों के
माध्यम से अपने मनोरम मनोभावों तथा दार्शनिक सिद्धान्तों को
व्यक्त किया है। मनुष्य जीवन में प्रेम का
बड़ा महत्व है। प्रेम सर्वदा ही सक्रिय तथा
सृजन की ओर उन्मुख रहता है। इस तथ्य का
साक्ष्य वेदों में भी है। ""एकोहं बहु स्याम्'' का सिद्धान्त
ब्रह्म की सृजन इच्छा का ही प्रतीक है और
सृजन की इस इच्छा के स्थूल रुप ही नरनारी हैं। प्रजा-जनन के हेतु जिस प्रकार
ब्रह्म तथा प्रकृति का एकीकरण होता है, उसी
भांति नरनारी का भी मिलन होता है। मनुष्य जीवन के कार्य धर्म के अंग हैं और सत्पुरुष के
व्यापार ही यज्ञ हैं: मिथुन का लैंगिक कार्य
भी यज्ञ है, क्योंकि इससे जीवन का आविर्भाव होता है। छान्दोग्य उपनिषद्
में यह निर्देश है कि : ""नारी अग्नि है, उसका गर्भाशय ईंधन है, पुरुष का निमंत्रण ही धूम्र है, कर्त्ता ही
लपट तथा तद्जन्य आनन्द ही अग्नि है। इस अग्नि
में देवता हव्य डालते हैं और इस हव्य से ही जीवोत्पत्ति होती है।'' मिथुन का एकीकरण ही ओम का प्रतीक है। जिस
भांति मिथुन परस्पर मिलन में आनन्द का उपभोग करते हुए एक-दूसरे की इच्छा पूर्ति करते हैं, उसी प्रकार ओम का प्रतीत
भी पदार्थों के संयोग से अपनी इच्छा की पूर्ति करता है।
मन्दिरों की ये तथाकथित अश्लील मूर्तियां
भी उसी परमानन्द की प्रतक हैं।
सत्यान्वेषी ऐहिक
सुखों से अपने को अलग रखता है, क्योंकि उसका
सच्चा सुख तभी है: जब वह स्वयं को
भूलकर परब्रह्म में लीन हो जाये। परमानन्द का
वर्णन शब्दों द्वारा सम्भव नहीं। हमारा महानतम
सुख उसकी प्रतिच्छाया मात्र है। प्रेम के
व्यापार ही उस चरम लक्ष्य के प्रतीक हैं और इसी
भावना से प्रेरित होकर सभी मानव प्रेम
व्यापार मन्दिरों में मूर्तिमान कर कामशास्र के ८४ आसनों का
उनमें सन्निवेश किया गया है। ८४ आसनों को
मंदिरों में उत्कीर्ण कराने का मुख्य
उद्देश्य यही था कि लोग उनसे सुपरिचित हों, जिससे उन्हें
सांसारिक जीवन में पूर्णता प्राप्त करने के साथ-ही-साथ
उनके अनुषंगी ८४ योगिक आसनों के ज्ञानार्जन
में सुविधा हो। मन्दिरों में इन आसनों के
उत्कीर्ण कराने का यह भी प्रयोजन था कि
मंदिर में प्रवेश करनेवाले भक्त की परीक्षा
भी हो जाय कि उसे हर वस्तु में ईश्वरत्व का
बोध है अथवा नहीं, क्योंकि द्वेैत में परमात्मा की प्राप्ति
संभव नहीं।
हिन्दू धर्मशास्रों
में यह उपदेश है कि ईश्वर सर्वमय है और इसकी
वास्तविक सफलता तभी है, जबकि
उन प्रवृत्तियों में भी ईश्वर की झलक प्राप्त हो, जिनमें
स्वभावतः ईश्वर का विस्मरण होता है।
ये मूर्तियाँ संन्यास की भी कसौटी है। किसी
वस्तु का त्याग संभव नहीं, यदि उसका
स्वामित्व प्राप्त न हो। इस भांति त्याग
भी अनुभूति के बिना संभव नहीं।
समस्त ऐहिक सुखों का पूर्ण अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही ॠषिगण
उनका त्याग करते थे, क्योंकि बिना किसी
वस्तु के अनुभव किये उसका परित्याग भयावह है। इस
सत्य का निर्देश कामसूत्र में भी है।
मोक्षार्थी अपने उद्देश्य की पूर्ति वैराग्य द्वारा ही कर
सकता है और वैराग्य अनुराग के पश्चात् ही
संभव है, क्योंकि मनुष्य की बुद्धि
स्वभावतः विषयानुवर्तिनी होती है।
मनुष्य जीवन का
उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति है। धर्मार्थ-काम-मोक्ष का विभाजन दो
श्रेणियों में किया जाता है।
१.
भौतिक २. आध्यात्मिक
भौतिक
श्रेणी में अर्थ और काम तथा आध्यात्मिक
श्रेणी में धर्म और मोक्ष की गणना है।
भौतिक सुखानुभूति आध्यात्मिक आनन्द का प्रतिबिम्ब
मात्र है। अस्तु, स्पष्ट है कि धर्म का प्रतिबिम्ब
अर्थ तथा मोक्ष का प्रतिबिम्ब काम है। इस
भांति प्रथम युग्म बन्धन की ओर तथा द्वितीय
युग्य मोक्ष की ओर प्रेरित करता है। धर्म तथा
अर्थ के प्रेमी सांसारिकता में लीन होते हैं, किन्तु
मुमुक्षु उनसे विरक्त होता है।
यह देखा गया है कि
बड़े-बड़े सन्त प्रायः अपने प्रारम्भिक जीवन
में काम के वशीभूत थे। ऐसे पुरुष
सरलता से सांसारिक अनुराग त्याग कर परमात्मा के प्रेम
में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार सम्भोग-सुख परमानन्द की प्रतिच्छाया
मात्र ही नहीं, अपितु वह परमानन्द की ओर प्रेरित
भी करता है। सम्भोग-सुख के हर
संभव रुप की मूर्तियों द्वारा ज्ञान मस्तिष्क
शुद्धि का एक लाभदायक उपाय है, क्योंकि
बिना मस्तिष्क की शुद्धि के परमानन्द की
अनुभूति सम्भव नहीं। इन्द्रियजन्य सुख
में लीन दर्शक को भी ये मूर्तियां आकर्षित करती हैं। वह अपनी मनचाही
मूर्ति को देखने हेतु मंदिर के अंधेरे कोने
में जाता है और अपने इस प्रयत्न के क्रम
में वह स्तम्भों तथा देव-मूर्ति के चारों ओर भी जाता है और तब बहुत
संभव है कि वह पुष्प तथा हव्य पदार्थों की
सुगन्धि एवं पूजन वाद्यों से प्रभावित
मंदिर के वातावरण में भी आकर्षित हो। प्रथम
बार वह व्यावहारिक दृष्टि से देवमूर्ति को प्रणाम करेगा, किन्तु
बाद में वह क्रमशः मंदिर की बाहरी
मूर्तियों का देखना भूलकर देवाराधन
में रुचि लेने लगेगा। ये मूर्तियां
उन प्रलोभनों की भी भाँति है जो तपश्चर्या
से विमुख करते हैं। इनसे भक्त की परीक्षा
भी होती है, जो बाहरी मुर्तियों
से बिना प्रभावित हुए मंदिर में प्रवेश करता है।
इस भाँति ये मूर्तियाँ यद्यपि देखने में अश्लील हं, किन्तु उनकी अपनी निज की विशेषता है। उनकी दार्शनिक गहराई तथा उनका गूढ़ विवेचन प्रशंसनीय है।
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