बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास

नर्मदा प्रसाद गुप्त

दो शब्द


संस्कृत वाङ्मय में लोक एक प्राचीन एंव व्यापक शब्द   है। यह अनेक मूल शास्रों की अवधारणओं से सम्बद्ध है, किन्तु मुख्य रुप से यह आकाश तत्व और काल के अन्तरबोध को ही इंगित करता है।   भारतीय शास्रों में लोक-आलोक (अंधकार व प्रकाश के अर्थ में), भूलोक-भुवलोक-स्वर्गलोग (त्रिलोक के लिए) एवं भूलोक-भूवलोक-स्वरलोक-महरलोक-जनलोक-तपोलोक-सत्यलोक (श्रेणीबद्ध सप्त-क्षेत्रों के लिए) निरपेक्ष शब्द है। लौकिक-अलौकिक का भेद सामान्य एवं विशेष अनुभूतियों के अन्तर को सुस्पष्ट करता है। दर्शन और कला के क्षेत्र में लोक से संबंधित कई अन्य शब्द है यथा-लोकधातु (बौद्धदर्शन में), लोकधर्मा (नाट्यशास्र में), लोकपुरुष (जैनदर्शन में)। इसके अतिरिक्त लोकेश, लोकयात्रा, लोकसंग्रह, लोकाचार, लोकायत, लोकवृत, लोक-प्रत्यक्ष, लोकतंत्र, लोकश्रुति, लोकपाल, लोक-विज्ञान, लोक-प्रकृति, लोक-स्थिति, आदि का भी उल्लेख विभिन्न संदर्भों में किया गया है।

पाश्चात्य समाज-विज्ञान एंव मानव-विज्ञान का फोक (क़दृथ्त्त्) अत्यन्त सीमित शब्द है। इसका प्रयोग विशिष्ट से भिन्न जनसाधारण, नागरिक से भिन्न ग्राम्य एवं प्रतिष्ठित से भिन्न अपरिष्कृत के लिए होता है। अर्थगत दृष्टि से फोक क्लासिकल (क्थ्ठ्ठेssत्ड़ठ्ठेथ्) का प्रतिमुख शब्द है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में, विशेषकर हिन्दी में फोक के लिए सामान्य एवं पारिभाषिक शब्द है लैंेक

इनमें जनपद परम्परा   की व्याख्या फोक के ही अर्थ में किया जाता है, परंतु फोक और क्लासिकल की पाश्चात्य अवधारणा भारतीय दर्शन एवं जीवंत संस्कृति दृषिट में लौकिक (फोक) और शास्रीय (क्लासिकल), मौखिक और लिखित, लोकाचार और शस्राचार प्रतिमुख कोटि का नहीं है। वैचारिक एवं व्यावहारिक रुप से इनमें सातत्य बना रहता है। यही हमारी सभ्यता की शकित है, और पहचान भी।

प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में लोकशब्द के जो उपरोकत दृष्टांत दीए गए है उससे यह प्रमाणित होता है कि समय-समय पर जीवन्त शब्द का संस्कार होता रहता है और उसमें   नये-नये संदर्भ   एवं नये-नये अर्थ जुड़ते रहते हैं, अर्थात लोक-संस्कृति एक जीवन्त अविरल प्रवाह है। अपनी   सारगर्भित भूमिका में प्रोफेसर श्यामाचकण दुबे ने लोक-संस्कृति के विभिन्न   पक्षों पर जो प्रकाश डाला   है उससे इस विषय की अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता एंव दृष्टि की व्यापकता   सुस्पष्ट हो जाती है। भारतीय समाज विज्ञान, मानव   विज्ञान और साहित्य में लोकवार्ता अथवा लोकविज्ञान (क़दृथ्त्त्थ्दृद्धe) पिछले कई दशकों से एक स्वैच्छिक   विषय के रुप में पनपता रहा है। कुछ विश्वाविद्यालयों में तो इसका स्वतंत्र पाठ्यक्रम भी है, परंतु पाश्चात्य पद्धति के अपनाने सें भारतीय लोकवार्ता अब तक रेखीय संरचना एवं खंडित चित्र प्रस्तुत करती रही है।

इंदिरा गंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के जनपदसम्दा विभाग में जीवन-शैली एवं लोक-संस्कृति के अध्ययन का कार्य चल रहा है। यहाँ भारतीय शास्र एंव आधुनिक विज्ञान की मूलभूत अवधारणाओं को लेकर नवीन पद्धति की खोज की जा रही है। आशा है कि इस प्रयास से अंतत: मानव-संस्कृति के समष्टि एंव अंगीभूत स्वरुप को समझा जा सकेगा।

डॉ नर्मदा प्रसाद गुप्त की यह पुस्तक हमारी आकांक्षा के निकट है। विद्वान लेखक ने इसे अष्टकोणों से अष्टभुजी बनाया है। महानिर्वाणतंत्र के अनुसार आठों दिशाएँ आठ रंगों से सम्बन्धित है। लोक की अवधारणा दिशाओं से जुड़ी हुई है। संस्कृति के रंग अनेक है। अष्टकोणों से चतुष्कोण, चतुष्कोण से वृत एंव वृत से बिन्दु का एक रेखगणित बनता है। बिन्दु से वृत की ओर   और वृत से बिन्दु की ओर प्रसारित होना संस्कृति के अप एंव अभिकेन्द्रित विकास की स्वाभाविक   प्रक्रिया है। इन दोनों प्रक्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में बुन्देलखण्ड के आकाश और काल को पढ़ा जा सकता है, परंतु बुन्देलखण्ड के आकाश और काल की कोई पृथक सता नहीं है।   अत: किसी भी चतुर पाठक को इस पुस्तक को पढ़ने से ऐसा अनुभव होगा कि लोक-संस्कृति का यह चित्र भारत के किसी भी क्षेत्र के लिए अथवा किसी भी अन्य लोक-संस्कृति के लिए उतना ही सत्य है जितना   बुंदेलखण्ड के लिए।

इस महत्वपूर्ण पुस्तक के चयन के लिए श्री वैद्यनाथ सरस्वती का और प्रकाशन के लिए श्री अशोक महेश्वरी का मैं व्यकितगत रुप से आभारीव हूँ।

  कपिला वात्स्यायन

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५ 

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