बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास

नर्मदा प्रसाद गुप्त

भूमिका


भावात्मक दृष्टि से लोक-संस्कृति और उसके विभिन्न पक्षों के अनेक अध्ययन हुए हैं अब उन्हें विश्लेषणात्मक दृष्टि ,से देखा जा रहा है और उनमें नए अर्थीं और मूल्यों की तलाश की जा रही है। पहले प्रयत्न था इस सांस्कृतिक सम्पदा के विलुप्त होने की आशंका को ध्यान में रख उसका दस्तावेजीकरण कर लेने का-मौखिक साहित्य लीपीबद्ध किया गया, उसके कुछ अंशों का ध्वीन-मुद्रण किया गया, दैनिक जीवन और विशेष पर्वों?, उत्सवों और संस्कारों-समारोहों का फिलमीकरण किया गया । भौतिक संस्कृति के उपादानों को वर्गीकृत   कर उनसे लोकजीवन के अच्छे संग्रहालय बनाए गए । स्कैण्डिनेविया के देशों-विशेषकर नार्वे, स्वीडन और डेनमार्क-में कुछ प्राचीन ग्रामों और उनकी भौतिक संस्कृति की पुनर्रचना कर उन्हें आनेवाली   पीढियों के लिए सुरक्षित रखा गया । हवाई द्वीप में एक पैसिफिक केन्द्र बनाया गया है जिसमें प्रशान्त महासागर के द्वीपों के निवासियों के घर, उनके दैनिक जीवन में काम आनेवाली सामग्री आदि को वहाँ के लोगों ने सँजोया है जो स्वयं वहाँ अस्थायी रुप से रहते हैं । हर संध्या उनके नृत्य और संगीत के कार्यक्रम होते हैं और   यात्रियों को वहाँ का पारम्परिक भोजन   भी उपलब्ध कराया जाता है । ये संरक्षण और संवर्धन के उल्लेखनीय प्रयोग माने जा सकते हैं जो लोक-संस्कृतियों की एक झाँकी भी प्रस्तुत करते हैं । नयी अध्ययन-विधियों का लक्ष्य कुछ और है। वे मानसिकताओं के प्रामाणिक प्रतिरुपों की स्थापना करने में प्रयत्नरत हैं और मानव मस्तिष्क के आन्तरिक स्थानों (स्पेसेज) की समझ के उपाय खोज रही है ।

सांस्कृतिक सम्पदा   के रुप में साहित्य के मौखिक रुपों के विराट संग्रह किए गए है, जिनके एक भाग का प्रकाशन भी हुआ है । लोकगीतों लोककथाओं , कहावतों और पहेलियों के संग्रह अधिक हुए हैं; कुछ वीर गाथाओं के क्षेत्रीय रुपों के संग्रह   भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए किए गए है । अधिक प्रयत्न उनके साहित्यिक मुल्यांकन का ही हुआ है, जिनमें अधिकांशत: सामान्य धरातल पर उनका भावनात्मक   गुण-वर्णन किया गया था ।

नृतत्त्ववेत्ताओं और समाजशास्रियों ने लोकवार्ता को जीवन के संदर्भों से जोड़ा है । उनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र थे-उत्पत्ति सम्बन्धी मिथक, मिथक और संस्कारों के सम्बन्ध, समाजीकरण और व्यक्तित्व निर्माण में मौखिक साहित्य की भूमिका ।

मौखिक साहित्य के संकलन का काम पहले तो बड़े जोर-शोर से हुआ पर बाद में उसमें शिथिलता आ गयी । यदा-कदा विश्वविद्यालयों में उस पर शोध-प्रबंध भले ही लिखे जाते रहे पर उनमें भी नयी दृष्टि का अभाव था । योजनाबद्ध ढंग से तो काम हुआ ही नहीं । क्षेत्रीय कला केन्द्र मुख्यत: प्रदर्शन कार्यों में ही लगे रहे । नृतत्त्व विज्ञान और   समाज विज्ञान ने लोक-संस्कृतियों के उनके समग्र रुप में अध्ययन से ध्यान हटा लिया । एक उल्लेखनीय अपवाद है इन्दिरा   गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र का ठजनपद सम्पदा' एकांश जहाँ डॉ. कपिला वात्स्यायन   के दूरदर्शी नेतृत्व और डॉ. वैद्यनाथ सरस्वती के सुयोग्य निर्देशन में    लोक-संस्कृति के प्रकट और प्रच्छन्न आयामों पर सार्थक काम हो रहा है ।    

इस क्षेत्र में, पिछले दशकों में, अध्ययन की नयी रुचीयाँ उभरी हैं और शोध-विधि में तीक्ष्णता आयी है । संसार में अब ठप्राथमिक मौखिकता संस्कृतियाँ'-वे जिनका साक्षर संस्कृतियों से कोई सम्पर्क ही न हो-बहुत कम बची हैं किन्तु साक्षरताविहीन   संस्कृतियाँ अनेक हैं । मौखिकता की   प्रकृति और उसके प्रभावों के गम्भीर अध्ययन हो रहे हैं । वह संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को किस तरह प्रभावित करती है ? समाज में संरचनात्मक और संवेदनात्मक परिवर्तनों का मौखिकता पर क्या प्रभाव पड़ता है   ?   मौखिकता और साक्षरता के सहअस्तित्व के सांस्कृतिक परिणाम क्या होते हैं ?   मौखिकता परम्परा और इतिहास के अन्त:सम्बन्धों पर भी गहरा विचार हो रहा है । नए इतिहास लेखन में मौखिक स्रोतों का प्रयोग एक नयी प्रवृत्ति है । साहित्यिक   अध्ययनों में मौखिक और लिपिबद्ध साहित्य का पारस्परिक आदान-प्रदान पर भी खोज चल रही है । क्या होमर की रचना ठइलियाड' का मूलपाठ मौखिक था ? क्या पंचतंत्र की कहानियों के लेखक विष्णु शर्मा थे ?   क्या हितोपदेश, कथा सरित्सागर, सहस्त्ररजनी चरित्र अपने मौखिक रुप से लिपिबद्ध किए गए थे ? अधिक गम्भीर धरातल, विचार-प्रक्रियाओं की संरचना और लोकवार्ता के विविध

रुपों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा रहा है । ये प्रयत्न अभी अपनी आरंभिक स्थिति में हैं, पर उनमें सम्भावनाएँ हैं ।

       एक बार फिर लोक-संस्कृतियों के समग्र अध्ययन के प्रयत्न आरंभ हो गए है। डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त की प्रस्तुत पुस्तक इसी श्रेणी की है । यह मूलत: मौखिक स्रोतों के आधार पर   लिखी गयी है, पर इसमें पुरातात्विक और ऐतिहासिक सामग्री का भी उपयोग किया गया है । यह सामाजिक इतिहास है जिसमें न कालानुक्रम महत्त्वपूर्ण है, न राजा-रानी, न युद्ध में जय-पराजय । लोकाचार, समूहों के अन्त:संबंध, पारिवारिक जीवन आदि इसमें अच्छी तरह उभरे हैं । महुआ और बेर के प्रदेश के नायक-आल्हा-ऊदल, लाला हरदौल-इसमें विराट रुप में आए हैं । मनियाँ देव या मनियाँ देवी के प्रश्न पर भी विचार हुआ है, जिससे एक महत्त्वपूर्ण जातीय उद्गम की समस्या जुड़ी है । यह अपने ढ़ग का पहला ग्रन्थ है; इसके समकक्ष अन्य प्रकाशन मैंने नहीं देखा । इसका ऐतिहासिक महत्त्व होगा ।

       डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त अत्यंत समर्पित और प्रतिबद्ध शोध-कर्मी हैं । सीमित साधनों से वे वर्षीं से बुन्देली भाषा और साहित्य का अनुशीलन और प्रकाशन कर रहे हैं । वे परिचर्चाएँ आयोजित करते हैं । प्रमुख लेखकों का सम्मान करते हैं, एक शोध-पत्रिका प्रकाशित करते हैं। आशा है, उनकी इस पुस्तक का सम्सान होगा और क्षेत्रिय साहित्यों के इतिहास-लेखकों में वे प्रथम पंक्ति में स्थान पाएँगे ।

                                                                -श्यामाचरण दुबे

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५ 

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