बुन्देल खण्ड
की लोक संस्कृति का इतिहास |
नर्मदा प्रसाद गुप्त |
परिचय बुंदेलखंड का सीमांकन |
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सीमांकन से मेरा तात्पर्य किसी ऐसी कृत्रिम रेखा खींचने से नहीं है, जो किसी राजनीतिक और विधिविहित दृष्टिकोण से नियमित की गयी हो, वरन् ऐसे प्राकृतिक सीमांत से है, जो उस क्षेत्र के ऐतिहासिक परिवेश, संस्कृति और भाषा के अद्भुत ऐक्य को सुरक्षित रखते हुए उसे दूसरे जनपदों से अलग करता हो । राजनीतिक भूगोल के विद्वानों ने सीमांत और सीमा के अंतर को भलीभाँति स्पष्ट किया है ।-१ भौगोलिक सरणियों के प्रति मेरा कोई विशेष आग्रह नहीं है, फिर भी जनपद की एकरुपता के अध्ययन में उसकी प्राकृतिक विशेषताएँ-स्थिति, धरातलीय बनावट, जलवायु आदि सहायक होति हैं । प्रत्येक जनपद भौगोलिक के साथ-साथ ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाई भी होता है । इस दृष्टि से सीमांकन के तीन आधार प्रमुख हो जाते हैं-भु-आकारिक, प्रजातीय और कृत्रिम । भू-आकारिक आधार पर सीमा का निर्धारण पर्वत, नदी, झील आदि से होता है, क्योंकि वे अधिक स्थायी अवरोधक होते हैं । उदाहरण के लिए, बुंदेलखंड के दक्षिण में महादेव, मैकल ऐसे पर्वत हैं जिनको पार करना प्राचीन काल में अत्यंत कठिन था और उत्तर-पश्चिम में भी चंबल के खारों और बीहड़ों की एक प्राकृतिक रुकावट विद्यमान थी । प्रजातीय आधार में जाति, भाषा, संस्कृति और धर्म अर्थात् पूरा सांस्कृतिक वातावरण समाहित है । कभी-कभी जनपद की सांस्कृतिक इकाई भू-आकारिक सीमा को पार कर जाती है, किंतु उसके कुछ ठोस कारण होते हैं । कृत्रिम आधार से मेरा तात्पर्य उन सीमाओं से है, जिन्हें व्यक्ति राजनीतिक सुविधा के लिए स्वयं खींचता है अथवा जो दो भु-भागों के बीच समझौते या संधि से अंकित की जाति हैं । बुंदेलखंड के सीमांकन में इस आधार का महत्त्व नहीं है । जनपद भूखंड की एक ऐसी इकाई है, जो उसके निवासियों के विविध संस्कारों की समानता और एकता से निर्मित होती है । संभवत: इसी वास्तविकता के आधार पर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने प्राचीन काल के जनपद को एक सांस्कृतिक भौगोलिक इकाई की संज्ञा से अभिहित किया है ।-५ वैसे नर्मदा और चंबल घाटी तथा अटवी की सभ्यता बहुत पुरानी है, किंतु जनपदीय चेतना का उदय रामायण और महाभारत-काल से हो चुका था । महाभारत और जनपद-काल का चेदि इसी प्रकार का जनपद था, जिसका समीकरण पार्जिटर ने वर्तमान बुंदेलखंड से किया है। उनके मतानुसार चेदि देश उत्तर में यमुना का दक्षिणी तट से दक्षिण में मालवा के पठार और बुंदेलखंड की पहाड़ियों तक तथा दक्षिण-पूर्व में चित्रकूट के उत्तर-पूर्व में बहने वाली कार्वी नदी से उत्तर-पश्चिम में चंबल नदी तक प्रसारित विस्तृत प्रदेश का नाम था ।-६ डॉ. वी. वी. मिराशी के अनुसार मध्यकाल में उसका विस्तार नर्मदा तक हो गया था । अधिकांश इतिहासकारों ने इस सीमांकन को सही माना है। कुछ इतिहासकार प्राचीन जनपदों के सीमांकन का आधार सांस्कृतिक मानते हैं; लेकिन महाभारतकालीन युद्धों से प्रकट है कि जनपद की सीमाओं का विस्तार राजा और सेना पर निर्भर होता था, संस्कृति के प्रसार-प्रचार पर नहीं । अतएव उसे किस सीमा तक सांस्कृतिक माना जाय, एक टेढ़ा प्रश्न है । फिर भी इन जनपदों में लोकरुचि मूल्यवान् समझी जाती थी और गणराज्यों में गण-परिषद् राजा को पदच्युत कि सकती थी, इस दृष्टि से जनपद को लोकरुची और लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि प्रदेश माना जा सकता है । जनपदों के पतन के बाद सांस्कृतिक आधार निर्बल पड़ता गया और राजनीतिक आधार प्रधान होता गया । चंदेलकाल में जेजाभुक्ति (जिसका समीकरण बुंदेलखंड से किया गया है) की सीमाएँ वर्तमान बुंदेलखंड से विस्तृत थीं । चंदेलों के राज्य में ऐसे भी क्षेत्र थे, जो भिन्न लोकसंस्कृति के थे और जिनकी लोकभाषा बुंदेली न होकर बघेली, कन्नौजी और ब्रजी थी । इसी प्रकार महाराजा छत्रसाल बुंदेला की राज्य-सीमा को यथावत् बुंदेलखंड की सीमा मानना उचित नहीं है, जबकि इंडियन गजेटियर्स में उन्हीं को स्वीकार किया गया है । इतिहासकारों ने भी इसी सीमांकन को दुहराया है । दीवान प्रतिपाल सिंह के अनुसार पूर्व में टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखंड या रीवाँ राज्य है तथा बनारस के निकट बुंदेला नाले तक सिलसिला चला गया है । पश्चिम में बेतवा, सिंध और चंबल नदियाँ, विंध्याचल श्रेणी तथा मालवा, सिंधिया का ग्वालियर राज्य और भोपाल राज्य हैं तथा पूर्वी मालवा इसी में आता है । उत्तर में यमुना और गंगा नदियाँ अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर तथा बनारस के जिले हैं, दक्षिण में नर्मदा नदी और मालवा हैं ।-७ दीवान जू ने बुंदेलखंड की बृहत्तर मूर्ति की रचना की है । पं. गोरेलाल तिवारी ने निर्णय लिया है-" इस भू-भाग के उत्तर में यमुना का प्रचंड प्रवाह, पश्चिम में मंद-मंद बहने वाली चंबल और सिंध नदियाँ, दक्षिण में नर्मदा नदी और पूर्व में बघेलखंड है।" -८ वास्तव में इन सीमा-नीर्धारणों में ऐतिहासिक-राजनीतिक दृष्टिकोण ही प्रमुख रहा है । आगे चलकर प्रांतीय राजनीति के आधार पर बुंदेलखंड की इकाई को टुकड़ों में विभाजित किया गया है । प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् कनिंघम ने भी सीमा-निर्धारण का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार " बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चंदेरी और सागर के जिलें सहित विंध्यवासिनी देवी के मंदिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्लहारी तक प्रसरित था, रहा है" ।-९ लेकिन इस सीमांकन में चंदेलकालीन मूर्तिकला और स्थापत्य का आधार ही मुख्य प्रतीत होता है । इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने भी इसी सीमा को मान्यता प्रदान की है । -१० परंतु उनका आधार भी चंदेलों की राज्यसीमा है, जो बृहत्तर बुंदेलखंड का चित्र खड़ा करती है । जनपदीय भाषा या बोली, जनपद की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की मध्यम होती है । लोकसंस्कृति गतिशील होती है, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन स्वाभाविक है, लेकिन लोकभाषा जनपद के इतिहास और संस्कृति की सतत् साक्षी होती है, इसलिए जनपद की सीमाएँ लोकभाषा के क्षेत्र से निर्धारित करना उचित है । सर्वप्रथम विलियम कैरे ने, जो १७९३ ई. में भारत आए थे, अपने भाषा-सर्वेक्षण के प्रतिवेदन में ३३ भारतीय भाषाओं की सूची में बुंदेलखंडी पर भी विचार किया था और उसका नमूना भी दिया था ।-११ सन् १८३८ से १८४३ ई. के बीच मे राबर्ट लीच ने बुंदेलखंड की हिन्दवी बोली के व्याकरण का निर्माण किया था ।-१२ उपरांत सर जार्ज ए. ग्रियर्सन ने बुंदेलखंडी पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया और प्रत्येक क्षेत्र की बुंदेली भाषा पर वीचार करते हुए बुंदेली की सीमाएँ खोजीं । उनके अनुसार बुंदेली भाषा का क्षेत्र बुंदेलखंड के राजनीतिक क्षेत्र से मिलता-जुलता नहीं है । वह उत्तर में चंबल नदी के उस पार आगरा, मैनपुरी, इटावा जिलों के दक्षिणी भागों तक; पश्चिम में चंबल नदी तक न होकर पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर और दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर रऔर दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी भागों, नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर, होशंगाबाद सिवनी जिलों तथा बालाघाट और छिंदवाड़ा के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ है । पुर्व में पुरे बाँदा जिले की भाषा बुंदेली नहीं है ।-१३ श्री कृष्णानंद गुप्त ने इसी सीमांकन का अनुसरण किया है ।-१४ किंतु डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने और भी विस्तार कर दिया है । उन्होंने उत्तर में पूरा मुरैना जिला, पश्चिम में शिवपुरी और गुना के पूरे जिले तथा दक्षिण में बैतूल जिला अर्थात् ताप्ती नदी की तटीय सीमा तक का पूरा क्षेत्र बुंदेली क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया है ।-१५ इसी प्रकार डॉ. महेशप्रसाद जायसवाल ने मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले का कुछ भाग, उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले का कुछ भाग और महाराष्ट्र के चाँदा, बुल्डाना, भंडारा, अकोला जिलों के भागों को भी समाविष्ट कर लिया है ।-१६ भाषाविद् डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. हरदेव बाहरी आदि ने ग्रियर्सन की सीमाओं को ही मान्यता दी है ।-१७ वास्तव में, ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के बाद कोई दूसरा योजनाबद्ध प्रयत्न नहीं किया गया । ग्रियर्सन के सर्वेक्षण पर ध्यान दिया जाय, तो उस योजना में तीन प्रकार के नमूनों का जिला-अधिकारियों, राजनीतिक प्रतिनिधियों आदि के द्वारा संग्रह, ब्रिटिश तथा बाइबिल सोसाइटी के मिशनरियों और स्थानीय मिशनरियों के द्वारा अनुवाद, अनुवाद के नमूने के लिए बाइबिल के ` प्राडीगल सन' की कथा का अंश, समस्त नमूनों में से महत्त्वपूर्ण नमूने का चुनाव-१८ आदि कुछ ऐसी कठिनाइयाँ थीं, जिनसे सही निर्णयों तक पहुँचना किस सीमा तक संभव हो सकता है, विचारणीय विषय है ।-१९ स्वयं ग्रियर्सन ने एक कठिनाई का उदाहरण देकर इसे स्पष्ट किया है । वस्तुत: नमूनों को मँगाकर और उनका चयन कर किसी भाषा का अध्ययन उपयोगी नहीं है, वरन् भाषाविदों का उसी क्षेत्र में जाकर सर्वेक्षण करना आवश्यक है । समशीला इकाई की खोज बुंदेलखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है । भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट हैं, और भौतिक तथा सांस्कृतिक रुप में निश्चित हैं । वह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार की समानता और जलवायु की समता है, वरन् उसके इतिहास, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता का आधार भी एक ही है । वास्तव में समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है ।-२० यदि हम भौगोलिक दृष्टि से इस जनपद का अध्ययन करें, तो यह सिद्ध हो जाएगा कि यह एक भौगोलिक प्रदेश है । यहाँ हम भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषिक दृष्टियों को एक साथ लेकर सीमांकन का प्रयास करेंगे । बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना नदी है और इस सीमारेखा को भूगोलविदों, इतिहासकारों, भाषाविदों आदि सभी ने स्वीकार किया है । पश्चिमी सीमा-चम्बल नदी को भी अधिकांश वीद्वानों ने माना है, परंतु ऊपरी चम्बल इस प्रदेश से बहुत दूर हो जाती है और निचली चम्बल इसके निकट पड़ती है । वस्तुत: मध्य और निचली चम्बल के दक्षिण में स्थित मध्यप्रदेश के मुरैना और भिण्ड जिलों में बुंदेली संस्कृति और भाषा का मानक रुप समाप्त-सा हो जाता है । चम्बल के उस पार इटावा, मैनपुरी, आगरा जिलों के दक्षणी भागों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । भाषा और संस्कृति की दृष्टि से ग्वालियर और शिवपुरी का पूर्वी भाग बुंदेलखंड में आता है और साथ ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले से लगा हुआ भिण्ड का पूर्वी हिस्सा (लहर तहसील का दक्षिणी भाग) भी, जिसे भूगोलविदों ने बुंदेलखंड क्षेत्र में सम्मिलित किया है । अतएव इस प्रदेश की उत्तर-पशचिम सीमा में मुरैना और शिवपुरी के पठार तथा चम्बल-सिंध जलविभाजक, जोकि उच्च साभूमि है, आते हैं । वास्तव में, यह सीमा सिंध के निचले बेसिन तक जाती है और वह स्थायी अवरोधक नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि चम्बल और कुमारी नदियों के खारों और बीहड़ों तथा दुर्गम भागों के कारण एवं मुरैना और शिवपुरी के घने जगलों के होने से बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार उस पार नहीं जा सका । बुंदेलखंड का पश्चिमी सीमा पर ऊपरी बेतवा और ऊपरी सिंध नदियाँ तथा सीहोर से उत्तर में गुना और शिवपुरी तक फैला मध्यभारत का पठार है । मध्यभारत के पठार के समानांतर विध्यश्रेणियाँ भोपाल से लेकर गुना तथा शिवपुरी के कुछ भाग तक फैली हुई हैं और अवरोधक का कार्य करती हैं ।-२१ इस प्रकार पश्चिम में रायसेन जिले की रायसेन और गौहरगंज तहसीलों के पूर्वी भाग, विदिशा जिले की विदिशा, बासौदा और सिरोंज तहसीलों के पूर्वी भाग; जिनकी सीमा बेतवा बनाती है; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तथा शिवपुरी की पिछोर और करैरा तहसीलें, जिनकी सीमा अपर सिंध बनाती है, बुंदेलखंड के पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र हैं । इनमें विदिशा और पद्मावती (पवायाँ) के क्षेत्र इतिहासप्रसिद्ध रहे हैं । विदिशा दशार्णी संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है । वैदिश और पद्मावती कै नागों की संस्कृति बुंदेलखंड के एक बड़े भू-भाग में प्रसरित रही है । चंदेलों के समय वे इस जनपद के अंग रहे हैं । सिद्ध है कि इन क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा जितनी इस जनपद से मेल खाती है, उतना ही उनका प्राकृतिक परिवेश और वातावरण । भौतिक भूगोल में बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा विंध्यपहाड़ी श्रेणियाँ बताई गयी हैं, जो नर्मदा नदी के उत्तर में फैली हुई हैं ।-२२ लेकिन संस्कृति और भाषा की दृष्टि से यह उपयुक्त नहीं है, क्येंकि सागर प्लेटो के दक्षिण-पूर्व से जनपदीय संस्कृति और भाषा का प्रसार विंध्य-श्रेणियों के दक्षिण में हुआ है । इतिहासकारों ने नर्मदा नदी को दक्षिणी सीमा मान लिया है, संभवत: छत्रसाल बुंदेला की राज्य-सीमा को केन्द्र में रखकर; लेकिन जनपदीय संस्कृति और भाषा विंध्य-श्रेणियों और नर्मदा नदी से प्राकृतिक अवरोधक पार कर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिलों तक पहुँच गई है । भूगोलवेत्ता सर थामस होल्डिच के अनुसार सभी प्राकृतिक तत्त्वों में एक निश्चित जलविभाजक रेखा, जो एक विशिष्ट पर्वतश्रेणी द्वारा निर्धारित होती है, अधिक स्थायी और सही होती है ।-२३ अतएव प्रदेश की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी (गोंडवाना हिल्स) और दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी उचित ठहरती है । इस आधार पर होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें तथा नरसिंहपुर का पूरा जिला बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । कुछ भाषाविदों ने इन क्षेत्रों के दक्षिण में बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट और मंडला जिलों अथवा उनके कुछ भागों को भी सम्मिलित कर लिया है, पर उनकी भाषा शुद्ध बुंदेली नहीं है, और न ही उनकी संस्कृति बुंदेलखंड से मेल खाती है । इतना अवश्य है कि बुंदेली संस्कृति और भाषा का यत्किचिंत प्रभाव उन पर पड़ा है । ऊँचाई पर श्थित होने से कारण वे पृथक् हो गये हैं । महादेव-मैकल पर्वतश्रेणियाँ उन्हें कई स्थलों पर अलग करती हैं और अवरोधक सिद्ध हुई हैं । दक्षिणी सीमा के संबंध में एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि विंधयश्रेणियों और नर्मदा नदी को पार कर बुंदेली संस्कृति और भाषा यहाँ कैसे आई ? इस समस्या का उत्तरह इतिहास में खोजा जा सकता है । इतिहासकार डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि भारशिवों (नवनागों) और वाकगटकों के इस क्षेत्र में बसने से कारण दक्षिण के इस भाग का संबंध बुंदेलखंड से इतना घनिष्ट हो गया था कि दोनों मिलकर एक हो गये थे और उस समय इन दोनों प्रदेशों में जो एकता स्थापित हुई थी, वह आज तक बराबर चली आ रही है । साठ वर्षीं तक नागों के यहाँ रहने के इतिहास के यह परिणाम निकला है कि यहाँ के निवासी भाषा और संस्कृति के विचार से पूरे उत्तरी हो गये हैं ।-२४ गुप्तों के समय वाकाटक भी यहाँ रहे। कुछ विद्वान् झाँसी जिले के बागाट या बाघाट को, जो बिजौर या बीजौर के पास है, वाकाटकों का आदिस्थान सिद्ध करते हैं, जबकि कुछ इतिहासकार पुराणों में कथित किलकिला प्रदेश का समीकरण पन्ना प्रदेश से करते हुए उसे वाकाटकों की आदि भूमि मानते हैं । वाकाटकों के बाद जेजाभुक्ति के चंदेलों और त्रिपुरी के कलचुरियों के राज्यकाल में भी यह क्षेत्र बुंदेलखंड से जुड़ा रहा । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की दक्षिणी सीमा महादेव पर्वतश्रेणी की गोंडवाना हिल्स है, जो जबलपुर के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी से मिल जाती है । बुंदेलखंड के पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणियाँ, भानरेर श्रेणियाँ, कैमूर श्रेणियाँ और निचली केन नदी है । दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वत है, इस कारण नरसिंहपुर जिले के पूर्व में स्थित जबलपुर जिले के दक्षिण-पश्चिमी समतल भाग अर्थात् पाटन और जबलपुर तहसीलों का दक्षिण-पश्चिमी भाग बुंदेलखंड के अंतर्गत आ गया है । उनकी भाषा और संस्कृति बुंदेली के अधिक निकट है, किंतु दमोह पठार के दक्षिण-पूर्व में स्थित भानरेर रेंज पाटन और जबलपुर तहसीलों के उत्तरी और उत्तरपूर्वी भागों को बुंदेलखंड से विलग कर देती है । भानरेर श्रेणियों के उत्तर-पूर्व में कैमूर श्रेणियाँ स्थित हैं, जिनके पश्चिम में स्थित पन्ना बुंदेलखंड में है और पूर्व में बघेलखंड है । पन्ना जिले की तहसीलों पवई और पन्ना के पूर्व सँकरी पट्टी में बुंदेली भाषा और संस्कृति का प्रसार है । टोंस और सोन नदियों के उद्गम का भूभाग दक्षिण-पश्चिम की उस संस्कृति से अधिक प्रभावित है, -२५ जो कि बुंदेलखंड से मिलती-जुलती है । पन्ना जिले के उत्तर में पन्ना-अजयगढ़ की पहाड़ियों का सिलसिला चित्रकूट तक चला गया है । इसलिए बाँदा जिले का वह भाग जो छतरपुर जिले के उत्तर-पूर्वी कोने और पन्ना जिले के उत्तरी कोने से बिलकुल सटा हुआ है, जो उत्तर में गौरिहार (जिला-छतरपुर) से लेकर चित्रकूट (जिला-बाँदा) तक पहाड़ी क्षेत्र की एक सीमा-रेखा बनाता है और जिसके उत्तर में बाँदा का मैदानी भाग प्रारम्भ हो जाता है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । बाँदा जिले का शेष मैदानी भाग उससे बाहर पड़ जाता है । इस तरह बुंदेलखंड की उत्तर-पूर्वी सीमा निचली केन बनाती है । भू-संरचना और राजनीति की दृष्टि से बाँदा जिला बुंदेलखंड का एक भाग माना गया है, पर उसके अधिकांश भाग की भाषा बुंदेली नहीं है और उसकी संस्कृति बुंदेली संस्कृति से कुछ बातों में भिन्न है । प्राचीन काल में बाँदा चेदि में सम्मिलित नहीं था, भारशिवों और नवनागों के साम्राज्य से बाहर था और वाकाटकों की संस्कृति यहाँ तक पहुँच नहीं पाई; किंतु उसका कालिंजर से लेकर चित्रकूट तक का भाग बहुत प्राचीन समय से ही इस संस्कृति का अंग रहा है । बाँदा के उत्तर-पूर्व में चिल्ला नामक ग्राम में आल्हा-ऊदल का निवास खोजा गया है ।-२६ विंध्यवासिनी देवी का मंदिर बुंदेलों का तीर्थस्थल रहा है । चंदेलों के समय बाँदा का अधिकांश भाग बुंदेली प्रभाव में रहा और बुंदेलों ने भी टोंस नदी तक अपना शासन फैलाया । संभवत: इसी कारण बाँदा जिले से उत्तर-पश्चिमी भाग में भी बुंदेली भाषा और संस्कृति की पैठ है । इस प्रकार बुंदेलखंड के उत्तर-पूर्व में निचली केन नदी की तटीय पट्टी का क्षेत्र, बाँदा जिले से नरैनी और करबी तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, सम्मिलित है। पूर्व में पन्ना और दमोह जिले तथा दक्षिण-पूर्व में जबलपुर जिले की पाटन और जबलपुर तहसीलों का क्रमश: दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग, जो मैकल श्रेणियों तक चला गया है, बुंदेलखंड में आता है । इसके अतिरिक्त सोन और टोंस की उद्गम घाटी, जो नर्मदा की तरफ दक्षिण की ओर खुलती है और जिसमें पाटन, जबलपुर, सिहोरा और मुड़वारा तहसीलों की लंबी-सी पट्टी का क्षेत्र है, बुंदेलखंड के अंतर्गत आता है । उपर्युक्त आधार पर बुंदेलखंड प्रदेश में निम्नलिखित जिले और उनके भाग आते हैं और उनसे इस प्रदेश की एक भौगोलिक, भाषिक एवं सांस्कृतिक इकाई बनती है । (१) उत्तर प्रदेश के जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर जिले और बाँदा जिले की नरैनी एवं करबी तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग । (२) मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलेतथा जबलपुर जिले की जबलपुर एवं पाटन तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग; होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें; रायसेन जिले की उदयपुर, सिलवानी, गौरतगंज, बेगमगंज, बरेली तहसीलें एवं रायसेन, गौहरगंज तहसीलों का पूर्वी भाग; विदिशा जिले की कुरवई तहसील और विदिशा, बासौदा, सिरोंज तहसीलों के पुर्वी भाग; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तहसीलों; शिवपुरी जिले की पिछोर और करैरा तहसीलें, ग्वालियर की पिछोर, भांडेर तहसीलों और ग्वालियर गिर्द का उत्तर-पूर्वी भाग; किंभड जिले की लहर तहसील का दक्षिणी भाग । उपर्युक्त भूभाग कै अतिरिक्त उसके चारों ओर की पेटी मिश्रित भाषा और संस्कृति की है, अतएव उसे किसी इकाई के साथ रखना ही होगा । इस कारण जो जिले (जिनके भूभाग विशुद्ध इकाई में सम्मिलित हैं) अपने को बुंदेलखंड का अंग मानते हैं, उन्हें बुंदेलखंड में सम्मिलित किया जा सकता है । ऐसे जिलों में बाँदा, जबलपुर और गुना तो आते हैं, पर अन्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । मैंने तो हाण विशुद्ध इकाई को ही महत्त्व दिया है । जिलों को सामने रखकर समझने में भले ही कुछ उलझन-सी लगे, पर प्रदेश की सीमारेखाएँ बिल्कुल स्पष्ट और अधिकतर प्राकृतिक हैं, जैसी मानचित्र में अंकित की गई हैं । उत्तर में यमुना नदी; दक्षिण में महादेव पर्वत (गोंडवाना श्रेणियाँ); उत्तर-पूर्व में निचली केन नदी, पूर्व में कैमूर और भानरेर श्रेणियाँ, दक्षिण-पूर्व में मैकल पर्वतश्रेणी; उत्तर-पश्चिम में चंबल और सिंध नदियों के बीच का जलविभाजक तथा मुरैना और शिवपुरी के पठार, पश्चिम में ऊपरी बेतवा और सिंध नदियाँ तथा मध्यभारत का पठार एवं विंध्यश्रेणियाँ । .यह सुस्पष्ट और प्रकृत सीमा सभी दृष्टियों से एक जनपदीय इकाई का निश्चित रेखांकन करती है और मैं समझता हूँ कि यह सीमांकन बुंदेलखंड के सीमा-विवादों में उलझे शोधकर्ताओं को एक निश्चित दिशा देगा । संदर्भ-संकेत १. सिस्टेमैटिक पॉलिटिकल ज्यॉग्रफी, एच. जे. डे. ब्लिज, १९६६, पृ. २१२ २. दि ज्यॉग्रफी आॅफ दि पुरानाज़, अस. एम. अली. १९६६, पृ. १५९-६० ३. भारतभूमि और उसके निवासी, जयचंद्र विद्यालंकार, १९३१. पृ. ६५ ४. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ५९७ ५. मार्कण्डेय पुराण (एक सांस्कृतिक अध्ययन), वासुदेव शरण अग्रवाल, १९६१. पृ. १५२ ६. मार्कण्डेय पुराण (अंग्रेजी अनुवाद), एफ. ई. पार्जिटर, पृ. ३५९ ७. बुदेलखंड का इतिहास, प्रथम भाग, दीवान प्रतिपाल सिंह, सं. १९८५, पृ. ५ ८. बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, गोरेलाल तिवारी, सं. १९९०, पृ. १ ९. दि ऐनशिएंट ज्यॉग्रफी आॅव इण्डिया, ए. कनिंघम, १९६३, पृ. ४०६ १०. एपिग्रैफिया इंडिका, भाग ३०, पृ. १३० ११. भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खंड १, भाग १, अनु. उदयनारायण तिवारी, १९५९, भूमिका, पृ. २४ १२. वही, पृ. २९ १३. लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया, वाल्युम ९, प्रथम संस्करण, ग्रियर्सन, पृ. ८६ १४. बुंदेलखंडी भाषा और साहित्य, कृष्णानंद गुप्त, १९६०, पृ. २ १५. बुंदेली का भाषाशास्रीय अध्ययन, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, १९६३, पृ. एवं भाषा क्षेत्र का मानचित्र। १६. ए लिंग्विस्टिक स्टडी आॅव बुंदेली, डॉ. एम. पी. जायसवाल, १९६२, इंट्रोडक्शन, पृ. ३ १७. हिंदी भाषा का उद्गम ओर विकास, सं. २०२६, पृ. २५४ एवं हिंदी : उद्भव, विकास और रुप, १९७० ई. पृ. ८५ । १८. भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खंड १, भाग १, अनु. उदयनारायण तिवारी, १९५९, भूमिका, पृ. ३३-३९ १९. वही, पृ. ५६ २०. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ३६,६१५,६२० २१. वही. पृ. ५६८. पुराणों में इसे पारियात्र पर्वत कहा गया है । २२. वही, पृ. ६१५,६१९ २३. पॉलिटिकल ज्यॉग्रफी, पाउण्ड्स, पृ. ८२ में उद्धत पॉलिटिकल फंटियर्स एंड बाउंडरी मेकिंग,टी. ए. हेल्डिच । २४. अंधकार-युगीन भारत, डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल, अनु. रामचंद्र वर्मा, सं. १९९५, पृ. ८४-८५ २५. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, पृ. ६४४ २६. आर्केल्यॉजिकल सर्वे रिपेट्र्स, वाल्युम २१, ए. कर्निघम, पृ. ८१ |
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५
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