बुन्देल खण्ड
की लोक संस्कृति का इतिहास |
नर्मदा प्रसाद गुप्त |
स्वगत |
|
अपनी रचना के बारे
में क्या कहूँ ? कहने से कुछ बनता-बिगड़ता
नहीं । इस वजह से स्वगत या अपने आप
से कहना ज्यादा अच्छा है । यह सच है
कि मैंने बाबा तुलसी की तरह स्वान्त:सुखाय
कुछ भी नहीं लिखा । मेरी हर रचना
के पीछे कोई-न-कोई धक्का रहा
है । संघर्षों में जूझता जीवन कभी पटरी
पर रहता है, तो कभी पटरी से नीचे
। रास्ते में कुछ ऐसे अनुभव आते हैं,
जो यात्री को धकियाकर एक नयी दिशा
और नयी गति दे जाते हैं । मेरे सामने
ऐसी कई घटनाएँ घटी हैं, जिन्होंने मेरी
रचनाधर्मिता को जगाया है । एक-दो उदाहरण
तो दे ही सकता हूँ ।
प्रेरणा
की कोख ३५
वर्ष पहले की बात है । धवार गाँव
में 'ईसुरी-जयंती'
का समारोह । महापंडित
राहुल सांकृत्यायन और 'सरस्वती'
के संपादक श्रीनारायण चतुर्वेदी
के पधारने की आशा । संयोजक पं.
श्यामासुंदर बादल का आग्रह । आदरणीय
कृष्णानंद गुप्त
के पीछे मैं भी हो लिया । रास्ते में
मन-भर योजनाएँ, पर गाँव में हम
सिर्फ तीन-संयोजक, गुप्त जी और मैं
। ईसुरी के नाती पं. सुंदरलाल
शुक्ल आपबीती सुनाते रहे और
मंच पर फागों का रस बरसता
रहा । लेकिन कृष्णानंद जी बहुत परेशान
थे । कुटकी, डँस बिच्छू-सा डंक चुभोकर
सता रहे थे । रात-भर याद आते
रहे ईसुरी । उनकी फागों के प्रामाणिक
संकलन का संकल्प भी किया और 'ईसुरी-परिषद'
का भार अपने कंधों पर रख लिया । 'ईसरी-परिषद'
लोकसाहित्य या लोकवार्ता की अखिलभारतीय
संस्था बन गयी । अध्यक्ष थे प्रसिद्ध उपन्यासकार
वृंदावनलाल वर्मा और मंत्री बना
मैं । देश-भर के बड़े-बड़े विद्वान थे
उसकी कार्यसमिति में । मुझे बड़ा उत्साह
था । सोचा कि 'लोकवार्ता' फिर प्रकाशित
होने लगे, तो कई वर्षों से आया ठहराव
तो टूटे । कृष्णानंद जी संपादन के
लिए तैयार हो गये थे, पर वर्मा जी
ने मीठी-मीठी जलेबियाँ खिलाते
हुए मेरी मसीली बाहुओं का जोर
आजमाकर कहा था-'कृष्णानंद, लोकवार्ता
तौ तुमारी आय ।' इतना सुनते ही आदरणीय
तुरंत मुकर गये और उस पहेली का
व्यूह में आभिमन्यु की तरह फँसा मैं
भीतर-ही-भीतर जूझता खाली हाथ लौटा
था । मुझे अनमना देखकर पूज्य दद्दा (राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त) ने कहा था-'तुमें
हिंदी के नेता बननें कै लिखनै-पढ़नै....'
। फलस्वरुप ' आल्हा' की रचना हुई और
१९६२ ई. में उसका प्रकाशन भी हुआ । बीस
वर्ष का अंतराल जरुर आया, पर उस
व्यूह का एक द्वार फिर टूटा और 'मामुलिया'
का प्रकाशन शुरु हुआ ।
१९५८ ई. में एक धक्का और लगा । इलाहाबाद
में अखिलभारतीय लोकसंस्कृति सम्मेलन
था और उसके संयोजक डा. कृष्णदेव
उपाघ्याय ने बुंदेलखंड का प्रतिनिधित्व
करने के लिए मुझे कई बार लिखा था
। वहाँ बड़े-बड़े लोग थे और एक बड़े
व्यूह में मैं फँस गया । डॉ. प्रभाकर
माचंवे आये और पूछने लगे कि बुंदेलखंड
में कितना काम हुआ है और मैंने क्या
किया है मैं लज्जा से गड़ गया । मुझे
ऐसा लगा कि मेरा जनपद सबसे ज्यादा
पिछड़ा हुआ है और उसका जिम्मेदार
मैं हूँ । फिर एक संकल्प, और फिर एक
संघर्ष । मैं बुंदेलखंड के समूचे
व्यक्तित्व की खोज करुँगा, चाहे मूझे
उसी में जूझ जाना पड़े । लगभग १५-१६
वर्ष तक पुरानी पांडुलिपियों और
पुराने साहित्य की खोज, जिसके मंथन
से कई रत्न निकले,
जिनमें पहला
था
ग्यारह सौ पृष्ठीय
' बुदेलखंड का
साहित्यिक इतिहास' । इतिहास का अवगाहन पूरे व्यक्तित्व की खोज है । उसके व्यक्तित्व में आत्मसात् संस्कृति और लोकसंस्कृति के प्रवाह का मूल्यांकन है । लोकसंस्कृति के अध्ययन के दौरान मूझे ऐसा लगा कि लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति को बहुत पुराना और अपरिवर्तनीय मान लेने से तमाम भ्रांतियाँ अमरबेलि की तरह लोकसंस्कृति की छतनार विटपी को निगल रही हैं । अगति और जड़ता का इस मानसिकता से बचने के लिए लोकसंस्कृति के इतिहास की जरुरत थी । इसलिए 'बुदेलखंड की लोकसंस्कृति का इतिहास' लिखा गया । साधना
के आयाम
साधना की भूमि मन है और लोकसंस्कृति
की भूमि लोक । लोक और मन को जोड़कर
पहले लोकमन बनाना पड़ता है,
फिर लोकमन की आँखों से लोक को
देखना जरुरी होता है । विद्वानों का
मन लोकमन नहीं हो पाता, तो वे
लोक को शास्रीय आँखों से पढ़ते
हैं । लोक के स्तर पर उतरकर लोक के
मूल्यों और आचारों से भेंटना, बिना
किसी पूर्वाग्रह के उन्हें समझना और
फिर उनके वैविध्य में से समधर्मियों
का चयन करना एक लंबी प्रक्रिया है, जिसे
हर साधक अपनाता है । सबसे कठिन समस्या है-कल-निर्धारण और मैं यह कहना उचित समझता हूँ कि तत्कालीन ग्रंथों, सनदों, पटों, अभिलेखों, पत्रों, मूर्तियों, चित्रों, सती-स्तम्भों, सिक्कों आदि से तत्कालीन लोकसंस्कृति का चित्र मुखर हो जाता है । लोकसाक्ष्य भी प्रमुख माध्यम हैं । लोकगीत, लोकगाथाएँ, जनश्रुतियाँ, कहावतें आदि भी लोकसंस्कृति की कथा के सजीव पात्र हैं । इसके बावजूद मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि काल-निर्धारण मोटे तौर पर या स्थूल रुप में ही संभव होता है । तिथि के निर्धारण का प्रश्न नहीं रहता । यह भी स्पष्ट है कि जनपद का इतिहास और उसकी घटनाएँ, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थितियाँ तथा लोकमान्य परंपराएँ अधिक सहायक होती हैं । अठकोणी
योजना प्रस्तुत ग्रंथ को
आठ कोणों से अष्टभुजी बनाया गया
है । पहला कोण है-परिचय, जिसमें
बुंदेलखंड जनपद के सीमांकन की समस्या
हल करते हुए भौगोलिक, सांस्कृतिक
और भाषिक दृष्टियों से एक समशीला
इकाई की खोज की गयी है । साथ ही,
लोकसंस्कृति के उद्भव और विकास
का संक्षिप्त इतिहास दिया गया है, ताकि
इस जनपद की लोकसंस्कृति को उसकी
विकासमान दिशाओं के साथ समग्र रुप
में परखा जा सके । दूसरा कोण
सैद्धान्तिक है, जिसे चिंतन कहा गया
है । उसके अंतर्गत लोकदर्शन, लोकमूल्य,
लोकधर्म, और लोकविश्वास का सैद्धान्तिक
और ऐतिहासिक निरुपण है । लोकदर्शन
(फोकफिलासफी), लोकमूल्य (फोकवैल्यूज़)
और लोकधर्म (फोकरिलीजन)-तीनों
का विवेचन पहली बार किया गया
है । उनके स्वरुप, वैशिष्ट्य, उद्भव,
विकास और इतिहास
को प्रामाणिक साक्ष्यों के आधार पर
परखा गया है । लोकविश्वास के अंतर्गत
प्रचलित, अर्द्धप्रचलित और अप्रचलित लोकविश्वासों
की सूची दी गयी है । तीसरा कोण
आचरण का है, जिसके अंतर्गत लोकाचार,
लोकरंजन, भोजन-पेय और वस्राभरण
तथा लोकाभूषण की योजना है । लोकाचार
में लोकसंस्कारों, लोकरीतियों,
लोकप्रथाओं और लोकवर्जनाओं का क्रमिक
इतिहास है । उसके अंत में कुछ विशिष्ट
लोकाचार भी दिये गए हैं । लोकरंजन
में कलात्मक विनोदों को प्रमुख स्थान
मिला है । भोजन-पेय और वस्राभरण
में उनसे संबंधित लोकमान्यताएँ भी
दी गयी हैं । लोकाभूषण में जहाँ आभूषण
के स्वरुप का संकेत भी है । चौथे कोण-लोकदेवत्व
में लोकदेवता, लोकदेवी लक्ष्मी,
महोबा के मनियाँ देव और ओरछा
के गिवान हरदौल पर विचार किया
गया है । लोकदेवता में सभी का इतिहास
है, जबकि लोकदेवी लक्ष्मी में एक देवी
का । महोबा के मनियाँ देव एवं ओरछा
के दिवान हरदौल के देवत्व को
सही रुप में रेखंकित करने के लिए दोनों
लेख शोधपरक दृष्टि से लिखे गये
हैं । पाँचचाँ
कोण-लोकोत्सवता से संबंधित है । लोकोत्सव के द्वारा
कई लोकोत्सवों की सही व्याख्याएँ
की गयी हैं। आसमाई, नौरता, टेसू
आदि के उदाहरण प्राप्त हैं । 'कजली' से
कजरियों का त्योहार और सूअटा या
नौरता से नारी के अपहरण का प्रसंग
उजागर हुआ है । बुंदेलखंड की दिवारी
ओजस्विनी है, क्योंकि इस जनपद की
लोकभावना ओजमयी रही है और
उसकी छाया 'कजरिया' में भी दीखाई
पड़ती है । लेकिन फाग की कथा प्राचीन
मदनोत्सव से लेकर आज की फाग तक
कई रंगों से रंजित रही है । छठवें में संस्थाओं के अंतर्गत अखाड़े का स्वरुप किया गया है और मध्ययुगीन ओरछा के अखाड़े का उदाहरण देकर उसकी संस्कृति का चित्रण लिखा गया है । सातवें में लोकसाक्ष्य का महत्त्व रेखंकित करने के लिए लोकसाक्ष्य और इतिहास से संबंध की पुष्टि की गयी है तथा एक ऐतिहासिक बुढ़वामंगल के लोकविश्रुत उदाहरण का विस्तृत विवरण दिया गया है । अंतिम आठवाँ कोण लोकसमस्कृति की दिशा का पूरा-पूरा संकेत देता है। पहले लोकसंस्कृति के वर्तमान का एक लघु चित्र है, बाद में लोकसंस्कृति के व्यापीकरण की आवश्यकता पर बल दिया गया है। कु विशेष
विशेषक
एक महत् उपलब्धि
किसी अंचल की लोकसंस्कृति का इतिहास हींदी और अंग्रेजी में अभी तक नहीं लिखा गया । जहाँ तक मेरी जानकारी है, यह ग्रंथ लोकसंस्कृति के इतिहास की पहली बानगी पेश करता है । इस दृष्टि से, बुंदेलखंड अंचल के लिए ही नहीं, वरन् इस देश और वीश्व के तमाम अंचलों के लिए भी यह ग्रंथ एक महत् उपलब्धि है । इस सच्ची दर्पीक्ति के साथ-साथ मैं यह कहना भी उचित समझता हूँ कि. इतिहास-लेखन में मेरी अपनी सीमाएँ रही हैं । मैं जितना कर सका, उतना ही आपके सामने है । उसकी सारी निर्बलताएँ मेरी हैं, उनके बावजूद यदि उसमें आपको कुछ भी प्राप्त हो सके, तो मेरे श्रम की सार्थकता सिद्ध है । सर्वप्रथम
मैं बुंदेलखंड के लोक और उसकी लोकचेतना
का ॠणी हूँ, जो मेरे लोकमन से पिता-माता
रहे हैं । लोककवि ईसुरी की फागों
में लोकसाहित्य की समझ के लिए नयी
दृष्टि देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया
है । ऐतिहासिक चेतना का सुफल उन्हीं
की देन है । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल,
अप्रत्यक्ष रुप में, यत्र-तत्र मेरे प्रेरक
रहे हैं, उनका मैं कृतज्ञ हूँ । लोकसंस्कृति
की स्वामिनी कई महिलाओं और खास
तौर से अपनी माता स्व, रामकुँवरि
और धर्मपत्नी मृदुला गुप्ता ने मेरी
जीज्ञासाओं की तृप्ति की है । उन सबके
प्रति आभार प्रकट करना मेरी अपनी
संतुष्टि है । आदरणीय प्रों. श्यामाचरण दुबे ने मुझे सदैव प्रोत्साहित किया है और इस पुस्तक के संबंध में अपने अमूल्य शब्दों का आशीर्वाद दीया है, उनका मैं सदा आभारी रहूँगा । आदरणीया श्रीमति कपिला वात्स्यायन ने भी पुस्तक के बारे में अपनी वीदुषी लेखनी से जो कुछ लिखा है, उससे पुस्तक का मान बढ़ा है । लोकसंस्कृति के दोनों विख्यात् वीद्वानों की कृपा के लिए मैं केवल आभार प्रकट करुँ, यह उचित नहीं लग रहा । कई पुस्तकालयों
और विशेष रुप में महाराजा
महाविद्यालय, छतरपुर के पुस्तकालय
और ग्रंथपाल भाई जगदीशप्रसाद शुक्ल
तथा दरबार पुस्तकालय, छतरपुर और
प्रबंधक भाई कृष्णप्रताप सिंह के साथ-साथ
अनेक ग्रथों और उनके रचयिताओं के प्रति
आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है ।
मेरी सुपुत्रियों-शची, माधवी और
कविता ने पांडुलिपि और लोकचित्र
बनाने में तथा मेरे सुपुत्रों-अमिताभ,
प्रवीण, प्रगीत और प्रतीक ने पुस्तक के
प्रकाशन में अमूल्य सहयोग दिया
है । छायाचित्र डॉ. हरिसिंह घोष, श्री
ओमप्रकाश अग्रवाल और भाई सुदामा
टिकरया के हैं । बुंदेलखंड मानचित्र
बनाने में डॉ. ए. एन. सिंह, डॉ. बी. एम.
शर्मा ने सहयोग दिया है । उन सबके
प्रति मैं आभारी हूँ । डॉ. जगदीश
गुप्त, इलाहाबाद ने इस पुस्तक के
मुखपृष्ठ के लिए अस्पताल
से एक रेखाचित्र भेजा था, उनकी इस
कृपा को भूलना कठिन है । मध्य प्रदेश
आदिवासी लोक-कला परिषद्, भोपाल
की मुखपत्रिका 'चौमासा' के संपादक
प्रिय बंधु डॉ.कपिल तिवारी और
सहायक श्री बसंत निरगुणे मुझसे
कुछ-न-कुछ लिखाते रहे, इसलिए उनको
स्नेहपूर्वक स्मरण करना भी अनिवार्य
है । इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली, सचिव डॉ. कपिला वात्स्यायन, जनपद संपदा के अधिकारी डॉ. बी. एन. सरस्वती और श्री वाई. पी. गुप्ता के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, क्योंकि उनके आर्थिक सहयोग से पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका। साथ ही राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली के स्वामी श्री अशोक महेश्वरी ने बहुत ही सक्रिय होकर और वीशेष रुचि लेकर पुस्तक का प्रकाशन किया है । प्रकाशन के लिए जनपद संपदा इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र और राधाकृष्ण प्रकाशन, दोनों के प्रति तथा अच्छे मुद्रण के लिए मुद्रक के प्रति आभारी हूँ । नर्मदा प्रसाद गुप्त |
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५
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