बुन्देल खण्ड
की लोक संस्कृति का इतिहास |
नर्मदा प्रसाद गुप्त |
आचरण लोकाचार |
|
आचार
किसी भी संस्कृति के यथार्थ चित्र
होते हैं । यदि किसी जनपद की संस्कृति
का सही इतिहास खोजना है, तो
वह उसके जन के आचार में मिलेगा ।
जिस युग में जो आचार आचरित होते
हैं, वे उस यग की संस्कृति रचते हैं
। परिस्थितियों के अनुरुप और समाज
के लिए उपयोगी होने पर कुछ आचार
आदर्श हो जाते हैं और लोकमूल्य
बनकर शास्रों में टँक जाते हैं । शास्रों
या पुस्तकों में लिखे आचार दौड़ते घोड़ों
के उस चित्र की तरह हैं, जिससे दौड़ने
का आभास होता है जबकि वे निष्प्राण
हैं । वस्तुत: आचार वही है, जो लोक
में प्रचलित है । उसी को लोकाचार कहते
हैं । लोक में प्रचलित न होने पर
वह आचार मर-सा जाता है, भले ही
उसने शास्रों में अपनी जगह बना ली
हो और शास्रोक्त बनने की पदवी पा
ली हो ।
किसी भी आचार का
जन्म एक विशिष्ट अवधि में एक विशिष्ट परिस्थिति
की कोख से होता है, लेकिन लोकोपयोगी
होने पर ही लोकगृहीत होकर लोकाचार
बनता है । मुश्किल यह है कि एक लोकाचार
यदि एक वर्ग, समाज और राष्ट्र के
हित का है, तो दूसरे के लिए अहितकर
भी हो सकता है । महाभारत के शांतिपर्व
(२५९/१७-१८) में कहा गया है कि " ऐसा
कोई भी आचार नहीं है, जो सर्वदा
सब लोगों के लिए समान हितकर
हो । यदि एक आचार को स्वीकार किया
जाय, तो दूसरा उससे श्रेष्ठ न आता
है और वह किसी तीसरे आचार का
विरोध करता है" -
न हि सर्वहित: कश्चिदाचार:
सम्प्रवर्त्तते ।
तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते
पुन: ।। लोकाचार लोकजीवन के वर्तमान
हैं, किंतु उनके इतिहास में अतीत की झाँकी
मिलती है और उपयोगिता में
भविष्य का संकेत । असल में, लोकाचार
लोकसंस्कारों, लोकरीतियों, लोकप्रथाओं
और लोकवर्जनाओं के समुच्चय हैं,
इसीलिए वे दीर्घजीवी होते हैं । उनका
लोप इतनी तेजी से नहीं होता, जितनी
तेजी से वेश-भूषा और भोजन-पेय
का । बहुत से लोकाचार आज भी रुढ़ीयों
के रुप में कई जगह कुण्डली मारे बैठे
हैं और कई जगह उनमें परिवर्तन भी
आया है, लेकिन इस परिवर्तन को शताब्दियाँ
लग गयीं । यहाँ हम लोकाचार के
इतिहास की खोज का प्रयत्न कर रहे
हैं । वैसे तो यह कार्य बहुत कठिन
है, पर यह निश्चित है कि युग के बदलने
पर लोकाचार भी बदलता है । किस
रुप में और किस सीमा तक, इसकी नाप-जोख
का अनुमान उनके इतिहास से ही लग
सकता है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण सें लिखा है कि सभी लक्षणों से युक्त होने पर भी पुरुष यदि आचाररहित है, तो उसे न तो विद्या की प्राप्ति होती है और न किसी अभीष्ट की (३/२५०/४) । आचारवान् को स्वर्ग, कीर्ति, आयु सम्मान और सभी लौकिक सुख प्राप्त होते हैं (३/२७१/१) । इस प्रकार सदाचार का ग्रहण और कदाचार का त्याग ही व्यक्ति और लोक, दोनों के लिए हितकर है । लोक किसी भी आचार का मूल्यांकन युग की आवश्यकताओं के आधार पर करता है और इस दूष्टि से लोकाचार की ऐतिहासिकता महत्त्वपूर्ण हो जाती है । थीं
। प्राकृतिक आपत्तियों से भयभीत मानव
ने उनकी पूजा कर उन्हों प्रसन्न करने की
युक्ति सोची थी । संघर्ष में समूह की
एकता आवश्यक थी, इसलिए किसी व्यक्ति
के सहयोग न देने पर दंड की प्रथा कायम
हुई थी । नवपाषाण-काल में जब
मानव खेती करने लगा ओर पशुपालन
कार दायित्व निभाने लगा, तब समूचा
लोकाचार कृषि पर आधारित होने
लगा । छोटी-छोटी बस्तियाँ, मिट्टी
के बर्तन, मिट्टी के मकान और पशु-पूजा
के प्रामाणिक साक्ष्य मिले हैं, जिनसे
सिद्ध है कि संस्कारों की नींव इसी काल
में पड़ी थी । धातु-युग में ताँबे, पीतल
और स्वर्ण का प्रयोग होने लगा था,
किंतु लोहा अज्ञात था । धातु के हथियार
और आभूषण बनने लगे थे । मनोरंजन
के कई साधन अपनाये जाते थे जिनमें
प्रमुख थे, पकी मिट्टी के खिलौने, नृत्य,
शिकार करना, चौपड़ आदि । श्रृंगार-प्रसाधनों
का ज्ञान था । इन सबसे अनुमान लगता
है कि इसी समय सभी संस्कार विकसित
होने लगे थे । लोकरीतियों, लोकप्रथाओं
और वर्जनाओं का 'कोड' तैयार हौ
गया था । आदि वासी आचार बुंदलखंड
के लोकाचार के इतिहास-लेखन में
आदिवासी आचार का सिर्फ ऐतिहासिक
महत्त्व नहीं है, वरन् उनकी उपयोगिता
नींव के उन पत्थरों जैसी है, जिन पर
बहुमंजिला प्रासाद खड़ा होता है ।
पुलिंद, निषाद, शबर और गोंड़
यहाँ के प्रमुख आदिवासी थे । उनके लोकाचार
भले ही वैदिक प्रभाव से संस्कारित
या परिवर्तित हुए, पर उनमें आदिम आचारों
के संकेत मिलते हैं । इनमें कुछ प्रमुख
इस प्रकार हैं । हर आदिवासी संतान-प्राप्ति
पर अत्यधिक प्रसन्न होता है, भले ही
वह पुत्र हो या पुत्री । प्रसव-पीड़ा असहनीय
होने पर टोटके किये जाते थे ।
शिशु का जन्म होते ही ढोल या थाली
बजाकर सूचना देने का रिवाज है ।
प्रसव के बाद प्रसूता के सिरहाने चाकू,
हँसिया, कटार आदि लोहा रखना और
सौरगृह में दिन-रात आग जलना अनिवार्य
समझा जाता था । संतति न होने पर
सौंरों (शबरों) में गोद लेने की प्रथा
का प्रचलन था । शिशु का नामकरण तिथि,
वार, महीनों आदि के नाम पर होता
था जैसे सोमा, मंगली या मंगला,
बुधिया आदि । बड़े होने पर बच्चे के
दागने की प्रथा थी, ताकि उसे या उसके कुटुम-कबीला
की पहचान हो सके ।
विवाह-प्रथा के प्रचलन के पूर्व नर-नारी
का स्वैराचार ही प्रथा के रुप में वर्तमान
था । सुखमय भट्टाचार्य ने 'महाभारतेर
समाज' में लिखा है कि महाभारत काल
में भी उत्तर कुरु में यह प्रथा काफी समय
तक प्रचलित रही थी । इस क्षेत्र के सौंरों
(शबरों) में स्रियों को काफी स्वतंत्रता
मिली है । वे पति की उपस्थिति में दूसरों
से हँसी-मजाक कर लेती हैं । यहाँ
तक की विनोद करने वाला उसे पसंद
आ जाय, तो वह पति से छिपकर उसके
साथ चली जाती है और पति सिवाय
हर्जाना पाने के कुछ नहीं कर सकता
। सौंर समाज लड़की के 'हरण' करने
और फिर उससे विवाह करने की अनुमति
देता है । 'कारी' विवाह के अंतर्गत
हर तरह का साधन प्रयुक्त किया जा सकता
है । इससे स्पष्ट है कि आदिम स्थिति
में स्री का स्वैरिणी होना समाज को
मान्य था ।
जनपदीय लोकाचार पर गोंड़ों का
प्रभाव अधिक रहा है । उनमें बालविवाह
प्रथा थी, जो इस अंचल में दिर्घकाल तक
जीवित रही । रजस्वला होने से पूर्व
लड़की के हाथ पीले करना उचित माना
जाता था । विवाहपूर्व लड़का-लड़की
मिलते-जुलते थे, पर विवाह माता-पिता
की अनुमति से होता था । गोंड़ परिवार
पितृसत्तात्मक था, अतएव परिवार का मुखिया
पिता होता था । विवाह की बात लड़केवाले
ही शुरु करते थे । लड़के या लड़की के
चयन में परिश्रम, शक्ति और कार्यक्षमता
की कसौटी रहती थी । गोंड़ों, सौंर
और भीलों में खर्ची या वधूमूल्य की
प्रथा प्रचलित थी, जिसमें अनाज, मिर्च-मसाला,
मुर्गा-बकरा, गाय-बैल या भैंस और
निर्धारित रुपये दिये जाते थे । दारु
और जातिभोज का रिवाज आम था । भूमि-पूजन
और 'भुइ-भाड़ा' के रुप में पैसे चढ़ाना
सभी में प्रचलित था । कुलदेवी या कुलदेवता
की पूजा सर्वोपरि थी । आज मैहर या
मैर भरना एक अनिवार्य र है,
वह कुलदेव की पूजा की दृष्टि से
ही विकसित हुई है । इसी तरह
हल्दी चढ़ाना, तेल चढ़ाना, स्नान, कंगन
बाँधना और छोड़ना, कुँवर-कलेवा,
परछन, मौंचायना, दोरछिंकाई, दूधाभाती,
सेई नापबौ आदि रस्में आदिम और
गृह्यसूत्र के विधि-विधान, दोनों के सामंजस्य
से विकसित हुई थीं ।
गोंड़ों में भगेली, बलात्, रखैली
और विधवा-विवाह भी प्रचलित थे,
जिससे उनके संस्कारों में पर्याप्त
स्वतंत्रता के दर्शन होते हैं । भीलों
की झेल्याचोली में वहपक्ष वालों की
ओर से वधू के लिए लुगड़ा, चोली, नारियल,
गुड़, रुपये आदि होते थे, जो आजकल
के 'चढ़ाये' के पूर्वरुप हैं । उनका 'बेड़ा
भरना' आजकल के 'बेइया के कलश-पूजन'
में अवशिष्ट रह गया है । गोंड़ों और
सौंरों में एक विशेष अंतर यह है
कि गोंड़ों में ददिहाल और ननिहाल
परिवारों में विवाह करना नैतिक
माना जाता है, जिसे वे दूध लौटाना
कहते हैं, जबकि सौंरों में चचेरे,
मौसेरे और ममेरे भाई-बहिनों
के बीच तथा माता-पिता और नानी-फुआ
के गोत्रों में विवाह वर्जित है ।
इस दृष्टि से सौंरों की वर्जना
ही दाय के रुप में उपलब्ध हुई है ।
मृतकों को गाड़ने का रिवाज सौंरों
और गौंड़ों, दोनों में रहा है, बाद
में अग्निदाह का प्रचलन हुआ था । भूत-प्रेत-बाधा
से बचने के लिए कुछ रस्में टोटकों
के रुप में आदिम देन ही हैं । इसी तरह
मृतक-भोज की प्रथा भी आदिम अवशेष
रही है । आदिवासी संस्कृति वनकेन्द्रित रही है, अतएव उनकी मान्यताओं और वर्जनाओं में वन्यता कार बहुत प्रभाव है । गोंड़ों की बनजारिन माई वन की देवी है, जो कष्टहारिणी और फलदायिनी है । सरई के वृक्ष में बड़े देव का वास है । वृक्षों में देवों का वास है, इसलिए उन्हें काटना वर्जित है । वन में रहने वाले पशु-पक्षी भी उनकी वर्जनाओं के आधार रहे हैं । सुअर का मैथुन, कुर्री का सामने बोलना, सियार का फेंकारना, कुत्ते का रोना आदि उनके लिए अशुभ हैं । गर्भवती महिला के वृक्ष की जड़ दिखाने से प्रसव जल्दी हो जाता है । बकबंधी में छेवले (पलाश) की जड़ के रेशे बाँधने से रक्षा होती है । आशय यह है कि आदिम आचार वन्यता के ऐसे अनुभवों से जुड़े थे कि उनका उपयोग परम्परा बन गया है । बकौंड़याई पूनो यानी आषाढ़ मास की पूर्णिमा में बकौंड़ा (पलाश की जड़ का रेशा) बाँधना अभी दो-तीन दशक पहले प्रचलित था । पुण्य और पाप की धारणा भी आदिवासी आचार का अंग रही है । गाय का मारना पापों की कोटि में सम्मिलित था, जो आज तक हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है । वैदिक और आदिम आचारों का सम्मिलन रामायण-काल
में वैदिक आचार ॠषियों-मुनियों के
साथ आये थे । इस अंचल की निषाद और
शबर जातियों ने उनका स्वागत किया
था । रामायण के निषाद और शबरी
प्रसंग इसके प्रामाणिक साक्ष्य हैं । राम
के प्रति निश्छल प्रेम और अतिथि-सत्कार
से उनके आचरण की बानगी मिलती है
। आदिवासियों के धार्मिक आचारों में
धरती, जल, वृक्ष, नाग और पशु-पूजा
तथा महामाई एवं पशुपति की भक्ति
प्रमुख थी । वे कृषि, शिकार और देवों
से संबंधित उत्सवों को मनाते थे ।
नयी ॠतुओं के स्वागत में समारोह
करते थे । उनके उत्सव धर्म से बँधे न
थे, इसलिए उनके उल्लास में स्वच्छंदता
औ लोकत्व की भावना अधिक थी । इसी
कारण से वैदिक-काल के आर्यों ने उन्हें
'अन्यव्रता:' कहा थाल । वैदिक प्रभाव
से उनके व्रत और उत्सव धार्मिक रीतियों,
तंत्रों-मंत्रों, विधियों-निषेधों और
पुरोहिती कर्मकांडों से जकड़ लिये
जाते हैं । अग्नि के साथ यज्ञों का सिलसिला
धीरे-धीरे चल पड़ता है । इस तरह
लौकिक और सामाजिक भावना के श्थान
पर धार्मिक भावना छाने लगती है ।
'वाल्मीकि रामायण'
में दुर्गा का नाम नहीं मिलता, जिससे
स्पष्ट है कि दुर्गा आदिवासियों की देवी
थी। शबरों के द्वारा चंडिका देवी की
पूजा का उल्लेख 'हर्षचरित' और 'कादम्बरी'
दोनों ग्रंथों में है । देवी का रामकथा
में प्रवेश और रावण-वध में सहायता
बाद में जुड़ा । नाग-पूजन आदिवासियों
की देन है, वैदिक ग्रंथों में उसका उल्लेख
नहीं है । सूत्रकाल में वह वैदिक धर्म
में शामिल हो
गया । रामायण में नाग जाति, नागमाता
सुरसा और नागस्रियों के सौंदर्य
एवं उनके अपहरण की चर्चा है । ताटका
एक सुंदर और बलिष्ठा यक्षिणी थी, जो
अंतर्जातीय विवाह-प्रथा के अनुसार राक्षसी
बनी थी । राक्षस और वानर जातियाँ
धन-वैभव में काफी आगे थीं । अंतर्जातीय
विवाह-प्रथा के अनुसार ही राक्षसी सूपंणखा
ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव
किया था । आर्यों में भी समान कुल और
शील के सिवा विवाह-संबंध पर कोई
निश्चित अंकुश नहीं था । विवाह का उद्देश्य
संतानोत्पत्ति था, जोकि आदिवासियों और वैदिक
आर्यों, दोनों को
मान्य था । वर से शुल्क या धन लेकर
कन्या ब्याहने का रिवाज जहाँ आदिवासियों
में था, वहाँ वह आर्यों में भी प्रचलित
हो गया था और वह 'आसुर
विवाह' नाम से वर्गीकृत हुआ । गांधर्व
विवाह भी आर्येतर जातियों में अधिक
था, परंतु आर्यों ने उसे अपना लिया था
। दुष्यंत और शकुंतला ने गांधर्व
विवाह किया था । रामायण में वर्णित
विवाह-पद्धति वैदिक विधि और यज्ञ
पर आधारित थी, जबकि आदिवासियों
में स्वच्छंद समझौता से ही विवाह
होता था । उनके लिए वह धर्म-बंधन नहीं
था, जिसे आर्यों का समर्थन प्राप्त ता ।
बहुपत्नी-प्रथा का दोनों में प्रचलन था,
जिससे परिवार में ईर्ष्या, द्वेष और
कलह कार वातावरण रहता था ।
यही कारण है कि एक पत्नीव्रत की प्रथा
का उदाहरण राम ने रखा और वह इस
अंचल में भी अनुसरित हुआ । अनार्यों में
बहुपतिप्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता
है, जिसे महाभारत-काल में पांडवों
का भी आश्रय प्राप्त हुआ । वैदिक समाज
में पत्नी को अनुशासन और आत्मानियंत्रण
में रहना अपेक्षित था जबकि आदिवासी
नारी अधिक स्वच्छंद थी, क्योंकि वह अधिक
श्रमशीला और आत्मनिर्भर थी । दहेज
प्रथा नहीं थी, पर वधू-मूल्य के रुप में
वर पक्ष को ही पंचों द्वारा निर्धारित
सामग्री और धनराशि देनी पड़ती थी
। वैदिक संस्कृति में कन्यापक्ष कन्या के
लिए जो संपत्ति देता था, वह कन्याधन
के रुप में वधू के अधिकार में रहती
थी । गर्भवती और सद्यप्रसूता आर्यमाता
को शुद्ध आचार-विचार रखने पड़ते थे,
क्योंकि आर्यों का विश्वास था कि आचार
में अशुद्धि या भूल होने पर अशुभ तत्त्व
विशेष रुप में भूत-प्रेत अनेक प्रकार
की बाधाएँ पैदा करते हैं । उन बाधाओं
के उपचार हेतु विशेष टोने-टोटके
और जंत्र-मंत्र किये जाते थे, जो आदिवासियों
से आये थे । आदिवासियों में विधवा
का पुनर्विवाह प्रचलित था और यह प्रथा
उन्हीं से आर्यों में आयी । इन उदाहरणों से
सिद्ध है कि जहाँ वैदिक आचारों ने आदिम
आचारों पर अपना प्रभाव डाला, वहाँ
आदिम आचारों ने भी वैदिक आचारों
पर अपनी छाप छोड़ी थी । रामायण-काल
में दोनों प्रकार के आचारों का सम्मिलन
एक नया आचार-कोड प्रशस्त करने में सार्थक
सिद्ध हुआ है ।
नलोपाख्यान के अनुसार द्यूत में
विजयी होने पर जहाँ राजा नल के
भाई का आचरण परिवार और समाज
की मर्यादा तोड़ देता है, वहाँ राजा
नल का भ्रातृप्रेम उसकी रक्षा करता
है । भाई पुष्कर का अपनी भाभी दमयंती
के प्रति व्यवहार यह सिद्ध करता है
कि उस समय देवर भी पति की जगह लेने
में सक्षम था । दमयंती के स्वयंवर
से पता चलता है कि कन्या अपना वर चुनने
में स्वतंत्र थी । पण प्रथा का भी प्रचलन था
। लेकिन इसके बावजूद नारी अंत:पुरवासिनी
होने लगी थी । अटवी के स्वतंत्र लोकाचार
भी वैदिक लोकाचार से प्रभावित
हो रहे थे । महाभारत-काल
के बाद के लोकाचार पर महात्मा बुद्ध
के 'शील' का प्रभाव किसी-न-किसी
रुप में रहा है । बौद्ध त्रिशरण में शील
का स्थान पहला है, क्योंकि उससे मन,
वचन और कर्म की शुद्धि होती है । शील
मनुष्य को सदाचारी एवं गुणवान्
बनाता है और समाज में शांति की प्रतिष्ठा
करता है (विनयपिटक, राहुल सांकृत्यायन,
प्रथम संस्करण, पृ. २३९) । शीलरहित व्यक्ति
अशांत रहता है और उसे सद्गति नहीं
प्राप्त होती । भगवान् बुद्ध ने 'धम्मपद'
में कहा है कि 'दु:शील
और असंयमी होकर राष्ट्र का अन्न खाने
से अच्छा है कि आग में तप्त लोहे का गोला
खा जाय ।' उनके अनुसार सदाचार ही प्रथम
धर्म है और उसका रास्ता आत्मनिरोध,
संयम और नियंत्रण से होकर भवबंधन
की मुक्ति तक जाता है । शील के द्वारा
व्यक्ति और समाज के नैतिक स्तर को
ऊँचा उठाने का काम बौद्ध और जैन-धर्मों
ने किया था । एक महत्त्वपूर्ण और
क्रांतिकारी न्याय की प्रतिष्ठा, सदाचार
और दुराचार का भेद स्पष्ट करने में
लक्षित होती है । बुद्ध ने घोषणा की
थी कि सदाचारी परिश्रमी होता है
और दुराचारी आलसी । उन्होंने लोकाचार
को कर्म की महिमा से जोड़ने का
महत्कार्य किया था । इसीलिए लोक में
साहस और वीरता सदाचार के रत्न
माने जाते थे । जूआ,
परस्री-गमन, मदिरा, दिन में सोना,
कुसंगति और नृत्य-गीत को बुरा समझा
जाता था । कर्म के बाद दूसरा स्तंभ था-त्याग
। पूँजी की महिमा बढ़ने और फलस्वरुप
शोषण शुरु होने के कारण 'त्याग' के
आचरण पर बहुत बल दिया गया था,
जिसमें केवल धन का त्याग नहीं था, वरन्
बुराइयों या दुर्गुणों एवं बुरे आचरणों
का त्याग भी सम्मिलित था । वर्जनाओं के उल्लेख
भी यत्र-तत्र मिलते हैं । इस अंचल में
बौद्ध-धर्म के फैलाव से बौद्ध वर्जनाएँ
भी प्रचलित हो गयी थीं । नशीली वस्तुओं
का सेवन, जुआ खेलना, असमय में इधर-उधर
घूमना, कुसंगति करना, आलस्य और
नाच-तमाशा में रुचि रखना विनाश के
कारण हैं । प्राणी
को मारना, चोरी, व्यभीचार, झूठ बोलना,
पीठ पीछे निंदा करना आदि वर्जनाएँ समाज
में प्रधान थीं । छोटी-छोटी वर्जनाएँ भी
यत्र-तत्र मौजूद थीं, जैसे नीच जाति के
सुदर्शन व्यक्ति का विश्वास नहीं करना
चाहिए, कुलहीन और संस्कारहीन व्यक्ति
को आश्रय नहीं देना चाहिए । कुछ इतिहासकार
इस जनपद के सागर संभाग और आस-पास
के क्षेत्र पर अशोक के पूर्व पुलिंदों का
आधिपत्य मानते हैं । पुलिंद एक वन्य जाति
थी, जो अब अदृश्य हो गई है । बौद्ध वर्जनाओं
के प्रसार का सीधा अर्थ यह है कि अशोक
ने यहाँ सबसे पहले लोकाचार को
अहिंसक दर्शन से संबद्ध किया था, जिससे
यहाँ की रीतियों और प्रथाओं में भी
एक बदलाव आया । उदाहरणस्वरुप,
विवाह के अवसर पर मांसाहार के
लिए सुअर पालकर पहले से तैयार
करने की रीति थी,
जो धीरे-धीरे समाप्त होने लगी
थी । इसी तरह बलि की प्रथा में भीं अंतर
आना स्वाभाविक था । अतिथि-सत्कार में
मांस और मदिरा का प्रयोग बंद
हो गया था । शुंग-काल
में भागवत धर्म और भागवती दृष्टि
की प्रतिष्ठा से फिर एक परिवर्तन आया
और वैदिक रीतियों एवं प्रथाओं को
जड़ जमाने का मौका मिला । महाभारत-काल
से ही यक्षों की संस्कृति का प्रभाव फैलने
लगा था । यक्षों की पूजा घर-घर में
होने का अर्थ इसी प्रभाव-विस्तार का
द्योतक है । यक्ष-संस्कृति
में सदाचार की प्रधानता थी । युधिष्ठिर-यक्षसंवाद
से स्पष्ट है कि ब्राह्मण जन्म से
ही श्रेष्ठ नहीं होता, वरन् सदाचार
का आश्रय लेकर भी द्विजत्व की प्राप्ति
होती है (महाभारत, वन. अ.१३) । आगे चलकर
यक्षों ने हर तरफ अपनी शक्ति और गरिमा
स्थापित कर ली थी । यक्ष महाशक्तिशाली
देवता थे । वे नाराज होने पर
बहुत परेशान करते थे । इसी कारण
नगर में उत्सव और उल्लास से उनकी पूजा
होती थी और चौराहे या राजपथ के
किनारे उनके लिए भोज्य और पेय रख
दिये जाते थे । आज भी भोज्य पदार्थ
निकालकर राजपथ पर रखने की रुढि
अनुसरित होती है । यक्षों की पूजा-पद्धति
आज तक चली आ रही है । शुंग-काल में
भागवत धर्म के पुनरोदय पर पुरोहित
का पद फिर से महत्त्वपूर्ण हो गया
था और उसकी परम्परा फिर सुदृढ़
हो गयी थी । इस प्रकार भौतिक समृद्धि
से पोषित रीतियों
और प्रथाओं के समानान्तर आध्यात्मिक
जीवन से संपुष्ट जीवन-पद्धति का विकास
इस युग की विशेषता थी । एक तरफ जहाँ
बहुपत्नी प्रथा विद्यमान थी, वहाँ नियोग
प्रथा भी और दूसरी तरफ जहाँ स्रियों
को प्रव्रज्या का अधिकार न था, वहाँ
भिक्षुणियाँ भिक्षुओं के संपर्क से वंचित
थीं ।
नाग और वाकाटक शिव के परम
भक्त थे, इसलिए राजनीति, साहित्य और
कला के विविध क्षेत्रों में धर्म का प्रभाव
अधिक था । लोकजीवन और लोकाचार
भी धर्म से जुड़ गये थे । प्रसिद्ध इतिहासकार
काशीप्रसाद जायसवाल ने 'अंधकारयुगीन
भारत' में लिखा है-'हमें भारशिवों
के सभी कार्यों के संचालक शिव ही
दिखाई देते हैं और वाकाटकों के
समय के भारत में भी सर्वत्र उन्हीं का
राज्य दिखाई देता है ।'
इसी वजह से कुछ धार्मिक प्रथाएँ पुनर्जीवित
हुईं और कुछ बिल्कुल नयी बनीं । अश्वमेघ
यज्ञ और गंगा एवं नंदी की पूजा की प्रथा
बहुत ही प्रभावी ढंग से फिर स्थापित
हुई । गाय को माता मानकर पवित्र
श्रद्धा देने की भावना इसी समय उदित
हुई । कौटिल्य के ग्रंथ 'अर्थशास्र' में
किले के बीचोबीच कुबेर के मंदिर
को स्थापित करने की प्रथा का उल्लेख
मिलता है । महाभारत के बनपर्व में
मणिभद्र के स्मरण करने का स्पष्ट संकेत
है । पद्मावती या पवाया में प्राप्त
मणिभ्रद की चरण चौकी पर अंकित लेख
के अनुसार यह सिद्ध है कि यक्षपूजा की
पुरानी प्रथा नागों के राज्य-काल में
मान्य थी । इतना ही नहीं, लौकिक रीति-रिवाज
भी धर्म से जोड़ दिये गए थे । उदाहरण
के लिए, कन्या का विवाह उसके रजस्वला
होने से पूर्व न करने पर पिता को
नरकगामी बताया गया है ।
इस युग के लोकसंस्कारों के प्रामाणिक
गवाह महाकवि कालिदास के ग्रंथ
हैं, पर आलोच्य जनपद के लोकसंस्कारों
के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी
नहीं मिल सकी । एरण के सती-स्तंभ के
अभिलेख से पता चलता है कि हूणों
से युद्ध करते हुए सेनापति गोपराज
के बलिदान होने पर उसकी पतिव्रता
पत्नी ने पूर्ण रुप से सहगमन कर उसकी
चिता पर आरोहण किया था । सती प्रथा
का यह प्रमाण बहुत प्राचीन है (प्लीट
कृत कापंस इन्स्कि्रप्शनम् इंडिकेरम्,
भाग तृतिय, पृ. ९२) । अधिक उल्लेखों के अभाव
के बावजूद यह सत्य है कि इस समय
ऐसे सशक्त समाज का निर्माण किया गया
था, जो संकटकाल में विदेशी शत्रुओं
से टक्कर तेला और यह सब आचरण पर
निर्भर करता था ।
इस समय के लोकाचार के माक्षी
एक तरफ महाकवि बाण के ग्रंथ-हर्षचरित
और कादम्बरी हैं, तो दूसरी तकफ
भवभूति
के नाटक-मालती माधव और उत्तररामचरित
। पुराणों का कथाओं में भी इस क्षेत्र के
कई उल्लेख हैं । इन सभी के सहारे
इस समय के लोकाचार की रेखाएँ उभरती
हैं । हर्ष-काल में भी लोकाचार धर्म
से संपोषित रहा । उदाहरणस्वरुप,
चंडिका या दुर्गा की पूजा और बलि
की प्रथा विंध्याटवी के शबरों में धर्म
का अंग थी । कादम्बरी में उल्लिखित मातृभवन
और उनमें देवी-मूर्तियों की स्थापना
तथा उनकी पूजा, पीपल जैसी वनस्पतियों
की पूजा, दही-भात की बलि कौओं को
खिलाना, संतान की इच्छा से धार्मिक अनुष्ठान
एवं उपवास करना, अभिमंत्रित ताबीजें
या मंत्रकरंडक (गड़ा) पहनना, अवतरणकमंगल
या उतारौ करना, सूतिकागृह में जातमातृदेवता
या आर्यवृद्धा की मूर्ति स्थापित करना
(बेइया धराना) आदि धार्मिक लोकाचारों
के अंग थे ।
लौकिक रीतियों में वर-पक्ष द्वारा
विवाह करने का प्रस्ताव, वधू के पिता
द्वारा सहमति के रुप में कन्यादान का
जल गिराना, घर की चूने से पुताई
और
मांगलिक आलेखनों से सज्जा, वधू
के लिए भेंट का सामान देना, दहेज का
सामान इक करना, विवाह की वेदी
और मंडप बनना, सौभाग्यवती स्रियों
द्वारा मांगलिक गीत गाये जाना, वर
का निश्चित लगन पर सजधज कर आना,
वर के साथ विवाह (बारात) का जुलूस,
द्वार पर वर की अगवानी, वर का कौतुक
गृह (विवाहोत्सव-स्थान) में प्रवेश
करना, सजी-धजी वधू को देखना, कोहबर
के लोकाचार, वर का वधू के साथ वेदिका
के पास आना, हवन, भाँवरें, लाजांजलियाँ
छोड़ना, सास-ससुर को प्रणाम करना
और वास-गृह (शयनकक्ष) में जाना, दस
दिन तक ससुराल में रहकर दहेज की
सामग्री के साथ लौटना, 'हर्षचरित'
में क्रमबद्ध रुप में वर्णित हैं । इसी ग्रंथ
में अंत्योष्टि संस्कार का वर्णन है, जिसमें
शव को अर्थी पर रखकर और कंधा देकर
श्मशान-भूमि पर ले जाना, चिता पर
रखकर अग्नि देना, चिता के स्थान पर चैत्य-चिन्ह
स्थापित करना, मृतक के फूल तिर्थस्थानों
में जलप्रवाह के लिए भेजना, मृतक को
जल देना, प्रेत-पिंड खानेवालों (ब्राह्मणों)
को भोजन कराना, कुछ दिन अशौच मनाना,
ब्राह्मण-भोजन और मृतक की निजी वस्तुएँ
शघ्यादान के साथ ब्राह्मणों को देना आदि
रीतियाँ बतायी गयी हैं ।
आटविक राज्यों की लोकसंस्कृति
और लोकाचार का वर्णन भी हर्षचरित
और कादंबरी में हुआ है । 'हर्षचरित'
में शबर युवक के चित्रण में उसकी
बाँह पर मोरपित्त से गोदना गुदा
होने का उल्लेख गुदना-प्रथा का प्रमाण
है । पंखों से शरीर का अंग सजाना,
राजा के दर्शन भेंट देकर करना आदि
लोकरीतियाँ वन्य जीवन तक में प्रचलित
थीं । अग्नि-प्रवेश द्वारा आत्महत्या की प्रथा
जीवित थी । भवभूति कृत 'मालती-माधव'
नाटक में 'नरबलि' की प्रथा का स्पष्ट संकेत
है, जो सातवीं-आठवीं शती का पद्मावती
(पवाया) नगरी में अवशिष्ट थी । पद्मावती
में प्राप्त मृणमूर्तियों से स्पष्ट है कि
अलंकरण, मनोविनोद और क्रीड़ा के
लिए मृण्मूर्तियाँ बनाने की प्रथा इस
अंचल में बहुत पहले से प्रचलित थी
। उनमें केश-प्रसाधन तत्कालीन सामाजिक
प्रथा के अनुरुप होता था ।
बाल-विबाह की प्रथा के प्रचलन का
कारण बताते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार
चिंतामणि विनायक वैद्य ने लिखा है कि
"बौद्ध-धर्म को दबाने या उससे बचने
के लिए ही बालविवाह की प्रथा प्रचलित
हुई ।"
बौद्ध-धर्म में भिक्षुणी के रुप में
प्रवेश पाने के लिए अविवाहित होना
जरुरी था, इसलिए लोग अपनी कन्याओं
का विवाह बाल्यावस्था में ही कर देते
थे । पति के निधन पर वैधव्य की और
अति वृद्ध हो जाने पर तीर्थ में आत्महत्या
करने की प्रथा भी हिन्दू समाज में प्रचलित
थी (मध्ययुगीन भारत, भाग २, सं. १९८६, पृ.
३२५-२७)
अगर गहराई से देखा जाय, ते
यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन और बौद्ध-धर्मों
से कुछ लोकाचार भारतीय लोकाचार
के कोश में जमा हो गाए थे । उदाहरण
के लिए, व्रतों और उपवासों की अतिशयता
उन्हीं से आई ।
तंत्र-मंत्र, बलि आदि में जहाँ आदिवासियों
का प्रभाव रहा, वहाँ बौद्ध कापालिकों
का अधिक रहा त। लौकिक रीतियों और
प्रथाओं के विकास में पुराणों का हाथ
रहा । इस प्रकार यह युग लोकाचार
के समन्वय और संरक्षण का था । कुमारिल
भ और शंकराचार्य के दर्शन ने
उसे एक सशक्त आधार
देकर सुरक्षा प्रदान की थी
। चंदेल युग नौवीं
शती से चौदहवीं शती तक चंदेल राजाओं
की छत्रछाया में यह जनपद समृद्धि और
संस्कृति की ऊँचाई पर प्रतिष्ठित
रहा, इसलिए इस अवधि में लोकाचारों
की युगानुरुप गतिशीलता, दृढ़ता और
परिवर्तनशीलता दिखाई पड़ती है ।
मुसलमानों के आक्रमणों और आक्रमणकारियों
की संस्कृति के प्रभाव से लोकाचार
में काफीं परिवर्तन हुए, जिनसे उसकी
गतिशीलता का पता चलता है ।
साथ ही समाज में कछुआ की तरह
सिकुड़ने और कठोर पीठ को ढाल बना
लेने की प्रवृत्ति ने लोकाचार की रक्षा
के लिए रुढिवादिता को जन्म दिया, जो
संरक्षण की प्रतीक कही जा सकती है ।
इस तरह इस युग में संरक्षण और
परिवर्तन दोनों दिशाएँ महत्त्वपूर्ण
बनी रहीं ।
पहली दिशा संरक्षण और सुरक्षा
की है, जिसके लिए सबसे पहले पहल
की-दर्शन और धर्म के आचार्यों ने । नये
धार्मिक ग्रंथों ने धार्मिक लोकाचार का
फैलाव किया और उनमें कट्टरता ला
दी । संस्कार और कर्मकांड बहुत बढ़
गये । पौराणिक
देवताओं से संबंध रखनेवाले
व्रतों-उपवासों और नैमित्तिक संस्कारों
एवं क्रियाओं की संख्या इतनी अधिक
हो गयी कि आदमी की दिनचर्या उन्हीं
में लगकर धर्मोन्मुख बन गयी । अल्बेरुनी
ने पंजाब और काश्मीर में प्रचलित उपवासों
और उत्सव के दिनों की सूची दी है (मध्ययुगीन
भारत, भाग ३, चि. वि. बैद्य, सं. १९८५., पृ.
६८२) । घर-गाँव और शहर में मूर्तिपूजा
बढ़ गयी थी, मंदिरों का निर्माण
होने लगा था और हर वर्ग में निर्माण
की होड़ लग गयी थी । मूर्ति एवं मंदिर
बनवाने और दान देने वाले को सम्मान
की दृष्टि से देखा जाता था । अतएव दोनों
प्रथाएँ रुढ़ हो गयी थीं और दोनों में
अनेक रीतियाँ जुड़ने लगी थीं । वर्जनाएँ
तो उनसे चिपट ही जाती थीं । विविध धर्मों
में विविध रीतियाँ थीं और कुछ
विशिष्ट कार्य धर्म से जोड़ दिये गये
थे । उदाहरणस्वरुप, 'कृषिकर्म' से संबंधित
पहले एक लोकोत्सव-'कृषिवर्ष'
होता था, फिर वह अक्षय तृतीया (अकती)
के रुप में त्यौहार बन गया । इसी तरह
उपयोगी तिथियाँ महत्त्वपूर्ण कार्यों
से संबद्ध होकर त्यौहार बन गयीं
। इतना ही नहीं, आत्महत्या को पाप और
सती होने को पुण्य की तरह समझा
जाने लगा (प्रबोधचंद्रोदय, अंक ५, पृ.
१८५ एवं रुपकषटकम् (समुद्र.) पृ. १८३) । इन
दोनों प्रथाओं की भी अलग-अलग रीतियाँ
थीं । एक शिलालेख के अनुसार चंदेलनरेश
धंग ने गंगा-यमुना के संगम में अपना
जीर्ण शरीर विसर्जित किया था । (ई.
आई. भग १, पृ. १४६, श्लोक ५५) । जीवित जल
में डूबना या अग्नि में प्रवेश करना-दोनों
रीतियाँ प्रचलित रही हैं । करवत लेना
अर्थात् काशी, प्रयाग जैसे तीर्थों में
विशेष आरे सें कटकर शरीर त्यागना
एक विचित्र रीति थी, जो मध्ययुग में प्रचलित
रही (जायसीकृत पद्मावत में छंद
सं. १००, ११४, १७२, २४६, ३०९, ६०३ देखों) ।
लौकिक रीतियों में विवाह-संस्कार-संबंधी
रीतियों का अंकन वत्सराजकृत 'रुपकषटकम्'
में हुआ है । वधू-पक्ष की ओर से प्रस्ताव,
पूर्व मांगलिक कृत्य, कन्यागृह में
विवाह संपन्न, वर एवं वधू-पक्ष की ओर
अपने-अपने संबंधियों को बुलाने
हेतु दूत भेजना, मुहूर्त देखकर वर-यात्रा,
विवाह में आये व्यक्तियों को ठहराना
और वधू पक्ष की ओर से उनका स्वागत-सत्कार,
वर के आने पर
मंगलाचार, वाद्यों द्वारा अभ्यागतों
का अभिनंदन, बरात की अगवानी हेतु
कन्यापक्ष का दूर से लेना, मंगल कौतुक
कार्य, कन्यादान, दहेज में अनेक वस्तुएँ
भेंट करना आदि रीतियों से
विवाह की पूरी पद्धति स्पष्ट हो जाती
है (रुपकषटकम्, पृ. १९०, १५७, ५१, ५३, ४९, ५०, ६३,
५८, ६४, ५९, ६२-६५, १९०) । इन रीतियों और 'हर्षचरित'
में वर्णित रीतियों में थोड़ा-सा अंतर
है । महत्त्व की बात यह है कि 'रुपकषटकम्'
में वधू-पक्ष की ओर से प्रस्ताव जाता
है, जबकि 'हर्षचरित' में वर-पक्ष की
ओर से । यह नवीनता इसी युग से
प्रारंभ हुई थी ।
नारी से संबंधित कुछ प्रथाओं और
रीतियों में परिवर्तन और कुछ का
नवोदय इस युग के लोकाचार की
विशेषता है । पहले अपनी जाति से
बाहर विवाह करने की प्रथा थी, जो
इस युग में बंद हो गयी और
विवाह अपनी जाति ही तक सीमित
हो गया । दूसरे, बालविवाह की प्रथा
विशेष रुप में शुरु हो गयी थी । इतिहासकार
अल्बेरुनी ने लिखा है-"हिंदुओं में
विवाह छोटी उम्र में ही हो जाया करते
हैं, इसलिए वधू-वरों का चुनाव उनके
माता-पिता ही करते हैं (सचाऊ, भाग
२, अ. १९, पृ. १५५) । यह तध्य देश के अन्य भागों
के लिए लागू जोता, पर बुंदेलखंड
में चंदेल इतने सशक्त थे कि कन्याओं
को उतना खतरा नहीं था । 'आल्हा' गाथा
में किसी अल्पवयस्का के विवाह का संकेत
नहीं मिलता, फिर भी आक्रमणकारियों
के भय से उत्तर चंदेल-काल में इस प्रथा
का प्रचलन असंभव नहीं है । 'रुपकषटकम्'
में पर्दा-प्रथा को संकेत मिलता है
(पृ. ५९) । नारियाँ उत्सवों और
समारोहों को झरोखों या गवाक्षों
से देखती थीं । अंत:पुर में परपुरुष
का प्रवेश वर्जित था (पृ. १५५-१६०) । कुलबधुएँ
जेठों के समक्ष वार्तालाप नहीं करती
थीं । (पृ. ६२) । इन वर्जनाओं से भी पर्दा-प्रथा
की पुष्टि होती है ।
'रुपकषटकम्' में बहुविवाह और
सती-प्रथा के प्रचलन का प्रमाण मिलता
है (पृ. ५६, १८३) । अल्बेरुनी का मत है कि
विधवाएँ और राजाओं का विधवाएँ जिनके
पुत्र नहीं होते और जो वृद्धा नहीं
हैं, अपने पति की चिता पर बैठकर सती
हो जाती हैं । डॉ. ए. एस. अल्तेकर का कथन
है कि सती-प्रथा का प्रचार जनसाधारण
में नहीं था, केवल राजवंशों तक सीमित
था
। अल्बेरुनी का निर्णय काश्मीर की घटनाओं
पर आधारित है । असल में, सती-प्रथा का
फैलाव युद्ध में विजयी आक्रमणकारी
की संदिग्ध क्रियाओं की प्रतिक्रिया के रुप
में हुआ था ।
यही कारण है कि इस जनपद में
भी १३वीं शती के उत्तरार्द्ध में सती-स्तंभों
की प्रथा का प्रसार दिखाई पड़ता है (दि
अर्ली रुलर्स आफ खजुराहो, डॉ. एस. के.
मित्र, १९७७ ई., पृ. १३८-१४०) । कन्या-वध की प्रथा
के शुरु होने का भी यही कारण था
।
अन्य प्रथाओं और रीतिरिवाजों में
प्रमुख हैं-स्रियों के रजस्वला होने
पर चार दिन अस्पृश्य रहना, शिशु का
तिसरे वर्ष में मुंडन और सातवें-आठवें
वर्ष में कन्छेदन संस्कार करना, शव
को जलाने और सूतक मनाने तथा श्राद्ध
करने के संस्कार, बच्चे के जन्म पर भी
अशौच (सूतक) मानना, अतिथियों का सत्कार
करना, खुशी के अवसरों पर बधाई
देना, खेती में नकली आदमी (बिजूका)
बनाकर खड़ा करना, आश्रयदाता की प्रशस्ति
करना, प्रस्थान करते समय मांगलिक
होम, कन्या का अपहरण, भिक्षाटन आदि,
जो उस समय न्यूनाधिक रुप में प्रचलित
थीं ('मध्ययुगीन भारत', भाग ३, चि. वैद्य,
पृ. ६११, 'प्रबोध चन्द्रोदय', पृ. ५७-५९; 'रुपकषटकम्',
पृ. १२८, ३४, १८, ६३, ५०, ३८) । इसी प्रकार कुछ वर्जनाएँ भी प्रचलित थीं, जैसे अनुलोम-असवर्ण विवाह एवं जाति के बाहर विवाह, अस्पृश्यों की छाया, दूसरा धर्म अपनाने पर अशुद्ध हुए लोगों की शुद्धि, पत्नी का पति के अतिरिक्त अन्य से संबंध रखना, मांस-भक्षण और मद्यपान करना आदि । पुराणों में कथाओं के माध्यम से निषेधों का संकेत अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ था और उससे भ्रष्ट आचारों का अप्रत्यक्ष उपचार संभव बना था । पुराणों के नये संस्करणों और नयी स्मृतियों में इस समय के रीतिरिवाजों का उल्लेख मिलता है । व्रतों-उपवासों की रीतियों और लोकोत्सवों एवं तेयौहारों की विधियों का वर्णन उनका प्रधान विषय है ही, उनमें वर्जित कर्म करनेवालों के लिए प्रायश्चित्त करने का विधान भी है । अस्पृश्यों को छूने और उनका छुआ जल पीने या भोजन करने, गो और ब्राह्मण की हत्या करने, श्राद्ध में मांस देने पर न खाने, म्लेच्छों द्वारा छीनी गयी स्रियों की शुद्धि न करने, गोमांस-भक्षण, शिखा काटने या कटवाने, व्यभिचार करने आदि पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों को समाज की आचारसंहिता में मान्य करवाकर इन ग्रंथों ने महत्कार्य किया था । तोमर युग तोमर-काल
की मुख्य समस्या का संकेत तत्कालीन
कविवर विष्णुदास ने अपने 'महाभारत'
नामक प्रबंध में कर दिया था- "म्लिच्छ
बंस बढि रह्ययौ अपारा, कैसें रहै धरम
कौ सारा ।" (पृ. १७१) अर्थात् म्लिच्छों के
बढ़ने से धर्म-तत्त्वों के अस्तित्व को संकट
उत्पन्न हो गया था । इसी के साथ एक चिंता
और जुड़ी थी-"कैसो कलि कैसो आचार,
कैसो चलन चल्यो संसार ।' अर्थात् आचार
और चलन के बदलने की चिंता । स्पष्ट
है कि १५वीं शती में लोकाचार के प्रति
एक अतिरिक्त जागरुकता वर्तमान थी । जनता
में और प्रबुद्ध कवियों में । इस अंचल
के कवियों में जागरुक चेतना की एक
लम्बी परम्परा दिखाई पड़ती है । उनके
प्रबंधों में कलियुग के ब्याज से तत्कालीन
लोकाचार की वास्तविकता और विशेष
रुप में वर्जनाएँ अभिव्यक्त हुई हैं । लोकाचार
के प्रति इतनी चिंता अन्यत्र दुर्लभ है ।
सुल्तानों के शासन-काल में लोकाचार
के विनाश का खतरा हमेशा बना
रहता था, इसीलिए एक तरफ संघर्षशील
सिपाही तलवार का धर्म लेकर खड़ा
हो गया, तो दूसरी तरफ नीतिनिर्देशक
संत पाप-पुण्य के कर्मों का मर्म लेकर
अड़ा रहा । 'छिताई कथा' के कवि नि जहाँ
'छत्री खरग धर्म दिढ सूरा' की घोषणा
की, वहाँ 'महाभारत' के कवि ने 'बिनसै
कला कुठाकुर सेवा' का मंत्र दिया ।
इस तरह कर्म और धर्म, दोनों लोकाचार
की रक्षा में जुटे रहे ।
'छिताई कथा' में लोकाचार के लिए 'आचार'
और 'बिउहारा' -दोनों शब्दों का प्रयोग
हुआ है । कवि ने व्यक्ति और वंश, नीच
और सज्जन, प्रेम और राजनीति के 'बिउहार'
अलग-अलग बताये हैं, जिससे लोकाचारों
की विविधताओं का पता चलता है । इस
युग में जन्म-संबंधी संस्कारों का पता
इन्हीं दोनों ग्रंथों से चलता है । 'छिताईकथा'
से ज्ञात होता है कि बच्चे के जन्मते
ही पुरोहित को बुलाकर उसके ग्रह-नक्षत्र
दिखवाये जाते थे और भविष्य में
होने वाली प्रमुख घटना या घटनाओं
की भविष्यवाणी पर विचार-विसर्श
भी किया जाता था (छंद ९४१) । 'महाभारत'
के अनुसार 'अर्जुन' नामकरण 'कोंहाँ'
वृक्ष के तले जन्मने के कारण रखा गया
('कोंहाँ रुख तरें अवतारु, तातों अर्जुन
नाउ कुँवारु ।' (आदि पर्व, छंद २/८७) । इस
तरह का नामकरण आदिम प्रतीत होता
है, क्योंकि वृक्षों के नाम पर नामकरण
की प्रथा आदिवासियों में प्रचलित थी ।
जन्म पर बधाये होना, बाजे बजना और
नृत्य होना भी परम्परागत था । इस
ग्रंथ में विवाह के अंतर्गत, बरात, टीका,
जनवासा देना, चढ़ाए कौ साज, भोजन,
प्रात: भाँवर, दायजौ सौंपना,
शिष्टाचार और विदा का उल्लेख है, जबकि
'छिताई कथा' में वर का खोज के लिए
ब्राह्मण भेजना, तिलक, लगन, वैवाहिक
निमंत्रण, बरात की यात्रा, बारत की अगवानी,
दोनों वंशों की परम्परा के अनुसार
सभी 'आचार' करना, मंडप में बरात
का बैठना, मंडप की गारियाँ, ज्योंनार
(भोजन), मंगलाचार, दायजा और पालकी
में विदा को क्रमिक रुप दिया गया
है (महाभारत, विराट् पर्व, छंद
६/३३-३७ एवं 'छिताई कथा' छंद १५७, १६३, १६७-१७०,
१७३, १७६) । मृत्यु-संस्कार को 'महाभारत'
में 'किरिजा-काज' कहा गया है (आदिपर्व,
२/१०२) । गया जाकर पुरखों को पिंडदान
करने की प्रथा भी थी (छिताई कथा, छंद
६२२) ।
इस युग में 'बहुविवाह प्रथा' प्रचलित
थी, जिसका संकेत 'छिताई कथा' (छंद
१६) से मिलता है ।
सुल्तानों के हरम में भी मलिकाओं
की भीड़ थी । विवाह को राजनीति का
हथियार बनाकर प्रयोग करने का एक
सस्ता नुस्खा मिल गया था, जिसे राजा
और बादशाह, दोनों पसंद करते थे
। इस समस्या के समाधान के लिए 'एकपत्नी-प्रथा'
को आदर्श के रुप में खुब जोर-शोर
से प्रचारित किया गया और इसी के
निमित्त कविवर विष्णुदास ने 'रामायन
कथा' में लोकभाषा वाली सहज और
बोधगम्य शैली का प्रयोग करते हुए
सीता और राम के एकनिष्ठ प्रेम को सर्वोपरि
महत्ता दी । 'छिताई कथा' के कवि ने तो
उसे 'साधना' की कोटि में रखकर प्रेम
की पवित्रता की विजय मानी (जैसे जती
जोग अभ्यास, त्यों पतिब्रता कंत की दास
।) । कथा का नायक समरसिंह राजनीति
के सभी गुणों का व्यावहारिक ज्ञान
रखता है, पर पराई स्री की ओर आँख
उठाकर भी नहीं देखता (सब गुन राजनीत
ब्यौपरई, पर तीया पर दिष्ट न धरई
।) इस प्रकार समरसिंह की विजय का
मंत्र 'एकपत्नी व्रत' था । ठीक उसी तरह, जैसे
राम का । तत्कालीन समाज में भी इसी
मंत्र से विजय की घोषणा कवियों ने
की थी ।
वस्तुत: इस युग का सांस्कृतिक
संघर्ष ' एक पत्नी-प्रथा जैसे अस्रों से
जीता गया था । अतएव कथाओं के माध्यम
से उसे जन-जन तक पहुँचाना कवियों
का काम था और इन कथाओं को सुनना
इसलिए ज रुरी था कि सुनने से
गंगास्नान का फल घर बैठे प्राप्त होता
था (जो यह कथा सुनइ दै काना , ता
फल गंगा होइ असनाना) । इन्हीं संबंधों
ओर उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कथा
सुनाने की परम्परा प्रारंभ हुई थी
।
दूसरी प्रथाओं और रीतियों में
पर्दा, तमाशा, जात्रा, मकरसंक्रांति पर
प्रयाग में व्रत रखना, किसी काम के लिए
बीड़ा (पान का बीड़ा) देना, गृह-प्रवेश
का उल्लेख 'छिताई कथा' में है । पर्दा-प्रथा
मुसलमानों में थी और उसका प्रसार
हिन्दू राजाओं तथा सामंतों में भी
हो गया था । तमाशा, जात्रा आदि और
व्रतोपवास धार्मिकता से बँधे थे ।
गृह-प्रवेश की रीति बहुत पुरानी
और वैदिक कही गयी है (छिताई कथा,
छंद १५६), जबकि बीड़ा देना या बीड़ा उठाने
की परम्परा राजपूत युग की ही है,
'आल्हा' गाथा में उसे काफी महत्त्व मिला
है । पूर्वबुंदेल-युग
के लोकाचार के साक्ष्यों
में एक तरफ भक्तकवि हरिराम व्यास,
तुलसीदास, अज्ञात कवि कृत परमालरासो,
रीतिकवि केशव की रचनाएँ हैं, तो दूसरी
तरफ भक्तिपरक लोकगीत हैं । कुछ इतिहास-ग्रंथ
भी कभी-कभी सहायक सिद्ध होते
हैं । एक निर्विवाद तध्य यह है कि विदेशी
संस्कृति लोकाचार के क्षेत्र में भी आक्रामक
रही है, इसीलिए उसके विरुद्ध सच्चे 'सूर'
की आवश्यकता है-'मरै कै मारै साँचौ
सूर, पीठ न देइ दीठ के अरिदल सुनत
समर के तूर ।' (भक्तकवि व्यास, वाणी-संकलन,
वासुदेव गोस्वामी, छंद ९६) साथ ही
समाज के सभी वर्गों की एकता
भी जरुरी है-'भक्ति में कहा जनेऊ-जाति,
सब दूषन भूषन बिप्रन के पति छू घरनि
घिनाति' (छंद १०४) । विदेशी आक्रमण का सामना
करने के लिए या तो वीरता का
सहारा था या फिर भक्ति का । इस अंचल
ने दोनों शस्रों का प्रयोग किया था
। तुलसी और केशव
तो संस्कृति के आचार्य थे । उन्होंने बुंदेलखंड
में प्रचलित लोकाचार को रामकथा
से संबंधित कर दिया है ।
दोनों कवियों ने तत्कालीन लोकगीतों
का संकेत भी किया है, जिससे सिद्ध
है कि लोकगीतों के आधार पर लोकाचारों
के वर्णन किये गये हैं ।
तुलसी लोक और वेद के भेद को
अचछी तरह जानते थे,
इसीलिए वे वसिष्ठ से लोकरीति
और वेदविधि, दोनों संपन्न करवाते
हैं (गीतावली, बालकांड, छंद ६) । राम
और तीनों अनुज विवाह करके लौटते
हैं, तो माताएँ लोकरीतियाँ करती
हैं ('लोकरीति जननी करहिं', रामचरित
मानस, बालकांड, छंद ३५० ख) ।
कुल-रीति स्वयं कुलगुरु पूरी कराते
हैं (मानस, बाल. छंद ४३) ।
सबसे महत्त्वपूर्ण है-कवि का आचरण
को देवता और राक्षस की कसौटी बनाना
। उसके अनुसार अनीति, हिंसा, चोरी, जुआ,
परधन छीनना, परदारा लेना, माता-पिता
और देवता को न मानना, साधुओं से
सेवा कराना जैसे आचरण प्राणी को
निशिचर बना देते हैं (मानस, बाल.,
छंद १८४/२) । लोकसंस्कारों
में जन्म, विवाह और मृत्यु, तीनों तथा
उनकी रीतियाँ इस युग के साहित्य
में मिलती हैं । जन्म के अंतर्गत संतान
न होने पर ग्लानि, जन्म पर गुरु और
ब्राह्मणों को बुलाना, नांदिमुख-श्राद्ध
(मंगल कार्यों में पितरों का पूजन), जातकर्म,
बधाई के गीत, सोहर गाये जाना, छठी
(चौक), नामकरण, चूड़ाकर्म (मुंडन) और
जनेऊ (यज्ञोपवीत) संस्कर आते हैं,
जिनका वर्णन रामचरित मानस (बालकांड,
१८९/१, १९३/४, १९३, १९४, १९७/१, २०३/३) और गीतावली (गीत
सं. २,३,५, ६) में हुआ है । विवाह के संस्कार
को एक गीत (विवाह-लीला) में पिरोया
है भक्तकवि हरिराम व्यास (१५१०-१६१२ ई.)
ने । उसके अनुसार पुरोहित द्वारा शुभ
घड़ी शोध कर लगन भेजा जाना, पुरोहित
का वरपक्ष के घर पहुँचना, वर का पटा
पर आसीन होकर बैठना और तिलकित
होना, पंचों को लगन विदित होना,
वर को तोल चढ़ाना, मंडप की रचना
कर शंभों में दिये रखना, बरात की
तैयारी, वधूपक्ष द्वारा बरात की अगवानी,
सजनभेंट, बारौठी (वर के द्वार पर
आने के समय टीका की रस्म), जनवासा
देना, ज्योंनार, साखोचार, जनवासे
में दुलहिन के आने पर आनंदबधाये,
मुखदिखराई, पलकाचार, दाइज, बिदा,
वरपक्ष के घर बरात वापस आने पर
ज्योंनार, आरतौ (वर का आरती,
विवाह की एक रीति), मान या मानसंबंधियों
के द्वारा द्वार छेंकने का नेग, भाये (वर-वधू
को कनियाँ लेकर खुशी से नाचना) कंकन
छोरना (वर-वधू द्वारा) आदि प्रमुख
वैवाहिक रीतियाँ प्रचलित थीं । तुलसी
ने 'रामचरित मानस' (शिव-विवाह,
बालकांड, दोहा ९१ से १०३ एवं राम-विवाह,
बाल., दोहा २८६ से ३६१) 'गीतावली' (बाल.
गीत सं. १००-०३) और 'जानकीमंगल' तथा 'रामललानहछू'
में इस संस्कार का विस्तृत और क्रमबद्ध
वर्णन किया है । उक्त रीतियों के अतिरिक्त
लगन बाँचना, वर-वधू पक्षों के घरों
की सज्जा, परछन, पाँव-पखारन, कन्यादान,
भाँवर, सेंदुर देना, बारत का सम्मान,
कोहबर के नेग, लहकौर, वरपक्ष के
घर वरवधू द्वारा देव-पूजन को
महत्त्व दिया गया है । परमालरासो
(नागरीप्रचारणी सभा काशी, १५/१६२, १८३) में
रतवाई फिरना और रहस बधाये
दो रीतियों का उल्लेख है । रतवाई भाँवरों के पूर्व राछ
फिरने को कहते हैं, जिसमें वर-वधू
घोड़े और पालकी पर बैठे हुए एक-दूसरे
पर अक्षत फेंकते वधू-पक्ष के घर की परिक्रमा
करते हैं । रहस बधाये में वधू जनवासे
में आती है ओर वह-पक्ष के परिजन, संबंधी
और व्यौहारी वधू को उपहार देते
हैं । आचार्य केशवकृत 'रामचंद्रिका'
में पलकाचार की रीति को विशिष्ट
स्थान दिया गया है । इन सब रीतीयों
में कुछ उल्लेखनीय हैं । तुलसी ने गीतावली
के एक गीत में (सं. ५) छठी के अवसर पर
स्रियों के रात्री-जागरण का उल्लेख किया
है । रचना के अनुवाद (गीता प्रेस) में
जागरण का कारण पूतना आदि (संभवत:
दुष्टात्माएँ ?) के आक्रमण का भय बताया
है । दूसरी रीति है सुआसिन, गुरुजन,
पुरजन, पाहुने आदि को पहरावनी
देना । 'रामलला-नहछू' में जब वर
बाँस के मंडप के नीचे और चौक के
आसन पर नाखून कटवाता और
महावर लगवाता है, तब अहीरनी दहेंड़ी
लिए, तमोलनी पान का बीड़ा लिए, दर्जिनी
जोड़ा लिए, मोचनी पनइयाँ लिए, मालिन
मौर लिए, बरिनिया छाता लिए और नाउन
नहरनी लिए खड़ीं निवछावरि या निछावर
पाती हैं । यह रीति अभी बीसवीं शती
के प्रथम चरण तक प्रचलित थी
। 'परछन' की रीति में घोड़े पर बैठे
वर को स्रियाँ दही-अक्षत का टीका लगातीं,
फिर मूसल और बट्टा का उतारा तथा
आरती करती हैं । कोहबर वह कक्ष
है, जहाँ विवाह के समय सालियाँ
और सरहजें वर के साथ बिनोद के
खेल खेलती हैं । कहीं-कहीं इस कक्ष में
कुलदेवता की प्रतिष्ठा होती है और
मैर भरा जाता है । लहकौरि की रीति
में वर और वधू एक दूसरे के
मुँह में कौर डालते हैं और इस
विनेद में जीत का नेग होता है । अखिल
भारतीय विक्रम परिषद्, काशी से प्रकाशित
'श्रीरामचरितमानस' (सं. २०२८), पृ. ३२५ में
लहकौरि की व्युत्पत्ति लाभअकोटि या
लघुअकोटि से दिखाकर
उसका अर्थ जितानेवाला या हस्तलाघवयुक्त
गाँव माना गया है, जो एक बौद्धिक कसरत
के अलावा कुछ नहीं है । वस्तुत:
लहकौर या लहकौरि में कौर के
लाभ या जीत की ही क्रीड़ा है । सभी कवियों ने
ज्योंनार के साथ गारियाँ (गीत) गाने
की रीति का संकेत किया है ।
हरिराम व्यास ने दौना-पत्तल पर
व्यंजन परोसते समय 'महलनि' चढ़ी
देति तिय गारि' से स्पष्ट उल्लेख कर
दिया है कि स्रियाँ अटा या छत पर चढ़कर
गारियाँ देती हैं, जबकि 'परमालरासो',
में 'जेंवन सब ठाकुर लगो, गाइ गारि
जगसार' द्वारा गारियाँ गाना लिखा
है तुलसी ने 'गारि-गान' के साथ 'जेंवत
देहिं मधुर धुन गारी । लै लै नाम पुरुष
अरु' नारी ।। कहकर ही नहीं, वरन् 'गारी
मधुर सुर देहीं सुंदरि बिंग्य बचन
सुनावहीं' से पूरी प्रक्रिया प्रस्तुत कर
दी है । इस जनपद में वरपक्ष के संबंधियों
का नाम लेकर चुटीले व्यंग्य किये जाते
हैं । आचार्य केशव ने तो पृध्वी और
राजा दशरथ का संबंध बताते हुए एक
व्यंग्य की रचना ही कर डाली है-
वह रावरे पितु करी पत्नी तजी
विप्रन थूँकि कै ।
अरु कहत हैं सब रावणादिक रहै
ताकहँ ढूँकि कै ।
यह लाज मरियत ताहि तुमसों
भयो नातो नाथ जू ।
अब और मुख निरखै न ज्यों त्यों राखिये
रघुनाथ जू ।।
रामचंद्रिका
६/३६ मृत्यु-संस्कार
में मृतक के स्नान करवाना, विमान
बनाना, चिता बनाकर दाह-क्रिया करना,
फिर स्नान करना, तिलांजलि देना, दस-गात
करना, अशौच मानना, शुद्ध होना आदि
का क्रमबद्ध रुप रामचरितमानस के दशरथ
की अंत्येष्टिप्रसंग में मिलता है । आतिध्य-सत्कार
की प्रथा यहाँ वन्य जितीयों और नागर
भाइयों-दोनों में थी (मानस, अयो.
२५०-२५१, ११४-११५ एवं बाल. ३३२/२) । नारी से संबंधित
प्रथाएँ कई ग्रंथों में उल्लेखित हैं । आचार्य
केशवकृत 'वीरसिंहदेव चरित' (१३/८)
के अनुसार बहुपत्नीत्व प्रथा अब सामंतों
और राजाओं में ज्यादा थी
। तुलसी और केशव
ने एकपत्नीत्व पर बल दिया था (रामचंद्रिका,
९/१६), ताकि अनैतिक कामुकता के खिलाफ
लड़ा जा सके । इसी उद्देश्य से पर्दा और
सती-प्रथाएँ जीवित थीं । सती के संबंध
में दोहावली का एक दोहा (सं. २५४) सती
होने के आडम्बर की भत्र्सना करता
है-
सीस उघारन किन कहैउ, बरजि
रहे प्रिय लोग ।
घरहीं सती कहावती, जरती नाह-बियोग
।। सतीत्व सत्त से
होता है (परमालरासो, ११/८९, 'जिनके
सत्त धरा रहै'), यह घारणा पूरे मध्ययुग
में थी । यही कारण है कि वैध्व्य की साधना
भी सतीत्व के समान पवित्र मानी जाती
थी । इनके साथ-साथ कवियों ने कलियुग
के बहाने वर्जनाएँ और वास्तविकताएँ
प्रकट की हैं । हरिराम व्यास ने नारी
के बेचने की प्रथा का यथार्थ रखा है-
अब साँचौ ही कलिजुग आयौ ।
पूत न कहो पिता कौ मानत करत
आपनौ भायौ ।
बेटी बेंचत संक न मानत दिन-दिन
मोल बढ़ायौ ।...पद सं. २९३ रामचरित
मानस के उत्तरकांड (दोहा ९७ से १०२ तक)
में भी लोकाचार की कुछ सही स्थितियों
को इंगित किया गया है । कवि का अनुभव
है कि दम्भी ही बड़ा आचारी है और
निराचारी ही ज्ञानी और विरागी
है (जो कर दंभ सो बड़ आचारी । निराचार...कलिजुग
सोइ ज्ञानी ।) अभक्ष्य-भक्षण से लेकर परत्रिय-लम्पट
तक के भ्रष्ट आचारों का वर्णन समाज के
एक ऐसे वर्ग का चित्र अंकित कर देता
है, जो 'उदर भरै' (पेट) के धर्म पर
निर्भर रहा है । दरअसल, तुलसी ने
कलि-वजर्य के रुप में लोकाचार का
'काला पक्ष' उजागर किया है । इसी समय भक्तिपरक
लोकगीतों की रचना हुई थी जिनमें
नायक राम या कृष्ण हैं, पर उनके
बहाने लोकाचारों का अभिव्यक्ति हुई
है । जन्म, विवाह और धार्मिक उत्सव या
त्यौहार-संबंधी लोकसंस्कारों, लोकरीतियों
और लोकप्रथाओं में राम और कृष्ण
के नायकत्व से जहाँ लोकाचारों का
महिमा बढ़ी है, वहाँ समाज में उनकी
अनिवार्यता निश्चित हुई है । लोक
के जन-जन ने अपने को रामकृष्ण या सीताराधा
समझकर आत्मविश्वास का एक नया आभामंडल
खड़ा किया है, जो विदेशी घुसपैठिये
आचारों को अपने तेज से हरप्रभ करता
रहा है । इतना ही नहीं, इन लोकगीतों
ने हर परिवार के परिजनों और संबंधियों
में एकता की निष्ठा और प्रेम की मधुरता
घोल दी है, जिससे समाज के चारों
ओर एक द्रव-कवच खड़ा हो गया है, जो
खुराक देता है और रक्षा भी करता
है । लोकाचार में एक निराली शक्ति
है जो अच्छों-अच्छों को झुका देती है,
पिघला देती है और बदल देती है ।
आदमी के मन में मोड़ लाने के ये उदाहरण
तत्कालीन युगचेतना के अनुरुप ही गढ़े
गए हैं- १.
कोट नबै परबत नबै सिर नबै
नबाये,
माथो जनक जू कौ तब नबै जब साजन
आबें ।... २.
कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइओ,
बिटिया न दइओ परदेस
।
देरी की इटिया खिसक जैहै बाबुल,
बिटिया बिसूरै परदेस ।। ... ३.
सासो हसारी गंगा उर जमुना ससुर
हैं तीरथ पिराग,
सासें हमारी अधिक पियारीं देती
हैं दूध बियारीं,
सारे हमारे घुड़ला फिराबैं साराजें
तपें रसोई,
जैसी मढ़ भीतर लिखी पुतरिया
बैसी है बहू तुमार ।
हँस-हँस पूछें माता कौसिल्या
कैसी बनी ससुरार ।। पहले उदाहरण में समधी के आने पर ही मस्तक झुकाने का संस्कार है, वरना दुर्ग, पर्वत और जबरन, सिर भी झुक जाते हैं, लेकिन जनक जी का सिर नहीं झुक सकता । दूसरे में, विदा के समय बिटिया के ये बोल हर मन को पिघला देने की क्षमता रखते हैं । तीसरे में, सास-ससुर को गंगा, यमुना और प्रयाग की उपमा देकर दो परिवारों की एकता की सीख दी गयी है । तात्पर्य यह है कि लोककवियों ने अपने लोकगीतों में लोकाचारों को महत्त्व देकर एक सांस्कृतिक ढाल खड़ी कर दी थी, जो लोकाचारों को जीवित रखकर लोकसंस्कृति की रक्षा करती रही । लोकाचारों के गीतों में रामकृष्ण या सीताराधा का नाम जोड़ने का यही अर्थ था । तुलसी ने इस प्रक्रिया और उद्देश्य को समझकर ही लिखा था-'गावहिं सुंदरि मंगल गीता । लै लै नाम राम अरु सीता ।।'
कुलरा
करबे कों घन टेयै । यो अविवेकी
साहिब सेयै ।।
अविवेकी कों सेइ कें, को न
हियै पछताइ ।
बीजा बवै बबूर के, कहा दाख
फल खाइ ।। ११/२ ।।
अविवेकी साहिब या स्वामी की सेवा
कितनी पश्चात्ताप भरी है, इस सत्य को
कविवर विष्णुदास ने 'बिनसै कला
कुठाकुर सेवा' कहकर पहले से पहचान
लिया था और उसी को छत्रसाल ने अनुभव
करने के बाद समझा था ।
कवि या कलाकार के लिए वह विनाश
का कारण थी, तो किसी वीर के लिए आत्महत्या
का । इसी वजह से स्वतंत्रता की रीति
ही तत्कालीन आवश्यकता थी । छत्रसाल का
विश्वास था कि चारों वर्ण के आचरण अलग-अलग
हैं और क्षत्रियों की वृत्ति है, युद्ध या
तेग वृत्ति । इसी जात्याचार पर वे दृढ़
थे-
जुद्धवृत्ति छत्रिन की गाई । तातें
यह मोरे मन आई ।
अपनौ बर्नधर्म प्रतिपालौ । साहन
के दल दौरि उसालौ ।।
छत्रप्रकास, (१२/७)
क्षत्रिय पुरुषों के लोकाचार (जात्याचार)
में यदि युद्ध प्रधान था, तो क्षत्रिय नारियों
में अग्नि-प्रवेश-'सब ठकुरानिन उमगि कै,
कीन्हौ अगिन प्रवेस ।' वैसे हरिकेशकृत
'जगतराज की दिग्विजय' (१७२२-२३ ई.) के छंद
१७५ में क्षत्राणियों का संग्राम करना जात्याचार
के अंतर्गत बताया गया है । इस युग
में जात्याचार ही दैशाचार बन गया
है और कुलाचार ने भी व्यापक प्रतिष्ठा
का रुप ले लिया था । स्वयं छत्रसाल ने
कुलरीति, कुलसाख और कुलवारे पर
जोर दिया था (छत्रसाल-ग्रंथावली, नीति-मंजरी,
छंद सं. ५, ८, २५) । ऐसे संकटकाल में जन्मने
वाले लोकगीतों, राछरों और लोकगाथाओं
में युद्धों की लघुकथाएँ मिलती हैं, जिनमें
या तो किसी वीर के जूझने की संकेत-कथा
है या किसी नारी के अग्नि-स्नान की । लोकजागरण
के लिए ऐसे ही गीतों का अवतरण जरुरी
था । 'मनोगूजरी' और 'मथुरावली'
की लोकगाथाओं में किसी-न-किसी की
लाज बचाने के लिए नारी की जूझ का चित्रण
हुआ है-
अंग जरें जैसें लाकड़ी, केस जरें जैसें
घास, ठाँड़ी जरै मथुरावली ।
राखी बहना पगड़ी की लाज, ठाँड़ी
जरै मथुरावली ।।
विदेशी लोकाचार के दबाव से
देशी लोकाचार के रुढ़ होने की स्थिति
बनती है, इसलिए यह निश्चित है कि
इस युग में लोकाचारों का कट्टर
अनुसरण होने लगा ता । पृध्वीसिंह 'रमनिधि'
के 'रतन हजारा' (छंद ९२२) में इस दृष्टि
का पता चलता है-'चलि आयो जैहै तलो
जगत बिदित ब्यौहार' । बख्शी
हंसराज (१७३२-५४ ई.) के प्रबंध 'सनेह-सागर'
(६/९४) से भी स्पष्ट है-'जहाँ लोक अरु वेद
आचरन तहाँ प्रकृत गुन मानौ ।' द्विज गुमान
कृत 'कृष्ण-चंद्रिका' (१७८१ ई.) के सत्ताईसवें
प्रकाश (छंद ६) में 'लोक उचित आचार
सम्हारे' कहकर उसी दृष्टिकोण की
सम्पुष्टि की गयी है । इसी से प्रेरित
होकर यहाँ के लोकसंस्कारों का
वही रुप बना रहा, जो पूर्वयुग में
था । जन्म
के अंतर्गत जातकर्म, छठी, जन्मपत्रिका, नामकरण,
पासनी (अन्नप्राशन) आदि (छत्रप्रकास, ४/२-३);
विवाह के अंतर्गत 'रसनिधि' के रतनहजारा
(१७००-०८ ई.) में मंडप, भावरें और कंकन
के रुपक (छंद ३१९, ६४३); हरिसेवक मिश्र
(१६९८-१७३५ ई.) के प्रबंध 'कामरुपकथा'
(१८/१२-३२) में लगुन शोध कर लिखना, लगुन
का वर के हाथ धरना, आगौनी (अगवानी),
ऊभी (ऊबनी, टीका), आतसबाजी, कलश-वंदना,
तिलक, जनवासा, मंडप, ज्योंनार, भाँवर,
दाइज आदि लोकरीतियाँ; 'सनेह-सागर'
में लगुन, मंडप, तेल चढ़ाना, हल्दी चढ़ाना,
मटिहानौ (छेईमाटी), मैहर थापना,
बरात, मिरचाना, पौनछक लाना, वाग्दान,
आगौनी, आतसबाजी, दोरचार (द्वारचार),
टीका, मंडप, जनवासा, लहकौर, जनेऊ,
चढ़ायौ चढ़ाना, राछ, सुहाग लेना, साखोचार,
हथलोई, भाँवर, कुलदेवी-पूजा,
रहस-बधायो, ज्योंनार, दाइज,
मोहचावनो, दादरे आदि का विस्तृत
वर्णन है । 'सनेह-सागर' के लोकाचारों
में आंचलिक रंग अधिक है । बौधाकृत
'विरहवारीश' (३०/४, ९, २३, ३०-३६ तथा ३१/१-३६) में
भी वही वैवाहिक रीतियाँ हैं, केवल
मायनो और पलकाचार का वर्णन नवीन
है । 'छत्रप्रकास' में स्नान करने के बाद
पिता को अंजलि देने का उल्लेख है (९/६)
।
छत्रसाल ने महाकवि भूषण की पालकी
पर कंधा लगाकर और अपने कवियों
को बरोबरी की बैठक देकर सम्मान
की नयी रीति स्थिर की थी । उनके सुपुत्र
जगतराज ने कविवर हरिकेशकृत 'जगतराज
की दिग्विजय' को सुखपाल पर आरुढ़ कर
सम्मानित किया था । इस युग में अतिथि-सत्कार
(कामरुपकथा, १०/१८, विरहवारीश, २५/२७) का
रिवाज था
। मिलने पर जुहार, जयश्रीराम, कुन्नस
(विरहवारीश, ३/३०, २५/४५, २९/१५) के रुप में
समादर करने की रीति थी । गृह-काज
में जेठी और बड़ी बूढ़ी को आगे कर
उन्हें मान दिया जाता था (कृष्णचंद्रिका,
५/४) कौल-करार के द्वारा विश्वास दिलाया
जाता था (विरह-वारीश, २२/२५, २८/१५) । टोटका-टोना
करना और मूठ मारना जैसी अहितकारी
रीतियाँ भी प्रचलित थीं (कृष्णचंद्रिका
५/४२, विरहवारीश ५/६) । 'करहिया कौ
रायसौ' में ५ चोट की बारुद और ५ गोली
भजकर युद्ध करने की रीति को बल
दिया गया है । छत्रसालकृत 'श्रीरामयशचंद्रिका'
(छंद ३६) और 'सनेह-सागर' (६/७०, ८०) में 'अखती'
के उत्सव पर पति द्वारा पत्नी का और पत्नी
द्वारा पति का नाम लेने की अनोखी किंतु
विनोदपूर्ण रीति का वर्णन है । छत्रसालकृत
'नीतिमंजरी' (छंद ५, १३) में कुछ वर्जनाओं
का उल्लेख
है ।
इस समय के लोकगीत जहाँ वीर-रसपरक
थे, वहाँ श्रृंगारिक भी । वीररसपरक
गीतों में लोकगाथाएँ और राछरे प्रमुख
हैं । लोकगाथाओं के कथानक किसी-न-किसी
युद्ध को केन्द्र में रखकर बुने गये
हैं । 'कजरियन कौ राछरौ', 'अमानसिंह
या प्रानबली' के राछरे में भाई-बहिन
के संबंधों का वर्णन है । कजरियन
या भुजरियन कौ राछरौ प्राचीन
है, पर शेष दोनों इसी युग के
हैं । इनमें सावन के लोकोत्सव 'रक्षाबंधन'
को निकट पाकर भाई बहिन को उसकी
ससुराल से लेने जाता है, तभी
बहनोई से उसका युद्ध होता है और
बहनोई मारा जाता है । इस युद्ध
में बहिन की करुणा प्रधान हो जाती
है, पर उसमें
लोकाचारों की कड़ियाँ भी गुँथी
हुई हैं । श्रृंगारपरक गीतों में अधिकतर
ऐसे हैं, जो वैवाहिक लोकरीतियों
से जुड़े हुए हैं । बना (वर) और बनी
(वधू) के गीतों में तो लोकाचार के
मिस रसिक श्रृंगारिकता है । राछ के
समय स्रियाँ गाती हैं-
बना रसगेंदिया न घालौ, देखौ
लाग जैहै जू ।
देखौ लाग जैहै जू, गगर मोरी
फूट जैहै जू ।
गगर मोरी फूट जैहै जू, चुनर
मोरी भींज जै है जू ।
चुनर मोरी भींज जैहै जू, सास
घर रुस जैहै जू । बना. ।
श्रृंगार रसपरक दादरे भी अनेक
रीतियों से बँध गये हैं और वे रुढ़
होकर प्रचलित रहे हैं । छेईमाटी,
दाल धोने, राछ और बधू के घर आने
पर 'बुलौवा' या 'दादरे' में ये श्रृंगारपरक
दादरे अपनी रसवत्ता में सबको मात
कर देते हैं । उत्तर बुंदेल युग गठेवरा
का नौने अर्जुनसिंह और बेनी हजूरी
के बीच लड़ा गया युद्ध बुंदेलखंड का
महाभारत कहलाता है और वह सांस्कृतिक
इतिहास की एक सीमारेखा इसलिए बनाता
है कि उसी के बाद पतन शुरु होता
है । समाज में अज्ञानियों, दम्भियों, दगाबाजों,
नमकहरामों और पाखंडियों की बाढ़
आ गयी थी और जीवन में शील, सत्य,
रीति, नीति और न्याय नहीं रह गया
था । उस समय के प्रसिद्ध कवि ठाकुर ने
इस स्थिति का स्पष्ट चित्र अंकित किया
है-
दंभी दगाबाजन की बाढ़ी है अधिक
थाप,
ज्ञान-ध्यान-वारेन की बात बेप्रमाना
है ।
पूँछत न कोऊ कबि कोबिद प्रवीनन
कों
नसकहरामी को हजारन खजाना
है ।
रुप हे न रस हे न गुन है न ज्ञान
कहूँ,
शील है न सत्य
भाई निरस जमानो है ।
रीति है न प्रीति है न नीति है न
न्याव कहूँ,
घर घर दैखियत हरष हिरानो
है ।
इस परिस्थिति में लोकाचारों का
पतन भी स्वाभाविक है, परंतु इस जनपद
में मराठों, गोसाइयों, नवाबों और
अंग्रेजों के आक्रमणों, युद्धों और दुरभिसंधियों
से फिर लोकाचारों की कट्टरता समाज
पर हावी हो गयी । दूसरे, छल-कपट
और स्वार्थ की राजनीति के कारण लोकाचार
युद्ध की बलिवेदी पर चढ़ा दिये गए ।
तीसरे, युद्धपरक लोकाचारों की बाढ़-सी
आ गयी । इन सबके गवाह हैं ठाकुर,
पद्माकर जैसे कवि और कई रासोकार
तथा कटककार । साथ ही हरबोलों की
एक पलटन, जो दो दशक वीरगीत गा-गाकर
जन-जागरण करती रही ।
युद्धों का प्रभाव इतना अधिक था कि
उनके संबंध में कुछ लोकाचार स्थिर
हो गये थे । युद्ध करने की शुभ घड़ी
शोध करवाना (हिम्मतबहादुर-विरुदावली,
छंद २०), युद्धपूर्व पूजा की रीति (शत्रुजीत-रायसौ,
छंद १६३-१७०), युद्ध में भी आभूषण पहनने
का रिवाज (वही, छंद १७९-१७५), जंत्र-मंत्र और
गुटका-कवच धारण करना (हि. वि. छंद
१११, ११९), जाँगड़ों का करखा और ढाढियों
का विरुद गाना (वही, छंद ४२, ८१), नमक अदा
करना (वही, छंद १२२) और बीड़ा उठाना
(बाघाट-रासो, छंद ६८) तथा सत्त के लिए
सती होने की प्रथा (वही, छंद ९७) आदि
लोकाचारों के उदाहरण मिलते हैं,
जो युद्ध की रीति-नीति वाली संस्कृति
खड़ी करते हैं ।
त्यौहार की रीतियों में प्रमुख-अखती
में बोदर चलाकर पत्नी से पति का नाम
बुलवाना (ठाकुर-ठसक, छंद १०२,०५),
होली में गाकर गाली देना और ताली
बजाकर पिचकारी घालना (पद्माकर-ग्रंथावली,
प्रकीर्णक, छंद ५९), रक्षाबंधन में राखी
बाँधना (वही, छंद ८३) और फाग में फगुआ
लेना (जगद्विनोद, पद्माकर, छंद २३९) उल्लेख्य
हैं । पद्माकर ने भीख माँगने, गुदना
गुदवाने और दलाली की प्रथाओं के प्रचलन
का संकेत किया है (पद्माभरण, छंद
९२, प्रकीर्णक, छंद ७३, ४४) । 'जगद्विनोद' (छंद
१४०) में ससुराल की रीति-नीति की सीख
दी गयी है कि नवविवाहिता को सखियों
से प्रेम और सौतों से प्रेम की बातें
करना चाहिए । ससुराल की सीख देने
का रिवाज विदागीतों में आया है, जो,
उस समय प्रचलित थे । पद्माभरण (छंद
२७५) में एक वैवाहिक रीति 'कंकन छोरने'
का उल्लेख इस प्रकार है-'सियकंकन को
छोरबो, धनुस तोरबो नाहिं', जोकि
इस जनपद के एक लोकगीत से मिलता-जुलता
है-'जो नइयाँ धनुस को टोरबो,
कठिन गाँठ कंकन छोरबो ।' पद्माकर
ने दोहद (पद्माभरण, छंद १६१) और
छिरद (हठ) मिटाने की रीति का भी वर्णन
किया है । अतिथि-सत्कार हैतु 'मिजमानी'
का प्रचलन था (पारिछत-रायसा, छंद
२४७, २८१) । पुनरु त्थान युग १८५७
ई. के स्वतंत्रता-संग्राम ने इस अंचल
को एक नयी आचार-चेतना से भर दिया
था । अंग्रेजों के
दमन से दबा सारा आक्रोश जहाँ एक ओर
साहित्य के ओजमय सृजन में फूटा,
वहाँ दूसरी ओर समाज के सुधार
में बदला । इस अंचल में रियासतें अधिक
थीं, जिन्हें अंग्रेजों ने पूरी तरह गुलाम
बना दिया था । वे सेना तक नहीं रख
सकते थे, क्योंकि संधियों के अनुसार
रक्षा का भार अंग्रेज सरकार पर था । अंग्रंजों
की कूटनीति ने झगड़ों
के बीज बो दिये थे, जिनसे भ्रष्ट आचारों
के अंकुर फूटना स्वाभाविक था । न्याय
का तराजू अंग्रेजों के हाथ में था, जिससे
राजाओं में फूट फैल गयी थी । रायबहादूर,
सवाई महेन्द्र, जी. सी. आई. ई. आदि
पदवियों के लोभ में चापलूसी और
प्रदर्शन की होड़ बढ़ गयी थी । मूल्यों
की गिरावट और आपसी कलह की निराशाजनक
परिस्थिति तथा आर्यसमाज (१८७५ ई०) और
इंडियन नेशनल कांग्रेस (१८८५ ई.) की
स्थापना के साथ यूरोपिय ज्ञान की
लहर ने एक नया सामाजिक चेतना की
उठान पैदा कर दी थी । लेकिन गाँव का
लोक अपने लोकाचारों से बँधा
रहा और उसमें
परिवर्तन तभी आया, जब गाँवों के कवियों-इसुरी,
ख्याली, भुजबल आदि ने लोककविता
के द्वारा अपने गाँवों को जगाया । जागरण
की यह मानसिकता उन्नीसवीं शती के अंतिम
चरण और बीसवीं शती के प्रथम चरण
में बनी रही । इस युग के
साहित्य से तीन दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट
हैं । पहली है, पहले के लोकाचारों
का ज्यों-का-त्यों अनुसरण, जो सभी ग्रंथों
में मिलता है । चरखारीनरेश गंगासिंह
देव द्वारा प्रकाशित 'विवाह गीतावली'
में वैवाहिक रीतियों-बना (दूल्हा)
की नजर-निछावर, लगुन, सीधौ (सामग्री)
छूना, करैया धरना, धोबा धोना, छेईमाटी,
मड़वा गड़ना, चीकट उतरना, कन्हर लेना,
मायनौ, मटयानौ, मैर कौ पानी भरना,
कंकन पूरना, राछ फिरना, निकासी, टीका,
चढ़ायो, सुहाग लेना, कन्यादान, भाँवर,
लहकौर, पैगत में गारी देना, कुँवर
कलेऊ, दैनी (दायजौ) सोंपना, बंद
खोलना, विदा, देवता-पूजन, कंकन छोरना,
मौंचाइनो आदि का समावेश है । प्रकट
है कि रुढियों का पालन हो रहा था,
पर कुछ प्रथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा
था । लोककवि कहता है-
० सुनियो
रे सब हितू गाँव के यह अनरीत
मिटाओ मोरे लाल ।
जथासक्ति से वरकन्या कौ सुख से
ब्याव कराओ मोरे लाल ।। ०
प्रीत सहित बहु गीत रच, मेंटी
ब्याह कुरीत । अनरीत और कुरीत
रोकना इस युग की दूसरी प्रवृत्ति थी
। इसीलिए लोककवियों ने कुरीतियों,
कुप्रथाओं आदि के यथार्थ-चित्रण की तीसरी
दिशा अपनाई थी । ईसुरी ने अपनी फागों
में तत्कालीन छोटी-बड़ी समस्याओं का
भी संकेत किया था । बाल-विवाह, अनमेल
विवाह, दहेज आदि प्रथाओं पर लोकगीत
रचे गये थे । 'नादान सैयाँ' और 'बूढ़े
बालमा' तथा 'पढ़ लई अंगरेजी नयी
फैसन बनाई' के लोकगीत कुप्रथाओं
और कुरीतियों के विरोध में
बहुत प्रचलित थे । यहाँ तक कि अंग्रेजों
के प्रभाव से जन्मी नयी कुरीतियों का
भी मुखर विरोध था । फागकारों ने
एक ओर श्रृंगारिक फागों से प्रेम-भावना
के सहजमुक्त रुप को व्यक्त कर रुढ़ीबद्ध
कविता के खिलाफ क्रांति की थी और दूसरी
ओर समाज की भ्रष्ट रीतियों, प्रथाओं
और लोकाचारों पर चुटीली चोटें
करते हुए सुधारवादी चेतना को जगाया
था । असल में लोक स्वयं लोकाचारों
के चयन की स्थिति में था, इसीलिए लोककवियों
ने अपने गीतों में कुरीतियों, कुप्रथाओं
और भ्रष्ट आचारों का पर्दाफाश किया
है । कुछ उदाहरण पर्याप्त हैं- कैसी
छाई हिये नादानी, करत, सदा मनमानी
।
खीर खाँड़ को पिंड खाँय खाँ देत
बनाकर सानी ।
ढोर समान मान पित्रन को देत तलइयन
पानी ।
जियत
पिता की बात न पूछी मरें भये बरदानी
।
'बलदेव' तजो पोप लीला कों तुम
सें कहत बखानी ।।
बुढ़ापे में बब्बा ने कर लई सगाई,
मोरी उमर नसाई । असल में, इस अंचल
पर आर्यसमाजी आंदोलन का प्रभाव
ही नहीं था, वरन् उसके साथ
रियासतों में आमंत्रित विद्वानों के
कार्यकलाप भी थे । राजाओं की शक्ति कम
हो गयी थी, इसलिए वे प्रजा को खुश
रखने के लिए नये-नये रुपों की खोज
करते थे, जिनमें एक महत्त्वपूर्ण भागीदारी
विद्वानों और साहित्यकारों की थी ।
हर रियासत में राजकवि और राजपुरोहित
के अलावा दूसरे विद्वान्, साहित्यकार
और कवि रखने का चलन था । इन्हीं कारणों
से सुधार की लहर अंचल के भीतरी
भागों तक पहुँची थी । उसी के साथ जुड़ी
थी-राष्ट्रीय चेतना की भावना, जिसने
एक अंदरुनी उफान ला दिया था । आधुनिक
काल राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त की क्रांतिकारी कृति
'भारत-भारती' में लोकाचारों की क्रांति
के लिए एक जोरदार अपील की गयी है,
क्योंकि कवि ने वर्तमान लोकाचारों
को करीब से देखा है-"हिन्दू समाज
कुरीतियों का केन्द्र जा सकता कहा । ध्रुव
धर्म पथ में कुप्रथा का जाल-सा है बिछ
रहा ।" और "प्रचीन हों कि नवीन
छोड़ों रुढियाँ जो हों बुरी । बनकर
विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी
।" इसी प्रकार लोककवियों ने भी
'अनरीत' की ओर संकेत किये हैं और
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में उनसे जन्मी पीड़ा
व्यक्त की है अथवा उनसे दूर रहने की
चाहना दर्शायी है । एक दीवारी गीत
देखें-
"कन्या दये ती धन दये, नईं कूँख
दये कर बाँझ ।
कन्या बड़री आपदा, दुई-दुई धका
सहे न जायँ ।।"
इस युग में कुछ लोकाचार रुढियों
के रुप में यंत्रवत् अनुसरित होते
हैं, जैसे भाँवरों के फेरे । उन्हें वर
या वधू समझने की कोशिश नहीं करते
। कुछ कहीं-कहीं लोकप्रचलित हैं और
अन्यत्र अप्रचलित, जैसे-फगुआ लेना । रुपकुँवरि
की रचना 'भजनमाला' (गीत सं.७७), 'वृषभानविनोद'
(वृषभानकुँचरि, गीत सं.६७) और 'रतनमाला'
(रतनकुँवरि, गीत सं. २५१) में 'फगुआ'
के वर्णन से स्पष्ट हे कि रियासतों
के राजसी वर्ग में उसका प्रचलन रहा
हा, लेकिन अन्य वर्गों में नहीं के बराबर
है । कुछ लोकाचार समाप्त हो गये
हैं अथवा समाप्ति की कगार पर हैं, जैसे
नवजात शिशु को सूपा पर लिटाना
('रसिक बिहार', सुजान कुँवरि, बधाई-१),
बलि देना ('लक्ष्मीबाई रासो) मदनेश
पृ. १५, छंद २६), श्रीफल यानी नीरियल की
बलि (वही, पृ. ३७, छंद २१) आदि में प्रथम
दो तो समाप्तप्राय हैं, पर अंतिम आज
तक प्रचलित है । बहरहाल, लोकाचारों
के बदलाव की दिशा पर ध्यान रखने
की जरुरत है । कुछ विशिष्ट लोकाचार इस जनपद की पारिवारिक
रीतियों में एक विशिष्ट रीति है-पुत्री
के चरण छूकर नारी को सम्मानित करना
। आयु में छोटी होने पर भी पिता,
माँ, दादा, दादी और सभी जेठे-बड़े
इस परिपाटी का पालन आज तक कर
रहे हैं । बड़ा भाई अपनी छोटी
बहिन के चरण स्पर्श करता है । पहले
तो इतनी मान्यता थी कि जिस घर,
मुहल्ले या गाँव में पुत्री ब्याही
हो, उस जगह का जल तक ग्रहण नहीं किया
जाता था । इस समय भी बहुत से पिता
पुत्री की ससुराल का अन्न-जल तक नहीं
छूते । धीरे-धीरे इस रीति में बदलाव
आ रहा है, जिसके अनुसार पिता या
बड़े अन्न-जल लेते हैं, तो उसके बदले
में उसके मूल्य का डेवढ़ा-दूना रुपया
दे देते हैं और चरण-स्पर्श करते
हैं । इस रीति के कारण ही दामाद और
बहनोई भी पूज्य बन गये हैं । विवाह-संस्कार
की कुछ रीतियाँ भी अद्भुत हैं । जैसे
सुदकरा जाने के बाद कन्यापक्ष का अन्त्येष्टि
आदि अशुभ कार्यों में सम्मिलित न
होना, वर-वधू का कुएँ, तालाब, नदी
आदि में स्नान करने न जाना, विवाह की
सामग्री को पूजा के पहले न छूना आदि
वर्जनाएँ ग्रामों में आज भी प्रचलित
हैं । घर के आँगन
में चौक पूर कर उस पर विवाह-सामग्री
('जिन्स' अर्थात् दाल-चावल आदि
) रखकर पूजन करने को 'सीदौ छूना' कहा जाता है ।
मिट्टी, ईंधन और कढ़ाई भी पूजी
जाती है । 'छेई
माटी' में 'छेई-पूजन'
उस माटी का पूजन है, जिसके चूल्हे और
परोथनी बनते हैं । ईंधन का पूजन 'अग्नि-देवता' का पूजन है और
'करइया'
(कढ़ाई) का 'साधबौ'
और 'सिराबौ'
भी उसी पूजन के अंग हैं । बुंदेली जनपद
में 'पूजन'
को 'होम
दैबो' कहा जाता है 'करइया सिराबे' में पाँच
'सुहागले'
की जाती हैं अर्थात् पाँच सुहागिन स्रियों
को चार-चार अठवाई और चार-चार
बरा दिये जाते हैं । 'करइया
साधबे' में एक देवलिया में 'राई-नौन' रखकर चूल्हे
की बगल में या पीछे छाप दी जाती
है 'तेल चढ़ाने' में 'तिलारियों'
(वर या कन्या की मामियाँ और भाभियाँ)
को न्यौता जाता है । उन्हैं भोजन कराया
जाता है । वे निर्धारित समय पर वर
या कन्या को घेर कर बैठ जाती हैं ।
पहले गणेश जी को तेल चढ़ाती हैं,
बाद में वर या कन्या को । तेल चढ़ाने
की क्रिया में मामी या भाभी अपने दोनों
हाथों के अँगुठे तेल में डुबोकर वर
या कन्या के चरणों, घुटनों और मस्तक
से स्पर्श कराती हैं । धीरे-धीरे
यह रीति भी समाप्ति की ओर बढ़
रही है । भोजन-संबंधी रीतियों में विशिष्ट है-विवाह की पंगत या ज्यौंनार के समय गारी गाना । स्रियाँ अटा पर चढ़कर वर के पिता, माता, फूफा, बहिन, बहनोई, मामा आदि पर व्यंग्यों से चोट करती हैं । गारियाँ गाने के लिए 'बुलौआ' कराया जाता है और गाने के बाद 'बुलौअ दिया' जाता है, जिसमें बताशे ही मिलते हैं । वर-पक्ष के 'समधी' फूफा या मामा एक तौलिया (कपड़े) में बताशे लाते हैं, जो ज्यौंनार प्रारम्भ होने के पहले ही 'गारियों के बताशा' कहकर कन्या पक्ष को पहुँचा दिये जाते हैं । 'बताशा पहुँचाना', गारियाँ सुनने की स्वीकृति ही है और गारी की गायिकाओं के लिए व्यंग्य-वचनों का मधुर प्रतिदान है । सामान्य रीतियों में अभी जो प्रचलित हैं, उनमें कुछ प्रमुख हैं-१, 'रसोई बनानेवाली स्रियाँ पहली रोटी गाय के लिए निकाल लेती हैं अथवा कन्या को 'अग्रासन' के रुप में देती हैं । २. तवे को चूल्हे से खाली (बिना रोटी या आटा) नहीं उतारा जाता । ३. किसी की मृत्यु होने पर शुद्धता के दिन बिना पकौड़ीवाली कढ़ी बनती है । ४. गर्म तवा पर पानी नहीं डाला जाता । कहा जाता है कि जल के छींटे पड़ने से भाई का खून छनक (कम) जाता है । रीति-रिवाजों
का संबंध उपयोगिता से जुड़ा रहता
है, तो वर्जनाओं का हानि से । अन्त्येष्टि
और तेरहवीं तक जो किया जाता है,
वैसा करना सामान्य जीवन में वर्जित
हो जाता है । उदाहरण के लिए, किसी
के यात्रा पर जाने के तुरंत बाद न तो
घर में झाडू लगायी जाती है या घर
धोया जाता है और न कोई स्नान करता
है । पानी, तेल व घी साथ-साथ नहीं ले
जाये जाते । कुछ निषेध अन्य हानियों
से संबंध रखते हैं, जैसे खाट पर जूते
पहिनकर नहीं चढ़ना चाहिए, रात में अदवान
नहीं कसते, दीपक मुँह से फूँककर
नहीं बुझाते आदि । इसी तरह कुछ निषेध
पहिचान के प्रतीक होते हैं, जैसे कन्याएँ
और बिधवाएँ न तो माँग भरती हैं
और न बिछिया पहनती हैं । बिधवाएँ
अलंकार धारण नहीं करतीं । गाँवों
में आज भी टोने-टोटके का रिवाज है । तंत्र-मंत्र पर विश्वास रखने वाले ग्रामवासी रोगों
को दूर करने, प्रसव-पीड़ा न होने और तुरंत प्रसव होने,
बच्चे को न लगने, बच्चा न होने आदि के लिए कुछ तंत्र-मंत्र
अथवा टोटका करते हैं । उनकी अपनी अलग रीतियाँ हैं, जो
हर अंचल में व्याप्त हैं । हर अंचल अपने लोक के अनुसार
उन्हें ढाल लेता है । उदाहरण के रुप में, 'आधी रात के मल्हार'
नामक गढ़पहरा की लोककथा में बड़े बेटे और बहू की बलि
एक अनोखे प्रकार से दी गयी है । अनावृष्टि से प्यास के कारण
जब लोग मरने लगे, तब लाखा बंजारे ने गन्धर्व के कथनानुसार
सोने का हिंडोला बनवाया और उसमें अपने बड़े बेटे और
बड़ी बहू को बैठाया तथा उनकी बलि दी । बलि पाकर तालाब
चारों दिशाओं से भर गया । बुंदेली
लोककथाओं में लोकाचारों का असूल्य
कोष भरा पड़ा है । दशारानी और व्रतकथाओं
में भी धर्म की आड़ में लोकाचार की
शिक्षा दी गयी है । इन सबमें एक विशिष्ट
सदाचार का माध्यम है-धर्म की बहिन,
माता, भाई और पिता मानना । 'लाल
की चोरी' नामक लोककथा में वजीर
का लड़का राजकुमारी को 'धर्म
की बहिन' और राजकुमारी डाकुओं
के सरदार को 'धर्म
का पिता' बनाकर एक क्रान्तिकारी परिवर्तन
करते हैं । 'धर्म
का पिता' बनने से डाकू डाकू नहीं
रह जाता । लोकाचार के प्रयोग में कुशलता
का सही उदाहरण जीवन के लिए उपयोगी
सिद्ध होता है । असल
में, कुलाचार में वैयक्तिकता का तत्त्व अधिक प्रभावी होता है,
इसीलिए एक कुल तक सीमित आचार अपनी उपयोगिता के कारण
कभी-कभी लोक के लिए अनुसरणीय बन जाते हैं । रघुकुल
की रीतियाँ अज तक समाज में आदर्श की प्रतिमान मानी जाती
हैं । जात्याचार एक विशेष
जाति की सम्पत्ति होते हैं, किन्तु अवसर आने पर पूरे अंचल
या देश के हो जाते
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५
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