श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
बृहत्
इतिहास की
योजना भेज
रहा हूँ। आपने
अपना नाम मथुरादास
रखने का संकल्प
किया है इससे
चिंतित हूँ।
प्राचीन युग
में एक सज्जन थे
जो गंगा जी
के पास जाते
थे तो गंगादास
नाम रख लेते
थे और जमुना
जी के पास जाकर
जमुनादास!
मगर हिंदी
कहावतों
में उन्हें अपयश
मिला है,
कदाचित् यह
हिंदीवालों
की ना-कद्रदानी
हो। इसीलिए
आपसे संकल्पबद्ध
लेने की सिफारिश
(संस्तुति?) कर
रहा हूँ।
आपके
पत्र से ऐसा
जान पड़ता है
कि विकेंद्रिकरण
का जो अर्थ आपने
लगाया है
हम लोग उसके
विरुद्ध जा रहे
है। मैं ऐसा
नहीं मानता।
आकुंचन में
ही करण की
प्रवृत्ति है।
प्रसारण विकेंद्रिकरण
की। दोनों समान
रुप से प्राण-धर्म
हैं। केवल
प्रसारण, केवल
विकिरण कोई
आदर्श नहीं
हो सकता
"दानाय संभृतार्थानाम्"
। कालिदास
का सही सुझाव
है। अर्थ-संग्रह
दान के लिए होना
चाहिए। परंतु
संग्रह दान
का पूर्ण रुप
है। विकेंद्रिकरण
जीवन के दान
पक्ष को अधिक
महत्त्व देने
का अन्दोलन है,
केंद्रिरण संचय
पक्ष को। मैं जब
केंद्रीकरण की
बात सोचता
हूँ तो उसके
साधन रुप को
मानकर ऐसा
करता हूँ।
आकुंचन के बिना
प्रसारण, संग्रह
के बिना दान,
केंद्रीकरण के
बिना विकेंद्रिकरण
मेरी समझ
में नहीं आता।
गलती कर सकता
हूँ इसलिए
आपकी सेवा
में निवेदित
कर दिया है
ताकि आप सुधार
लेंगे। मैं यह
कहता हूँ
कि संग्रह साधन
है, दान लक्ष्य
है। केंद्रीकरण
साधन है, विकेंद्रिकरण
लक्ष्य। शेष कुशल
है।
चि.
रामगोपाल
जी का काम कर
दिया था। यहाँ
आके पत्र भी लिख
दिया था। उनसे
कह दें।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी