श्रध्देय
पंडित जी,
प्रणाम!
लेख
मिला, पत्र भी।
धन्यवाद।
लेख पढ़ लिया।
सर्वत्र आपका
व्यक्तित्व स्पष्ट
हुआ है। पिछले
छियालीस
वर्षों का आपका
अनुभव बड़ा
ही मनोरंजक
है। ४६ वर्ष कम
नहीं होते।
ज़माना तेज़
भागता गया
है, आप अपनी
जगह डटे हैं।
इतने दिनों
में तो बनारसी
भी दिल्ली
वाला बन
सकता था। लेकिन
खैर।
मैं
इतने दिनों
से साहित्य
को अपनी आँखों
नहीं देख रहा
हूँ। मेरा
हिंदी साहित्य
से कुछ घनिष्ठ
सन् ३१-३२ से हुआ
है। उस समय
हिंदी अपने पैरों
पर खड़ी हो
चुकी थी। हिंदी
को राष्ट्रभाषा
स्वीकार कराने
के लिये तब
भी थोड़ा-बहुत
प्रमाणपत्र संग्रह
करने की प्रवृत्ति
थी, लेखतों
में तब भी
कुछ हीन्ता ग्रन्थि
बची हुई थी।
(अब भी क्या समाप्त
हो सकी है?)
परन्तु नवीण
प्राणों का स्पन्दन,
नवीन आलोक
की स्फूर्ति और
नवीन वैभव
की रंगीनी
उसमें प्रकट हो
चुकी थी। पहले
हिंदी वाला
सबकुछ होता
था। जो पत्रकार
था वह कवि
भी था, आलोचक
भी था, अनुवादक
भी था, कहानी
लेखक भी था
और भी बहुत
कुछ भी था धीरे-धीरे
हिंदी का क्षेत्र
व्यापक होता
गया। आपने तीव्र
महारथियों
के निधन की बात
लिखी है, द्विवेदी
जी, गणेश शंकर
जी और पद्मसिंह
शर्मा जी। पर
कई को भूल
गए हैं, सदा भूलते
रहे हैं। प्रेमचंद,
रामचंद्र शुक्ल,
प्रसाद, श्याम
सुंदरदास,
गौरीशंकर,
हीराचंद
ओझा, काशीप्रसाद
जायसवाल
अपने-अपने क्षेत्रों
में दिग्गज थे।
ये वे लोग
हैं जिन्होंने
हिंदी-लेखक
के चित्त से हीनता
ग्रंथि पर हथौड़े
मारे हैं। पहले
के लेखकों
के क्षेत्र सीमित
थे। बाद में
वह व्यापक
होता गया।
विश्वविद्यालयों
में, सरकार
में, कांग्रेस
में हिंदी के
प्रयोग का प्रश्न
अधिक ज्वलंत
होकर प्रकट
हुआ। ग्रंथ संपादन,
अध्यापन, शोध
आदि की नई दिशाएँ
दिखाई पड़ीं।
धीरे-धीरे
सारी समृद्ध
भाषाओं की
भाँति विशेषज्ञता
की माँग बढ़ती
गई। अभी और
बढ़ेगी। अब सभी
विषयों में,
विज्ञान और
यंत्र-कौशल
में भी, कूटनीति
और सैन्य संचालन
में बैंकिंग
और करेंसी
और में भी,
कानून और
प्रशासन में
भी, हिंदी हाथ
पैर पसार
रही है और
बड़ी दृढ़ती
और आत्मविश्वास
के साथ। देश
की अन्य भाषाओं
से और संसार
की समृद्ध भाषाओं
से वह खूब
ले रही है,
लेने की इच्छा
भी बड़ी तीव्र
है। मैं इससे
आनंदित होता
हूँ। पिछले
दस वर्षों
में जो हुआ
है केवल
हिंदी की भूख
का प्रमाण है।
उसकी पाचन-शक्ति
की परीक्षा हो
रही है। विश्वास
मानिए, हिंदी
लेखक शक्ति
संचय कर रहा
है। इस विस्तार
पर आपको अधिक
लिखना चाहिए
था।
बड़ी संस्थाओं
से मैं भी बहुत
आशा नहीं रखता।
केंद्रीकरण और
विकेंद्रीकरण
बड़े-बड़े शब्द
हैं। न यह अच्छा
है, न वह बुरा।
प्रश्न आदर्श का
है। मनुष्य
किस बात को
जीवन का चरम
मूल्य मानता
है-पैसे को,
आराम को, त्याग
को, संचय
को, प्रपंच को,
मुक्ति को? पिछले
दस वर्षों
में राजनीति
ने धर्मनीति
को धर दबोचा
है, तिकड़म
और कृतविद्यता
में संधर्ष
चल रहा है,
ईमानदारी
और लोकनीति
एक दूसरे से
भिड़ गई हैं।
यदि केंद्रिकरण
हो तो "त्यागाय
संभृतार्थानाम्
" का आदर्श भी
होना चाहिए।
त्याग को यदि
जीवन का चरितार्थता
माना जाय
तो पैसा संग्रह
करना भी दोष
नहीं है, माँग
को माना जाय
तो विकेंद्रीकरण
भी खतरा पैदा
कर देगा। बहराल,
मेरा मेरा
भी विश्वास
होता जा रहा
है कि बड़ी
संस्थाओं से
और कुछ भले
ही हो, साहित्य,
संस्कृति और
विद्या का कारोबार
नहीं चल सकता।
जहाँ कानून
मुख्य हो जाता
है, वहाँ
से मनुष्य
धीरे धीरे
हट जाता है।
देश की बड़ी
बड़ी संस्थाओं
में यही हो
रहा है। कानून
से ही सब
कुछ सुधार
लेने की होड़-सी
लगी है। कीचड़
से कीचड़ को
पोंछ देने की
रगड़ौवल
चल रही है।
मनुष्यता भौचक्की
है। आप बहुत
बड़े क्षेत्र में
रहते हैं। आपका
अनुभव भी
बड़ा है। मेरी
अल्प बुद्धि में
तो यही आता
है कि साहित्य
और विद्या के
लिये कानून
का प्रभुत्व घातक
है। संस्थाओं
मे जो दोष
हैं वे इसी
कारण हैं। मैं
उम्मीद करता
हूँ कि आप इस
पर और अधिक
विचार करेंगे।
टेक्स्टबुक सेलेक्शन
कमिटी आदि
सब लक्षण हैं,
खुद बीमारी
नहीं हैं। पठन
होगा तो
पाठ्यक्रम कैसे
नहीं होगा?
रोग गहराई
में है। बुखार
की गर्मी जमना
जी में स्नान
करके नहीं उतारी जा सकती।