वाराणसी वैभव

काशी की विभूतियाँ


  1. महर्षि अगस्त्य
  2. श्री धन्वंतरि
  3. महात्मा गौतम बुद्ध
  4. संत कबीर
  5. अघोराचार्य बाबा कानीराम
  6. वीरांगना लक्ष्मीबाई
  7. श्री पाणिनी
  8. श्री पार्श्वनाथ
  9. श्री पतञ्जलि
  10. संत रैदास
  11. स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
  12. श्री शंकराचार्य
  13. गोस्वामी तुलसीदास
  14. महर्षि वेदव्यास
  15. श्री वल्लभाचार्य

 

 

 

महर्षि अगस्त्य

वैैदिक ॠषि वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई अगस्त्य मुनि का जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (ईसा पूर्व ३०००) को काशी में हुआ था।  वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है।  इनकी पत्नी भगवती लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी।  देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की।  दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं।  भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है।

महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं।  जब इन्द्र ने वृत्तासुर को मार डाला, तब कालेय नामक दैत्यों ने ॠषि-मुनियों का संहार प्रारंभ कर दिया। दैत्य दिन में समुद्र में रहते और रात को जंगल में घुस कर ॠषि-मुनियों का उदरस्थ कर लेते थे।  उन्होंने वशिष्ठ, च्यवन, भरद्वाज जैसे ॠषियों को समाप्त कर दिया था।  अंत में समस्त देवतागण हार कर अगस्त्य ॠषि की शरण में आये।

अगस्त्य मुनि ने उनकी कथा-व्यथा सुनी और एक ही आचमन में समुद्र को पी लिया। फिर जब देवताओं ने कुछ दैत्यों का संहार किया तो कुछ दैत्य भाग कर पाताल चले गये।  एक अन्य कथा के अनुसार इन्द्र के पदच्युत होने के बाद राजा नहुष इन्द्र बने थे।  उन्होंने पदभार ग्रहण करते ही इन्द्राणी को अपनी पत्नी बनाने की चेष्टा की।  इन्द्राणी ने वृहस्पति जी से मंत्रणा की तो उन्होंने उन्हें एक ऐसी सवारी से आने की बात कि जिस पर अभी तक कोई सवार न हुआ हो।  नहुष मत्त तो हुआ ही था, उसने ॠषियों को अपनी सवारी ढोने के लिये बुलाया।  जब नहुष सवारी पर चढ़ गये तो हाथ में कोड़ा लेकर "सपं-सपं" (जल्दी चलो-जल्दी चलो) कहते हुए उन ॠषियों पर कोड़ा बरसाने लगे।  अगस्त्य ॠषि से यह देखा नहीं गया।  उन्होंने शाप दे कर नहुष को सपं बना दिया और इस प्रकार मदांध लोगों की आँखें खोल दी।

एक कथा राजा शङ्ख से संबंधित है।  सदा ध्यान में मग्न रहने वाले राजा शङ्ख के मन में भगवान् के दर्शन की उत्कंठा जगी।  वे दिन रात व्यथित रहने लगे।  तभी उन्हें एक सुमधुर स्वर सुनाई पड़ा।  "राजन! तुम शोक छोड़ दो।  तुम तो बहुत ही प्रिय लगते हो।  तुम्हारी ही तरह मुनि अगस्त्य भी मेरे दर्शन के लिए व्याकुल हैं और ब्रह्माजी के आदेश से वेंकटेश पर्वत पर त कर रहे हैं।  तुम भी वहीं जाकर मेरा भजन करो।  तुम्हें वहीं मेरे दर्शन होगें।"

महर्षि अगस्त्य उसी पर्वत की परिक्रमा कर रहे थे।  जब देवताओं और ॠषियों को पता चला कि भगवान् वहीं प्रकट होने वाले हैं तो वे भी वहाँ एकत्र हो गये।  इधर जब नियमित जप, तप और पूजन करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये और फिर भी नारायण के दर्शन नहीं हुए तो उनकी व्याकुलता बढ़ी। तभी बृहस्पति जी, शुक्राचार्य आदि ने आ कर कहा, 'भगवान ब्रह्मा ने हमें स्वामी पुष्करिणी के तट पर शङ्ख राजा के पास चलने के लिये कहा है।  वहीं श्री हरीजी के दर्शन होंगे।'

जब सब लोग अगस्त्य जी को लेकर राजा शङ्ख की कुटिया पर पहुँचे तो राजा ने सब की पूजा की।  बृहस्पति जी ने उन्हें ब्रह्माजी का सन्देश सुनाया।  राजा भगवान् के प्रेम में मग्न हो कर नाचने गाने लगा।  स्तुति, प्रार्थना तथा कीर्त्तन की अखंड धारा तीन दिन तक बहती रही।  तीसरे दिन रात्रि में सबने स्वप्न देखा जिसमें शङ्ख, चक्र, गदा-पद्मधारी, चतुर्भुज भगवाने के दर्शन किये।  प्रात: काल होते-होते सबको विश्वास हो गया कि आज भगवाने के दर्शन होंगे।  तभी एक अद्भुत तेज प्रकट हुआ। उस तेज में न ताप थ न उससे आँखे चौंधियाती थीं।  उनकी आकृति मनोहर होने पर भी भयंकर थी।  सब हर्ष के साथ उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् ने अगस्त्य जी से कहा, 'तुमने मेरे लिए बड़ा तप किया है, वरदान मांगो।' महर्षि अगस्त्य ने कहा, 'आप वेंकटेश पर्वत पर निवास करें और जो भी दर्शन करने आयें उनकी कामना पूर्ण करें।'  राजा ने भी वरदान में भक्ति ही मांगी।  भगवान की भक्ति के कारण उनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है।

एक बार की कथा है, विन्धय नामक पर्वत ने सुमेरु गिरि से ईर्ष्या कर अपनी वृद्धि से सूर्यनारायण का मार्ग रोक दिया।  बृहस्पति, निर्ॠति, वरुण, वायु, कुबेर और रुद्र प्रभृति देवताओं ने अगस्त्य ॠषि से विन्धय पर्वत का बढ़ना रोकने की प्रार्थना की।  महामुनि अगस्त्य ने 'तथास्तु' कहा।  'मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध कर्रूँगा"।  कह कर अगस्त्य मुनि ध्यानमग्न हो गये।  ध्यान के द्वारा विश्वनाथ का दर्शन कर वे लोपामुद्रा से बोले, 'जिस इन्द्र ने खेल ही खेल में समस्त पर्वतों के पंख काट डाले थे, वे आज अकेले विन्धय पर्वत का दपं दमन करने में क्यों कुंठित हो रहे हैं? आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, तुषितगण, मरुद्गण, विश्वेदेवगण जिनके दृष्टिपात् से ही चौदह भुवनों का पतन संभव है, क्या वे लोग इस पर्वत की वृद्धि रोकने में समर्थ नहीं है?  हाँ, कारण समझ में आया।  काशी के संबंध में मुनियों ने जो कहा है वह बात मुझे स्मरण हो रही है।  मुमुक्षगण काशी का परित्याग न करें अन्यथा वहाँ निवास करने वालों को अनेक विघ्न प्राप्त होते रहेंगे।'

फिर बार-बार असी नदी के जल का स्पर्श करते हुए अपने नेत्रों को लक्ष्य कर बोले, 'इस काशीपुरी को अच्छी तरह देख लो।  इसके अनंतर कहाँ तुम रहोगे और कहाँ यह काशी रहेगी?'  तभी मुनि ने देखा, आकाश मार्ग को रोक कर समुन्नत विन्ध्यगिरी उनकी ही ओर बढ़ रहा है।  अगस्त्य मुनि को सहधर्मिणी के साथ देख कर वह काँप उठा।  अत्यंत विनम्र हो कर बोला, 'मैं किंकर हूँ।  मुझे आज्ञा दे कर अनुग्रहीत करें।'  अगस्त्य ॠषि ने कहा, 'हे विज्ञ विन्ध्य! तुम सज्जन हो और मुझे अच्छी तरह जानते हो।  जब तक मैं लौट कर न आ तब तक इसी तरह झुके रहो।'  गिरि प्रसन्न था कि मुनि ने शाप नहीं दिया।  सचमुच, उसका तो पुनर्जन्म हो गया।  तभी सूर्यरथ के सारथी ने घोड़ों को हाँका और पृथ्वी पर सूर्य की किरणों का संचार पूर्ववत् होने लगा।  विन्ध्य पर्वत मुनि की बाट जोहता हुआ स्थिर भाव से झुक कर बैठा रहा।

अगस्त्य ॠषि की परम भक्ति को शतश: प्रणाम।

 

 

वाराणसी वैभव


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