परिव्राजक की डायरी

शहर में


शहरों में जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं, हथौड़ा चलाते हैं, कल-कारखानों में कार्य करते हैं, पृथ्वी का दोहन कर, लोहा, ताँबा और ऐसी अनेक धन-सम्पदाएँ निकाल लेते हैं । मैं शहर के उन लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ, जिन्होने क्षत्रिय और वैश्योचित वीरता दिखाकर पृथ्वी की छाती पर ईंट, पत्थर और लोहे के स्तूपों का निर्माण किया है । इसके अतिरिक्त भी ऐसे नगर या मुहल्ले हैं, जहाँ मनुष्य ईंटों के बिलों में किसी प्रकार गुज़र करता है । वास्तव में, मात्र पेट के लिए या समाज के बंधनों के कारण ही उसे उस बिल में बारहों मास छत्तीसों दिन रहना पड़ता है । शहर के ऐसे ही एक प्राचीन मुहल्ले में मैं डेरा खोजने निकला । अंतत: डेरा मिल भी गया । वहाँ जाने के लिए एक अत्यंत पतली गली थी, जहाँ घुसते ही कुड़े का ढेर और वर्षा के कीचड़ सनी गंदगी ने घृणित रुप बना रखा था । परन्तु डेरा फिर भी अच्छा था । निचला तला होने पर भी प्रकाश और हवा आते थे, कोलाहल भी नहीं था, अत: मुझे यह घर पसन्द आ गया । स्नान के लिए एक छोटा-सा कमरा था । मैंने मकान मालिक से पूछा, "पानी तो अच्छे से आता है न ?" उन्होंने कहा, "हाँ देखिएगा, बहुत तेज़ी से आता है । इतनी तेज़ी से कि एक बार में चार-चार पक्षी बह जाएँ" । अत: पानी के वेग के विषय में कोई आशंका नहीं रही । वहाँ के मकान मालिक बहुत अच्छे थे । दोष मात्र इतना ही था कि वे जब भी मिलते, अपने व्यवसाय के दुर्दिन के सम्बन्ध में बात करने बैठ जाते थे ।

इसी पतली गली में रह रहा हूँ । शाम को काम-काज समाप्त करके घर आने पर अच्छा नहीं लग रहा था । निकट वाले घर की छत के ऊपर से आकाश का एक भाग दिखाई पड़ता था । वहाँ पर सूर्यास्त की लाल आभा को देखकर मैं बाहर निकल पड़ा । वहाँ से कुछ ही दूरी पर गंगा का किनारा था । मैं उसी ओर जाने लगा । मैंने देखा और भी कई लोग उधर ही जा रहे थे । सड़क पर गाड़ी घोड़े की कोई विशेष भीड़ नहीं थी । मैंने देखा कि बहुत-से प्रसन्न गाय-बैलों ने मिलकर रास्ते पर क़ब्जा कर लिया है । उनमें कोई परम स्नेह में दूसरे का शरीर चाट रहा है तो कोई आँखें मूँदकर जबड़ काट रहा है । इसी बीच दो बछड़े अचानक बूढ़ों का दल छोड़कर अलग खड़े हो गये और सींग-विहीन माथा टिका कर एक-दूसरे से ठेला-ठेली करने लगे । वहीं किनारे रास्ते पर एक निरीह गधा खड़ा था । उधर स्कूल के कुछ बच्चे एक दस्ता कागज खरीदकर उसे मोड़कर पकड़े झुण्ड में घर लौट रहे थे । उन्होंने कागज के उस बंडल से गधे की पीठ पर दो-तीन बार चोट की, परन्तु गधा जैसा था, वैसे ही खड़ा रहा । प्रतिवाद स्वरुप उसने अपने दोनों कान भर हिलाये । फिर बच्चों का दल हँसते-हँसते चला गया ।

पश्चिमी आकाश की ओर तीन-चार तले वाले मकान और बिजली के खम्भों के ऊपर से होकर गुज़रते हुए बादलों के झुण्ड तथा सूर्यलोक की लाल आभा मुझे स्पष्ट दीख रही थी । जल में डुबकी लगाया हुआ व्यक्ति जिस प्रकार ऊपर की हवा के लिए हाँफ उठता है, उसी प्रकार हमारा मन भी इस ईंट और पत्थर के स्तूपों से मुक्ति पाने के लिए उद्वेलित होने लगा ।

अंतत: मैं गंगा के किनारे पहुँच गया । इतनी देर में दूर का ही सब दृश्य दिखाई दिया। सारा दिन आँखें रास्ते के दोनों ओर की दीवालों से टकराते हुए ही बीत गया । मैंने देखा, सभी कुछ पास की चीज़े हैं । मैं गंगा के तट पर आकर बैठ गया । दुर से सुदूर के अस्पष्ट दृश्य को देखकर आँखे धन्य हो गई । शायद वह किसी कारख़ाने की चिमनी है तभी तो दूर की वस्तु है । गंगा की छाती पर बहते जल में एक डोंगी बहती आ रही है । उसकी सीधी, शांत व धीमी गति से मेरा मन आनन्द से भर उठा । मैंने देखा केवल मैं ही नहीं, मेरे जैसे बहुत से लोग गंगा तट पर घूमने निकले हैं । कोई घाट की सीढ़ी पर बैठा है तो कोई एकटक गंगा की ओर निहार रहा है । उसके मुखमंडल पर आनन्द या निराशा कुछ भी नहीं है, बालकों की भाँति मात्र भोलापन है । कहीं पर छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ घाट की सीढ़ी पर चढ़ने-उतरने का खेल खेल रहे हैं । एक वृद्ध ख़ाली पैर कोट पहने जप कर रहे थे । मैं उन्हे गौर से देखने लगा । उनकी आँखें मुँदी थीं । माथे पर जल के बिन्दु से एक बूँद बहकर नाक के ऊपर स्थिर हो गया था और वे अपनी पतली अँगुलियों को चलाते हुए हाथ में माला लिए जप कर रहे थे । उनके हाथ ऐसे काँप रहे थे, मानों अंतर की वेदना से अधीर होकर वे शीघ्रता से जप-समापन का प्रयास कर रहे हों । मैं रुक-रुक कर देखने लगा । उनका जप समाप्त हुआ । तब भी वे आँखे मूँदे हुए ही चारों दिशाओं में घूमकर माथे तक हथेली ले जाकर देर तक प्रणाम करते रहे, मानों चारों दिशाओं के देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, रक्ष आदि सभी को संतुष्ट रखने के लिए वे उनकी आर्चना में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखना चाहते हों ।

ऊपर आकाश में प्रकाश कम होने लगा । पश्चिम में बादल के बहुत-से छोटे टुकड़ों पर लालिमा की क्षीण रेखा अभी भी बची हुई थी । आकाश में बिखरे बादलों के यह झुण्ड धीरे-धीरे एक प्रांत से दूसरे प्रांत की ओर बहता चला जा रहा था । उस ओर देखने पर वे बड़े विशाल और सुदूर लग रहे थे ।

मैं मनुष्य के सुख-दु:ख की बात भूल गया । मुझे लगा कि सभी व्यक्ति गंगा के तट पर मनष्य का संग छोड़कर प्रकृति का संग लेने आये हैं । पुराने घरों के फाट के पेड़ जमकर जिस प्रकार प्रकाश की ओर, आकाश के सम्मुख अपनी गर्दन बढ़ा देते हैं, वैसे ही ये सब भी बचने का प्रयास कर रहे हैं । कोई प्रकृति के शांत, सुन्दर रुप को तो कोई उसके विस्तृत और विशाल रुप को पूज रहा है तथा कोई अंतर्वेदना के आघात से आँखे मुँदकर ऋदय में बसे कल्पना के देवता को प्रतिष्ठित करने के प्रयास में अपनी पतली अंगुलिया चला रहा है । मेरा मन तो शांत हो गया, परन्तु उस वृद्ध के प्रति मैं मन के एक कोने में विषाद लेकर लौट आया।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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