परिव्राजक की डायरी

वसन्त


रेल से यात्रा कर रहा हूँ । सुबह मैंने छोटा नागपुर की असमतल भूमि देखी । फैले हुए खेत मानों ऊँचे-नीचे होकर छूटते चले जा रहे हों । बीच-बीच में सुन्दर पहाड़ियाँ हैं जो पहले की दिखती हैं, परन्तु रेल की तीव्र गति के कारण प्रत्येक क्षण अपना रुप बदलती हैं । अंतत: जब हम दूर चले जाते हैं, तब उनका रुप और अधिक नहीं बदलता । सफ़ेद रंग उत्तरोत्तर निष्प्रभ हो जाता है । रेल की बेंच पर बैठा मैं यह सारा दृश्य देख रहा हूँ ।

छोटी-छोटी नदियों के पुल के ऊपर से रेलगाड़ी शब्द करते हुए चल रही है । नदी में जल नहीं है । वैशाख की तेज धूप में बालू और पत्थर बाहर निकल आये हैं । ग्रामीण स्रियाँ लाल किनारे की सफ़ेद साड़ी पहनकर बालू को खोदकर कलसी में जल भरकर ले जा रही हैं। जुते हुए खेत पर भैंस का कृशकाय बच्चा चरने के लिए निकला है । पानी नहीं है, घास नहीं है, उसका रंग भी फीका है । लगता है पृथ्वी पूर्ण रुप से मानों मलिन हो गई है ।

परन्तु साथ-साथ प्रकृति का एक और भी रुप प्रकट हुआ है । पलास के पेड़ पर नये पत्ते आये हैं । साल का पेड़ भी नये पत्रों से भरा गया है । बहुत-से पेड़ों पर सफ़ेद-सफेद फूलों के गुच्छे शोभा बढ़ा रहे हैं । गाँव में गुलमोहर की डालियों पर मानों आग लग गई हो । खेत पर खेत, गाँव पर गाँव पार करते हुए हमारी रेलगाड़ी चलती ही जा रही है । वसंत के हरे पत्रों ने जैसे हमारे मन को ही रँग दिया हो । चरवाहे बच्चे दौड़ते हुए आकर रेल लाइन के पास खड़े हो गये । उनमें से एक ने अश्लील हरकत करते हुए, यात्रियों को खिजाया । दो-चार बच्चे हाथ पकड़कर कोलाहल करते हुए हम लोगों को बुलाने लगे । एक ऊँघते बच्चे को रेल दिखाने लाई स्री ने उसके गाल को खींचकर प्रसन्न मन से उसे दुलार किया । गतिमान वस्तु सभी को अच्छी लगती है । गति से सभी को प्रेम होता है । उसका स्पर्श सभी व्यक्तियों के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है । जो बालक अश्लील हरकर कर रहा था, उसकी बात सोचकर मैं मन-ही-मन हँस पड़ा ।

रेलगाड़ी अपने पथ पर तेज़ी से चली जा रही है । मैंने खेतों के बीच अकेले खड़े साल के एक पुराने वृक्ष को देखा । उसका वृद्ध, परन्तु बलिष्ठ शरीर काल के आघात से स्वतंत्र भाव से नहीं बढ़ पाया । उसमें जगह-जगह पर गाँठें पड़ गई है । शरीर का रंग काला पड़ गया है। वर्षों के शीत और गर्मी ने उसे मलिन कर दिया है । परन्तु इस शरीर की सम्पूर्ण जीर्णता की उपेक्षा कर उसकी प्रत्येक डाल पर हर रंग के पत्ते का दीप प्रज्वलित हो उठा है । उस रंग के प्रभाव से मानों वृक्ष का अंत:स्थल पर्यन्त आनन्द से सिहर उठा है । बीते हुए ठंड के दिनों ने उसे संकुचित करके रखा था । लम्बे जीवन के भार ने क्षण भर के लिए उसके ऋदय के मानों पंगु बना दिया था, परन्तु वसंत के अंत व वैशाख के आगमन से उसकी समस्त ग्लानि जैसे धुल-पुँछ गई हो ।

यही तो वसंत की वाणी है । दिन की धूल से जब हमारा ऋदय धुसरित हो जाएगा तो उसकी मलिनता को दूर करने वसंत फिर आएगा । जीवन में पुन: नव-पल्लव समारोह दिखाई देगा, अंतरतम में वही ध्वनि मुझे आज भी सुनाई पड़ रही है ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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