परिव्राजक की डायरी |
घाउताल ओराँव |
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मध्य
प्रदेश में सरगुजा और यशपुर नामक
दो समीपवर्ती ज़िले हैं । उसके समीप
ही बिहार प्रदेश में पलामू ज़िले के
कई परगने घने जंगलों से आच्छादित
हैं । वृक्षों में साल, शीशम, चीड़ आदि
जैसे पेड़ अधिक हैं, इसके अतिरिक्त फैली
हुई पहाड़ियों पर कहीं-कहीं केवल
बाँस के वन ही दिखाई देते हैं । जिस
पहाड़ पर बाँस का वन होता है,
वहाँ की मिट्टी पर अधिक घना जंगल
नहीं रहता । बाँस की झाड़ के नीचे का
स्थान प्रायः साफ ही रहता है, केवल
बाँस के सूखे पत्ते ही पड़े रहते
हैं । साल के वन के नीचे झाड़ अधिक
रहते हैं । हाथ में धारदार फरसा
न होने पर रास्ते में चलते समय क़दम-क़दम
पर कठिनाई का सामना करना पड़ता
है ।
इन सभी जंगलों में जीव-जन्तुओं
का एक-एक इलाका होता है । पहाड़ और
जंगलों के बीच-बीच में छोटे-छोटे
नदी नाले प्रायः ही दिखते हैं । बाघ जंगल
के भीतर घूमते-फिरते रहते हुए
भी नदी के आस-पास ही रहते हैं । बाघ
बहुत सफ़ाई पसन्द जानवब होता
है । जिस तरह पिंजरा लगाया जाता
है, वह उस ओर नहीं जाता । सूअर अथवा
हरिण मारकर खाने के बाद बाघ नदी
के बहते जल में गले तक डूबकर काफ़ी
देर तक विश्राम करता है । अतः बाघ
इस नदी के आस-पास ही घुमता-फिरता
रहता है । हिरण बाघ के इस स्वभाव
से परिचित है, इसलिए वन में वह
अपेक्षाकृत ऊँची घास वाली ज़मीन पर
नि:शब्द होकर भ्रमण करता है ।
जीव-जन्तुओं के चलने से जंगल में
कितने ही रास्ते बन जाते हैं । खेत में
मनुष्यों के चलने से जिस प्रकार घास
के मरने पर एक निशान बन जाता है,
जंगल मे भी ऐसे ही निशान बन जाते
हैं । दोनों तरफ़ ऊँची घास और उसके
बीच से होकर एक रेखा दिखाई पड़ती
है । यहाँ पर सभी घास एक ओर झुककर
नीची हो जाती हैं । ये घास मर जाती
हैं इसलिए बढ़ती नहीं ।
इस तरह के जंगलों के बीच-बीच
मे लोग रहते हैं । दो कोस, तीन कोस
की दूरी पर एक-एक पहाड़ी गाँव है । लोग
सुविधानुसार एक रास्ता बना लेते
हैं, नहीं तो जंगल में जीव जन्तुओं द्वारा
बनाये गये रास्ते को और अधिक सरल
और प्रशस्त कर लेते हैं । पलामू ज़िले
में जो लोग इन वनों में रहे हैं,
वे लोग मुख्यतः खेती से गुज़ारा करते
हैं । जंगली हाथी, भैंसे, हरिण और
सूअरों आदि से फ़सलों की रक्षा करने
के लिए इन्हें यथेष्ट प्रयास करने पड़ते
हैं । घरों के चारों ओर अथवा गाय गोशाले
या तबेले के चारों ओर ये ऊँचे
साल के वृक्षों की बाड़ बनाकर रहते
हैं । खेतों मे फ़सलों की रक्षा बाड़ से
भी नहीं हो पाती है । हमेशा सतर्क
होकर पहरा देना पड़ता है । किसान
ऊँचा मचान बनाकर इसमें सोते
हैं और पेड़ पर चारों ओर टिन का
एक-एक कनस्तर और लाठी बाँधकर रखते
हैं । इन सभी लाठियों के साथ की रस्सी
एक जगह पर बँधी होती है, जिससे
मचान पर लेटे-लेटे ही इसे खींचने
पर पेड़ पर चारों ओर टँगे कनस्तर
एक साथ बज उठते हें । रात में हरिण आदि
इससे ड़रकर भाग जाते हैं ।
वन्य जन्तुओं से इस प्रकार सतत युद्ध
करके पहाड़ी लोग बचे रहते हैं । पहाड़
में अनेक जातियाँ रहती हैं । उनके बीच
ओराँव एक विशिष्ट जाति है । पलामू
ज़िले में एक बार घाउताल ओराँव नाम
के एक व्यक्ति से मेरी बातचीत हुई
थी । घाउताल उस गाँव का विशिष्ट व धनी
गृहस्थ था । उसके अपने बहुत से गाय,
भैंस व खेत थे । घाउताल देखने में
लम्बा-चौड़ा नहीं था, परन्तु उसके शरीर
में काफ़ी बल था । उसकी आयु साठ से
भी अधिक हो गई थी, फिर भी वह कुल्हाड़ी
के एक आघात से साल के तीन-चार इंच
मोटी लकड़ी को चीर सकता था, जिसे
चीरने में सामान्य व्यक्ति को चार बार
चोट करनी पड़ती थी ।
घाउताल अधिक नहीं बोलता था । उसकी
चाल लगभग भालू की चाल के समान
थी । थोड़ा हिलते-डुलते या हाथ को
झुलाते हुए वह वन के रास्ते आया-जाया
करता था । उसे किसी प्रकार का भय भी
था, यह कहने की इच्छा नहीं होती । एक
दिन जंगल की एक ख़बर लेने के लिए उसे
भेजा गया था । उस वर्ष जंगल में पिछले
साल हाथियों का एक छोटा दल आया था
। इस वर्ष भी उनके वहाँ आने से शिकार
की असुविधा हो जायेगी,
यही सोचकर घाउताल को वहाँ
भेजा गया था । दो दिन के लिए खाने का
सामान बाँधकर बिना कुछ बोले घाउताल
अकेले ही उस घने जंगल की ओर रवाना
हो गया । रास्ते के एक गाँव से मनबाहाल
नामक एक अन्य शिकारी को भी बुलाकर
लाने की बात थी ।
तीसरे दिन घाउताल के लौटने पर
मनबाहाल ने उसके कार्य-कलाप का वृत्तान्त
सुनाया। मनबाहाल ने कहा - पिछली
रात उन्होंने जिस स्थान पर आश्रय लिया
था, वहाँ पास ही एक सँकरी गुफा के
अंधकार में उन्हें चमकती हुई एक जोड़ी
आँखें दिखीं । मनबाहाल कुछ डर गया
था, परन्तु घाउताल बिना किसी भय के
घुटनों के बल चलते हुए गुफा के अन्दर
घुस गया । कुछ देर तक आगे-पीछे
होने के बाद घाउताल बाहर निकल
आया, जबकि जानवर अत्यंत भय से ऊर्ध्व
श्वास लेते हुए भाग खड़ा हुआ । तब दिखाई
दिया कि वह कोई भयावह जीव नहीं,
बल्कि साही मात्र था ।
जो भी हो, मनबाहाल जब बात
कर रहा था, उस समय घाउताल बैठकर
धीरे-धीरे हँस रहा था । पूछने पर
वह बोला कि उसके डरने का कोई
भी कारण नहीं था, क्योंकि जानवर यदि
चीता या बाघ भी होता तब भी अंधकार
में ऐसी स्थिति में पड़कर कुछ भी नहीं
कर पाता। कुछ कर नहीं पाता, यह बात
सच है, परन्तु निरापद जानकर भी कितने
लोग इस प्रकार से भय छोड़कर अड़ जाते
हैं ?
हम लोग जिस आत्मीय के साथ पलासू
के जंगलों में गये थे, वे एक अच्छे शिकारी
के रुप मे चर्चित हैं । एक दिन शिकार के
समय घाउताल भी साथ था । ऐसे व्यक्ति
की असावधानी से एक बाघ गोली खाकर
आहत होकर भाग गया । जंगल में बाघ
को ज़ख्मी करके छोड़ देना शिकारियों
की रीति नहीं है । ऐसी अवस्था में जानवर
अत्यधिक हिंस्त्र हो जाता है और मनुष्य
को देखकर बिना अनिष्ट किये नहीं छोड़ता
।
अतः आहत बाघ को मारने के लिए
शिकारियों के दल ने उसका पीछा करने
का निश्चय किया । योजना बन जाने पर
भी किसी को साहस नहीं हो रहा था
। दो-एक बंदूक़धारी आगे बढ़े एवं घाउताल
हाथ के टाँगी को दृढ़तापूर्वक पकड़कर
उनके साथ चल पड़ा। आहत बाघ के रक्त और
पद-चिन्ह को देखकर यह निश्चित
हो गया कि उसे पेट या छाती पर गोली
नहीं लगी है, मात्र एक पैर टूट गया
है ।
जंगल के भीतर से होकर बाघ के
पद-चिन्ह का अनुसरण करते हुए जाना
असाधारण दक्षता की बात है । जाते समय
शिकारियों ने घाउताल से पूछा, "घाउताल,
यदि बाघ अचानक आ जाता है तो तुम
भागोगे नहीं न ?" घाउताल बोला,
"बाबू, यह कैसे हो सकता है ? तुम
और हम दोनों पूरब की और
मुहँ करके जा रहे हैं । यदि बाघ आता
है तो तुम्हारा मुँह पूरब की ओर
होगा और मेरा मुँह पश्चिम की ओर
होगा । यह कैसे हो सकता है ?"
घंटों बाद देखा कि पत्थरों के
बहुत सारे बड़े टुकड़ों की ओट में
बाघ ने आश्रय लिया है । एकाएक वहाँ
जाना कठिन है । बाघ किस पत्थर की ओट
में है, यह ठीक से पता न होने के कारण
शिकारियों के लिए विपत्ति की सम्भावना
थी । जब सभी वैसे ही इधर-उधर कर
रहे थे, तब घाउताल ने सामने एक छोटे
पेड़ को देखकर कहा, "मैं वहाँ जाकर
ऊपर चढ़ता हूँ, मुझे देखकर बाघ
कूदकर जैसे ही झुरमुट से
बाहर आयेगा, आप लोग उसे मार दीजिएगा
।"
उसने जैसा कहा, वैसा ही किया ।
पेड़ के पास जाकर घाउताल सावधानीपूर्वक
पेड़ पर चढ़ने लगा । कुछ हाथ चढ़ने पर
उसने बाघ को देखा और साथ ही
वह अँगुली दिखाकर चिल्ला उठा । तब
भी वह इतना ऊपर नहीं चढ़ा था कि
बाघ उसे नहीं पकड़ सकता । फिर भी उसे
शिकारियों पर बहुत विश्वास था ।
यही समझकर उसने ऐसे दु:साहस का
कार्य किया । बाघ उसकी आवाज़ सुनते
ही तेज़ी से उसकी ओर कूद पड़ा, इसके
साथ ही वह शिकारी की गोली से भयानक
रुप से घायल होकर फिर गिर पड़ा
।
थोड़ी ही देर में वह मर गया ।
तब हम लोग कुछ लोगों की सहायता
से बाघ को तम्बू में ले गये । शाम
को तम्बू में आग के पास बैठकर
हम बातें कर रहे थे । इसी समय मैंने
घाउताल से पूछा, "तुम लोग हर समय
ऐसी विपत्तियों के बीच क्यों रहते
हो ? जंगल से बाहर किसी गाँव में
रहना ही तो अच्छा होता है, जहाँ पर
भय रहित होकर खेती-बाड़ी की जा
सके।" हमारी बात पर घाउताल ने
हँसकर प्रश्न किया, "बाबू तुम्हारे
वहाँ पर क्या मनुष्य मरते नहीं
है ?" मुझे भी तो हँसना पड़, परन्तु इसका कोई ठीक उत्तर मैं नहीं खोज पाया । |
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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